आज फेसबुक के मुखिया मार्क जुकरबर्ग का जन्मदिन है
सत्याग्रह ब्यूरो | 14 मई 2020 | फोटो: स्क्रीनशॉट
कई बार एक चूक ही किसी कंपनी की उस प्रतिष्ठा पर भारी पड़ जाती है जो उसने एक लंबे समय में कमाई होती है. सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक से बीते कुछ समय के दौरान ऐसी गलतियां लगातार हो रही हैं. मसलन कुछ दिन पहले उसने हैशटैग #ResignModi के साथ की गई पोस्ट्स को ब्लॉक कर दिया. इसके बाद आरोप लगे कि ऐसा उसने केंद्र में सत्तासीन मोदी सरकार के कहने पर किया है. बाद में उसने इस हैशटैग को बहाल कर दिया और सफाई दी कि ऐसा गलती से हो गया था. हालांकि इस सफाई से कंपनी पर लगने वाले आरोप तेज ही होते दिखे.
फेसबुक को लेकर इस तरह का विवाद कोई पहली बार नहीं हुआ है. 2018 में चर्चित डिजिटल शोधकर्ता और विश्लेषक रेमंड सेरैटो ने म्यांमार के कट्टरपंथी मा-बा-था ग्रुप के समर्थकों की 15,000 फेसबुक पोस्ट्स का विश्लेषण किया था. इससे उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि लाखों रोहिंग्या मुस्लिमों को बांग्लादेश में शरणार्थी का जीवन जीना पड़ रहा है तो इसमें फेसबुक की भी अहम भूमिका है. ऐसा इसलिए कि फेसबुक पर उनके खिलाफ नफरत भरी सामग्री फैलाई गई और सोशल मीडिया साइट ने इसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. इस सामग्री ने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा दिया और वे म्यामांर छोड़ने को मजबूर हुए.
इससे पहले कैंब्रिज एनालिटिका मामला भी फेसबुक के लिए कुछ ऐसा ही रहा था. इस कंपनी पर आरोप है कि इसने अवैध तरीके से फेसबुक के करोड़ों यूजरों का डेटा हासिल किया और इस जानकारी का इस्तेमाल अलग-अलग देशों के चुनावों को प्रभावित करने में किया. इनमें 2016 में हुआ अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव भी है. इस मामले ने फेसबुक की विश्वसनीयता को भी काफी नुकसान पहुंचाया. कंपनी के मुखिया मार्क जुकरबर्ग को मिन्नतें करनी पड़ीं. वे माफी मांगते हुए यूजर्स को बार-बार यकीन दिलाते रहे कि इस कंपनी को चलाने में उनसे बेहतर अभी भी कोई नहीं है. मार्क जुकरबर्ग ने माना कि उनकी कंपनी यूजर्स का डेटा किसी तीसरी पार्टी (एप डेवलपर्स) को देती थी. लेकिन उनका यह भी कहना था कि यूजर्स उन्हें एक मौका और दें क्योंकि फेसबुक को उनसे बेहतर कोई नहीं चला सकता. पत्रकारों से बातचीत में मार्क जुकरबर्ग ने कहा, ‘यह बहुत बड़ी गलती है. यह मेरी गलती है. मुझे एक मौका और दें. लोग गलती करते हैं और उनसे सीखते हैं.
लगभग तीन साल पहले जब यह घटना हुई तो फेसबुक ने जानकारी दी थी कि कैंब्रिज एनालिटिका मामले में जिन लोगों का निजी डेटा इस्तेमाल किया गया उनकी संख्या 8.7 करोड़ तक हो सकती है. कंपनी के मुताबिक ज्यादातर यूजर्स अमेरिकी नागरिक हैं जिनसे जुड़ी जानकारियों को कैंब्रिज एनालिटिका ने इस्तेमाल किया था.
फेसबुक यूज़र्स की निजता को लेकर बेपरवाह रही है
यूज़र्स के डेटा को लेकर फेसबुक और मार्क जुकरबर्ग कितने भरोसेमंद हैं, इसका अंदाजा लगाने के लिए फेसबुक व्हिसिलब्लोअर सैंडी पैराकिलस के बारे में जानना ज़रूरी है. सैंडी फेसबुक में काम कर चुके हैं. वहां वे डेटा के इस्तेमाल को लेकर डेवलपर्स द्वारा किए गए उल्लंघनों की जांच करते थे. सैंडी ने द गार्डियन अख़बार को बताया कि उन्होंने फेसबुक के वरिष्ठ अधिकारियों को डेटा लीक होने के बारे में चेतावनी दी थी. उन्होंने अधिकारियों से कहा था कि कंपनी का ढीला रवैया डेटा सुरक्षा को लेकर एक बड़ा ख़तरा पैदा कर सकता है.
