अगला वर्ष कैसा होगा यह इस पर निर्भर करता है कि अहिंसक प्रतिरोध के कौन से दीर्घगामी रूप आकार लेते हैं
अशोक वाजपेयी | 26 December 2021 | इलस्ट्रेशन : मनीषा यादव
वर्ष-विलाप
जो वर्ष बीत रहा है वह एक अभागा वर्ष रहा है: उसमें सार्वजनिक और सांस्कृतिक जीवन की अनेक हस्तियों को हमने खोया. कोरोना प्रकोप में अनेक लोगों की परिहार्य मृत्यु हुई क्योंकि उन्हें समय पर मेडिकल उपचार या आक्सीजन, यहां तक कि अन्त्येष्टि के लिए चिता या दफ़नाने के लिए समय पर जगह नहीं मिल सकी. सत्तारूढ़ निज़ाम ने कई स्तरों पर लापरवाही बरती और टीकाकरण तक में भेदभाव करने की कोशिश की. इस वर्ष के अन्त तक पूरे देशवासियों को दो बार टीके लग जाने थे पर हम अभी उससे काफ़ी दूर हैं हालांकि टीकाकरण की व्याप्ति बढ़ी है. अब जब एक नये वेरिएण्ट का ख़तरा मंडराने लगा है तो हमारी उपचार व्यवस्था बेहतर ढंग से तैयार है. उत्तर प्रदेश के निर्णायक चुनाव के मद्देनज़र वहां सरकार की कथित उपलब्धियों का हर दिन विज्ञापन हो रहा है और हिन्दू-मुसलमान के बीच भेदभाव बढ़ाने की नीच और साम्प्रदायिक कोशिश हर स्तर पर शुरू हो चुकी है.
इसमें सन्देह नहीं कि इस वर्ष हमारी स्वतंत्रता-समता-न्याय के पैमाने पर दुर्गति और बढ़ी. सौभाग्य से सर्वोच्च न्यायालय ने इस दौरान अपनी स्वतंत्रता और निर्भयता को वापस पा लिया और सत्ता के पिछलग्गू या वफ़ादार होने से इनकार करना शुरू कर दिया. देश भर में पुलिस का रिकार्ड बेहद ख़राब रहा और संविधान के बजाय सत्ता के प्रति उसकी सक्रिय वफ़ादारी फैलती रही. ग़रीबी, अपराध, हिंसा आदि में हिन्दी प्रदेश सबसे आगे रहे और उनमें कुल मिलाकर चालीस प्रतिशत तक पहुंच गयी ग़रीबी न तो व्यापक ध्यान का विषय बनी, न ही राजनैतिक एजेण्डे पर आयी. बेरोजगारी अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच गयी है और संभवतः पांच करोड़ से अधिक लोग फिर ग़रीबी रेखा के नीचे फिंक गये. ग़रीबी और बेरोज़गारी, इस समय, हमारी सामाजिक और राजनैतिक, लोकतांत्रिक कल्पना से बाहर हैं. यह एक बेहद विचलित करनेवाली सचाई है. धर्म इस समय सचमुच लोगों के लिए अफ़ीम बन रहे हैं.
इस वर्ष का सबसे विधेयात्मक पक्ष किसान आन्दोलन के रूप में उभरा. इस आन्दोलन ने सर्वथा अहिंसक रहकर सत्ता की राजनीति में लिप्त दलगत व्यवस्था से दूर रहकर, धर्म-संप्रदाय-जीत आदि से ऊपर उठकर किसान एकता, जीवट और साहस से एक तरह से राजनीति में सिविल नाफ़रमानी का एक ऐतिहासिक गांधी-क्षण रचा और अहंकारी क्रूर असंवेदनशील निज़ाम को झुकना पड़ा.
