हिंदुत्व के समर्थकों का दावा है कि श्मशानों में जलती चिताओं की तस्वीरें दिखाकर विदेशी मीडिया हिंदुओं का अपमान कर रहा है
देवदत्त पटनायक | 20 मई 2021 | फोटो: यूट्यूब/द गार्डियन
हिंदुत्व 19वीं सदी में उभरा राजनीतिक सिद्धांत है जो हिंदू धर्म की रक्षा करने का दावा करता है. हालांकि वह खुद सच का सामना करने से डरता है – मृत्यु का सच. गंगा में तैरते सैकड़ों शवों और पूरे देश में जलती हज़ारों चिताओं का सच. यह सिर्फ वायरस की भयावहता के बारे में ही नहीं बताता बल्कि हमारी अत्यंत शक्तिशाली उस केंद्र सरकार की अक्षमता को भी उजागर करता है जिसने अपने अहंकार में महीनों से मिल रहीं चेतावनियों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया.
यदि हमने समय पर मरीज़ों को ऑक्सीजन और स्वस्थ लोगों को वैक्सीन देने पर जोर दिया होता तो इनमें से कई मौतें नहीं हुई होतीं. लेकिन हिंदुत्व के समर्थकों का अब यह दावा है कि अख़बारों के पन्नों पर श्मशानों की तस्वीरें दिखाकर विदेशी मीडिया हिंदुओं का अपमान कर रहा है. ये समर्थक मीडिया पर पूर्वाग्रही होने का आरोप लगा रहे हैं. यह तो वही बात हुई कि अपने बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले माता-पिता पड़ोसियों से अपनी निजता का सम्मान करने की बात करें और अपने ड्रॉइंगरूमों में सुखी दिखने वाले पारिवार के चित्र लगाएं. संकट का सामना करने का यह तरीका हिंदुत्व का ही हो सकता है, हिंदू धर्म का नहीं.
हिंदुओं में अंतिम संस्कार सदियों से एक सार्वजनिक आयोजन रहे हैं. महात्मा गांधी के अंतिम संस्कार में पूरी दुनिया शामिल हुई. गांधी परिवार के अंतिम संस्कारों ने उनकी उस हिंदू पहचान को मजबूत करने का प्रयास किया जिसे हिंदुत्व के समर्थक होने का दावा करने वाले व्हॉट्सएप ग्रुप लगातार चुनौती देते रहे है. हिंदू अंतिम संस्कारों को देखने के लिए कई यात्रा वेबसाइटें विश्व भर के पर्यटकों को वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर आमंत्रित करती हैं. इसके बगल में ही उन्हें बॉलीवुड शैली की गंगा आरती भी देखने मिलती है.
निर्भयता से मृत्यु का सामना करना
दक्षिण भारत के कई समुदायों में, जब शव को दफनाने वाली जगह पर ले जाते हैं तो लोग नाचते-गाते हुए उसके साथ चलते हैं. इस दौरान शव को बैठी हुई मुद्रा में रखा जाता है. उत्तर भारत में, राजपूत राजाओं और रानियों के अंतिम संस्कार के स्थान पर ‘छतरी’ नामक भव्य मंडप बनाया जाता था. और गौतम बुद्ध की मृत्यु के समय के चित्र बौद्ध कला का अभिन्न हिस्सा हैं. 2,500 साल पहले, उनके दाह संस्कार के बाद एकत्र किए गए अवशेषों को राजाओं में बांटकर देश भर में 84 स्तूपों में रखा गया था.
लोक साहित्य के साथ-साथ महाभारत जैसे महाकाव्यों में भी रणभूमि के रक्तरंजित, विस्तृत वर्णन पाए जाते हैं. इनमें लाशों, कुत्तों, गिद्धों, कौवों, रोती हुईं विधवाओं और श्मशानों का विस्तृत वर्णन होता है. श्मशान की चिताओं के आसपास भूत, वैताल, भैरव और चामुंडा जैसे मृत्यु के देवी-देवताओं के अलावा तांत्रिक साधक भी उपस्थित होते हैं. ये साधक मृत्यु का निर्भयता से सामना कर आध्यात्मिक और तांत्रिक शक्तियां प्राप्त करना चाहते हैं.
