जीप सफारी

समाज | विशेष रिपोर्ट

हमारे पास एक ही रेगिस्तान है, हम उसे सहेज लें या बर्बाद कर दें

जैसलमेर के आस-पास स्थित रेत के टीलों पर या उनके आस-पास जो हो रहा है, चलता रहा तो इन इलाकों की पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था चौपट होनी तय है

अश्वनी कबीर | 01 मार्च 2021 | फोटो: यूट्यूब

महिषाराम मेघवाल जैसलमेर के खुरी में स्थित सैंड ड्यून्स यानी रेत के टीलों में ऊंट सफारी का कार्य करते हैं. वे इस काम में पिछले तीन दशकों से जुड़े हुए हैं. किसी समय उनके पास पांच ऊंट हुआ करते थे. लेकिन अब उनके पास केवल एक ही ऊंट बचा है. वे इसे भी बेचने के बारे में सोच रहे हैं. लेकिन आजीविका का कोई दूसरा विकल्प नहीं होने की वजह से ऐसा नहीं कर पा रहे हैं. हालांकि वे यह मानते हैं कि जल्द ही उन्हें ऐसा करना ही पड़ेगा.

जैसलमेर में पर्यटकों के घूमने की दो मुख्य पसंदीदा जगहें हैं – सम सैंड ड्यून्स ओर खुरी सैंड ड्यून्स. ये दोनों जगहें अपने घुमावदार बालू रेत के टीलों, दुर्लभ वनस्पतियों और ख़ास प्रकार के जीव-जंतुओं के लिए जानी जाती हैं. सम सैंड ड्यून्स जैसलमेर से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित हैं और खुरी लगभग 50 किलोमीटर.

जैसलमेर आने वाले पर्यटक इन मिट्टी के धोरों में जाए बगैर नहीं रहते. या यूं कहें कि वे इन्ही रेत के धोरों से मिलने जैसलमेर आते हैं. यहां आकर वे कुदरत की अठखेलियों को देखना चाहते हैं. मिट्टी के धोरों की कलाबाजियों में जीना चाहते हैं. वे उस बालू रेत से खेलना चाहते हैं जो इस स्थान के रहने वालों के लिए सबकुछ है.

रेगिस्तान की पहचान मिट्टी के धोरों (टीलों) से ही है. ये रेत के टीले ही यहां के लोगों की आजीविका, पारिस्थितिकी ओर लोक संस्कृति तीनों से बेहद करीब से जुड़े हुए हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से लगातार इनके साथ हमारे सम्बन्धों को बिगाड़ने का काम हो रहा है. रेगिस्तान को जानने-समझने वाले मानते हैं कि यदि यही स्थिति जारी रही तो पहले से निर्जन रेगिस्तान को बेजान बनने में अब ज्यादा वक्त नहीं है.

दरअसल पिछले कुछ समय में हुआ यह है कि जीप सफारी, मोटे टायरों वाली मोटरसाइकिलों, नाइट सफारी, धोरों पर मौजूद तमाम नाइट कैम्प्स ने इन रेत के धोरों को लगभग बर्बाद सा कर दिया है. इनकी वजह से सम और खुरी में मौजूद बालू रेत के टीले समतल हो रहे हैं. इस वजह से इन इलाकों में आने वाले पर्यटकों के मन में इनका आकर्षण कम हो रहा है. इसका सीधा असर यहां के लोगों की आजीविका पर पड़ रहा है.

सम सैंड ड्यून्स में जीप सफारी का एक प्रमोशनल वीडियो

आजीविका का संकट

अकेले खुरी और उसके नजदीक की ढाणियों में रहने वाले महिषाराम जैसे करीब 200 परिवारों का रोजगार पर्यटकों को ऊंट की सवारी कराने या यों कहें कि मिट्टी के टीलों पर ही टिका है. आज ये सभी ऊंट पालक गहरी चिंता में हैं. पिछले कुछ समय से यहां पहले ही पर्यटक बहुत कम आ रहे हैं. और उनको भी जीप सफारी ने इनसे छीन लिया है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो जल्दी ही इन लोगों के सामने रोजगार का और भी गंभीर संकट पैदा हो सकता है.

