संगीत की दुनिया में अपने सफर की कहानी बयां करता मोहम्मद रफी का यह आलेख करीब चार दशक पहले उर्दू पत्रिका शमां में प्रकाशित हुआ था
Satyagrah Bureau | 31 July 2020
मेरा घराना मजहबपरस्त था. गाने-बजाने को अच्छा नहीं समझा जाता था. मेरे वालिद हाजी अली मोहम्मद साहब निहायत दीनी इंसान थे. उनका ज्यादा वक्त यादे–इलाही में गुजरता था. मैंने सात साल की उम्र में ही गुनगुनाना शुरू कर दिया था. जाहिर है, यह सब मैं वालिद साहब से छिप–छिप कर किया करता था. दरअसल मुझे गुनगुनाने या फिर दूसरे अल्फाज में गायकी के शौक की तरबियत (सीख) एक फकीर से मिली थी. ‘खेलन दे दिन चारनी माए, खेलन दे दिन चार…’ यह गीत गाकर वह लोगों को दावते–हक दिया करता था. जो कुछ वह गुनगुनाता था, मैं भी उसी के पीछे गुनगुनाता हुआ, गांव से दूर निकल जाता था. रफ्ता–रफ्ता मेरी आवाज गांव वालों को भाने लगी. अब वो चोरी–चोरी मुझसे गाना सुना करते थे.
एक दिन मेरा लाहौर जाने का इत्तिफाक हुआ. वहां कोई प्रोग्राम था, जिसमें उस दौर के मशहूर फनकार मास्टर नजीर और स्वर्णलता भी मौजूद थे. वहां मुझे भी गाने को कहा गया, उस वक्त मेरी उम्र 15 बरस होगी. जब मैंने गाना शुरू किया तो नजीर साहब को बहुत पसंद आया. वे उन दिनों ‘लैला मजनूं‘ बना रहे थे. उन्होंने उसी वक्त मुझे अपनी फिल्म में गाने को कहा. मैं अपनी तौर पर इस पेशकश को कुबूल नहीं कर सका. मैंने उन्हें बताया कि अगर मेरे वालिद साहब जिन्हें हम मियां जी कहते थे, को आप राजी कर लें, तो मैं जरूर गाऊंगा. भला उन जैसे मजहबी इंसान जो गाने–बजाने को पसंद नहीं करते थे, कैसे राजी हो जाते? चुनांचे उन्होंने साफ इंकार कर दिया. लेकिन मेरे बड़े भाई हाजी मोहम्मद दीन ने न जाने कैसे, मियां जी को किस तरह समझाया–बुझाया कि उन्होंने मुझे ‘लैला मजनूं‘ में गाने की इजाजत दे दी. इस फिल्म के जरिए मेरी आवाज पहली बार लोगों तक पहुंची और सराहा गया.
इसके बाद फिल्म ‘गांव की गोरी’ में भी मैंने गाने गाए, जो काफी मशहूर हुए. मगर सही मायनों में मेरी कामयाबी का आगाज फिल्म ‘जुगनू‘ के गानों से हुआ. फिर मुझे फिल्मों में काम करने का शौक भी पैदा हुआ. लेकिन सच पूछो तो मुंह पर चूना लगाना (मेकअप) मुझे अच्छा नहीं लगता था. इस चूनेबाजी में ही फिल्मों में मेरे काम करने और म्यूजिक देने की पेशकश आती रही, लेकिन मैंने गाने को अपनी मंजिल बना लिया. यह मंजिल ही मेरी जिंदगी है.
मेरे कोई खास शौक या आदत नहीं है. शराबनोशी तो दूर की बात है. मैंने आज तक सिगरेट को भी हाथ नहीं लगाया है. नमाज का फर्ज बाकायदगी से अदा करता हूं. पहली बार हज करने के बाद मैंने फिल्म लाइन छोड़कर अल्लाह–अल्लाह करने का इरादा कर लिया था. लेकिन कुछ लोगों ने यह प्रोपेगंडा शुरू कर दिया कि मेरी मार्केट वैल्यू खत्म हो गई है और अब कोई मुझे पूछता भी नहीं है. जबकि फिल्मकार और म्यूजिक डायरेक्टर बदस्तूर मुझसे गाने का इसरार कर रहे थे. फिल्म लाइन छोड़ने का एक मकसद यह भी था कि नए गानेवालों को अपने फन को बढ़ाने का मौका मिले. मुझे फिल्मी दुनिया में दोबारा नौशाद साहब का इसरार खींच लाया था. उन्होंने कहा था कि मेरी आवाज अवामी अमानत है और मुझे अमानत में खयानत करने का कोई हक नहीं पहुंचता. चुनांचे मैंने फिर गाना शुरू कर दिया और अब तो ताजिंदगी रहेगा.
