Society | जन्मदिन

जिन्ना को उनकी मातृभाषा सिखाने का सवाल महात्मा गांधी के लिए इतना अहम क्यों हो गया था?

सत्य की लड़ाई में किसी भी मोर्चे पर महात्मा गांधी कभी इतने कमजोर नहीं पड़े थे जितने वे जिन्ना के मामले में पड़े

अव्यक्त | 25 December 2021

यदि महात्मा गांधी के जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक विफलता पूछी जाए, तो वह भारत विभाजन के प्रश्न पर मुहम्मद अली जिन्ना को राजी नहीं कर पाना ही कही जाएगी. 1944 में जब इस प्रश्न पर गांधी और जिन्ना की बातचीत पूरी तरह विफल होने के कगार पर आ चुकी थी, तब गांधी ने राजनीति के बजाय मानवीय भाईचारे वाले संबंध से काम लेना चाहा था. लेकिन गांधी की वह पहल और अपील भी जिन्ना के कठोर हृदय को पिघला न सकी थी.

वह ईद का दिन था. 23 सितंबर, 1944 का दिन. महात्मा गांधी ने उस दिन जिन्ना को दो पत्र लिखे थे. पहले पत्र में लिखा –

‘भाई जिन्ना,

आज आपको क्या भेजूं, मैं यह सोच रहा था. मैंने सोचा कि मेरे खाने के लिए जो खाखरा बनता है उसमें से यदि आधा भाग आप दोनों भाई-बहन (फातिमा जिन्ना) को भेजूं तो यह मेरे जैसे लोगों को शोभा देगा. तो यह रहा वह आधा भाग. मुझे उम्मीद है कि इसे प्रेम की भेंट समझकर आप अवश्य खाएंगे.

ईद मुबारक.

मो. क. गांधी की ओर से.’

यह तो मालूम नहीं कि मुहम्मद अली जिन्ना और फातिमा जिन्ना ने खाखरे का वह आधा हिस्सा खाया था या नहीं, लेकिन उनका कोई आत्मीयतापूर्वक लिखा गया जवाबी पत्र आज उपलब्ध नहीं है. इससे पता चलता है कि जिन्ना ने गांधी की इस भावपूर्ण अभिव्यक्ति को भी कोई तवज्जो नहीं दी थी.

जिन्ना उमर में गांधी से केवल सात साल छोटे थे. 1907 के पहले से ही दोनों के बीच परिचय का पता हमें चलता है. 22 फरवरी, 1908 को गांधीजी द्वारा ‘इंडियन ओपिनियन’ में लिखे गए एक लेख से हमें यह भी पता चलता है कि हिंदू-मुसलमान के बीच फूट के प्रश्न पर जिन्ना का रवैया संभवतः तब भी कोई प्रेम, सद्भाव और एकता वाला नहीं था. गांधी उस समय दक्षिण अफ्रीका में ही थे और वहां अपने सत्याग्रह आंदोलनों को लेकर प्रसिद्धि पा चुके थे. उस दौरान जब ‘एशियाई पंजीयन अधिनियम’ के खिलाफ वहां सत्याग्रह शुरू हुआ, तो हाजी वजीर अली नाम के एक मुसलमानों के नेता ने प्रीवी कौंसिल के सदस्य सैयद अमीर अली को चिट्ठी में गांधी के बारे में लिखा था – ‘गांधी के सत्याग्रह से मेरे हजारों सहधर्मी, जो सबके सब व्यापारी हैं, न कि हिन्दुओं की तरह अधिकांशतः फेरीवाले, बर्बाद हो जाएंगे.’

जिन्ना भी उसी समय से हिंदू-मुस्लिम प्रश्नों में दिलचस्पी ले रहे थे और ‘सत्याग्रह’ जैसे तरीकों को शक की निगाह से देखते थे. दक्षिण अफ्रीका में शुरू हुई हिंदू-मुस्लिम राजनीति के बारे में जिन्ना को भी वहां से तार भेजा गया था. गांधी ने हाजी वजीर अली के बयान को ‘जहरी’ (विषैला) करार दिया था. फरवरी 1908 के अपने लेख में गांधी ने लिखा था –

