शंख घोष दूसरों को कोसने के बजाय अपने ग़रेबां में झांकने वाले कवि थे. उनकी मानवीयता निर्भय थी पर निर्दोष होने की ग़लतफ़हमी से मुक्त.
अशोक वाजपेयी | 25 April 2021 | फोटो: फेसबुक
अवनत विज्ञान
एक भौतिकविज्ञानी से बात हो रही थी जिन्होंने शुद्ध विज्ञान के क्षेत्र में दशकों से काम किया है और जो कई बरस अमरीका में शोध और अध्यापन करने के बाद स्वदेश लौटकर सक्रिय हैं. वे इस आकलन से सहमत हैं कि भारत ने स्वतंत्रता के बाद विश्व विज्ञान के क्षेत्र में बहुत कम येागदान किया है, ख़ासकर जब हम स्वतंत्रता के पहले के भारतीयों याने सत्येन बोस, जगदीशचन्द्र बसु, सीवी रमण आदि के योगदान से तुलना करते हैं. इसका एक कारण तो शायद यह है कि स्वतंत्रता के बाद हमने विकास की जो अवधारणा स्वीकार की उसमें विज्ञान की जगह तकनालजी को प्राथमिकता दी गयी और लोकप्रिय कल्पना में विज्ञान को तकनालजी ने अपदस्थ कर दिया. तकनालजी के बड़े संस्थान बने जिनके श्रेष्ठ छात्र अधिकांशतः अमरीका जाकर अपना भविष्य सुरक्षित करने लगे. शुद्ध विज्ञान के लिए संसाधन भी कम सुलभ हुए. यह एक विडम्बना ही है कि तकनालजी के क्षेत्र में भारत, कुल मिलाकर, एक सक्षम नकलची ही रहा है. तकनालजी के क्षेत्र में हमारी कीर्ति जुगाड़ की रही है, किसी नये आविष्कार की नहीं. चीन ने इस क्षेत्र में हमसे अधिक नये आविष्कार किये हैं.
एक और कारण यह भी हो सकता है कि विज्ञान और तकनालजी के क्षेत्र में सरकार ने वित्तीय साधन आवश्यकता के अनुरूप उपलब्ध नहीं कराये. पर साधन तो स्वतंत्रता-पूर्व के महान् भारतीय वैज्ञानिकों के पास और भी कम थे. क्या यह भी एक कारण हो सकता है कि उनके पास अपने गुलाम देश को ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी सिद्ध करने का एक देशभक्त पैशन था जो बाद में नहीं रहा. इसके बरक़्स देखें कि समाजशास्त्र, इतिहास-लेखन, साहित्य और कलाओं में स्वतंत्रता के बाद के भारत का मूल्यवान् योगदान है. वह विश्व-स्तर का है जबकि विकास से आक्रान्त भारत ने उनके लिए साधन और आदर अपेक्षाकृत कम ही उपलब्ध कराये हैं. हम आसानी से ऐसे लेखकों-कलाकारों-संगीतकारों-नर्तकों-हस्तशिल्पकारों-फिल्मकारों आदि की सूची बना सकते हैं जिनका अवदान विश्व स्तर का है और, साहित्य को छोड़कर, मान्य भी है. हमारे कुछ विचारक जैसे अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन, समाजचिन्तक आशीष नन्दी, दार्शनिक दया कृष्ण आदि विश्व स्तर पर अपनी हैसियत रखते हैं.
