कोविड-19 के प्रकोप ने व्यापक समाज को, जिनमें कलाकार-समुदाय भी शामिल है, बंदिशों का आदी बना दिया है
अशोक वाजपेयी | 06 फरवरी 2022 | फोटो: पिक्साबे
गांधी-व्याप्ति
हम ऐसे भयानक कृतघ्न समय में रह रहे हैं जहां एक अत्यन्त संदिग्ध हिन्दू धर्मनेता खुलेआम महात्मा गांधी को हरामी कहकर गाली देता है. ठीक उसी समय संयोग से मैं बीसवीं शताब्दी के पश्चिम में महान कवि माने जानेवाले पुर्तगाली फार्नान्दो पैसौआ की हज़ार पृष्ठ लम्बी जीवनी पढ़ रहा हूं जिसमें एक पूरा अध्याय गांधी जी पर है: दक्षिण अफ्रीका के शहर डरबन में गांधी जी पर, जहां उस समय यह तरुण कवि भी था. पैसोआ से हम कविता-रसिकों का पहला परिचय बरसों पहले उन की गद्यपुस्तक ‘बेचैनी की किताब’ से हुआ था. बाद में उनकी चार अलग-अलग नामों से लिखी गयी कविताओं से. पर इनमें से किसी ने हमें इस सचाई से अवगत नहीं कराया था कि पैसोआ पर गांधी जी का प्रभाव पड़ा था. यह गांधी जी की पश्चिमी साहित्य में सर्वथा अप्रत्याशित व्यापित का एक प्रमाण भर है.
जीवनीकार रिचर्ड ज़ेनिथ ने डरबन में गांधी जी के इर्दगिर्द हो रही घटनाओं, उनके आंदोलन, उन पर रस्किन और ताल्स्ताय के विचारों के प्रभाव आदि का विवेचन करते हुए यह तथ्य भी नोट किया है कि पुर्तगाल का कांसुलर दफ़्तर डरबन में जिस सड़क था उसी पर उससे कुछ दूर गांधी जी का दफ़्तर था. पर इसका कोई प्रमाण नहीं है कि वहां रहते पैसोआ ने उनको देखा या उनके द्वारा निकाले जा रहे अख़बार ‘दि इण्डियन ओपिनियन’ को देखा-पढ़ा होगा. लेकिन बाद में पिछली सदी के तीसरे दशक के मध्य में पुर्तगाली कवि ने पोरबन्दर के इस आदमी पर एक निबन्ध लिखने की योजना बनायी, जो उनकी ऐसी अन्य योजनाओं की तरह, कभी पूरी नहीं हो पायी. जो उन्होंने थोड़ा सा लिखा उसमें यह वाक्य है: ‘आज की दुनिया में महात्मा गांधी ही एक मात्र ऐसी हस्ती हैं जो सचमुच महान् हैं. और यह सही है क्योंकि, एक अर्थ में, वे इस दुनिया के नहीं हैं और उसे अस्वीकार करते हैं.’ आगे जाकर पैसोआ गांधी जी के विनय, तपस्विता और संयम का बखान करते हुए कहते हैं ‘उनका उदात्त उदाहरण हमारी इच्छा-शक्ति की दुर्बलता के चलते किसी फ़ायदे का नहीं है और हमारे दुचित्तेपन को शर्मनाक बनाता है.’ इस अधलिखे निबन्ध में वे महानता के कई और उदाहरणों को, जैसे अमरीकी कार-निर्माता हेनरी फ़ोर्ड और फ्रेंच राजनेता जार्ज क्लीमेन्सो को, जिसने प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस को विजय दिलायी थी, सिरे से ख़ारिज़ करते हैं और उन्हें ‘निरा कचरा’ क़रार देते हैं.
पैसोआ न शाकाहारी थे, वे शराब और सिगरेट जमकर पीते थे. फिर भी, वे गांधी जी की ही तरह ब्रह्मचर्य का पालन करते रहे. दोनों ही यह मानते थे कि सत्य और मुक्ति पर किसी समुदाय या धर्मविशेष का एकाधिकार नहीं हो सकता, न होना चाहिये. लेकिन गांधी जी की तरह किसी सामाजिक या राजनैतिक लक्ष्य के लिए वे कभी सक्रिय नहीं हुए. वे भी इस दुनिया के नहीं थे, सिर्फ़ साहित्य ही उनका देश था. दोनों का अपने-अपने क्षेत्र में मिशनरी क़िस्म का उत्साह था. उन दिनों डरबन में कई जातियों और धर्मों के लोग रहते थे और इस अनुभव ने दोनों को ही इस अवधारणा की ओर उत्प्रेरित किया होगा कि सत्य उतना ही विविध होता है जितना उसका पालन करनेवाले लोग विविध होते हैं.
