महात्मा गांधी ने आज़ाद भारत में जिन पुलिस सुधारों का सपना देखा था, दुर्भाग्य की बात है कि वे अभी तक सपना ही बने हुए हैं
अव्यक्त | 02 October 2021 | फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के आधार पर कुछ समय पहले एक रिपोर्ट आई थी कि 2009 से 2015 के दौरान भारत में पुलिस फायरिंग से औसतन हर सप्ताह दो लोग मारे गए. 2015 के बाद भी भारत में पुलिस फायरिंग की कई बड़ी घटनाएं हुई हैं जिनमें अक्टूबर, 2016 में झारखंड के हजारीबाग में पांच किसानों की मौत और जून, 2017 में मध्य प्रदेश के मंदसौर में छह किसानों की मौत शामिल है. फिर 2018 में तमिलनाडु का मामला आया जहां तूतिकोरिन में पुलिस फायरिंग से 11 लोगों की मौत हुई. वहीं, 2020 में पूर्वी दिल्ली में भड़की हिंसा के दौरान दिल्ली पुलिस अपनी भूमिका को लेकर सवालों के घेरे में रही तो यूपी पुलिस विकास दुबे एनकाउंटर को लेकर. इन दिनों मनीष गुप्ता मर्डर केस को चेलते यूपी पुलिस की पहले से ही धूमिल छवि तो अब अधिक अस्पष्ट और कुछ हद तक डरावनी ही दिखाई देने लगी है.
ऐसा अक्सर कहा जाता है कि भारत की पुलिस अभी भी उपनिवेशकालीन मानसिकता से ही ग्रसित है. एक हद तक यह इसलिए सच भी है कि अभी भी भारत की पुलिस 1861 के पुलिस अधिनियम से ही संचालित होती है. मानवाधिकारों के हनन की संभावना और अधिकारों के दुरुपयोग की गुंजाइश इसमें अप्रत्यक्ष रूप से बची हुई है. ऐसे में सवाल उठता है कि ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय पुलिस के कार्य करने का तरीका कैसा था और भारत के आज़ाद होने पर क्या तत्काल इसके रवैये में कोई परिवर्तन देखने को मिला था?
असहयोग आंदोलन के दौरान तत्कालीन भारत की पुलिस बहुत बदनाम हुई थी. जबकि पुलिस के जवान भारतीय ही होते थे. इसका एक उदाहरण उस दौरान जबलपुर से निकलने वाली ‘कर्मवीर’ पत्रिका के संपादक माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा कोर्ट में दिए गए बयान में देखा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था- ‘पुलिस की एक टुकड़ी ने गांव पर धावा बोला, लोगों को यातनाएं दी, उनके मुंह पर थूका, ठोकरें मारी, उन्हें गिरफ्तार करके उनके साथ दुर्व्यवहार किया, कई दिन तक उन्हें भूखा रखा, और अंत में महिलाओं के साथ बलात्कार किया.’
महात्मा गांधी ने 13 जुलाई, 1921 को ‘यंग इंडिया’ में माखनलाल चतुर्वेदी के इस बयान को छापा था और दोषी अधिकारियों पर मुकदमा न चलाए जाने पर आश्चर्य जताया था. लगभग उसी दौरान पुलिस के चरित्र के बारे में खुद पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी का एक दिलचस्प बयान आया. अखिल भारतीय पुलिस कान्फ्रेंस के अध्यक्ष पूर्णचन्द्र विश्वास ने कहा था- ‘यहां भारत में कानून सरकार द्वारा बनाए गए हैं. पुलिस की इतनी बदनामी का एक कारण यह है कि हम इन कानूनों को लागू करते हैं… अप्रिय तो कानून हैं, पुलिस नहीं. हमारा कसूर सिर्फ यह है कि हमें इन अप्रिय कानूनों को अमल में लाना होता है. हमारे आचरण-नियम और हमारे अफसरों का रवैया जनता से हमारे अलगाव को और बढ़ाता है… मैं एकदम कह सकता हूं कि हमारा कसूर सिवाय इसके कुछ नहीं है कि हम इस बदनाम विभाग से संबंध रखते हैं और हमारे अफसर और हमारे आचरण-नियम जनता और हमारे बीच की खाई को और चौड़ा करते हैं.’
26 जनवरी, 1922 को गांधीजी ने इस पुलिस अधिकारी के बयान को ‘यंग इंडिया’ में छापते हुए यह टिप्पणी की – ‘इसमें संदेह नहीं कि भारत में पुलिस बदनाम है. दमन की आजकल की क्रूर कार्रवाइयों से यह बदनामी शायद और बढ़ी है. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुलिस सरकार के हाथ का महज एक हथियार है.’ भारत की आज़ादी से लगभग दो महीने पहले पांच जून, 1947 को कॉलेज के विद्यार्थियों से बातचीत करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था – ‘अगर मेरा वश चलता तो मैं सेना और पुलिस में बुनियादी सुधार से शुरुआत करता. …इंग्लैंड में पुलिस को लोग अपना सर्वश्रेष्ठ मित्र, सहायक और कर्तव्य-भावना का मूर्तरूप समझते हैं, मगर भारत में पुलिस को आम आदमी खौफनाक और अत्याचारी समझता है.’
