असली वीरता और छद्म वीरता के जिस फर्क को रामधारी सिंह दिनकर ने अपने काव्य संग्रह ‘बापू’ के जरिए समझाया था, उसे आज और गहराई से समझने की जरूरत है
अव्यक्त | 24 April 2020
आज रामधारी सिंह दिनकर को याद करने का दिन है. सब उन्हें उनकी ओजमयी कविताओं के माध्यम से याद कर रहे हैं. जैसे महात्मा गांधी अब गुजरते हर दिन के साथ प्रासंगिक होते जा रहे हैं, ठीक यही बात दिनकर जी द्वारा उनके ऊपर लिखी कविताओं के बारे में कही जा सकती है. और इसलिए रामधारी सिंह दिनकर पर अलग से बात करने की जरूरत है.
जून, 1947 में दिनकर का एक काव्य-संग्रह छपा. केवल चार कविताओं वाले इस संग्रह का नाम था- ‘बापू’. इसके छह महीने के भीतर ही गांधी की हत्या हो गई. उनकी हत्या के बाद दिनकर का हृदय क्षोभ से भर उठा. उनकी कलम फिर से चल पड़ी. जीवित गांधी के प्रति व्यक्त किए गए अनुराग भरे शब्दों में उनके कुछ और कठोर शब्द भी जुड़ते चले गए. इन शब्दों का स्रोत थी गांधी की हत्या से उपजी मर्मांतक पीड़ा और आत्मग्लानि. जल्दी ही इस संग्रह का दूसरा संस्करण मई, 1948 में छापा गया.
यह वह दौर था जब देश में जगह-जगह सांप्रदायिकता की आग लगी हुई थी. भारत का भौगोलिक और राजनीतिक विभाजन भारतीय समाज के द्वेषपूर्ण विभाजन का भी दंश लेकर आया था. द्वितीय विश्वयुद्ध के विनाशकारी परिणामों को पूरी दुनिया भुगत रही थी. हिंसा के इस विकट दौर में केवल बूढ़े गांधी ही थे जो अहिंसा, प्रेम और करुणा की अलख जगाने में लगे हुए थे.
दिनकर जैसा अपेक्षाकृत युवा इसे देखकर अभिभूत था. कहते हैं दिनकर ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान प्रोपगेंडा विभाग में भी कार्य किया था. युद्ध की विभीषिका और इससे जुड़े साम्राज्यवादी और कूटनीतिक छल-प्रपंच को उन्होंने निकट से देखा था. इसलिए दिनकर के काव्य-सृजन का एक बड़ा हिस्सा युद्धमात्र के खिलाफ ही रचा गया है. असल वीरता और वीरता में छिपी कायरता के बीच के बारीक फर्क को दिनकर ने गांधी के माध्यम से ही समझा था. इसलिए उनकी यह किताब गांधी के बहाने हिंसा और द्वेष की प्रवृत्ति की तहें उधेड़ने वाली थी. तत्कालीन भयावह परिस्थितियों का चित्रण उनकी इन पंक्तियों में मिलता है-
‘देवालय सूना नहीं, देवता हैं, लेकिन, कुछ डरे हुए ;
दानव के गर्जन-तर्जन से कुछ भीति-भाव में भरे हुए।’
लेकिन इस डर को दूर भगाएगा कौन? तो वे गांधी के लिए कहते हैं, ‘मानवता का मरमी सुजान आया तू भीति भगाने को’। लेकिन लाठी टेककर चलने वाला एक बूढ़ा कैसे यह सब कर सकेगा? इस पर वे कहते हैं –
‘तू चला, तो लोग कुछ चौंक पड़े, ‘तूफान उठा या आंधी है?’
