समाज | कभी-कभार

अब राजनीति स्वयं गुंडागर्दी का एक संस्करण बनती जा रही है

लोकतंत्र संवाद और सहकार से चलता है जिसकी कोई जगह या गुंजाइश गुंडागर्दी सुरक्षित नहीं छोड़ रही है

अशोक वाजपेयी | 29 अगस्त 2021

राजनीति और गुंडागर्दी

राजनीति में गुंडागर्दी का कब प्रवेश हुआ, यह नहीं मालूम. लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि राजनीति में बड़ी संख्या में विभिन्न अपराधों के आरोपियों की अब गहरी और व्यापक पैठ है. कई आरोपी विधान सभाओं और संसद में धड़ल्ले से चुने जाकर आ चुके हैं. इनमें से अनेक को राजनीति में गुंडागर्दी को प्रतिष्ठित करने और लगभग वैध या उचित ठहराने का श्रेय दिया जा सकता है. कई राजनेता तो खुलेआम गुंडे लगते हैं और कइयों ने राजनीति में प्रवेश ही इसलिए किया है कि उन्हें कथित अपराधों के लिए सज़ा न मिल सके. धीरे-धीरे ऐसे लोगों के प्रभाव में अब राजनीति स्वयं गुंडागर्दी का एक संस्करण बनती नज़र आ रही है. लोकतांत्रिक राजनीति में गुंडागर्दी की इस पैठ ने उसे कितना विकृत कर दिया है इसका आकलन करना अभी बाक़ी है. धनबल, बाहुबल, हेकड़ी, हिंसा, अत्याचार, भेदभाव, घृणा आदि अब राजनीति के वैध और लोकप्रिय उपकरण बन गये हैं. गुंडागर्दी सिर्फ़ राजनीति तक सीमित नहीं है – वह धर्मों, मीडिया, विश्वविद्यालयों आदि में भी लगातार फैलती जा रही है. हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने देश के कई प्रमुख राजनैतिक दलों पर, जिनमें भाजपा, कांग्रेस आदि शामिल हैं, लाख-लाख रुपये का जुर्माना किया है क्योंकि उन्होंने यथासमय संसद और विधान सभाओं में अपने उम्मीदवारों के आपराधिक मामलों के ब्यौरे सार्वजनिक नहीं किये. यह आकस्मिक नहीं है कि हत्या-हिंसा-दंगा कराने-बलात्कार आदि अपराधों के आरोपी संसद और विधान सभाओं में प्रवेश कर चुके हैं.

यही नहीं, ऐसे कई छात्र संगठन हैं जो गुंडई पर उतर कर प्रशासन पर दबाव बनाते हैं और उनसे अलग विचार रखने वालों को अपने विचार व्यक्त करने से रोकते हैं. केंद्रीय सागर विश्वविद्यालय में एक पूरा सेमिनार इस गुंडई के दबाव में रद्द कर दिया गया. इन दिनों सार्वजनिक संवाद में जो बहुत निचले क़िस्म की आक्रामकता, धौंस और गाली-गलौज नज़र आती या सुनायी पड़ती हैं, वे ऐसी ही गुंडागर्दी का इज़हार हैं. लिंचिंग, लव जेहाद आदि उसी के अत्यंत गर्हित संस्करण हैं.

साम्प्रदायिकता, धर्मांधता और भेदभाव फैलाने वाली शक्तियां बारहा इसी तरह की गुंडागर्दी अपनाकर समाज में अपना रौब ग़ालिब कर रही हैं. न सिर्फ़ नागरिक जीवन इससे दूषित और विकृत हो रहा है बल्कि लोकतंत्र पर ही यह कुठाराघात करने के बराबर है. लोकतंत्र संवाद और सहकार से चलता है जिसकी कोई जगह या गुंजाइश गुंडागर्दी सुरक्षित नहीं छोड़ रही है. दुर्भाग्य से, साहित्य-जगत् भी इस कुप्रवृत्ति से पाक-साफ़ नहीं रह पाया है. सोशल मीडिया पर ऐसे कई समूह सक्रिय हैं जो लगातार कुछ लेखकों पर, जिनसे उनकी सहमति है, कीचड़ उछालते, उन पर फ़तवे जारी करते रहते हैं जो कि एक तरह की गुंडागर्दी ही है. शायद कुछ संगठन भी अब ऐसे गुंडा-लेखकों को पाल-पोस रहे हैं. गुंडई में रस लेना गुंडागर्दी में शामिल होने के बराबर है.

