एमएफ हुसैन के साथ एक लंबा अरसा बिताने वाले मशहूर छायाकार पार्थिव शाह के लिए हुसैन खुद एक ऐसी पेंटिंग से कम नहीं थे जिसे हर बार देखने पर एक नया रंग नजर आता है
Satyagrah Bureau | 17 September 2021 | सभी फोटो : पार्थिव शाह (सभी अधिकार सुरक्षित)
एक थीं मदर टेरेसा. एक है हुमायूं का मकबरा. एक थी गली पुरानी सी. एक है बस्ती चहल-पहल वाली. औलिया के मदमस्त विश्वास की कव्वाली. एक थे हुसैन. पूरा नाम मक़बूल फ़िदा हुसैन. चित्रकार, आर्टिस्ट. एक हैं पार्थिव शाह. फोटोग्राफर, आर्टिस्ट. इन सबने मिलकर एक यात्रा की. यात्रा के असबाब में उम्र के कुछ हसीं पल थे. कुछ जिंदा सांसें थीं. कुछ इतिहास था. कुछ सरोकार थे. कुछ आभार के आंसू और कुछ बेलौस सी कौंधती हंसी.
पार्थिव शाह के पास एक यंत्र भी था जिसमें वे कुछ जादुई मंत्र फूंकते-फूंकते एक खिलंदड़ी आत्मा का पीछा करते जाते थे. ऐसी आत्मा जिसके दुःख उससे एक कदम आगे चलते थे. फिर वह शख्श कोशिश कर उन्हें एक कूची की मार्फ़त आभार स्वरुप कहीं अंकित कर देता था. या फिर अपनी ख़ुशी को अजीबोगरीब ढंग से कहीं उकेर दर्शकों को एक छोटे बच्चे की तरह जीभ दिखाता फिरता था – ‘अब बोलो.’ जब पार्थिव ने अपने जादुई मंत्रों का प्रभाव उन पर केंद्रित किया तो आला दर्जे के चित्रकार, वही एमएफ हुसैन, पार्थिव के संग एक यात्रा पर चलने को तैयार हो गये, अपने रंजो-ग़म और अपनी पेंटिंग्स को एक दूसरे कलाकार के साथ, एक दूसरे तरीके से साझा करने.
दोनों की इस यात्रा पर जब हम नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि जब पार्थिव उन्हें कैमरे की आंख से देख रहे होते हैं, तो हुसैन अपनी पेंटिंग्स के साथ ऐसे जुड़ जाते हैं जैसे वे कोई चित्रकार नहीं, कोई जीवित प्राणी नहीं बस एक प्रॉप हों. मिसाल बतौर मदर टेरेसा की पेंटिंग के आगे घुटनों के बल सजदे में बैठे हुसैन.
पार्थिव शाह के कैमरे की एक तस्वीर के लिए हुसैन एक विशाल पेंटिंग के आगे लेट जाते हैं जैसे अपनी अधूरी रह गयी उस पेंटिंग को पूरा करने की कोशिश कर रहे हों. और पार्थिव कैमरे से कहानी गढ़ते जाते हैं. अपनी एक दूसरी पेंटिंग में चित्रित छतरी के साथ एक असली हाथ (हुसैन का हाथ) दूसरी असली छतरी को खड़ा कर देता है और पार्थिव के कैमरे को देखकर कहता है – ‘बूझो तो जानूं.’ बहुत शैतानी मामला लगता है यह.
कुर्सियों के अपूर्ण फ्रेम के बीच वाली पेंटिंग का वह जो पोज़र है वह जैसे कहता है – ‘मैं ही पेंटिंग हूं… मोको कहां ढूंढे बंदे मैं तो तेरे पास हूं.’ यहां हुसैन कथावाचक हो जाते हैं. स्टाइलिश स्टोरी टेलर. अदाओं से भरे. पार्थिव उन्हें खटाक से दर्ज कर लेते हैं.
इस लुका-छिपी के खेल में पार्थिव जान गए हैं कि फ्रेम से अलग और फ्रेम के भीतर हुसैन को कैद करना एक बारीक काम है. पार्थिव अनौपचारिक बातचीत में बताते हैं कि हुसैन से उनका साबका बरसों का था. हुसैन को जब से जानना शुरू करते हैं पार्थिव, तभी से वे उन्हें अपने साथ चलने को कह देते हैं. कहीं भी, कभी भी. एक सुबह निजामुद्दीन बस्ती की गलियों में चलने का न्योता दे देते हैं और वह सुबह कई शामों और सुबहों में तब्दील हो जाती है.