ईसा की बोली रूह, अरे! यह तो बेचारा गांधी है ’
दिनकर की अन्य कविताओं की भांति ही इस कविता में भी दिनकर के उन्हीं शब्दों, भावों और उपमाओं के दर्शन होते हैं जो उनकी विशेष पहचान रही है. वही ओज, वही जोश, वही तीव्रता, उग्रता और आवेग यहां भी देखने को मिलते हैं. दिनकर भी अपनी इस शैली को खूब पहचान चुके थे. इसलिए इस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने स्वयं लिखा था- ‘कविता का एकाध अंश ऐसा है जिसे स्वयं बापू, शायद, पसंद नहीं करें. किन्तु, उनका एकमात्र वही रूप तो सत्य नहीं है जिसे वे स्वयं मानते हों. हमारे जातीय जीवन के प्रसंग में वे जिस स्थान पर खड़े हैं वह भी तो भुलाया नहीं जा सकता.’
तो दिनकर की नज़र में जातीय जीवन के प्रसंग में गांधी किस स्थान पर खड़े हैं? यह इस संग्रह में जगह-जगह अपने-आप उद्घाटित होता जाता है. वह जातीय प्रसंग अथवा सामाजिक और राष्ट्रीय प्रसंग भय, अशांति, घृणा और हिंसा का है, जिसमें गांधी ही उन्हें एकमात्र आशा की किरण नज़र आते हैं, क्योंकि उनकी उपस्थिति मात्र से भय और हिंसा दूर भागती है. मनुष्य तो मनुष्य पशु-पक्षी को भी गांधी की उपस्थिति में निर्भयता और निश्चिन्तता का अनुभव होता है. दिनकर कहते हैं –
‘कोई न भीत, कोई न त्रस्त; सब ओर प्रकृति है प्रेम भरी,
निश्चिन्त जुगाली करती है, छाया में पास खड़ी बकरी।’
कवि दिनकर को गांधी में सबसे ज्यादा क्या आकर्षित करता है? कवि कहता है कि प्रखर बुद्धिवाले मेधावी लोग ही इस दुनिया के लिए संकट बन चुके हैं. वह ज्ञानमात्र पर प्रश्नचिह्न लगाता है. कवि को ईसा और गांधी जैसों की सरलता और उनका त्याग और प्रेम ही आकर्षित करता है. दिनकर कहते हैं –
मानवता का इतिहास, युद्ध के दावानल से छला हुआ,
मानवता का इतिहास, मनुज की प्रखर बुद्धि से छला हुआ।
मानवता का इतिहास, मनुज की मेधा से घबराता सा,
मानवता का इतिहास, ज्ञान पर विस्मय-चिह्न बनाता सा।
और जब मनुष्य अपने ही बनाए इस जाल में फंस जाता है. तो गांधी जैसे संतो-महात्माओं की ओर दौड़ता है. कवि कहता है –
मानवता का इतिहास विकल, हांफता हुआ, लोहू-लुहान;
दौड़ा तुझसे मांगता हुआ, बापू! दुःखों से सपदि त्राण।
लेकिन क्या गांधी जैसे व्यक्तियों का जीवन जीना आसान होता है. नहीं, बिल्कुल नहीं. उस पर भी उंगलियां उठती हैं, आक्षेप किया जाता है. ऐसे व्यक्तित्वों को भी उकसाया जाता है कि वे प्रतिक्रिया करें. लेकिन यही तो उनकी परीक्षा होती है, और ऐसी परीक्षाओं को गांधी जैसे लोग सहज ही पार कर जाते हैं. कवि इसका साक्षी बनकर कहता है –
ली जांच प्रेम ने बहुत, मगर बापू तू सदा खरा उतरा,
शूली पर से भी बार-बार, तू नूतन ज्योति भरा उतरा।
प्रेमी की यह पहचान, परुषता को न जीभ पर लाते हैं,
दुनिया देती है जहर, किन्तु, वे सुधा छिड़कते जाते हैं।