आपको यह जानकर हैरत होगी कि मुझे फिल्म देखने का बिल्कुल शौक नहीं है. अमूमन मैं फिल्म के दौरान सिनेमाहाल में सो जाता हूं. सिर्फ ‘दीवार‘ ऐसी फिल्म है, जिसे मैंने पूरी दिलचस्पी से देखा है. इस फिल्म की लड़ाई के मंजर मुझे अच्छे लगे. जहां तक गानों का सवाल है आवाम की पसंद मेरी पसंद है. अगर कोई गाना आवाम को पसंद आ जाता है तो मैं समझता हूं मेरी मेहनत का सिला मिल गया. वैसे फिल्म ‘दुलारी‘ का गाया गीत मुझे बहुत पसंद है – सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे जहां की रुत बदल चुकी, न जाने तुम कब आओगे
कुछ हसीन यादें भी जिंदगी के साथ जुड़ जाती हैं. मेरी जिंदगी में भी ऐसी यादों का खजाना है. एक बार मैं फिल्म ‘कश्मीर की कली‘ का गाना रिकॉर्ड कराने में मसरूफ था. शम्मी कपूर इस फिल्म के हीरो थे. वो अचानक रिकॉर्डिंग रूम में आकर बड़े मासूमियत भरे लहजे में बोले– ‘रफी जी! रफी जी, यह गाना मैं पर्दे पर उछल–कूद करके करना चाहता हूं. आप गायकी के अंदाज में उछल–कूद का लहजा भर दीजिए.‘ यह कहते हुए उन्होंने मेरे सामने ही उछल–कूद कर बच्चों की तरह जिद की. वह बहुत ही पुरलुत्फ मंजर था. उस गाने के ये बोल थे– सुभान अल्लाह हाय, हसीं चेहरा हाय, ये मस्ताना अदाएं, खुदा महफूज रखे हर बला से, हर बला से.
किसी भी फनकार के लिए गाने की मुनासिबत से अपना मूड बदलना बहुत ही दुश्वार अमल होता है. वैसे गाने के बोल से ही पता चल जाता है कि गाना किस मूड का है. फिर डायरेक्टर भी हमें पूरा सीन समझा देता है जिससे गाने में आसानी होती है. कुछ गानों में फनकार की अपनी भी दिलचस्पी होती है. फिर उस गीत का एक–एक लफ्ज दिल की गहराइयों से छूकर निकलता है जैसे फिल्म ‘नीलकमल’ का यह गीत– ‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले.’ जब मैं यह रिकॉर्डिंग करवा रहा था, तो चश्मे–तसव्वुर (कल्पना दृष्टि) में अपनी बेटी की शादी, जो दो दिन बाद हो रही थी, उसका सारा मंजर देख रहा था. मैं उन्हीं लम्हों के जज्बात की रौ में बह गया कि कैसे मेरी बेटी डोली में बैठ कर मुझसे जुदा हो रही है और आंसू मेरी आंखों से बहने लगे. उसी कैफियत में मैंने यह गाना रिकॉर्ड कर दिया. मैंने इस गाने में रोने की एक्टिंग नहीं की थी, हकीकतन आंसू मेरे दिल की पुकार बन कर, आवाज के साए में ढल कर आ गए थे.
रफी के समकालीन, रफी की नजर में
मन्ना डे
मन्ना डे उम्र में मुझसे चार साल बड़े हैं. फिल्म लाइन में भी मुझसे सीनियर हैं. वह अपने मशहूर चाचा केसी डे की कितनी ही फिल्मों में मददगार रहे. फिल्म ‘रामराज्य‘ के लिए उन्होंने शंकरराव व्यास के डायरेक्शन में गाया भी था. लेकिन तकदीर का सितम देखिए, प्लेबैक सिंगर के तौर पर गाने का मौका उन्हें काफी दिनों बाद मिल सका. आखिर बर्मन दा ने ‘मशाल‘ में गाने का मौका दिया, जिसके एक गीत ‘ओ दुनिया के लोगो, लो हिम्मत से काम‘ में मन्ना डे ने अपनी उस्तादाना शान दिखाई.
मन्ना डे की आवाज गजब की है. बड़े सख्त रियाज के जरिए उन्होंने गायकी में कमाल हासिल किया है. वो मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं. उनके साथ गाने में मुझे बहुत सीखने को मिलता है. हम दोनों की दोस्ती इतनी गहरी है कि जब भी वक्त मिलता है, बड़ी बेतकल्लुफी के साथ इनके यहां जा धमकता हूं या वो मेरे घर आ जाते हैं.