भुवनेश्वर में स्थित 8वीं सदी का बेताल देउल मंदिर भारत के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है. यह चामुंडा देवी का मंदिर है. देवी के बारे में मान्यता यह है कि उन्होंने चंड और मुंड नाम के दो राक्षसों का वध किया था. चामुंडा देवी की यह कहानी 7वीं सदी के देवी पुराण में पाई जाती है. लेकिन, उनका व्यक्तित्व बहुत रहस्यमय है. उन्हें क्षीण रूप में दिखाया जाता है, नुकीले दांतों और उभरीं हुईं आंखों के साथ. इसलिए उनके शरीर को कंकाल शरीर कहा जाता है. उनकी छवि की एक विशेषता यह है कि वे अपने बाएं हाथ से दांत को कोमलता से साफ़ करती हैं और अपने दाहिने हाथ में एक तलवार धारण करती हैं.
वे अपना दांत क्यों साफ़ कर रहीं हैं? क्या लोगों के वध के बाद वे उनका मांस खाती हैं? अपनी कई भुजाओं में से एक में वे उन लोगों का रक्त पीने के लिए एक प्याला रखती हैं जिनका वे वध करती हैं. वे मृतकों की अंतड़ियों और उनके कटे हुए अंगों और मानव सिरों की माला से सजी हुईं होती हैं. वे भूतों या प्रेतों और शवों के भीतर रहने वाले वेतालों और जीवित लोगों में निवास करने वाले पिशाचों से घिरी हुईं होती हैं. उनका बिच्छुओं, कुत्तों और कौवों से निकट संबंध है. एलोरा की गुफ़ाओं में भी उनकी छवि शवों के ढेर पर बैठी हुईं दिखाई देती है.
क्या चामुंडा और कोटरावई एक ही देवियां हैं? कोटरावई देवी का उल्लेख तमिल साहित्य में मिलता है और वे शुष्क भूमि और रणभूमि में पाईं जाती हैं. क्या चामुंडा और वैदिक काल की नृत्ति एक हैं? नृत्ति, गांव के दक्षिण-पश्चिम कोने में, श्मशान के ठीक बग़ल में, मृत्यु के देवता और दक्षिण दिशा के संरक्षक, यमदेव के पास रहती हैं. क्या चामुंडा, महाभारत में वर्णित मौत की देवी मृत्यु हैं, जिनका मानना है कि मनुष्य अपने कर्मों के कारण मरते हैं, उनके कारण नहीं? पता नहीं!
लोग अक्सर चामुंडा को काली समझ लेते हैं. काली रक्तबीज नामक असुर का रक्त पीने के लिए अपनी जिह्वा फैलाती हैं. रक्तबीज के रक्त की हर बूंद जो धरती पर गिरती है उसका प्रतिरूप निर्माण करती है. लेकिन हम यह स्पष्ट रूप से जानते हैं कि चामुंडा को युद्ध और हिंसा के साथ कम (हथियार धारण करने वाले सभी देवताओं के बारे में यही माना जाता है) और मृत्यु से जुड़े भयावह पहलुओं – क्षय, सड़न और भटकते और विलाप करते हुए भूतों – के साथ ज्यादा जोड़ा जाता है. वे ढकी हुईं नहीं होती. उन्हें मंदिर में प्रतिष्ठापित किया जाता है ताकि सभी उन्हें देख सकें, यहां तक कि उनकी प्रशंसा कर सकें और उनसे कुछ सीख सकें. वे वीर, भयानक और वीभत्स रसों यानी वीरता, भय और घृणा के उन भावों की स्वामिनी हैं, जो सौंदर्यशास्त्र के भारतीय ग्रंथ और पांचवें वेद, नाट्य शास्त्र, में वर्णित हैं.