सैंडी की चिंता यह थी कि जिन एप्लिकेशन डेवलेपर्स से डेटा साझा किया गया है वे उसके साथ क्या कर रहे हैं. उन्होंने अधिकारियों से कहा कि कंपनी उस मैकेनिज़्म का इस्तेमाल कर नहीं रही जिससे डेटा का ग़लत इस्तेमाल न होना सुनिश्चित हो सके. द गार्डियन की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2011-12 के बीच ग्लोबल साइंस रिसर्च नाम की कंपनी द्वारा लाखों फेसबुक प्रोफ़ाइलों का डेटा चुराया गया था. कंपनी ने यह डेटा कैंब्रिज एनालिटिका को मुहैया कराया था. जब मामला सामने आया तो सैंडी को यह सोचकर ख़ासी निराशा हुई कि उनके वरिष्ठों ने उनकी चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया था. एक साक्षात्कार में उनका कहना था, ‘यह बहुत दुखी करना वाला है. क्योंकि मैं जानता हूं कि वे इसे रोक सकते थे.’
यह पूछे जाने पर कि डेटा को दूसरे डेवलपरों के हवाले किए जाने के बाद फेसबुक का उस पर क्या नियंत्रण रहता था, सैंडी ने कहा, ‘कुछ नहीं. बिलकुल भी नहीं. एक बार डेटा फेसबुक के सर्वरों से निकल जाता तो उस पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता था, और इसकी कोई जानकारी नहीं होती थी कि उसके साथ क्या किया जा रहा है.’ सैंडी के मुताबिक़ सावधानी बरतने पर डेटा के ग़लत इस्तेमाल को लेकर फेसबुक क़ानूनन बेहतर स्थिति में होती, लेकिन जानकारी होने के बावजूद ऊपर के लोगों ने इसे अनदेखा किया. सैंडी के शब्दों में ‘यह बहुत ही चौंकाने और डराने वाला था.’
मार्क जुकरबर्ग ख़ुद कितने भरोसेमंद हैं?
डेटा लीक मामले के बाद समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने एक सर्वे किया था. इसके मुताबिक़ दुनिया में केवल 41 प्रतिशत लोग फेसबुक पर भरोसा करते हैं. लोगों में उनकी निजी जानकारी किसी अनजान व्यक्ति के हाथ में जाने का डर बैठ गया है. नतीजतन, बहुत से लोग अपना फेसबुक अकाउंट डिलीट कर रहे हैं. इस लिहाज से जहां तक भरोसे का सवाल है तो कंपनी और मार्क जुकरबर्ग दोनों को बड़ा नुक़सान हुआ है.
वहीं, इन घटनाओं से अलग मार्क जुकरबर्ग से जुड़ा एक ऐसा तथ्य भी है जिसे जानने के बाद उन पर भरोसा क़ायम नहीं रह पाता. यह बात आज भी कई लोगों को नहीं पता कि जिस फेसबुक के लिए दुनिया मार्क जुकरबर्ग का धन्यवाद करती है, वह मूल रूप से उनका आइडिया नहीं था. यह हक़ीक़त है कि मार्क जुकरबर्ग ने इस वेबसाइट की शुरुआत अनैतिक तरीक़े से की थी.
दरअसल जिस मूल विचार के साथ फेसबुक की शुरुआत हुई थी वह उनका नहीं बल्कि टायलर विंकल्वॉस, कैमरन विंकल्वॉस (विंकल्वॉस ब्रदर्स) और दिव्य नरेंद्र नाम के तीन लोगों का था. ये सभी हार्वर्ड विश्वविद्यालय में मार्क जुकरबर्ग के सीनियर थे. इन्होंने ‘हार्वर्डकनेक्शन’ नाम की एक वेबसाइट के ज़रिए इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग करने का विचार खोजा था. यह दिसंबर 2002 की बात है. बाद में वेबसाइट का नाम ‘कनेक्टयू’ हो गया था. इन तीनों ने 21 मई, 2004 को वेबसाइट लॉन्च की थी.
इस तारीख़ से पहले की कहानी बड़ी दिलचस्प है. वेबसाइट शुरू होने से पहले इस सिलसिले में एक सहायक विक्टर गाओ के कहने पर विंकल्वॉस ब्रदर्स और दिव्य नरेंद्र ने मार्क जुकरबर्ग से संपर्क किया था. बताया जाता है कि तीनों ने ज़ुकरबर्ग को अपने साथ काम करने का प्रस्ताव दिया. ज़ुकरबर्ग एक मौखिक समझौते के तहत हार्वर्डकनेक्शन में इन तीनों के साझेदार बन गए. उन्हें वेबसाइड के लिए कोडिंग से संबंधित काम करना था. विकंल्वॉस ब्रदर्स और दिव्य नरेंद्र ने भरोसा करते हुए ज़ुकरबर्ग को वेबसाइट का प्राइवेट सर्वर लोकेशन और पासवर्ड दे दिए.