जाने, कितने अभिशाप मिले, कितना है पीना पड़ा गरल,
तब भी नैनों में ज्योति हरी, तब भी मुख पर मुस्कान सरल।
दिनकर गांधी की एक ऐसी जीवंत तस्वीर खींचते हैं, मानो उस तस्वीर से गांधी की देह नहीं, बल्कि उनके विचार, उनके जीवनादर्श प्रकट होते जाते हैं. यहां गांधी एक ऐसे महामानव के रूप में उभरते हैं जिनके सामने कवि स्वयं को बहुत ही छोटा पाता है. श्रद्धावनत् होकर वह कह उठता है –
‘सामान्य मृत्तिका के पुतले, हम समझ नहीं कुछ पाते हैं,
तू ढो लेता किस भांति पाप जो हम दिन-रात कमाते हैं।’
कितना विभेद! हम भी मनुष्य, पर, तुच्छ स्वहित में सदा लीन,
पल-पल चंचल, व्याकुल, विषण्ण, लोहू के तापों के अधीन।
पर, तू, तापों से परे, कामना-जयी, एकरस, निर्विकार,
पृथ्वी को शीतल करता है, छाया-द्रुम-सी बाहें पसार।’
कवि को लगता है कि गांधी संघर्ष का एक नया तरीका दुनिया को सिखाने आए हैं. उसे आश्चर्य होता है कि जिस साम्राज्यवादी सत्ता को बड़ी-बड़ी सेनाएं नहीं हरा सकीं, उससे यह एक अर्द्धनग्न आदमी बिना किसी हथियार के लोहा ले रहा है. यहां एक फिर से वह बहुत ही उद्भुत तरीके से प्रतीकात्मक रूप में गांधी की बकरी का इस्तेमाल करते हैं –
विस्मय है जिस पर घोर, लौह-पुरुषों का कोई बस न चला,
उस गढ़ में कूदा दूध और मिट्टी का बना हुआ पुतला।
सारे संबल के तीन खण्ड, दो वसन, एक सूखी लकड़ी,
सारी सेनाओं की प्रतीक, पीछे चलने वाली बकरी।
लेकिन समय की भयावहता कवि को बार-बार डरा देती है. वह डरता है कि कहीं गांधी इन शक्तियों ने हार न जाएं. यदि गांधी सचमुच हार गए, तो क्या होगा? इसपर कवि कहता है –
बापू जो हारे, हारेगा जगतीतल का सौभाग्य-क्षेम,
बापू जो हारे, हारेंगे श्रद्धा, मैत्री विश्वास प्रेम।
श्रद्धा, विश्वास, क्षमा, ममता, सत्यता, स्नेह, करुणा अथोर,
सबको सहेजकर बापू ने, सागर में दी है नाव छोड़।
कवि ने बापू से इतने अपनापन का नाता जोड़ लिया है कि उसे बहुत कुछ साधिकार कहने का मन करता है. कवि की ये पंक्तियां बहुत छूने वाली हैं –
बापू! मैं तेरा समयुगीन; है बात बड़ी, पर कहने दे ;
लघुता को भूल तनिक गरिमा के महासिंधु में बहने दे।
यह छोटी सी भंगुर उमंग, पर, कितना अच्छा नाता है,
लगता है पवन वही मुझको, जो छूकर तुमको आता है।
गांधी की हत्या के अगले दिन यानि 31 जनवरी, 1948 को लिखी गई एक कविता में दिनकर आत्मग्लानि भरे स्वर में कहते हैं –
लौटो, छूने दो एक बार फिर अपना चरण अभयकारी,
रोने दो पकड़ वही छाती, जिसमें हमने गोली मारी।
गांधी के हत्या में कवि स्वयं को भी दोषी करार देता है. लेकिन गांधी के असली हत्यारे उससे छिपे हुए नहीं हैं. कवि जानता है कि गांधी का हत्यारा कोई एक नहीं था. कई थे. गांधी का हत्यारा बल्कि कोई व्यक्तिमात्र नहीं था. उनकी हत्यारन तो एक संगठित विचारधारा थी. एक प्रवृत्ति थी. वह प्रवृत्ति थी द्वेष की, वह विचारधारा थी घृणा की. इस जहरीली विचारधारा से विषाक्त हो चुके वातावरण का वर्णन कवि ने इसी संग्रह में अन्यत्र करते हुए कहा है –