प्रकोप आदि के दौरान साधारण लोगों ने आपसदारी, राहत और मदद आदि की लंबी सामाजिक परंपरा को पूरी तत्परता से इस वर्ष और आगे बढ़ाया. उसने राजनैतिक-धार्मिक-साम्प्रदायिक सत्ताओं की क्रूरता को रेखांकित भी किया. अगला वर्ष कैसा होगा यह इस पर निर्भर करता है कि अहिंसक प्रतिरोध के कौन से दीर्घगामी रूप आकार लेते हैं. अभी वे हैं पर बेहद क्षीण हैं.
पृथ्वी सिकुड़कर एक शब्द
पृथ्वी को सिकोड़कर एक शब्द में घटित करना एक असम्भव लक्ष्य है पर कविता में, प्रेम में यह हो सकता है. एक ऐसी कवि, जिसे याद है, ‘वास्तविक दुनिया का वीरान’, ‘पाप किस भव्यता से आता है’ और यह भी कि ‘मैं लापता हूं’, अपनी स्मृतियां बुनती, अपने पुरा-पड़ोस को ध्यान से देखती, अपने घर में रहती और विकल होती है और यह सब कविता में करती है. दूर केरल में फिलहाल बसी, विज्ञान और तकनालजी में सुशिक्षित, कवयित्री अनामिका अनु ऐसी अप्रत्याशित कवि हैं. उनकी उत्तर-आधुनिकता जो दूर बीत चुका है उसे भी ध्यान में लेती है और आज जो दारुण-भीषण हो रहा है, दुनिया में, मानवीय संबंधों में, हमारे आस-पास उसे दर्ज़ और प्रश्नांकित करती है. उसमें घर-गांव, पड़ोस और शहर सबके लिए जगह बनती चलती है. कविता को रूपायित-संयमित करने की कुशलता अभी थोड़ी कम है पर बहुत सारा, बिना किसी नाटकीयता या मुद्राग्रस्त हुए, कहने का साहस उनमें है. वे यह पहचान पाती हैं कि ‘एक उम्र यों ही ख़ाली कनस्तर सी गुज़ार दी’ और ‘मिलन प्रतीक्षा की मौत भर है.’ यह नोट करना दिलचस्प है कि इस तरह की सूक्तियां या सामान्यीकरण किसी स्पष्ट वैचारिक पूर्वग्रह से नहीं बल्कि कविता लिखने की उत्तेजक प्रक्रिया से उपजे हैं और उन्हें कवि का बल्कि शायद कविता का अपना विवेक माना जाना चाहिये. यह विवेक एक तरह के खुलेपन और ग्रहणशीलता से ही आकार लेता है, किसी विमर्श के दुराग्रह से नहीं.
एक और पक्ष यह है कि कवि में आत्मविश्वास है: वह कह सकती है कि ‘…आग लिख रही हूं’ और ‘…पानी भी लिखूंगी’. वह सहज भाव से कह सकती है कि ‘मुझे घर दे दो विदाई तुम रख लो.’ उसे पता है कि ‘पुण्य कमाने से नहीं/खुद को सही जगह ख़र्च करने से होता है और अन्यत्र उसे यक़ीन है कि ‘मैं लापता हूं.’ उसे याद है कि ‘ग़रीब से हज़ार नाम होते हैं’ उसे ‘बेरोज़गारी की गन्ध’ चुभती है और वह देख पाती हैं कि ‘फुटपाथ का पड़ोस नहीं होता.’