गोवा में, वेताल के मंदिर भी हैं, जो चामुंडा जितने क्षीण हैं और जिनके जननांग बहुत बड़े हैं. उनके एक हाथ में तलवार होती है और दूसरे हाथ में कटा हुआ सिर. कुछ लोग कहते हैं कि यह शिव का भैरव रूप है, जो लोगों में भय जगाता है. भैरव श्मशान में, चिता की रोशनी में नृत्य करते हैं, चरचराने की आवाज़ करने वालीं चामुंडा जितनी ही क्षीण योगिनियों से घिरे हुए. तिब्बत के तांत्रिक बौद्ध धर्म में, हेरुक यह रूप लेते हैं.
मृत्यु को स्वीकार किया जाता है
बौद्ध कला में, सिद्धों को हमेशा श्मशान में बैठे, हाथों में खोपड़ी पकड़े हुए व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है. वे हमें उन कपालिकों की याद दिलाते हैं जो अपने शरीर पर श्मशान की राख मलकर मृतकों की खोपड़ियों और हड्डियों से शक्ति प्राप्त करने का प्रयास करते हैं. वैदिक देवताओं के नेता, इंद्र, अपने हाथ में वज्र धारण करते हैं, जो ऋषि दधीचि के मेरुदंड से बनाया गया एक हथियार है.
शिव अपने हाथ में खट्वांग धारण करते हैं जो एक ऐसी गदा है जिसके ऊपर एक मनुष्य की खोपड़ी होती है. कर्नाटक में, ‘भूतों’ को पूजा जाता है. इन्हें पितरों की आत्माएं माना जाता है जो लौटकर अपने बच्चों से विशेष माध्यमों से बात करते हैं और नृत्य करके अपनी कहानियां दोहराते हैं. तमिल साहित्य में पेय अलवार और भूतनाथ अलवार नामक भूतों या आत्माओं की बात की गई है जो सबसे पहले विष्णु की कृपा के प्रति चेतन हुए और आनंदित होकर गीत गाने लगे.
हिंदुओं को मृत्यु से डर नहीं लगता. और न ही वे उसे छिपाते हैं. वे इसके बारे में सबको बताते हैं. जब किसी उच्च जाति के हिंदू व्यक्ति की मृत्यु होती है, तब 12 दिनों तक कई जटिल अनुष्ठान किए जाते हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि उसकी आत्मा को एक अस्थायी शरीर मिले ताकि वह वैतरणी नदी पार कर मृत्यु लोक में प्रवेश कर सके. मृत्यु के बाद के पहले वर्ष में हर महीने और उसके बाद वार्षिक अनुष्ठान किए जाते हैं.
वैदिक काल में, गृहस्थों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने घर में तीन तरह की अग्नि जलाएं – पहली परिवार के लिए, दूसरी देवताओं के लिए और तीसरी पूर्वजों के लिए. पितरों को आज भी दाहिने हाथ के अंगूठे से खिलाया जाता है. मृत्यु हमारे चारों ओर है. एक ऐसा अतीत जो वर्तमान को आकार देता है. इसलिए ज्ञान को मृत्यु से जोड़ा जाता है.
शिव, जो भय को जगाने वाले भैरव हैं, दक्षिण-मूर्ति भी हैं. एक ऐसे शिक्षक जो दक्षिण यानी मृत्यु या श्मशान की दिशा में मुख करके बैठते हैं. उस दिशा में शिव दक्षिण-काली, भैरवी, को देखते हैं, जो दक्षिण में स्थित मृतकों की दुनिया से आती हैं.
वैदिक परंपरा में मृत्यु अशुभ है, उसे नकारा जाता है. लेकिन वैदिक परंपरा को तांत्रिक परंपरा से पूर्ण किया जाता है, जहां मृत्यु शुभ है. तांत्रिक परंपरा में अशुभ वस्तु दिव्य (शिव) बन जाती है और काली की कृपा से शव ईश्वर (शिव) बन जाता है.
