राजकुमार शुक्ल ने ही महात्मा गांधी और भारत का परिचय एक-दूसरे से कराया था. लेकिन इतिहास में उन्हें वाजिब स्थान न मिल सका
Satyagrah Bureau | 23 August 2021 | इलस्ट्रेशन: मनीषा यादव
महात्मा गांधी भारत की आजादी के लिए चली लड़ाई के सबसे बड़े नायक हैं, यह कहने वाली बात नहीं. लेकिन यही गांधी जब 21 सालों तक दक्षिण अफ्रीका रहकर 1915 में देश लौटे तो भारत के बारे में ज्यादा कुछ न जानते थे. जितना जानते थे, वह सतही और किताबी था. ऐसे में उनके राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने सलाह दी कि वे कम से कम एक बार पूरे देश का भ्रमण करें. उन्होंने ऐसा ही किया. इसके बाद भी वे तय न कर सके कि उनकी आगे की राजनीतिक और सामाजिक गतिविधि कैसे आगे बढ़ेगी.
ऐसी ही मनोस्थिति में उन्होंने दिसंबर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में भाग लिया. इसी आयोजन में उनकी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई जिसने उनकी राजनीति की दिशा बदलकर रख दी. इस सीधे-सादे लेकिन जिद्दी शख्स ने उन्हें अपने इलाके के किसानों की पीड़ा और अंग्रेजों द्वारा उनके शोषण की दास्तान बताई और उनसे इसे दूर करने का आग्रह किया.
गांधी पहली मुलाकात में इस शख्स से प्रभावित नहीं हुए थे और यही वजह थी कि उन्होंने उसे टाल दिया. लेकिन इस कम-पढ़े लिखे और जिद्दी किसान ने उनसे बार-बार मिलकर उन्हें अपना आग्रह मानने को बाध्य कर दिया. परिणाम यह हुआ कि चार महीने बाद ही चंपारण के किसानों को जबरदस्ती नील की खेती करने से हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई. गांधी को इतनी जल्दी सफलता का भरोसा न था. इस तरह गांधी का बिहार और चंपारण से नाता हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ गया. उन्हें चंपारण लाने वाले इस शख्स का नाम था राजकुमार शुक्ल.
चंपारण का किसान आंदोलन अप्रैल 1917 में हुआ था. गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह और अहिंसा के अपने आजमाए हुए अस्र का भारत में पहला प्रयोग चंपारण की धरती पर ही किया. यहीं उन्होंने यह भी तय किया कि वे आगे से केवल एक कपड़े पर ही गुजर-बसर करेंगे. इसी आंदोलन के बाद उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया गया. देश को राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, मजहरूल हक, ब्रजकिशोर प्रसाद जैसी महान विभूतियां भी इसी आंदोलन से मिलीं. इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि चंपारण आंदोलन देश के राजनीतिक इतिहास में कितना महत्वपूर्ण है. इस आंदोलन से ही देश को नया नेता और नई तरह की राजनीति मिलने का भरोसा पैदा हुआ.
लेकिन राजकुमार शुक्ल और उनकी जिद न होती तो चंपारण आंदोलन से गांधी का जुड़ाव शायद ही संभव हो पाता. अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के पांचवें भाग के बारहवें अध्याय ‘नील का दाग’ में गांधी लिखते हैं, ‘लखनऊ कांग्रेस में जाने से पहले तक मैं चंपारण का नाम तक न जानता था. नील की खेती होती है, इसका तो ख्याल भी न के बराबर था. इसके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी भी मुझे कोई जानकारी न थी.’ उन्होंने आगे लिखा है, ‘राजकुमार शुक्ल नाम के चंपारण के एक किसान ने वहां मेरा पीछा पकड़ा. वकील बाबू (ब्रजकिशोर प्रसाद, बिहार के उस समय के नामी वकील और जयप्रकाश नारायण के ससुर) आपको सब हाल बताएंगे, कहकर वे मेरा पीछा करते जाते और मुझे अपने यहां आने का निमंत्रण देते जाते.’
लेकिन महात्मा गांधी ने राजकुमार शुक्ल से कहा कि फिलहाल वे उनका पीछा करना छोड़ दें. इस अधिवेशन में ब्रजकिशोर प्रसाद ने चंपारण की दुर्दशा पर अपनी बात रखी जिसके बाद कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर दिया. इसके बाद भी राजकुमार शुक्ल संतुष्ट न हुए. वे गांधी जी को चंपारण लिवा जाने की जिद ठाने रहे. इस पर गांधी ने अनमने भाव से कह दिया, ‘अपने भ्रमण में चंपारण को भी शामिल कर लूंगा और एक-दो दिन वहां ठहर कर अपनी नजरों से वहां का हाल देख भी लूंगा. बिना देखे इस विषय पर मैं कोई राय नहीं दे सकता.’