असर उसको ज़रा नहीं

आये दिन अदालतें, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय आधे-अधूरे, अपर्याप्त अनुसंधान या साक्ष्य के आधार पर व्यक्तियों या समूहों के विरूद्ध मुकदमे चलाये रखने पर, पुलिस, केंद्रीय जांच ब्यूरो आदि को फटकारती रहती हैं. पर ये सभी अधिकरण इस क़दर ढीठ और बेशर्म हो गये हैं कि उन पर कोई असर नहीं होता. देश के मुख्य न्यायाधीश ने तो हाल में यह तक कह दिया कि पुलिस और ब्यूरो उनकी बात पर ध्यान नहीं देते. इस मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस और दिल्ली पुलिस का रिकार्ड सबसे ख़राब है. ऐसी बारम्बार निंदा के बावजूद उनमें से किसी ने भी सावधानी बरतने, अपर्याप्त आधार पर कार्रवाई न करने, सच्चे अपराधों के लिए दोषी व्यक्तियों को न्यायालय से समुचित दंड दिलवाने में चुस्ती बरतने की दिशा में कोई क़दम उठाये हैं, इसका कोई प्रमाण दिखायी नहीं देता. अक्षमता, अन्यायपूर्ण कार्रवाई करने के लिए किसी अधिकारी को दण्डित किया गया हो ऐसा भी नहीं नज़र नहीं आया. इतनी सारी ज्यादतियां, चूकें करने के बाद भी ये संस्थाएं अपना काम वैसे ही करती रहती हैं जैसे कि चूकने या ज़्यादती करने का उनका कोई मौरूसी हक़ हो. लोकतंत्र में इन संस्थाओं का सत्ताधारी दल और निज़ाम का इतना पालतू स्वामिभक्त और वफ़ादार बन जाना हैरत में डालता है. इनके शीर्ष पर बैठे उच्च अधिकारियों ने तो संविधान के प्रति निष्ठा निभाने की शपथ ले रखी है जिसे अवसरवादिता के चलते भुला देना निश्चय ही निंदनीय है.

अदालतें जो हिदायतें देती हैं, उनका पालन करने का सुनिश्चय और वह भी निश्चित समय-सीमा के अन्दर करवाने का स्पष्ट निर्देश भी उन्हें ही देना चाहिये. अगर फिर भी कोताही होगी पर तब वह सबके सामने आ सकेगी. एक और तरीका यह है कि विधायक और सांसद ऐसे मामलों में आगे क्या कार्रवाई हुई, किसको ज़िम्मेदार ठहराया जाकर दण्डित किया गया आदि को लेकर विधान सभाओं और संसद में प्रश्न पूछ सकते हैं. तीसरा उपाय यह है कि वे अख़बार और चैनल, जो गोदी मीडिया का हिस्सा नहीं हैं और जोखिम उठाकर स्वतंत्रचेता हैं, गाहे-बगाहे इन मामलों का जायज़ा लें और पता लगाकर पाठकों को बतायें कि आगे कोई कार्रवाई हुई या नहीं हुई. पुलिस की सर्वथा असंवैधानिक मनमानी और अन्याय को ‘यह तो होता ही रहता है’ मानकर ऐसे ही नहीं छोड़ देना चाहिये. जब लोकतंत्र में हर नागरिक ज़िम्मेदार है तो पुलिस को भी ज़िम्मेदार होने से छूट नहीं दी जा सकती. उत्तर प्रदेश या दिल्ली पुलिस का लगातार पक्षपाती आचरण उनकी अपनी छवि को तो धूमिल करता ही है, वह लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान को भी दूषित-विकृत करता है. यह अगर पुलिस और उसके वरिष्ठ अधिकारी नहीं समझते तो उन्हें समझाया जाना चाहिये. अजब विडम्बना है कि क़ानून के शासन को सुनिश्चित करने वाली संस्थाएं स्वयं उसका उल्लंघन करती रहें और उनमें से किसी का बाल भी बांका न हो!