महात्मा गांधी ने आज़ाद भारत में जिन पुलिस सुधारों का सपना देखा था, वे अभी तक सपना ही बने हुए हैं. कई आयोग बने, रिपोर्टें आईं, मॉडल पुलिस कानून की रूपरेखा तक तय की गई, सर्वोच्च न्यायालय में पुलिस सुधार को लेकर जनहित याचिकाएं दायर हुईं, फैसले और दिशा-निर्देश भी आए. लेकिन वास्तविकता में कुछ भी न हो सका. वास्तव में किसी भी सभ्य लोकतंत्र का स्वास्थ्य का वहां की पुलिस के रवैये ही चलता है .क्योंकि पुलिस-व्यवस्था कानून के राज से लेकर नागरिक अधिकार और मानव अधिकार के प्रश्नों से सीधे-सीधे जुड़ी होती है. पुलिस विभाग को जन-प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी बनाने का उद्देश्य भी यही था. लेकिन राजनीतिक नैतिकता का ज्यों-ज्यों क्षरण हुआ, वैसे-वैसे पुलिस को राजनीतिक हथियार के रूप में खुले तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा. जो बात गांधीजी ने 1922 में कही थी कि ‘हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुलिस सरकार के हाथ का महज एक हथियार है.’ वह आज और भी प्रकट रूप से सबके सामने घटित होता हुआ दिखाई देता है, लेकिन हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं.
पुलिस में जनोन्मुखता और सेवा-भावना भरने के लिए विशेष प्रशिक्षण देने की बात की जाती है. उनकी कार्यदशा में सुधार की बात की जाती है. लेकिन यह सब वास्तव में असल मुद्दे से ध्यान भटकाने की कोशिश भर रह जाती है. आज की पुलिस-व्यवस्था स्वयं ही इस अलोकतांत्रिक राजनीतिक-कुसंस्कृति का शिकार हो चुकी है. उसका स्वतंत्रताबोध, आत्मविश्वास और मनोबल टूट चुका है. ट्रांसफर, पनिशमेंट पोस्टिंग और निलंबन से लेकर सीनियरों द्वारा मातहतों के शोषण तक की घटनाएं आम हो चुकी हैं. एक ऐसी राजनीतिक अर्थव्यवस्था काम करने लगी है, जिसमें उगाही से लेकर तरक्की तक के तयशुदा नियम बन चुकने की बात कही जा रही है. पुलिस के भी धर्म, जाति, रसूख और दलीय निष्ठा के आधार पर काम करने की बात सामने आने लगी है. फेक एनकाउंटर जैसी संविधानेतर कृत्य को छूट देने की बात सामने आती रही हैं.
एफआईआर दर्ज की जाए या नहीं, या इन्वेस्टिगेशन किस दृष्टिकोण से किया जाए, यह सब कुछ राजनीतिक आधार पर तय हो रहा है, न कि कानून के राज और न्याय दिलाने की प्रतिबद्धता के आधार पर. कौन सी धारा लगाई जाए, अभियुक्त के रूप में किसे नामजद किया जाए और किसका नाम हटाया जाए. साक्ष्य, गवाह और बयान के साथ किस प्रकार सुविधाजनक छेड़छाड़ की जाए, यह सब राजनीतिक आधार पर तय होने लगा है.
हिरासत में उत्पीड़न और मौत की खबरें तो आती ही रहती हैं. पिछले साल ही एक रिपोर्ट आई थी कि 2010 से 2015 के दौरान भारतीय पुलिस की हिरासत में 591 विचाराधीन कैदियों की मौत हो गई. इनमें से कुछ मौतें स्वाभाविक भी हो सकती हैं, लेकिन बाकी मौतों के बारे में क्या कहेंगे? जांच का काम राज्य पुलिस के हाथों से निकलकर सीबीआई के हाथों में जाने के बाद अचानक ही सारी कहानी बदल जाती है. पुलिस विभाग स्वयं इस राजनीति का इस कदर शिकार हो चुका है कि अलग-अलग स्तर के कर्मचारियों में अलग-अलग प्रकार का असंतोष विस्फोटक रूप लेने के कगार पर रहता है. लेकिन एक छद्म-अनुशासन के नाम पर सबकुछ ढका हुआ है और काम चलाया जा रहा है.