यही हालात सम सैंड ड्यून्स के भी हैं. वहां पर करीब 500 परिवारों की रोजी-रोटी ऊंट सफारी से जुड़ी है. ऊंट सफारी का काम छह महीने – अक्टूबर से मार्च तक – चलता है. लेकिन यहां पर इस बार जनवरी के महीने में ही सन्नाटा पसरा हुआ है. इसकी एक वजह तो कोरोना महामारी है लेकिन वही इसकी एकमात्र वजह नहीं है.

सम सैंड ड्यून्स में ऊंट पालन का काम करने वाले लुंगे खान ने दो महीने पहले अपना ऊंट बेंच दिया. 55 वर्षीय लुंगे खान का कहना है कि “जब पर्यटक ही नहीं आ रहे तो वे ऊंट का करेंगे क्या? और जो आ रहे हैं वो जीप सफारी वाले है. इस वजह से हमारे पास काम नहीं रहा. पिछले एक दशक में इन जीपों के कारण सैंड ड्यून्स लगातार गायब हो रहे हैं. इस वजह से सैलानी धीरे-धीरे कम होते-होते अब बहुत कम हो गए हैं.”

लुंगे खान हमे बताते हैं कि “पहले कितने ही फ़ोटोग्राफर यहां आते थे. वे हमारे ऊंटों पर बैठकर दिन भर घूमते अपनी फोटोग्राफी के लिए स्थान तलाशते लेकिन अब वे बिल्कुल बन्द हो गए हैं. हमने झाड़- बोजड़ियों को हटा दिया, धोरों को समतल कर दिया और लोक संगीत के स्थान पर डीजे बजाने लगे तो विदेशी सैलानियों के साथ-साथ लोकल लोगों ने भी यहां पर आना कम कर दिया. जब ऊंट से परिवार को चलाना मुश्किल हो गया तो हमने अपने ऊंट को बेच दिया.”

महिषाराम भी लुंगे खान की बातों से सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘ऊंट के पैरों के नीचे गद्दियां लगी होती हैं. वो मिट्टी को समतल नहीं करता. एक ऊंट एक दिन में अधिकतम दो-तीन पर्यटकों को घुमा सकता है. एक चक्कर सुबह और एक शाम. अगर 200 ऊंट भी मान लें तो दिन भर में 400 लोग हुए जो किसी रेत के धोरे पर ज्यादा से ज्यादा एक बार जाएंगे ओर एक बार वापस आयेंगे. इतनी बालू रेत को तो आंधी बराबर कर देती है. इसलिए ऊंटों से बालू रेत के टीलों पर कोई दबाव नहीं बनता.’

लेकिन एक ही जीप जब सैंकड़ों बार एक ही धोरे पर आती जाती है तो वहां की बालू रेत समतल हो जाती है. पिछले तीन-चार सालों से नाइट जीप सफारी भी चल रही है. अकेले खुरी में 50 से ज्यादा रिज़ॉर्ट ओर इतने ही होटल हैं. हर रिज़ॉर्ट में कम से कम एक जीप है. एक जीप दिन व रात की सफारी मिलाकर औसतन 300/400 बार एक ही धोरे से गुजरती है. यदि कुल जीपों की संख्या 100 मान लें और एक दिन में एक जीप 300 बार भी चली तो 100 जीप एक धोरे से कुल 30 हज़ार बार निकलेंगी. वे एक महीने में नौ लाख बार एक टीले पर चलेंगी और अक्टूबर से लेकर फरवरी तक वो 54 लाख बार निकली होंगी. इतने में उस टीले का क्या बचेगा?

सम और खुरी सैंड ड्यून्स में सैकड़ों जीपें रोज़ सफारी के लिए जाती हैं

खुरी में राजस्थान डेजर्ट रिज़ॉर्ट के मालिक खुशपाल भाटी हमें बताते हैं, ”हम पिछले दो दशकों से अपना रिज़ॉर्ट चला रहे हैं. ये बात बिल्कुल सही है कि जीप सफारी और नाइट जीप सफारी से मिट्टी के टीले समतल हो रहे हैं. लेकिन हमने भी जीप रखी हुई हैं. दूसरे रिज़ॉर्ट से कॉम्पटीशन का मामला हैं.’’