फिर भी वहीं

तिब्बत कुछ दशकों पहले हमारा पड़ोसी देश था. अब चीन ने हड़पकर उसे अपना एक प्रदेश बना दिया है. दलाई लामा के अलावा लाखों तिब्बती और अब उनकी कई पीढ़ियां भारत में रह रही हैं. कई क्षेत्रों में निर्वासित तिब्बती विलक्षणरूप से सक्रिय हैं और कविता उनमें एक है. संपादक और अनुवादक अनुराधा सिंह ने इस कविता से चुनकर कुछ कवि और उनके बारे में संदर्भ सामग्री ‘ल्हासा का लहू’ पुस्तक में (वाणी प्रकाशन) प्रस्तुत किये हैं. उनमें से कुछ कवितांशः

‘मैं एक तिब्बती/जो तिब्बत से नहीं आया/कभी नहीं गया वहां/फिर भी वहीं मर सकने का/स्वप्न देखता हूं.’

‘ये सफ़ेद पत्थर बीन लो/और अजीब अपरिचित पत्तियां भी/मोड़ों और चट्टानों पर निशान लगा लो/हो सकता है/इसी रास्ते तुम्हें घर लौटना पढ़े.’ (तेनज़ी सण्डू)

‘कौन सा था वह साल मां? वही जब उन्होंने जला दिया था धर्म ग्रंथों को/गांव के चौराहों पर/और अपने दल की तारीफ़ में गाये थे क्रांति गीत/तुम पैदा हुए थे और घास के तिनकों ने उड़ना बंद कर दिया था/मां, क्या यही था वह साल जब तुमने गाना बंद कर दिया था? हां, यही था वह साल जब वे पड़ोसन को ले गये थे/डाल दिया था श्रम शिविर में/क्योंकि नहर खोदते समय वह गुनगुना रही थी एक लोकगीत/तुम जन्मे जब लोग एक एक कर ग़ायब होते जा रहे थे….’ (भुतुंग डी सोनम)

‘पहले मुझे ठंड लगती है, फिर मैं गुनगुनी हो जाती हूं/मैं ऊर्जा चालन नहीं समझती/ना ही झूठ के रहस्य को/सड़क, पत्थरों में बर्दाश्त से अधिक/धंस जाने वाली पत्तियों से उकतायी हुई/उनके आरोपण से चित्तीदार है. एक कौआ, कौन क्या जानता है के विचार से आबद्ध/चिमनी पर मंडराता है. जीवन की गहनता/गर्म हवा में ऊपर की ओर धक्का देती है./यह एक अतिसाधारण सड़क पर एक अतिसाधारण दिन है/जहां लोगों के अस्तित्व का एकमात्र चिह्न/उनकी जलती हुई पोर्चलाइट है, वह भी कोहरे से सहमी हुई,/और टेलीविजन स्क्रीन पर शरणार्थियों की तस्वीरें हैं.’ (सेरिंग वांग्मो घोम्पा)

इन कविताओं से प्रवासी तिब्बती कविता के अनेक मर्मपक्ष, यातना तथा निर्वासन के नकूश उभरते हैं. किसी हद तक ये कवि कविता के माध्यम से अपने छूट गये देश को भाषा में पुनरायत्त करते हैं.

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