ग़ालिब और इक़बाल की शायराना महानता से इनकार करने वाले मौजूद हैं, मगर मीर की उस्तादी से इनकार करने वाला कोई नहीं
अनुराग भारद्वाज | 20 सितंबर 2021
‘रेख्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब, कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था’.
मिर्जा गालिब ने यह बात उन मीर तक़ी मीर के बारे में कही थी जिन्हें खुदा-ए-सुखन यानी शायरी का खुदा कहा जाता है. रेख्ता यानी शुरुआती उर्दू. यह मीर की ही उर्दू थी जिसने ग़ालिब को फ़ारसी छोड़कर इसी ज़ुबान में लिखने को मजबूर किया. वैसे उस दौर के कुछ और मशहूर शायर जैसे सौदा, मज़हर, नज़ीर अकबराबादी और दर्द उर्दू में लिखने लगे थे, पर मीर का असर सबसे ज़्यादा था.
अली सरदार जाफ़री ‘दीवाने मीर’ में लिखते हैं, ‘यद्यपि आज आम लोकप्रियता के विचार से ग़ालिब और इक़बाल, मीर से कहीं आगे हैं और उनकी किताबें ‘कुल्लियाते-मीर’ की अपेक्षा ज़्यादा बिकती हैं, उनके शेर लोगों की ज़बान पर ज़्यादा हैं, उनका प्रभाव वर्तमान शायरी पर अधिक स्पष्ट है. फिर भी ग़ालिब और इक़बाल की शायराना महानता को इनकार करने वाले मौजूद हैं. मगर मीर की उस्तादी से इनकार करने वाला कोई नहीं है.
मीर ने अपने जीवन के बारे में ‘ज़िक्रे मीर’ में लिखा है. हिंदुस्तान के शायरों पर खासा काम करने वाले प्रकाश पंडित मीर के बारे में कुछ यूं बताते हैं, ‘मीर के बुज़ुर्ग हिजाज़ (अरब का प्रांत) से भारत आये थे. पहले वे हैदराबाद गए, वहां से अहमदाबाद और आखिर में अकबराबाद (आगरा) आकर बस गए.’
मीर के वालिद फ़ौजदार थे और उनका बचपन मुश्किलों भरा था. कर्ज़े के मारे और नौकरी की तलाश में मीर दिल्ली चले आये थे और यहां नवाब समसाउद्दौला ने मीर के गुज़ारे के लिए एक रुपया रोज़ मुक़र्रर कर दिया.
चा या पांच साल ही बीते थे कि 1739 में नादिर शाह ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी. समसाउद्दौला मारे गए. मीर आगरा वापस चले गए. कुछ दिनों बाद वे दिल्ली आये और नज़दीक के रिश्तेदार ख़ान आरज़ू के साथ रहने लगे. यहां मीर को ख़ान आरज़ू की बेटी से ऐसा इश्क़ हुआ कि बस दीवाने हो गए और उनकी शायरी परवान चढ़ गयी. नादिर शाह के बाद अहमद शाह अब्दाली ने दिल्ली को लूटा. सारे हुनरमंद लोग इस शहर वीरान करके कहीं और बस गए.
यह वह दौर था जब मीर मारे-मारे फिरे. उन्होंने कई ठिकाने बदले. इलाहाबाद, बंगाल, भरतपुर, बीच में दिल्ली और जब सब तरफ़ से उकता गए तो मीर ने लखनऊ में डेरा डाल लिया. लखनऊ में उस वक़्त नवाब आसफ़-उद्दौला गद्दीनशीं थे. लखनऊ उस वक़्त तकरीबन हर फ़नकार की ख्वाइशमंद जगह थी. पर मीर साहब लखनऊ गए थे तो नवाब के इसरार पर. यह बात सन 1782 की है.
लेखक रवि भट्ट ने नवाबों के जीवन पर लिखी क़िताब में ज़िक्र किया है कि मीर की नवाब आसफ़-उद्दौला से मुलाक़ात बड़े नवाबी ढंग से हुई थी. नवाब को मुर्गियां लड़ाने का शौक था, ऐसी ही एक लड़ाई में मीर नवाब से पहली बार मिले और उनसे जी ऐसा जुड़ा कि यहीं रह गए. दिल न लगा तो भी गुज़ारा किया और यहीं आख़िरी सांस ली.
मीर की सरपरस्ती में उर्दू
मुग़लों के अंत और नादिर शाह की लूट ने फ़ारसी को हिंदुस्तान के लिए बेगाना कर दिया. सत्रहवीं और अट्ठारहवीं सदी उर्दू लेकर आई. उर्दू को डेरे की ज़ुबान कहा जाता था. ऐसा इसलिए कि अलग-अलग इलाकों के सैनिकों के जमावड़े में जो भाषाई तालमेल हुआ उससे उर्दू पैदा हुई. मीर का लिखना और उर्दू अपने पैरों पर खड़े होना लगभग एक ही समय हुआ. उर्दू मीर की उंगलियां थाम अहिस्ता-आहिस्ता अपना सफ़र तय करते हुए उनकी निगाहबानी में जवान हुई.