अपने समय, समाज और आस-पास को कविता में पहचानने का बतन भी कवि के यहां है. वह दर्ज़ करती है कि ‘पाप किस भव्यता से आता है’, ‘भिन्न को प्रायः भीड़ ही मारती है’, ‘बिहार का मास्को बेगूसराय/मास्को में है क्या कोई बेगूसराय’, ‘यहां कचरा बहुत है’, और ‘उससे भी वीभत्य है मेरा ज्ञान.’ कभी उसे ‘परिधिहीन दुनिया की सैर पर’ बच्चे दीख पड़ते हैं और कभी यह विवश दृश्य कि ‘गाभिन बकरी सा उदास मन, न टस न मस’. कभी लगता है कि ‘यह एक दालचीनी दिन की बात है’ तो कभी यह अहसास कि ‘आकार हीन ये सच’ हैं जिसमें ‘प्रश्नवाचक उंगलियां थिरक रही हैं- और ‘प्रणयातुर हाथी/तिल और चावल के बीच खड़े’ हैं. भले ‘तमिस्र नमकचोर है’, ‘धुन की बस्तियों से झड़ती हैं स्मृतियां/उसमें ठूंसकर रखे हैं नक्षत्र’ यह आश्वस्ति अब तक बनी हुई है कि ‘उन नदियों में उम्मीद के दिये’ हैं या होंगे. यह उम्मीद भी बनी हुई है कि ‘एक कोपल ज़रूर उगेगा आंगन में.’
अनामिका अनु की कविता में आंगन है: उसमें यह प्रश्नाकुलता है कि ‘…उसके सूरज को किसने तोड़ा है’, जहां ‘चौकार धूप’ होती है और ‘मन बेर सा निर्मल’ हो जाता है. कवि स्त्री की यंत्रणा को भूलती नहीं है: ‘घर की कहानियों में दर्ज़ हैं हम अब तक’. उसे याद है कि ‘पेड़ को मिट्टी बनने के लिए गलना होता’ और ‘पिता की पदचाप होती है/बिल्लियों की नहीं.’ और ‘अकेलापन बांट रहा है बटन’.
यों तो हर अच्छा कवि अपनी कविता और भाषा में खुला आंगन बनाने की चेष्टा करता है. इस आंगन में कितना खुलापन है और उसकी परिधियां कितनी स्पन्दित हैं यह इससे विन्यस्त होता है कि उसके यहां भाषा कहां-कहां जाने का जोखिम उठाती है. जहां तक मैं याद कर सकता हूँ ऐसे कई शब्द-पद-बिम्ब हैं जो इस कविता के बहाने हिन्दी कविता के वितान में शायद पहली बार शामिल हुए हैं. वे भाषा की विलक्षण स्थानीयता और पदार्थमयता का जीवन्त साक्ष्य हैं: सतभईया, खड़रीच, चुगिला, झाझीकुकुर, विषखोपरा, पहक चटनी, लोसार, ढोढिया सांप, मनबट्टा, वसदुआरी पगलेट, अरोरा, खोखरन, भुकभुकाती, फारावार, दूधपीठी का भगोना, खिखिर, सारण, लालसर, बगैरी, पनडुवकी, तिलकोर, पीठार, फंसरी, जतरा, टिकुला, किसनभोग आम, जंतसार, बंसबिट्टी, कालूचक की मछलियां, भटोतर की दही, कुसियार गांव का ऊख.
कवि यह ज़रूर कहती है कि ‘मैं टूटने की तरक़ीब हूं, उसकी कविता का संकेत इसके उलट है कि वह जोड़ने की तरक़ीब है. जिस कवि को लगता है कि ‘छाया वृक्ष की लिखी कविता है’, जिसके लिए ‘सड़क थान सी बढ़ती’ रहती है, जिसके लिए ‘पृथ्वी सिकुड़कर एक शब्द बन गयी है’, जो ‘कुछ भी नहीं पूछ रहा खुदा से’, और जो देख पाता है कि ‘अधूरी चीज़ों से ही तो सम्पूर्ण बना है’, वह कवि जोड़ का कवि है. उसकी कविता ‘नदी-जुठाई चिकनी मिट्टी’, पर चलने का न्यौता है. अनामिका अनु का पहला कवितासंग्रह ‘इंजीकरी’ रज़ा फ़ाउण्डेशन की प्रकाश वृत्ति के अन्तर्गत हाल ही में वाणी प्रकाशन से आया है.
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