जल रही आग दुर्गन्ध लिये, छा रहा चतुर्दिक विकट धूम,
विष के मतवाले, कुटिल नाग, निर्भय फण जोड़े रहे घूम।
गांधी की मृत्यु पर अघटन घटना, क्या समाधान? शीर्षक से लिखी गई कविता में कई जगह पर इस विडंबना पर जोर देते हैं कि हत्यारा ‘हिन्दू’ था. कहते हैं, ‘कहने में जीभ सिहरती है, मूर्च्छित हो जाती कलम, हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा।’ अन्यत्र कहते हैं, ‘गोली से डाला मार उन्हें, उन्मत्त एक हत्यारे ने, जो हिन्दू था।’ एक स्थान पर फिर से पूछते हैं, ‘हिन्दू भी करने लगे अगर ऐसा अनर्थ, तो शेष रहा जर्जर भू का भवितव्य कौन?’
और एक स्थान पर तो क्षोभ में भरकर कह उठते हैं –
लिखता हूं कुंभीपाक नरक के पीव कुण्ड में कलम बोर,
बापू का हत्यारा पापी था कोई हिन्दू ही कठोर।
कवि को विश्वास है कि गांधी के हत्यारे यदि अब भी गांधी से क्षमा मांग लें, तो उन्हें क्षमा मिल जाएगी. हत्यारों के हृदय-परिवर्तन की आशा लिए वह आह्वान करता है कि अब भी बापू को पहचानो. गांधी की हत्या के सात दिन बाद लिखी इस कविता में दिनकर कहते हैं –
रो-रो कर मांगो क्षमा, अश्रु से करो पितृ-शव काऽभिषेक,
अगुणी, कृतघ्न जन के अब भी हैं बापू ही आधार एक।
पहचानो, कौन चला जग से? पापी! अब भी कुछ होश करो
गति नहीं अन्य, गति नहीं अन्य, इन चरणों को पकड़ो, पकड़ो।
गांधी के प्रति दिनकर के इन भावों की प्रामाणिकता उनका गांधी के समयुगीन होने में भी है. इसे उन्होंने बार-बार कहा भी है. इतना तक कि एक स्थान पर कवि का मन गद्गद् होकर कह उठता है, ‘है धन्य विधाता! जिसने गांधी-युग में हमको जन्म दिया।’
गांधी की हत्या को दिनकर मानवता की हत्या करार देते हुए कहते हैं, ‘मानवता की जो कब्र वही गांधी की भी होगी समाधि।’ लेकिन अब तो उनकी हत्या हो गई. अब हम क्या करें? दिनकर इस कविता में अन्यत्र इसका समाधान देते हुए कहते हैं –
‘बापू ने राह बना डाली, चलना चाहे संसार चले,
डगमग होते हों पांव अगर तो पकड़ प्रेम का तार चले।’
भारत में गांधी-युग के बाद के युग में हम कहां तक पहुंचे हैं? चौतरफा हिंसा, कपट, घृणा, अविश्वास और संवादहीनता के वातावरण में आज यदि दिनकर जीवित होते, तो क्या फिर से वह इसी प्रेम का ऐसे ही मुक्तकंठ से आह्वान नहीं करते? लेकिन क्या उनका यह आह्वान भांति-भांति के जयकारों की शोर में दब नहीं जाता? अंध-जयकारों के इस युग में हम गांधी की ही तरह दिनकर की भी जय-जयकार भले ही कर सकते हों, लेकिन उनके प्रेमाह्वान को सुनने, समझने और आत्मसात करने की मंशा, धैर्य और ईमानदारी कहां से लाएंगे?
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