पार्थिव शाह जब एमएफ हुसैन से पहले पहल मिलते हैं तो जानते हैं कि वे बड़े हैं, बहुत बड़े. बहुत मशहूर भी. पार्थिव युवा और नए. कैमरे के कारीगर. जब वे चल देते हैं हुसैन के साथ, अनोखी गलियों, अनूठी इमारतों और दिलचस्प लोगों से नयी पहचान करने तब जीवन और पेंटिंग अजीब ढंग से गुत्थमगुत्था हो जाते हैं. अब पार्थिव के कैमरे के फ्रेम में एक अनोखे रियलिज्म का खुलासा होता है जो सिर्फ एक फोटोग्राफर के लिए और फोटोग्राफर का, नहीं हो सकता. यह चंद दिनों का साथ नहीं. अब दिन महीनों और सालों में तब्दील हो रहे हैं.
गुज़रते बरसों को कैद करने वाले ये फ्रेम, अद्भुत फ्रेम हैं. कुछ में हुसैन नहीं हुमायूं का मकबरा प्रॉप है. इनमें यारबाशी के ठहाके हैं, हाथ में गर्म चाय का गिलास है, एक ऐसी सहजता जो उनके मूड की सहजता से अधिक पार्थिव के कैमरे की सहजता भी हो सकती है.
एमएफ हुसैन का निजामुद्दीन बस्ती जाना और पार्थिव शाह द्वारा कैमरे में दर्ज हो जाना, उस लम्हे से भी ज़्यादा उस सुबह, उस शाम और उस ज़मीन के हिस्से का भी दर्ज होना है जिसमें कुछ हांफती-पिछड़ती आबोहवा है, कुछ दम टूटते हुनर हैं, कुछ ऐसे कारोबार हैं जिनका कलेवर कल शायद न हो और उस तहज़ीब के बिखरते मोती हैं जिन्हें शायद बचाने की उम्मीद में ही हुसैन, पार्थिव को बारंबार वहां ले जाते हैं.
पार्थिव हंस कर कहते हैं, ‘शुरू में पता नहीं था कि इतना लंबा साथ हो जायेगा हमारा. बाद में वे सिर्फ मेरे सब्जेक्ट नहीं रहे थे, मैं उनका दोस्त हो गया था, कुछ उम्र हो गयी थी, कुछ उनके साथ लगातार घूमने का अनुभव भी, दोनों मिल कर फिर, अपने को व्यक्त करने के नुस्ख़े ढूंढा करते थे.’
हुसैन के साथ लंबा अरसा बिताने पर पार्थिव के लिए हुसैन खुद एक पेंटिंग सरीखे हो गए थे, जिसमें से वे नौरसों की छवियां तलाशते रहते थे. ‘हुसैन भी और सफल लोगों की तरह अपने संघर्ष के दिनों को भूल नहीं पाए थे. कई बार लोग उनकी विचित्रता पर हैरान रह जाते थे. लेकिन मेरे लिए उनकी यही विचित्रता उनके प्रति आकर्षण पैदा करती थी, मैं सोचता था कैसे कोई व्यक्ति इतना रंग-बिरंगा, इतने आयामों वाला हो सकता है और मैं उसकी खोज में निकल पड़ता था.’
निजामुद्दीन बस्ती के वंचित इलाकों में जाना ज़मीन पर पांव बने रहें इस तरह की कोई दुआ थी शायद और खूबसूरत चीज़ों के प्रति हुसैन की आसक्ति किसी उच्चतर आकाश से मिला एस्थेटिक्स का तोहफा. जो व्यक्ति कभी सिनेमा के होर्डिंग्स पेंट करता था, वह बाद में इतनी बारीकी से कैसे पेंट करने लगा था? यह सिर्फ रेखाओं की बारीकी की बात नहीं थी, यह आत्मा की अंदरूनी परतों को कूची की मार्फ़त अनावृत करना भी था. इन दोनों के संतुलन को साध हुसैन अपने व्यक्तित्व के द्वंदों को भी सुलझाने की कोशिश में रहते थे. पार्थिव भी अपनी हर तस्वीर में उसे पकड़ने की कोशिश में दीखते हैं लगातार.
दोनों की यह जुगलबंदी, इतने चमत्कारिक ढंग से अपनी ओर खींचती है कि मन करता है इन चित्रों के साथ हम भी यात्रा पर चल पड़ें. यह एक आर्टिस्ट की दूसरे आर्टिस्ट के प्रति कोई आदरांजलि नहीं है. यह जिंदगी की सहयात्रा की कुछ झलकें हैं. यहां हुसैन जाने-अनजाने ही सही, खेल-खेल में अपने विभिन्न मूड्स को पार्थिव के हवाले कर देते हैं और पार्थिव बड़ी सहजता और जादू से उसे फ्रेम दर फ्रेम परोस कर हमारे सामने पेश करते हैं.
पार्थिव शाह की तीसरी आंख एमएफ हुसैन की तीसरी आंख से हमारा परिचय कराती है और हम ठगे से इस चमत्कार को सोखने की कोशिश करते हैं.
(पार्थिव शाह अंतरराष्ट्रीय ख्याति के फोटोग्राफर, फिल्मकार और ग्राफिक डिजाइनर हैं. सत्याग्रह के लिए यह आलेख हिंदी की जानी-मानी लेखिका वंदना राग ने लिखा है.)
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