खुशपाल भाटी आगे बताते हैं” यहां एक दूसरी बात भी है जिस पर हम ध्यान नहीं दे रहे हैं. इस इलाके में मिट्टी के नये टीले नहीं बन रहे हैं. हमने उनके बनने-बिगड़ने के नेचुरल प्रोसेस को रोक दिया है. धोरों के किनारों पर पेड़ लगा रहे हैं. वहां पत्थर की दीवार लगा रहे हैं. उनके फैलाव को रोक रहे हैं. जब धोरों का फैलाव नहीं होगा तो नए धोरे बनेंगे कैसे?’

थार की जैव विविधता पर संकट

दुनिया मे मौजूद तमाम रेगिस्तानों में थार एकमात्र एसा रेगिस्तान है जहां जैव विविधता इतने बड़े स्तर पर पाई जाती है. थार के रेगिस्तान में जीवन अत्यंत कठोर है. यहां जल तथा आहार का अभाव और भीषण गर्मी जीवन को और भी जटिल बना देते हैं. लेकिन इतनी विषम परिस्थिति के बावजूद इस इलाके में जीवों की अनेक प्रजातियां फलती-फूलती रहती हैं.

रेगिस्तान में जीवन की उत्तरजीविता का कारण रेगिस्तानी जीवों का यहां के वातावरण के अनुसार सुरक्षात्मक क्रियाविधियां विकसित कर लेना है. दिन के समय रेगिस्तान निर्जन स्थल लगता है. लेकिन दिन ढलते ही रात के अंधेरे में यहां विभिन्न जीव-जंतु अपने-अपने सुरक्षित आवास स्थलों से बाहर निकल कर मरुभूमि को एक बेहद जीवन्त स्थान बना देते हैं.

थार रेगिस्तान में पाए जाने वाले जीव-जंतुओं में ऊंट व भेड़-बकरियों के अलावा हिरण, लोमड़ी, गो, सेह, रेगिस्तानी बिल्ली, जंगली सुअर, खरगोश, जहरीले सांपों की तीनों प्रजातियां (कोबरा, वाइपर, करैत) विभिन्न छिपकलियां, सांडा, गिरगिट, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, उल्लू, बाज, सुनहरी चिड़िया, बिच्छू, झाऊ मुस्सा/कांटों वाला चूहा और असंख्य कीड़े-मकोड़े शामिल हैं.

रेगिस्तानी जीव ख़ास कर सरीसृप ओर स्तनधारी जीव अत्यधिक संवेदनशील होते हैं. उनके जीवन चक्र मे जरा सी दखलंदाजी उन्हें विलुप्ति की ओर ले जाती है. यहां पाए जाने वाले जीव-जंतुओं और यहां की वनस्पति में गहरा रिश्ता है. यानी कि इनमें से किसी एक के साथ कोई भी छेड़छाड़ यहां की सम्पूर्ण पारिस्थितिकी को बदलकर रख देती है.

खुरी स्थित राजस्थानी डेजर्ट रिज़ॉर्ट में डांसर का काम करने वाली खेतु कालबेलिया हमें बताती हैं कि “हमने सांपों के घर पर कब्जा कर लिया है. कुछ साल पहले तक रेगिस्तान का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जहां से हम जहरीले सांप व बिच्छू नहीं पकड़ते थे. लेकिन अब सप्ताह में कभी-कभार ही कोई सांप नजर आता है. अब मिट्टी के धोरों पर दिन-रात मोटर-गाड़ियों की चहलकदमी रहती है.”

कमल सिंह भाटी जैसलमेर में खुरी ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले धोबा गांव के नजदीक एक ढाणी (बहुत छोटी एक बसावट) में रहते हैं. उनके चार बच्चे हैं. 45 वर्षीय भाटी भेड़-बकरियां चराते हैं. उनके पास 30 भेड़-बकरियां हैं. वे रेगिस्तान में होने वाली न के बराबर बारिश से ही अपने खाने लायक अन्न उपजा लेते हैं.

