रामनाथ गोयनका की स्मृति में लिखे प्रभाष जोशी के आलेख का यह अंश बताता है कि मालिक का अपने अखबार से कैसा रिश्ता होना चाहिए
सत्याग्रह ब्यूरो | 05 अक्टूबर 2021
रामनाथ जी होते तो उन पर लिखने की इच्छा और जरूरत तो इतनी ही होती, लेकिन न मैं लिखता न इस अखबार (जनसत्ता) में यहां यह छपता.
सिएटल, अमेरिका में जेपी गुर्दों का इलाज करवा के लौटे और बंबई हवाई अड्डे पर उतरे. आरएनजी (यानी रामनाथ गोयनका) उन्हें व्हीलचेयर पर बैठा कर लाउंज की तरफ ला रहे थे. अखबारों के फोटोग्राफरों को वही एक दृश्य मिला फोटू खींचने के लिए. इंडियन एक्सप्रेस के फोटोग्राफर के पास भी जेपी के स्वदेश लौटने का वही एक अच्छा फोटू था और वही छपा. लेकिन उसी के साथ यह आशंका भी ठंडी लहर की तरह एक्सप्रेस में फ़ैल गई कि आज फोटोग्राफर की खैर नहीं है. बीमार गाड़ी पर बैठे जेपी के पीछे आरएनजी खड़े थे और उनको साफ़ पहचाना जा सकता था. आरएनजी को यह कतई पसंद नहीं था कि उनके अखबारों में फोटू छपें. जेपी के साथ अपने ही अखबार में अपना फोटू छपा देख कर उनके गुस्से का पारा थर्मामीटर तोड़ कर बाहर आएगा और फिर क्या होगा कौन जाने.
जो आरएनजी को जानते थे और उनके विस्फोटक गुस्से में होते हुए भी उन से बात कर सकते थे उन्हें सुझाया गया कि वे कहें कि इसमें बेचारे फोटोग्राफर या समाचार सम्पादक की कोई गलती नहीं है. चूंकि वे खुद बीमारगाड़ी चलाते हुए ला रहे थे इसलिए ऐसा कोई कोण नहीं था जिससे उन्हें हटाकर जेपी का फोटो लिया जा सके. जो छपा है वही सबसे अच्छा फोटू था इसलिए छपा है. इसलिए नहीं कि उसमें आरएनजी दिख रहे थे. एक यही दलील उनके सामने चल सकती थी कि जो किया गया है पत्रकारीय कसौटी पर वही सबसे उपयुक्त था और इसीलिए किया गया. बहरहाल इसके पहले कि फोटोग्राफर का कुछ होता आरएनजी को वस्तुस्थिति बतला दी. फिर भी उन्होंने कहा कि उनकी नाराजगी फोटोग्राफर, समाचार संपादक और स्थानीय संपादक को बता दी जाए.
और कोई अखबार और कोई मालिक होता तो उस फोटोग्राफर की सराहना होती वह जानकर खुश होता कि चेयरमैन को उसका खींचा फोटू पसंद आया है. रामनाथ गोयनका के अखबार के मालिक होने के मानदंड अलग थे. अपने मुंह मियां मिट्ठू होने को वे विश्वसनीयता खोने का सबसे पक्का तरीका मानते थे. अपनी तारीफ़ सब को अच्छी लगती है – वे कहते और एक श्लोक सुनाते – लेकिन जो इस कमजोरी से बच नहीं सकते उन्हें भगवान भी बचा नहीं सकता. अपने बारे में अपने अखबार में छपे तो लोग कहेंगे कि इसमें क्या, अपना अखबार है कुछ भी छाप लो. छपा हुआ तभी विश्वसनीय होता है जब वह न सिर्फ लोकहित में हो बल्कि पढने वालों को भरोसा भी हो कि वह लोकहित में ही है. विश्वसनीयता की अपनी इस कसौटी के कारण ही आरएनजी अपने अखबारों में ऐसा कुछ होने देना नहीं चाहते थे जो लोकहित में उचित और उपयुक्त न हो.