‘जब सत्याग्रह जोरों पर था, तब वजीर अली मेरे हिंदू होने के कारण मुझपर पूरा-पूरा विश्वास नहीं कर सके. …इस समय कई मुसलमानों ने श्री जिन्ना के नाम तार करने की बात सोची थी और अंत में पठानों ने तो तार किया भी. …श्री जिन्ना से मैं परिचित हूं और उन्हें आदर भाव से देखता हूं.’ गांधी ने आगे लिखा था- ‘(गांधी ने मुसलमानों का सत्यानाश कर दिया) ऐसा कहने वाले मैं समझता हूं कि बहुत थोड़े ही हैं. ज्यादातर मुसलमान समझते हैं और जानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में हिन्दू और मुसलमान एक ही हैं और उन्हें एक होकर ही रहना चाहिए. …इसलिए मैं अपने मुसलमान भाइयों को चेतावनी देता हूं कि ऐसी बात कहकर जो झगड़ा करवाना चाहते हैं उनको कौम का दुश्मन समझें और उनकी बात न सुनें. हिंदू भाइयों से मैं कहता हूं कि जो कौम के बैरी हों ऐसे कुछ मुसलमान चाहे जैसा बोलें, फिर भी उसको मन में न लाकर हम सबको एक ही होकर रहना है. …उलटकर जवाब न दें. झगड़ा दोष ड्योढ़ा किए बिना पैदा नहीं होता.’

कहने का मतलब यह कि गांधी और जिन्ना के परिचय और संबंधों में पहले से ही हिंदू-मुसलमान वाली राजनीति हावी थी, और गांधी चाहते थे कि हिंदू-मुसलमानों के बीच फूट पैदा करने की किसी भी कोशिश का डटकर मुकाबला किया जाए. गांधी ने जिन्ना के व्यक्तित्व को जब ठीक से समझने की कोशिश की, तो उन्हें यह भी लगा था कि अपने सांस्कृतिक संदर्भों और अपनी मातृभाषा से पूरी तरह कटे होने के कारण भी जिन्ना की राजनीतिक परिपक्वता में कमी हो सकती है. इसलिए उन्होंने इस बात के लिए पुरजोर प्रयास किया था कि जिन्ना अपनी मातृभाषा गुजराती अवश्य सीखें.

चार नवंबर, 1917 को गोधरा में गुजरात राजनीतिक परिषद् की बैठक चल रही थी. गांधीजी और तिलक के साथ-साथ जिन्ना भी इस बैठक में भाग ले रहे थे. गांधीजी के अनुरोध पर जिन्ना ने सुधारों के लिए कांग्रेस-लीग योजना संबंधी प्रस्ताव अंग्रेजी में न पेश करके गुजराती में पेश किया. इसपर गांधीजी ने उसी सभा में कहा था- ‘श्री जिन्ना ने मेरे सुझाव को मानकर मुझ पर उपकार किया है. आज ये शाही विधान परिषद् के सदस्य हैं. लेकिन कल इन्हें हिंदू, मुसलमान, घांची, गोला आदि अंग्रेजी न जाननेवाले लोगों के पास वोट मांगने के लिए जाना पड़ेगा. इसलिए यदि इन्हें गुजराती न आती हो, तो सीखनी चाहिए.’

28 जून, 1919 को जिन्ना-दंपति के लंदन प्रवास के दौरान गांधी जिन्ना को एक पत्र लिखते हैं. इस पत्र में गांधी फिर से जिन्ना को गुजराती सीखने का वादा याद दिलाते हैं – ‘मुझसे तो आप वादा कर ही चुके हैं कि आप जल्दी-से-जल्दी हिंदी और गुजराती सीख लेंगे. तो क्या मैं यह सुझाव दूं कि मैकाले की तरह आप वापसी यात्रा में यह काम कर डालें? आपको जहाज की यात्रा में मैकाले की तरह छह महीने का समय तो नहीं मिलेगा, परंतु आपको उस कठिनाई का भी सामना नहीं करना होगा जिसका उन्हें करना पड़ा था.’

यह सोचना दिलचस्प हो सकता है कि भाषा के प्रश्न पर मैकाले से यह तुलना क्या गांधीजी ने जान-बूझकर किसी गहरे निहितार्थ की वजह से की होगी. इतना ही नहीं 30 अप्रैल, 1920 को मुहम्मद अली जिन्ना की पत्नी रतनबाई पेटिट (मरियम जिन्ना) को पत्र में गांधी लिखते हैं – ‘जिन्ना साहब को मेरी याद दिला दीजिए और उन्हें हिन्दुस्तानी या गुजराती सीखने के लिए राजी कीजिए. आपकी जगह मैं होऊं तो उनके साथ हिन्दुस्तानी या गुजराती में ही बोलना शुरू कर दूं. इसमें ऐसा कोई खतरा नहीं है कि आप अंग्रेजी भूल जाएंगी या दोनों एक दूसरे की बात समझ न पाएंगे. है ऐसा कोई खतरा? क्या आप यह कर सकेंगी? और मैं तो आपका मेरे प्रति जो स्नेह है उसके कारण भी आपसे ऐसा करने का अनुरोध करूंगा.’

