मैक्सिम गोर्की

Society | पुण्यतिथि

महान मैक्सिम गोर्की का नाम पांच बार नोबेल के लिए गया, पर हर बार वे इस सम्मान से वंचित रह गए

मैक्सिम गोर्की की कहानियों और उपन्यासों के नायक सर्वहारा ही हैं. यह महान लेखक भी इसी समाज से उभरा था, इसलिए इतना पसंद किया गया

Anurag Bhardwaj | 18 June 2020 | फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स

रूसी साहित्य के सबसे चमकते सितारे मैक्सिम गोर्की का अपने देश ही नहीं, विश्व में भी ऊंचा दर्ज़ा है. वे रूस के निझ्नी नोवगरद शहर में जन्मे थे. पिता की मौत के बाद उनका बचपन मुफ़लिसी और रिश्तेदारों के तंज़ खाते हुए गुज़रा में गुज़रा. गोर्की ने चलते-फिरते ज्ञान हासिल किया और पैदल घूम-घूमकर समाज और दुनियादारी की समझ हासिल की. 1892 में ‘मकार चुद्रा’ पहला उपन्यास था जिस पर उन्होंने एम गोर्की के नाम से दस्तख़त किये थे.

इससे पहले अलेक्सेई मक्सिमोविच पेश्कोव से गोर्की बनने तक उनका सफर कई ऊंचे नीचे-पड़ावों से गुज़रा. ‘मेरा बचपन’, ‘लोगों के बीच’ और ‘मेरे विश्वविद्यालय’ उपन्यास मैक्सिम गोर्की की आत्मकथायें हैं. इनमें उन्होंने अपना जीवन खोलकर रख दिया है. ‘मेरा बचपन’ में उन्होंने अपने पिता की मौत से किताब का पहला पन्ना लिखा. इससे ज़ाहिर होता है कि अलेक्सेई को पिता से गहरा लगाव रहा होगा और मां से कुछ खौफ़. वे लिखते हैं ‘…नानी मां से डरती है. मैं भी तो मां से डरता था, इसलिए नानी के साथ अपनापन और गाढ़ा हो गया.’

पर गोर्की का सबसे यादगार उपन्यास ‘मां’ ही है जो रूस में ज़ार शासन के समय के समाज का हाल दर्शाता है. रूसी क्रांति के नेता व्लादिमीर लेनिन की पत्नी नदेज्श्दा कोस्तैन्तिनोवा क्रुप्स्केया ने लेनिन की जीवनी में लिखा है कि वे (गोर्की) ‘मां’(उपन्यास) को बेहद पसंद करते थे. वहीं, लेनिन की बहन उल्यानोवा भी लिखती हैं कि गोर्की को इसे बार-बार पढ़ना पसंद था. लेनिन ने भी इस किताब का ज़िक्र किया है. गोर्की ने लेनिन से हुए संवाद पर कुछ यूं लिखा; ‘बड़ी साफ़गोई से लेनिन ने अपनी चमकदार आंखों से मुझे देखते हुए इस किताब की ख़ामियां गिनायीं. संभव है उन्होंने इसकी स्क्रिप्ट पढ़ी हो.’ ज़ाहिर था यह उपन्यास उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना थी.

दरअसल, गोर्की को इसलिए पसंद किया जाता है कि जो उन्होंने लिखा, अपने जैसों पर ही लिखा. उनकी कहानियों के किरदार उनके आस-पास के ही लोग हैं. या कहें कि गोर्की उसी समाज के हैं जिस समाज पर उन्होंने लिखा. ‘मां’ की आलोचना में कई टिप्पणीकारों ने कहा कि उपन्यास में जिन पात्रों का ज़िक्र है, वैसे पात्र असल ज़िंदगी में नहीं होते.’ इस आलोचना के बाद उन्होंने खुलासा किया कि ये कहानी एक मई, 1902 को रूस के प्रांत सोर्मोवो के निझ्नी नोवगरद इलाक़े में हुए मज़दूर आंदोलन से प्रभावित थी और इसके किरादर असल ज़िंदगी से ही उठाये हुए थे. मां, निलोव्ना और उसका बेटे पावेल के किरदार गोर्की के दूर की रिश्तेदार एक महिला एना किरिलोवना ज़लोमोवा और उसके बेटे प्योतोर ज़लोमोव से प्रभावित थे.