कमल सिंह के पास एक झुप्पी (झोपड़ी) है जिसकी दीवारें मिट्टी की ओर छत खींप (घास) की बनी है. यह मिट्टी की झुप्पी यहां की जलवायु के एकदम अनुरूप है. यह गर्मी में ठंडी ओर सर्दी में गर्म रहती है. उनके पास भेड़-बकरियों के लिए एक बाड़ा भी है. जहां से आती छोटे मेमनों की आवाज आपकी ध्यान आकर्षित करती है.

उस बाड़े में जाने पर दिखायी देता है कि कमल सिंह हिरण के एक छोटे से बच्चे को बकरी का दूध पिलाने की कोशिश में लगे हुए हैं. इस हिरण के बच्चे को वे दो दिन पहले ही सड़क के किनारे से उठाकर लाये थे. वह अपनी मां की मृत देह के पास बैठा हुआ था जिसे रात में किसी जीप ने टक्कर मार दी थी. कमल ने उस छोटी हिरनी को अपने भेड़ -बकरियों के झुंड के साथ रखा है. अब वह बकरी का दूध पीना सीख रहा है.

“ये पहला मामला नहीं हैं जब किसी सफारी वाली जीप ने किसी हिरण को टक्कर मारी है. यहां तो आये दिन हिरण, लोमड़ी, नील गाय, गो आदि जानवर मारे जा रहे हैं. या तो वे जीप की टक्कर से मर जाते हैं या फिर उनको मनोरंजन की बलि चढ़ा दिया जाता है” कमल हमें आगे बताते हैं, “जो जीव बच जाते हैं वे हर समय यहां होते रहने वाले शोर-गुल की वजह से दूर जा रहे हैं. इन होटलों में ओर रिज़ॉर्ट्स में रात भर डीजे बजता रहता है. उसके बाद रात वाली जीप सफारी भी होती है जो रात में 11-12 बजे से शुरु होकर सुबह के 3-4 बजे तक चलती है. यही नहीं मोटे टायरों वाली मोटरसाइकिलों से भी सफारी होती है. इनकी आवाज से रेगिस्तान के जीव निरन्तर यहां से दूर हो रहे हैं.”

सैंड ड्यून्स की सैर कराने वाले ऊंटों को आजकल बड़ी मुश्किल से ही काम मिलता है

लोक संस्कृति का डूबना

सैंड ड्यून्स में शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. ये कार्यक्रम राजस्थानी लोक संस्कृति से सम्बंधित होते हैं. इनमें यहां के लोक कलाकार – लंगा, मांगणियार, भील, कालबेलिया, भोपा और बागरी समुदाय के लोग – भाग लेते हैं. अकेले सम सैंड ड्यून्स में 500 से ज्यादा रिज़ॉर्ट और होटल हैं और लगभग उन सभी में किसी न किसी तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं.

अगर कुछ समय पहले की बात करें तो एक रिज़ॉर्ट से पांच से सात लोक कलाकार जुड़े होते थे. सम और खुरी में मिलकर करीब 600 रिज़ॉर्ट ओर होटल्स हैं जहां करीब 3500 लोक कलाकारों के परिवारों को रोजगार मिलता था. पिछले 3/4 सालों से इनके स्थान पर डीजे साउंड की कल्चर को प्रमोट किया जा रहा है. अब मुश्किल से चार-पांच ही ऐसे रिज़ॉर्ट बचे हैं जिनमें अभी भी लोक कलाकार ही अपनी परफॉर्मेंस देते हैं. बाकियों में रात भर डीजे का कार्यक्रम ही चलता रहता है. इस वजह से जैसलमेर के इन इलाकों में लोक कलाकारों को आजीविका मिलना बहुत मुश्किल होता जा रहा है.