इसलिए भारत में पुलिस-सुधार कार्मिक प्रशिक्षण के माध्यम से आध्यात्मिक और नैतिक चरित्र-सुधार का कार्यक्रम बनाकर नहीं किया जा सकता. यह आवश्यक रूप से एक पॉलिटिकल-इकॉनॉमी की समस्या बन चुकी है. इसलिए इसके लिए राजनीतिक इच्छा-शक्ति की आवश्यकता है. पुलिस के नैतिक आत्मबल को नष्ट और भ्रष्ट करने में राजनीति ने भी बड़ी नकारात्मक भूमिका निभाई है, इसलिए नैतिकता और चरित्र-सुधार की आवश्यकता राजनीति में पहले जरूरी हो गई लगती है. इसके अलावा एक लोकतांत्रिक राज्य के पुलिस कानून के आधार पर एक ऐसा फुल-प्रूफ सिस्टम भी जरूरी है जिसमें चेक और बैलेंस की पर्याप्त व्यवस्था मौजूद हो. लेकिन ऐसा कानून और ऐसी व्यवस्था लाएंगे कौन? लोकतंत्र-मात्र के लिए संघर्ष करनेवाले नैतिक-आत्मबल से भरे हुए निःस्वार्थ राजनेताओं का घोर अकाल हो चला है. इस प्रसंग में डॉ राममनोहर लोहिया से जुड़ा एक प्रसंग उल्लेखनीय है.
11 अगस्त, 1954 को दक्षिण-त्रावणकोर में तमिल-भाषी लोग एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे. उनकी मांग थी कि त्रावणकोर-कोचीन के तमिल बहुल हिस्से को मद्रास राज्य में शामिल किया जाए. इन प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग की जिससे चार लोगों की मौत हो गई और एक दर्जन से अधिक लोग घायल हो गए. उस समय त्रावणकोर में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा) की ही सरकार थी. मुख्यमंत्री थे – पट्टम ताणु पिल्लै. प्रसोपा के महासचिव डॉ लोहिया खुद ही जेल में थे. यूपी में सिंचाई-जल कर (नहर रेट) बढ़ाने के खिलाफ सिविल नाफरमानी की वजह से यूपी सरकार ने उन्हें फर्रूखाबाद में गिरफ़्तार कर लिया था. लोहिया ने जेल से अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री पट्टम ताणु पिल्लै को टेलीग्राम भेजा और कहा कि न्यायिक जांच बैठाइये और खुद इस्तीफा दीजिए.
रिहा होने के बाद 28 अगस्त, 1954 को इलाहाबाद में लोहिया ने कहा- ‘आज़ाद भारत की सरकारों को चाहिए कि वह आम भारतीयों के जीवन की भी कीमत समझे, न कि उनपर गोली चलाए और उन्हें कीड़े-मकोड़े की तरह मार डाले.’ लोहिया का आगे कहना था – ‘आज़ाद भारत में ऐसा कैसे हो सकता है कि पुलिस अपने ही लोगों पर, निहत्थे और निरीह लोगों पर गोलियां चलाए?’
प्रसोपा ने जयप्रकाश नारायण से कहा कि वे इस घटना के खिलाफ एक ड्राफ्ट-प्रस्ताव तैयार करें. जेपी ने अपने प्रस्ताव में मिलती-जुलती मांगें रखीं. लेकिन अंतिम प्रस्ताव में मुख्यमंत्री के इस्तीफे वाली बात पर अस्पष्टता रह गई. पुलिस-फायरिंग के मुद्दे पर मुख्यमंत्री के इस्तीफे वाली मांग को न तो खुद मुख्यमंत्री ने स्वीकारा और न ही पार्टी के चेयरमैन आचार्य कृपलानी ने. लोहिया जैसे अक्खड़ गांधीवादी सिद्धांतों के पक्के थे. उन्होंने पार्टी छोड़ दी. इसके अगले साल 31 दिसंबर, 1955 और एक जनवरी, 1956 के दौरान उन्होंने नई पार्टी ‘सोशलिस्ट पार्टी’ की स्थापना की. एक लाख किसानों के साथ प्रदर्शन किया. ‘मैनकाइंड’ नाम की पत्रिका निकालनी शुरू की.
तो एक तरफ किसी जमाने में लोहिया जैसे लोग हमारे बीच थे! पुलिस-फायरिंग की घटना पर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री से इस्तीफा मांगते थे. अपने ही नेताओं के खिलाफ न्यायिक जांच की मांग करते थे. और जनता के साथ अन्याय होते देख पार्टी और पद को लात मार देते थे. और आज उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और अब तमिलनाडु समेत लगभग सभी राज्यों की सरकारें और पुलिस आज़ाद भारत के नागरिकों को कीड़े-मकोड़ों से अधिक नहीं समझती. धनशालियों का दरबान बनकर खड़ी सरकारें और पुलिस किसानों, आदिवासियों, महिलाओं और जनसामान्य को जब चाहे लाठी से पीटती है और गोलियां दागती हैं. गांधी और लोहिया का नाम जपनेवाली पार्टियां और उनके नेता आज क्या कर रहे हैं, वह हमसे छिपा तो नहीं ही है.
(यह लेख पूर्व पत्रकार और गांधीवादी चिंतक अव्यक्त द्वारा कुछ समय पहले लिखे गए एक आलेख का संपादित संस्करण है.)
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