लोककथाओं में, महान राजा विक्रमादित्य उस शव को लाने के लिए निर्भय होकर श्मशान जाते हैं जिसमें वेताल का वास था. इस प्रयास में वेताल की सुनाईं कई कहानियों से वे जीवन की सच्चाई सीखते हैं. महाभारत के एक पूरे अध्याय शांति पर्व में वेद व्यास युद्ध के मैदान में पड़े शवों, विलाप करती विधवाओं और अनाथों, खून से लथपथ धरती, चीख़ते हुए कुत्तों और लोमड़ियों और सड़ा हुआ मांस खाने के इच्छुक कौवों और गिद्धों का वर्णन करते हैं. और इस वातावरण में गांधारी कौरवों की मृत्यु का शोक मनाती हुईं कृष्ण को शाप देती हैं.
ऐसा ही वर्णन मौसल पर्व में फिर से आता है. इसमें नशे में धुत यादवों की लड़ाई भयंकर युद्ध में बदल जाती है और अंततः समुद्रतट उनके शवों से पट जाता है.
शत्रु को सक्षम बनाना
हिंदू धर्म में ‘मार्टर’ (martyr) के लिए कोई शब्द नहीं हैं. ‘हुतात्मा’ वीडी सावरकर का दिया हुआ शब्द है. ‘मार्टर’ की तरह ‘शहीद’ शब्द भी एक अन्य एकेश्वरवादी धर्म से जुड़ा हुआ शब्द है. लेकिन हिंदुत्व ने उसे अपना लिया क्योंकि वह उसके राजनीतिक उद्देश्य के काम आता है. युद्ध की कहानियां सुनाना उसके समर्थकों को भाता है. हिंदुत्ववादी तरह-तरह की तस्वीरें व्हाॅट्सएप पर बांटते हैं. जैसे दुश्मन के सैनिकों को मारते हुए जवानों की तस्वीरें. अपनी देशभक्ति और प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करने के लिए नायकों द्वारा देवी को अपना सिर समर्पित करने वाली तस्वीरें. और अपने सम्मान की रक्षा के लिए सती हो जाने को तैयार नायिकाओं की तस्वीरें.
वे जिन राम और कृष्ण की पूजा करते हैं, वे हाथ में धनुष और सुदर्शन चक्र लिए युद्ध के लिए हमेशा तैयार दिखते हैं. वे इन छवियों का शाब्दिक अर्थ लेते हैं, उन्हें रूपक समझ नहीं आते. वे अस्पताल को रणभूमि समझने में अक्षम हैं, जहां सैकड़ों लोग एक वायरस से लड़ते हुए, एक-एक सांस के लिए संघर्ष कर रहे हैं. वे डॉक्टरों, नर्सों और पैरामेडिकों को योद्धा समझने में अक्षम हैं. जो लोग समय पर ऑक्सीजन न मिलने से या वैक्सीन न मिलने से मारे गए थे, उन्हें आप क्या मानेंगे? क्या हम उन्हें देश की व्यवस्था का शिकार कह सकते हैं?
फ़िलिस्तीन के मुसलमानों से लड़ने के लिए हिंदुत्ववादी इज़राइल को पसंद करते हैं, लेकिन वे इस बात की तरफ ध्यान नहीं देते कि वही इज़राइल कम से कम समय में अपने पूरे देश का टीकाकरण कर चुका है. इस बात को स्वीकार करना या अस्पताल को रणभूमि की तरह देखना, सरकार की विफलता को स्वीकार करना होगा. यह स्वीकार करना होगा कि उन पर ही इस महामारी से लड़ने की जिम्मेदारी थी और उनकी लापरवाही के कारण वे लोग मर गये जिन्हें मरना नहीं चाहिए था. यह उन्हें इतिहास के अपने ही संस्करण का जयचंद बना देगा, जिसने अपने देशवासियों को धोखा देकर शत्रु को सक्षम बनाया था.
चामुंडा, भैरव, वेताल, भूत, प्रेत और सिद्ध सभी श्मशानों में और नदी के किनारों पर उपस्थित हैं, हिंदुत्ववादियों को सत्य को देखने की चुनौती देते हुए और उसी निर्भयता से उसे स्वीकार करने के लिए जिस तरह की निर्भयता की अपेक्षा वे शहीदों से करते हैं. लेकिन ‘वीर’ होना सबके बस की बात नहीं है.
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