गोर्की ने इस उपन्यास में उस अवश्यंभावी टकराव को दिखाया है जो सर्वहारा और बुर्जुआ वर्ग के बीच हुआ था. जानकार यह भी कहते हैं कि उपन्यास में दिखाया गया काल वह है जब रूस में क्रांति आने वाली थी. पर कुछ लोग कहते हैं कि ‘मां’ रूस की क्रांति की तैयारी को दिखाता है उस काल को नहीं, यानी क्रांति से कुछ पहले वाला समय. जो भी हो, यह तय है कि गोर्की सरीखे लेखकों ने क्रांति की आहट सुन ली थी. पर आश्चर्य की बात यह है कि अगर किसी उपन्यास को रूसी क्रांति का जनक कहा जाता है तो वो अपटन सिंक्लैर का ‘जंगल’ है. जबकि ‘जंगल’ बाद में रचा गया है. ‘मां’ 1906-1907 के दरमियान लिखा गया और जबकि ‘जंगल’ 1904 में. जहां ‘मां’ एक रूसी समाज में संघर्ष की दास्तान है, ‘जंगल’ में अमेरिकी पूंजीवाद और सर्वहारा के टकराव का बयान है.

तो क्या हम मान सकते हैं कि पश्चिमी दुनिया ने रूसी क्रांति का सेहरा अमेरिकी लेखकों के सिर बांधकर कुछ रुसी लेखकों के साथ अन्याय किया है? यकीन से तो नहीं कहा जा सकता पर बात फिर यह भी है कि गोर्की को पांच बार नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया, पर यह सम्मान उन्हें एक बार भी नहीं मिला. वहीं रूस से भागकर अमेरिका चले गये अलेक्सेंडर जोलज़ेनितसिन को यह सम्मान दिया गया था. दोनों ही लेखकों को अपने काल में जेल हुई थी. गोर्की को ज़ार शासन विरोधी कविता लिखने के लिए जेल में डाला गया तो जोलज़ेनितसिन को रूसी तानाशाह स्टालिन ने जेल भेजा.

गोर्की के साथ पश्चिम ने पहले भी बदसुलूकी की. अप्रैल 1906 में जेल से रिहा होने के बाद गोर्की और उनकी मित्र सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा करने और अपने पक्ष में हवा बांधने के लिए अमेरिका गए. शुरुआत में तो उनकी बड़ी आवभगत की गई पर बाद में दोनों के संबधों के चलते अमेरिकी समाज ने उनकी फ़जीहत की. हालात इस कदर बिगड़ गए कि दोनों को होटल से बाहर फिंकवा दिया गया. गोर्की इस अपमान को कभी भुला नहीं पाए.

स्टालिन ने गोर्की के साथ अलग बर्ताव किया. उसने इटली में निर्वासित गोर्की को ससम्मान घर यानी रूस वापसी का न्यौता भेजा और वादा किया कि उन्हें राष्ट्र कवि की हैसियत दी जायेगी. स्टालिन ने ऐसा किया भी. गोर्की को आर्डर ऑफ़ द लेनिन के सम्मान से नवाज़ा गया और उनके जन्मस्थान का नाम बदलकर ‘गोर्की’ रखा गया. जानकार कहते हैं कि यह स्टालिन की रणनीति थी जिसके तहत वह गोर्की जैसे लेखक के ज़रिये विश्व को नव साम्यवाद का चेहरा दिखाना चाहता था. गोर्की ने रूस आने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया और कई ऐसे लेख लिखे जिनमें स्टालिन का गुणगान किया था.