ज़ुकरबर्ग पर आरोप है कि इसके बाद वे अलग-अलग कारण देकर कई दिनों तक तीनों साथियों से नहीं मिले. उस दौरान वे उन लोगों से संपर्क में रहे जिनका वेबसाइट से कोई संबंध नहीं था. कई बार मीटिंग टलने के बाद आख़िरकार 17 दिसंबर, 2003 को सभी साथी मिले. ज़ुकरबर्ग ने विंकल्वॉस ब्रदर्स और नरेंद्र को बताया कि साइट लगभग पूरी हो चुकी है. इसके बाद आठ जनवरी, 2004 को उन्होंने ईमेल कर तीनों साथियों को बताया कि वे काम में लगे हुए हैं. मेल में ज़ुकरबर्ग ने बताया कि उन्होंने वेबसाइट में कुछ बदलाव किए हैं और वे काफ़ी बेहतर लग रहे हैं. उन्होंने कहा कि वे 13 जनवरी, 2004 को वेबसाइट को लेकर बातचीत कर सकते हैं.
लेकिन इससे पहले ही 11 जनवरी, 2004 को ज़ुकरबर्ग ने वेबसाइट को ‘दफेसबुकडॉटकॉम’ डोमेन नेम से रजिस्टर करा लिया. 14 जनवरी को वे हार्वर्डकनेक्शन की टीम से मिले. उस समय उन्होंने साइट के रजिस्ट्रेशन को लेकर कोई बात नहीं की. अपने साथियों से ज़ुकरबर्ग ने इतना कहा कि वे इस पर आगे और काम करेंगे और टीम को इस बारे में मेल करेंगे. इसके बाद चार फ़रवरी, 2004 को ज़ुकरबर्ग ने हार्वर्ड के छात्रों के लिए दफेसबुकडॉटकॉम को लॉन्च कर दिया.
उधर, विंकल्वॉस ब्रदर्स और दिव्य नरेंद्र को छह फ़रवरी को हार्वर्ड में छात्रों के लिए प्रकाशित होने वाले अख़बार के ज़रिए पता चला कि मार्क जुकरबर्ग ने अपनी वेबसाइट खोल ली है. यह उनके लिए ज़बरदस्त झटका था क्योंकि ज़ुकरबर्ग ने उनकी बौद्धिक संपदा का ग़लत फ़ायदा उठाया था. बाद में ज़ुकरबर्ग के इन सीनियर्स ने उनकी शिकायत विश्वविद्यालय प्रशासन से की. प्रशासन ने उन्हें कोर्ट जाने की सलाह दी जिसके बाद तीनों ने ज़ुकरबर्ग पर मुक़द्दमा किया. साल 2008 में मुक़द्दमे की सुनवाई पूरी हुई और अदालत के फ़ैसले के तहत फेसबुक साढ़े छह करोड़ डॉलर का मुआवज़ा देने को राज़ी हुई.
उधर, मार्क जुकरबर्ग का रेफ़रेंस देने वाले विक्टर गाओ ने बाद में विंकल्वॉस ब्रदर्स और दिव्य नरेंद्र के लिए उनकी वेबसाइट की कोडिंग का काम पूरा किया. चार दिसंबर, 2004 को हार्वर्डकनेक्शन का नाम बदलकर उसे कनेक्टयू के नाम से लॉन्च किया गया. विक्टर गाओ का कहना था कि ज़ुकरबर्ग ने हार्वर्डकनेक्शन की कोडिंग का काम पूरा किया ही नहीं था.
इस मामले में मार्क ज़ुकरबर्ग पर कई तकनीकी गड़बड़ियां करने के आरोप थे. उनकी इस हरकत से उनके तीनों साथी सकते में थे और दुखी भी. कनेक्टयू के ‘हमारे बारे में जानें’ सेक्शन में उनके हवाले से लिखा गया था, ‘हमने (वेबसाइट के लिए) कई प्रोग्रामरों के साथ काम किया. इनमें वह व्यक्ति (मार्क जुकरबर्ग) भी शामिल था जिसने हमारे समक्ष प्रतिद्वंदी वेबसाइट खड़ी करने के लिए हमारे ही आइडिया चुरा लिए. उसने हमें बिना बताए ऐसा किया. हम उसके इरादों से वाक़िफ़ नहीं थे.’
दुष्यंत कुमार
>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें
>> अपनी राय mailus@en.satyagrah.com पर भेजें