इसके बाद गांधी जी कानपुर चले गए, लेकिन शुक्ल जी ने वहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा. वहां उन्होंने कहा, ‘यहां से चंपारण बहुत नजदीक है. एक दिन दे दीजिए.’ इस पर गांधी ने कहा, ‘अभी मुझे माफ कीजिए, लेकिन मैं वहां आने का वचन देता हूं.’ गांधी जी लिखते हैं कि ऐसा कहकर उन्होंने बंधा हुआ महसूस किया.
इसके बाद भी इस जिद्दी किसान ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. वे अहमदाबाद में उनके आश्रम तक पहुंच गए और जाने की तारीख तय करने की जिद की. ऐसे में गांधी से रहा न गया. उन्होंने कहा कि वे सात अप्रैल को कलकत्ता जा रहे हैं. उन्होंने राजकुमार शुक्ल से कहा कि वहां आकर उन्हें लिवा जाएं. राजकुमार शुक्ल ने सात अप्रैल, 1917 को गांधी जी के कलकता पहुंचने से पहले ही वहां डेरा डाल दिया था. इस पर गांधी जी ने लिखा, ‘इस अपढ़, अनगढ़ लेकिन निश्चयी किसान ने मुझे जीत लिया.’
गांधी जी की पहली पटना यात्रा और चंपारण आंदोलन
चंपारण बिहार के पश्चिमोत्तर इलाके में आता है. इसकी सीमाएं नेपाल से सटती हैं. यहां पर उस समय अंग्रेजों ने व्यवस्था कर रखी थी कि हर बीघे में तीन कट्ठे जमीन पर नील की खेती किसानों को करनी ही होगी. पूरे देश में बंगाल के अलावा यहीं पर नील की खेती होती थी. इसके किसानों को इस बेवजह की मेहनत के बदले में कुछ भी नहीं मिलता था. उस पर उन पर 42 तरह के अजीब-से कर डाले गए थे. राजकुमार शुक्ल इलाके के एक समृद्ध किसान थे. उन्होंने शोषण की इस व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया, जिसके एवज में उन्हें कई बार अंग्रेजों के कोड़े और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा. जब उनके काफी प्रयास करने के बाद भी कुछ न हुआ तो उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को बुलाने के लिए कांग्रेस के लखनऊ कांग्रेस में जाने का फैसला लिया. लेकिन वहां जाने पर उन्हें गांधी जी को जोड़ने का सुझाव मिला और वे उनके पीछे लग गए.
अंतत: गांधी जी माने और 10 अप्रैल को दोनों जन कलकत्ता से पटना पहुंचे. वे लिखते हैं, ‘रास्ते में ही मुझे समझ में आ गया था कि ये जनाब बड़े सरल इंसान हैं और आगे का रास्ता मुझे अपने तरीके से तय करना होगा.’ पटना के बाद अगले दिन वे दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचे. वहां पर अहले सुबह उनका स्वागत मुजफ्फरपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और बाद में कांग्रेस के अध्यक्ष बने जेबी कृपलानी और उनके छात्रों ने किया. शुक्ल जी ने यहां गांधी जी को छोड़कर चंपारण का रुख किया, ताकि उनके वहां जाने से पहले सारी तैयारियां पूरी की जा सकें. मुजफ्फरपुर में ही गांधी से राजेंद्र प्रसाद की पहली मुलाकात हुई. यहीं पर उन्होंने राज्य के कई बड़े वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से आगे की रणनीति तय की.
इसके बाद कमिश्नर की अनुमति न मिलने पर भी महात्मा गांधी ने 15 अप्रैल को चंपारण की धरती पर अपना पहला कदम रखा.यहां उन्हें राजकुमार शुक्ल जैसे कई किसानों का भरपूर सहयोग मिला. पीड़ित किसानों के बयानों को कलमबद्ध किया गया. बिना कांग्रेस का प्रत्यक्ष साथ लिए हुए यह लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी गई. इसकी वहां के अखबारों में भरपूर चर्चा हुई जिससे आंदोलन को जनता का खूब साथ मिला. इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा. इस तरह यहां पिछले 135 सालों से चली आ रही नील की खेती धीरे-धीरे बंद हो गई. साथ ही नीलहे किसानों का शोषण भी हमेशा के लिए खत्म हो गया.
चंपारण किसान आंदोलन देश की आजादी के संघर्ष का मजबूत प्रतीक बन गया था. और इस पूरे आंदोलन के पीछे एक पतला-दुबला किसान था, जिसकी जिद ने गांधी जी को चंपारण आने के लिए मजबूर कर दिया था. हालांकि राजकुमार शुक्ल को भारत के राजनीतिक इतिहास में वह जगह नहीं मिल सकी जो मिलनी चाहिए थी.
चंदन शर्मा
>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com