गोर्की ने ऐसा क्यों किया, यह समझ से परे है क्योंकि रूसी क्रांति के कुछ समय बाद वे लेनिन के कट्टर आलोचक बन गए थे. इसी बात से यह विवाद खड़ा हुआ कि क्या गोर्की जीनियस थे या उनके इर्द-गिर्द जीनियस होने का आभामंडल गढ़ा गया? शायद यही दाग़ गोर्की के जीवन पर लगकर रह गया है जो मिटाया नहीं जा सकता. गोर्की की मौत भी संदेह के घेरे में हैं. कुछ लोगों का मानना है कि स्टालिन ने अपने विरोधियों के सफ़ाए के लिए शुरू किये गए प्रोग्राम ‘दी ग्रेट पर्ज’ से पहले ही ख़ुफ़िया पुलिस के हाथों उन्हें मरवा दिया था.

गोर्की की ज़्यादातर रचनाओं में सर्वहारा ही नायक है. उनकी कहानी ‘छब्बीस आदमी और एक लड़की’ एक लड़की और 26 मज़दूरों की है जो उससे मन ही मन प्यार करते हैं. वह किसी से दिल नहीं लगाती पर उनसे बड़ी इज्ज़त से पेश आती है. एक दफ़ा मज़दूर एक सिपाही को उसका प्यार पाने को उकसाते हैं और वह सिपाही कामयाब हो जाता है. एकतरफ़ा प्यार करने वाले मज़दूर अपनी खीझ और भड़ास लड़की को तमाम गालियां तिरस्कार देकर निकालते हैं. कहानी में इंसान के टुच्चेपन के साथ-साथ दर्शन भी नज़र आता है. वे लिखते हैं कि ‘प्यार भी घृणा से कम सताने वाला नहीं. शायद इसलिए कुछ चतुर आदमी मानते हैं कि घृणा प्यार की अपेक्षा अधिक प्रशंसनीय है.’ एक जगह वे लिखते हैं, ‘कुछ आदमी ऐसे होते हैं जो जीवन में सर्वोत्तम और उच्चतम को आत्मा या जिस्म का एक प्रकार का रोग समझते हैं और जिसको साथ लेकर अपना सारा जीवन व्यतीत करते हैं.’

जहां तक गोर्की के काम की समालोचना का सवाल है तो कुछ जानकार कहते हैं कि गोर्की के जीवन और लेखन में विरोधाभास के साथ-साथ ‘क्लीशे’ नज़र आता है. गोर्की के साहित्य को खंगालने वाले आर्मीन निगी कहते हैं कि वे दोस्तोय्विसकी की तरह क्लासिकल राइटर तो नहीं थे, पर विश्व साहित्य के पुरोधा कहे जा सकते हैं. प्रेमचंद गोर्की के मुरीद थे. गोर्की की मौत पर उन्होंने कहा था, ‘जब घर-घर शिक्षा का प्रचार हो जाएगा तो गोर्की तुलसी-सूर की तरह चारों ओर पूजे जायेंगे’. पर ऐसा नहीं हो पाया क्यूंकि जिस आदर्श समाजवाद की परिकल्पना गोर्की ने की उसके क्रूरतम रूप यानी साम्यवाद ने दुनिया को ही हिलाकर रख दिया और नतीजन उसका ख़ात्मा हो गया.

पर पूंजीवाद ने भी सर्वहारा के दर्द को मिटाया नहीं बस एक ‘एंटीबायोटिक’ की तरह दबाकर रख छोड़ा. वह दर्द अब-जब भी कभी-कभी टीस बनकर उभरता है, तो कुछ ताकतें फिर उसे दबा देती हैं. शायद इसीलिए अब गोर्की नहीं पढ़े जाते हैं.

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022