डीजे संगीत की वजह से न केवल तमाम लोक संगीतकारों को रोजगार मिलना बंद हो गया है बल्कि जैसा कि कमल सिंह भाटी ने बताया यह यहां के जीव-जंतुओं के लिए भी सही नहीं है. इनके अलावा उऩके हर वक्त होने वाले शोर से स्थानीय लोग भी परेशान हैं. लेकिन इन रिजॉर्ट्स पर किसी न किसी रूप में निर्भर होने और आजीविका का कोई अन्य साधन न होने के कारण वे इसके खिलाफ कुछ बोल नहीं पाते हैं.

विदेशी पर्यटकों के साथ अधिकांश देशी पर्यटक भी लोक संगीत को सुनने और राजस्थान की लोक संस्कृति को देखने-समझने ही यहां आते हैं. उनके पास शहर में पॉप ओर रॉक तो उपलब्ध है ही. लेकिन उन्हें जो चाहिए वह तो मिल ही नहीं पा रहा ऊपर से डीजे साउंड स्थानीय कलाकारों की आजीविका छीनने के साथ-साथ यहां की लोक संस्कृति की अहम कड़ी, इसके लोक सगीत को भी समाप्त कर रहा है. जब लोगों को उससे रोजगार नहीं मिलेगा तो वे फिर क्यों गाएंगे और बजाएंगे.

सम सैंड ड्यून्स में स्थित माया रिज़ॉर्ट के मालिक दादू खां हमे बताते हैं कि “रिज़ॉर्ट में डीजे साउंड इसलिए लगाते हैं कि इसमें केवल एक बार इन्वेस्ट करना पड़ता है. जबकि लोक कलाकारों को हर रोज पैसा देना पड़ता है. यदि सरकार सभी रिज़ॉर्ट्स में डीजे साउंड पर रोक लगा दे तो यह उपाय कामयाब हो सकता है.

जब हमने इन सवालों को लेकर जैसलमेर के जिलाधिकारी आशीष मोदी से मुलाकात की तो उनका कहना था कि जीप सफारी के लिए दो मिट्टी के टीले अलग से दिए हुए हैं. हमारे साथ बातचीत में उन्होंने माना कि रात में डीजे साउंड पर रोक लगाने और रात्रि कैंपिंग और बाइक राइडिंग को रेग्यूलेट करने की आवश्यकता है. मोदी का कहना था कि वे जल्द ही इस विषय को देखेंगे. लेकिन इस बात को कई दिन हो चुके हैं और स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है.

रेगिस्तान में कई स्थानों पर बड़े सैंड ड्यून्स हैं

इनमें डांगरी गांव के पास मौजूद ड्यून्स, लखमना और सियालों की बस्ती के पास स्थित रेत के टीले, और इन सबसे ज्यादा बड़े तनोट माता के मंदिर के बगल में स्थिति रेत के धोरे शामिल हैं. इन सभी जगहों पर स्थानीय लोगों को रोजगार मिलने की अपार संभावनाएं हैं. लेकिन इसके साथ कई अगर-मगर भी लगे हुए हैं. रेगिस्तान की पूरी इकोलॉजी यहां पर मौजूद प्राकृतिक संतुलन पर टिकी हुई है. अiर वह नहीं तो लोगों की आजीविका और यहां की लोक संस्कृति भी नहीं रहेगी. यानी कि सीधी तरह से कहें तो अगर ये धोरे ही नहीं रहेंगे तो सब समाप्त हो जाएगा. हमारे पास ले देकर एक ही थार डेजर्ट हैं. हम उसको सहेज लें या फिर बर्बाद कर दें.

>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें

>> अपनी राय mailus@en.satyagrah.com पर भेजें

  • आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    समाज | धर्म

    आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    सत्याग्रह ब्यूरो | 19 अगस्त 2022

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    समाज | उस साल की बात है

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    अनुराग भारद्वाज | 14 अगस्त 2022

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    समाज | विशेष रिपोर्ट

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    पुलकित भारद्वाज | 17 जुलाई 2022

    संसद भवन

    कानून | भाषा

    हमारे सबसे नये और जरूरी कानूनों को भी हिंदी में समझ पाना इतना मुश्किल क्यों है?

    विकास बहुगुणा | 16 जुलाई 2022