अपनी किताब ‘शेर-ए-शोरअंगेज़’ में शम्सुर्रहमान फ़ारुकी लिखते हैं कि ग़ालिब पर मीर का प्रभाव कई बार ज़ाहिर होता है. वे कहते हैं, ‘ग़ालिब मीर से कई बार लाभान्वित हुए. जिन ग़ज़लों ने ग़ालिब को ग़ालिब बनाया वे उन्होंने तीस बरस की उम्र को पहुंचने से पहले लिख दी थीं. तो ये बात साबित हो जाती है ग़ालिब के सृजनात्मक सोतों में जो धाराएं आकर मिलती हैं उनमें मीर का उच्छल जलधि भी है’. मीर ने कुल छह दीवान लिखे हैं. पहला 1752 के आसपास और आख़िरी 1810 में. लगभग 13 हजार अशआरों का ज़खीरा खड़ा किया था उन्होंने.
मीर के बारे में ग़लतफ़हमी यह है कि वे रोज़मर्रा के शायर थे. उनकी शायरी की ज़बान रोज़मर्रा की है, ख़याल तो ऊंचे स्तर के हैं. बहुत सारी जगहों पर उन्होंने अरबी और फ़ारसी लफ़्ज़ों का भी इस्तेमाल किया है. पर ग़ालिब की तरह उनके विचारों अमूर्त न होकर किसी ज़मीं पर खड़े हैं. लिहाज़ा, उनके लफ़्ज़ों के मायने ग़ालिब की तरह घुमाव पैदा नहीं करते. मीर की ज़ुबान में बेतकल्लुफ़ी है. मिसाल के तौर पर ये अशआर देखिये:
‘आओ कभू तो पास हमारे भी नाज़ से
करना सुलूक ख़ूब है अहल-ए-नियाज़ (इच्छा के पात्र) से
करता है छेद-छेद हमारा जिगर तमाम
वो देखना तेरा मिज़ा-ए-नीम-बाज़ (अधखुली पलकों) से’
आख़िरी शेर पढ़कर ग़ालिब याद नहीं आते क्या? उन्होंने कहा था, ‘कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीम कश को, ये ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार होता’.
मीर की शायरी सीधी है और मनमोहक भी. पर कहीं कहीं वे टेढ़े भी हो जाते हैं. पर ‘ज़िक्रे मीर’ की मानें तो मीर बेहद धीमी आवाज़ में और बड़े सलीके से बात करने वाले इंसान थे. उनके टेढ़ेपन को आप उनकी खुद्दारी से जोड़कर देख सकते हैं. किस्सा है कि एक बार नवाब ने उनके प्रति अपने बर्ताव में बेरुख़ी दिखाई. मीर साहब इस कदर टेढ़े पड़ गए कि नवाब के 1000 रुपये भी ठुकरा दिए. लखनऊ और दिल्ली की तहज़ीबों में अंतर, लखनऊ वालों का उनकी शायरी को कम आंकना उन्हें कम भाता था. एक बार चिढ़कर उन्होंने लखनऊ वालों से कह दिया, ‘हनोज़ (अब तक) लौंडे हो, कद्र हमारी क्या जानो? शऊर चाहिए इम्तियाज़ (भेद) करने को’
मीर की शायरी में इश्क़ और उसकी नाकामी के बाद पैदा होने वाला दर्द दीखता है. मिसाल के तौर पर ‘देख तू दिल कि जां से उठता है, ये धुंआ सा कहां से उठता है’. इस ग़ज़ल के सारे शेर ग़म में डूबे हुए हैं. इसको मेहदी हसन की आवाज़ में सुनने पर दर्द के कई गुना बढ़ने का गुमां होता है.
हां, यह बात सही है कि उनकी ग़ज़लों में कुछ दर्द का पुट ज़्यादा है. पर क्या पर्सी बी शैली ने नहीं कहा था, ‘आवर स्वीटेस्ट सॉन्ग्स आर दोज देट टेल ऑफ़ आवर सैडेस्ट थॉट’. जिसे शैलेन्द्र ने हिंदी में कह दिया था, ‘हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं.’
पर कहीं-कहीं मीर की शायरी आशिक़ और माशूक़ के बीच संबंध की बराबरी भी कायम करती है.
‘थी जब तलक जवानी रंजो-ताब उठाए
अब क्या है मीर जी में तर्के-सितमगरी कर’
मीर ने दर्द में नाकामी से उबरते हुए शायद जीने का सोचा होगा या कभी यूं हार मान लेना उन्हें भी खीजा होगा. इसकी बानगी उनकी एक ग़ज़ल के कुछ अशआर हैं:
‘कस्द (इरादा) ग़र इम्तिहान है प्यारे,
अब तलक नीम जान है प्यारे
अम्दं (बेवजह) ही मरता है कोई ‘मीर’
जान है तो जहान है प्यारे.’
मीर उस जमात के शायर तो नहीं कहे जा सकते जिसके ख़ुसरो, नज़ीर, जायसी या रसखान थे. पर उनके कुछ एक शेर ऐसे हैं जो धार्मिक सहिष्णुता की बात करते हैं. मिसाल के तौर पर
‘मीर के दीन-ओ-मज़हब का अब पूछते क्या हो उनने तो,
क़श्क़ा (जनेऊ) खेंचा, दैर में बैठा, कबका तर्क इस्लाम किया’
आख़िर में, मीर साहब की ग़ज़लों की बात चली हो और ‘बाज़ार’ फिल्म की ग़ज़ल न चले,ऐसा हो सकता है क्या?
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