इमरजेंसी में तो वे देश के लोकतंत्र, प्रेस की आजादी और अपने और एक्सप्रेस अखबारों के जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रहे थे. वे लोकसभा के सदस्य थे और इंदिरा जी और उनकी सरकार और पार्टी उन पर कई मोर्चों से हमले कर रही थी. कोई आदमी जब अपना सब कुछ दांव पर लगा कर लड़ रहा हो तो साध्य और साधनों की रक्षा अक्सर नहीं होती. अंग्रेजी वाले कहते ही हैं कि युद्ध और प्रेम में सब जायज है. लेकिन उस समय भी एक्सप्रेस के संपादक के जरिए उन्होंने कहलवा रखा था कि उनके खिलाफ संसद में जो भी कहा या किया जाए उसे तो पहले पेज पर महत्व मिलना चाहिए. उनके बचाव में या उन्हें मदद करने के लिए जो भी किया और कहा जाए वह अन्दर के पेजों में भी छपे तो कोई हरकत नहीं है.
एक्सप्रेस के संपादक भी उस समय मुलगावकर थे जो हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक होते हुए एक ऐसे मुकदमे की खबर अपने ही अखबार में पहले पेज पर छाप चुके थे जो निजी तौर पर उसके खिलाफ जाती थी और दूसरे अखबारों ने जिसे मुलगावकर के सम्मान में छापना ठीक नहीं समझा था. उस समय लड़ने वाले तमाम योद्धाओं ने माना है कि रामनाथ जी के पास खोने के लिए देश का सबसे बड़ा अखबारी साम्राज्य था लेकिन उन्होंने उसे भी दांव पर लगा दिया. हम लोगों के पास खोने या हारने के लिए सिर्फ एक राजनैतिक लड़ाई थी और उसमें समझौता कर के हारी राजनीति नहीं चल सकती थी. रामनाथ जी के लिए अखबारों को बचाए रखना जरूरी था क्योंकि उन्हीं से उन्हें जीना और लोकतंत्र और प्रेस की आजादी की लड़ाई लड़ना था. लेकिन उन्होंने कुछ भी बचा कर नहीं रखा. अपने खून पसीने और अपनी हड्डियों से जिस अखबार घराने को खड़ा किया उस के भी ध्वस्त हो जाने की चिंता नहीं की.
पहली गैर कांग्रेसी केंद्रीय सरकार के प्रधानमंत्री बने मोरारजी देसाई ने इसीलिए कहा कि हम राजनीतिकों की तुलना में रामनाथ जी की इमरजेंसी की लड़ाई कहीं अधिक नाजुक, निर्णायक और महत्वपूर्ण थी. गीता का जो श्लोक रामनाथ जी को सबसे ज्यादा पसंद था और जिसे वे हर किसी को सुनाते थे उसमें भी कहा गया है कि मरेगा तो स्वर्ग मिलेगा और जीतेगा तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा. राजनेताओं को तो फिर भी इमरजेंसी के बाद राज मिलना था रामनाथ जी को तो सत्ता की मदद भी नहीं लेनी थी. जान हथेली पर लेकर इमरजेंसी का विरोध करने से एक्सप्रेस की विश्वसनीयता ऐसी ऊंची हो गई थी कि उसकी जरूरत नई सरकार को तो हो सकती थी,एक्सप्रेस को सरकार की जरूरत नहीं थी. फिर प्रतिष्ठान विरोधी होने की कीर्ति कमाते रहने वाले अखबार के लिए सत्ता समर्थक होना गले में डुबोने वाला पत्थर लटकाना भी था. लेकिन लाभ या हानि की तराजू पर तोल कर तो रामनाथ जी किसी संग्राम में उतर नहीं सकते थे. स्वतंत्रता, लोकतंत्र, प्रेस की आजादी और लोकमत के वर्चस्व की लड़ाइयां उन्होंने लड़ीं तो इसीलिए कि इस तरह लड़ने को वे अपना धर्म मानते थे.
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