तलत महमूद
तलत महमूद भी मेरे अच्छे दोस्त हैं. गजल गाने में इनका जवाब नहीं. शुरू में जब तलत कलकत्ता से आए तो यहां कोई भी म्यूजिक डायरेक्टर उन्हें नहीं जानता था. यूं कलकत्ता में गाए हुए उनके कुछ रिकॉर्ड हिट हो चुके थे और संगीत के जानकारों ने पसंद भी किए थे, लेकिन फिल्मों में कामयाब होने के लिए उन्हें फिर भी बहुत मेहनत करनी पड़ी. अनिल बिस्वास ने उन्हें फिल्म ‘आरजू‘ में दिलीप कुमार के लिए प्लेबैक सिंगर चुना, जिसमें इनका एक गीत ‘ऐ दिल मुझे’ सुपरहिट हुआ था. इसके बाद तो तलत पर काम की बारिश शुरू हो गई.
नौशाद साहब ने भी तलत को दिलीप कुमार के लिए प्लेबैक सिंगर बनाया. पर्दे पर वह गीत उस वक्त गाया जाता है, जब हीरो–हीरोइन कश्ती की सवारी करते हैं. मुखड़े और अंतरे के बीच एकलाइन उस कश्ती के मांझी को भी गानी थी. नौशाद साहब ने तलत को बताया कि यह लाइन रफी की आवाज में होगी. रिकॉर्डिंग के बाद तलत मुझसे कहने लगे– ‘यह बात मैं ख्वाब में भी नहीं सोच सकता था. आप एक ऐसे गीत में शरीक होना कुबूल कर लेंगे, जिसकी मुख्य आवाज एक जूनियर की हो.‘ मन्ना डे की तरह तलत के साथ भी मैंने बहुत से यादगार गीत गाए हैं. उनकी लंबी फेहरिस्त है. हां, इतना मुझे यकीन है कि फिल्म ‘हकीकत‘ का गीत ‘होके मजबूर‘ आज भी लोग भूल नहीं सके होंगे.
किशोर कुमार
किशोर कुमार को मैं दादा कहता हूं. ‘किशोर दा‘ कहने पर पहले उन्हें एतराज भी हुआ था और उन्होंने मुझसे कहा भी कि उन्हें किशोर दा नहीं, सिर्फ किशोर कहा करूं. उनकी दलील थी कि उम्र में वे मुझसे छोटे हैं और गायकी के कैरियर में भी मुझसे जूनियर हैं. बंगालियों में दादा बड़े भाई को कहा जाता है. लेकिन मेरी अपनी दलील थी. मैंने उन्हें समझाया कि मैं सब बंगालियों को दादा कहता हूं. चाहे वह उम्र में बड़े हों या छोटे. ये सुन किशोर दा को मेरी राय से इत्तेफ़ाक करना पड़ा. किशोर मुझे बहुत अजीज हैं. वह बहुत अच्छा गाते हैं. हर गीत में वह मूड और फिजा को इस खूबी से रचा देते हैं कि गीत और भी दिलकश हो जाता है. मैं उनके गाने बहुत शौक से सुनता हूं. एक वक्त वो भी आया जब मेरे मुकाबिल किशोर ज्यादा गीत रिकॉर्ड करा रहे थे. मगर इसका सबब पेशावराना मुकाबला हरगिज नहीं था.
असल बात यह थी कि मैं हज पर चला गया था. जब वापस आया, तो देखा कि शम्मी कपूर, राजेंद्र कुमार, दिलीप कुमार जैसे हीरो जिनके लिए मैंने सबसे ज्यादा प्लेबैक गीत गाए हैं. धीरे–धीरे नए आने वालों के लिए जगह खाली कर रहे हैं. उनकी जगह राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन संभाल रहे हैं. नए अदाकारों के साथ लोग किसी नई आवाज में गीत सुनना चाहते हैं. इसलिए किशोर दा की आवाज का जादू चल गया. फिजा की इस तब्दीली से मुझे भी खुशी हुई, आखिर दोस्त की कामयाबी अपनी कामयाबी होती है. यही सबब है कि हमारे ताल्लुकात में रंजिश का रंग कभी पैदा नहीं हुआ. फिर भी काम मुझे मिल रहा था और काफी मिल रहा था. चुनांचे किशोर दा से मेरी दोस्ती पहले की तरह बरकरार है.
(ब्लॉग दस्तक से साभार प्रकाशित)
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