पता नहीं कि जिन्ना के प्रति गांधी का यह प्रयास भी सफल हुआ था या नहीं. क्योंकि अंग्रेजी और पश्चिमी रंग-ढ़ंग के प्रति जिन्ना का लगाव इतना था कि मरण-शैया पर भी उन्होंने पायजामा पहनने से इन्कार कर दिया था. गांधी और जिन्ना नेतृत्व की दो अलग-अलग प्रवृत्तियां दिखाई पड़ती थी. दोनों ही राजनीति और संस्कृति के दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखाई देते थे. एक बड़ा अंतर और भी था कि गांधी के भीतर विनम्रता थी. झुकने का आत्मविश्वास था. विश्वास पैदा करने का जज्बा था. एकतरफा और बिना शर्त प्रेम करने की उदारता थी. लेकिन गांधी की यह सारी चेष्टा जिन्ना के भीतर लेशमात्र भी अपनापा पैदा न कर सकी. जिन्ना मुखर रूप से सत्याग्रह जैसे अहिंसक तरीके को तो ‘राजनीतिक अराजकता’ करार देते रहे. वहीं ‘सीधी कार्रवाई’ जैसे हिंसक तरीके और खूनी धमकी को जिन्ना अपनी राजनीतिक सफलता मानते रहे होंगे.

आज जिन्ना को फिर से भारतीय राजनीति में इस्तेमाल करने की कोशिश हो रही है. एएमयू में लटकी जिन्ना की किसी महत्वहीन सी फोटो के जरिए राष्ट्रवादी मुसलमानों की निष्ठा पर सवाल उठाए जा रहे हैं. या फिर कुछ मूढ़मति मुस्लिमवादी नौजवानों की कट्टरता की वजह से भारत के राष्ट्रवादी मुसलमानों को भी घेरने की कुत्सित चेष्टा की जा रही है. ऐसे में गांधी-जिन्ना वार्ता के विफल होने के बाद का एक प्रसंग याद आता है. 28 सितंबर, 1944 को गांधी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित कर रहे थे. तभी किसी पत्रकार ने गांधी से कहा- ‘कुछ राष्ट्रवादी मुसलमान महसूस करते हैं कि महात्मा गांधी के जरिए कांग्रेस ने जिन्ना से मिलकर राष्ट्रवादी मुसलमानों को विषम स्थिति में डाल दिया है, और शायद उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति अपने दृष्टिकोण को बदलना होगा.’

इसके जवाब में गांधी ने दो-टूक शब्दों में कहा था- ‘मैं राष्ट्रवादी हूं, लेकिन किसी को खुश करने के विचार से राष्ट्रवादी नहीं हूं, बल्कि इसलिए हूं कि इसके अलावा मैं कुछ और हो ही नहीं सकता. और यदि मैं क़ायदे-आज़म जिन्ना के पास गया हूं तो स्वयं अपने, राष्ट्रवादी मुसलमानों और अन्य राष्ट्रवादियों के समान हितों की खातिर गया हूं. जहां तक मैं जानता हूं, राष्ट्रवादी मुसलमान मेरे क़ायदे-आज़म से मिलने जाने की बात पर प्रसन्न हुए थे और इस विश्वास के साथ एक उचित समाधान की अपेक्षा कर रहे थे कि वे जिन हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं उन्हें मैं बेचूंगा नहीं. बेशक, एक राष्ट्रवादी मुसलमान राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन वह उन मुसलमानों का प्रतिनिधित्व भी करता है जो राष्ट्र के अंग हैं. यदि वह मुसलमानों के हितों की बलि देता है तो वह विश्वासघात का दोषी होगा. लेकिन मेरे राष्ट्रवाद ने मुझे यह सिखाया है कि यदि मैं एक भी भारतीय के हितों की बलि देता हूं तो मैं विश्वसाघात का दोषी होऊंगा.’

ऐसा कहा था गांधी ने. और गांधी की यह बात आज भी भारत के मुसलमानों के लिए और हम सबके लिए बड़े काम की है. हमें समझना होगा कि किसी भी ‘हिंदू हित’ या ‘मुस्लिम हित’ को परस्पर-विरोधी बताने या सांप्रदायिक नज़रिए से पेश करने से जिस हित की भयानक दूरगामी क्षति होती है, वह ‘भारतीय हित’ और ‘मानवीय हित’ की ही होती है. अब हमें चुनना है कि हम किस हित की राजनीति को फलने-फूलने का अवसर देते हैं.

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022