जीवनीकार एक अन्य अध्याय में उल्लेख करते हैं कि अप्रैल 1905 में उत्तर भारत की कांगड़ा घाटी में भयानक भूकम्प आया था जिसमें बीस हज़ार से अधिक लोग मारे गये थे. गांधी जी ने ‘दि इंडियन ओपिनियन’ अख़बार में राहत के लिए अभियान चलाया था. पैसोआ की प्रतिक्रिया मानवीय न होकर साहित्यिक थी. उन्होंने एक कहानी गढ़ी जिसमें भूकम्प कई नामी-गिरामी नागरिकों का जीवन समाप्त कर देता है, एक सामान्यतः शान्त शहर में.
दुओदुओ की कविता
1951 में जन्मे चीनी कवि दुओदुओ अपना यह नाम अपनी अकालमृत बेटी के नाम पर रखा. वे पिछली सदी के आखि़री दशक में पश्चिम में रहे और 2004 से अपने देश चीन में रहते हैं. उनकी कविता न तो समझने में आसान है, न अनुवाद में. उन्होंने अपनी काव्यभाषा चालू भाषा की पुनर्रचना कर गढ़ी है. उनके अंग्रेज़ी अनुवादों का एक संचयन येल यूनीवर्सिटी प्रेस से इसी वर्ष आया है: नाम है ‘वर्ड्स एज़ ग्रेन’ और अनुवादक हैं लूकास क्लाइन. मैंने पहले उनका नाम नहीं सुना था. पर इन दिनों उनका पिछले वर्ष ही प्रकाशित यह संग्रह पढ़ रहा हूं और उनके जटिल काव्य-स्थापत्य से जूझ रहा हूं. 2012 में याने लगभग दस वर्ष पहले लिखी गयी दो कविताओं के झटपटिया अनुवाद हिन्दी में नीचे प्रस्तुत हैं:
शब्दों में घर नहीं
नाम नहीं, क़ब्र नहीं, घर नहीं
नामहीन गाया जाता हुआ नामहीन से
और उसमें जोड़ो आवाज़ नहीं
शान्त पर तेज़
आकाश पल भर के लिए खुलता है
गहरे मौन की गहराइयों पर लहरें
पहले से उभार पर
उठो अपना सामना करो
तारे मानवीय आंखें जैसे/मानव तेल-लैम्पों जैसे
दरवाज़े के पार हज़ार बरस का सिलीवट
हृदय रख नहीं सकता एक सदी
जब लुहार की काया ऐंठती है
वह देख सकता है आज
झमेला अब भी है भट्टी में
गणचिह्नों के लिए मूरतों का न गढ़ा जाना
मनस्वी का सिर झुका है भट्टी की ओर
मातृभूमियों के लिए चेहरों पर कोई आवरण नहीं
सूक्तियां सिर्फ़ आग में विलीन
लेकिन परती पार जा सकती है सुई के छेद से
वापस स्मृति के दरवाज़े पर, अनियोजित पर निश्चित
अब भी बड़ा मातम है, बड़े पंखों के बिना
निश्शब्द, मौन सिर्फ़ भेद करने के लिए
लेकिन बिना शब्दों के, इसलिए बिना लहरों के
जहां कहीं भी हम जायें, चारों तरफ़ पपीहे
अनुवादक ने अपनी भूमिका में बताया है कि यह कवि भारतीय बौद्ध दर्शन और ‘जे़न’ सम्प्रदाय से प्रभावित रहा है.
भविष्य की चिन्ता
हमारे समय में भविष्य की चिन्ता वही नहीं है जैसी कि सामान्य समय में होती आयी है. इस बीच कोविड-19 के प्रकोप ने व्यापक समाज को, जिनमें कलाकार-समुदाय भी शामिल है, बंदिशों का आदी बना दिया है. सत्ताएं इसका लाभ उठाकर सार्वजनिक जगहों को नियंत्रित करने की ओर लगातार बढ़ रही है. जब सारी कोविड लहरों का शमन हो चुका होगा तब पहले की स्थिति वापस नहीं आयेगी: जो स्थिति बनेगी वह अधिक नियंत्रण की होगी. इस बीच कलाओं में एक तरह के तुरन्तापन की वृत्ति बढ़ी है और कलाओं को चुपचाप निर्देशित करनेवाले नये नामहीन अभिभावक पैदा हो गये हैं. वे कलाओं में रूचियों को बदल रहे हैं जबकि कलाएं उनके लिए आत्यन्तिक महत्व नहीं रखतीं- वे उनके व्यापार का क्षेत्र भर हैं. कलाओं को लेकर राजनैतिक उदासीनता, इस बीच, एक तरह के दमन में बदल रही है. ये सब मिलकर कलाओं के परिवेश को बुरी तरह से बदल देंगे, बदल रहे हैं. हाल ही में कर्नाटक संगीतकार टी एम कृष्णा ने इस स्थिति का वस्तुनिष्ठ आकलन करते हुए हमारी सामूहिक विफलता का इज़हार किया है और उस बेचैनी की कमी की ओर इशारा किया है जो स्वयं कला-समुदाय में नज़र आ रही है.
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