यह सोचने की बात और चिन्ता का विषय है कि विज्ञान के क्षेत्र में हम अवनति के भागी क्यों हुए. यह भी उल्लेखनीय है कि कुछेक अपवादों को छोड़कर भारतीय वैज्ञानिक व्यापक सामाजिक स्पेस में कम ही सक्रिय रहे हैं. इस अलग-थलग रहने से अगर ज्ञान के क्षेत्र में वे कुछ योगदान करते तो उसे समझा जा सकता था. पर ऐसा कुछ तो, दुर्भाग्य से, हुआ नहीं है. भारत के पारंपरिक ज्ञान का भी कोई उत्खनन हमारे वैज्ञानिकों ने नहीं किया. क्या भारतीय वैज्ञानिक ‘न खुदा ही मिला, न विसाले सनम’ जैसी विडम्बना में फंसे हैं? यह और बात है कि साहित्य और कलाओं के क्षेत्र में अपने विश्व-अवदान को प्रक्षेपित करने में राष्ट्र-राज्य को हिचक रही है.
कुहासे में अकेला
हर जगह, असमय कुहासा है: जीवन में, भाषा में, कविता में. इस कुहासे में वे अकेले थे और निजी जीवन और व्यवहार में इतने संकोची, विनयशील और मितभाषी थे कि लगता था कि उन्हें अपने कवि होने में ही संकोच है. पर अपनी कविता में उनकी विवक्षा (हिचक) संसार और सचाई की विपुलता और उसे बचाने की अदम्य आकांक्षा को आकार देती थी. उन्हें पता था कि ‘शब्दों का यथार्थबोध/कुहासे में अकेला पड़ा रहता है’. पर उनमें भी वे पहचान पाते थे कि ‘कोलकाता की सड़कों पर/दूसरे सभी दुष्ट हैं/लेकिन खुद कोई भी दुष्ट नहीं.’ उनकी कविता के लालित्य में संसार में हो रही क्रूरताओं की अनदेखी नहीं बल्कि उनसे लगातार मुठभेड़ थी पर यह चीख़ भी उससे उभरती थी: ‘नहीं, किसी भी हालत में नहीं/हम लोग पागल नहीं होना चाहते/हम जीवित रहना चाहते हैं.’ उन्हें इसकी ख़बर थी कि ‘हर लमहा सारे रास्तों को उखाड़ रहा है/फिर भी याद रखना/सपने में से सपना ले लेने पर/सपना ही बाक़ी रह जाता है.’ कई अर्थों में हमारे स्वप्नहर समय में इसी बाकी सपने के कवि थे शंख घोष जिन्होंने नब्बे का होने के पहले कोरोना-ग्रस्त होने पर अपनी इहलीला समाप्त की.
शंख घोष बांग्ला में लिखते थे और आधुनिक भारतीय कविता में एक महान् उपस्थिति के रूप में समादृत थे. उनके यहां विराट ब्रह्माण्ड और निपट पड़ोस, सकल पृथ्वी की अपार विपुलता और साधारण बांग्ला जीवन एक साथ थे और उनकी कविता उनके बीच अबाध आवाजाही करती रहती थी. उनके पास छन्द के भीतर अन्धकार, अपरिचय की आभा, अभिनन्दन का अंधेरा, भूमि पर लौट आने और बिला जाने की गन्ध, शायद सूर्योदय, पैरों-पैरों आगे बढ़ता जंगल, जन्मभूमि के उजास की कथा, हर गली के मोड़ पर खड़ा हुआ अपमान, दिवाहीन विभाहीन नग्नकाय, अयुत-नियुत किशोर-किशोरियों और अपाहिज बच्चों का झुण्ड आदि सभी अपनी कविता के भूगोल में शामिल करने की बिरली कवि-दृष्टि और कौशल थे.
शंख घोष की जिजीविषा जितनी यथार्थ से निकलती थी उतनी ही उनके कल्पनालोक और अपराजेय मानवीय सपनों से. उनकी कविता का यथार्थ निरे सामाजिक-निजी यथार्थ पर से नहीं रचा गया था. उसमें भाषा, स्मृति और कल्पना भी संगुम्फित थे. वे निजी हाहाकार और बाहरी कोलाहल को लय में बांध सकते थे. वे स्वयं अपनी प्रतिबद्धता और लगावों को वक्र दृष्टि से देख सकते थे. उनका मनुष्य होना पूरा ही होता था उनके बीच होने से. वे दूसरों को कोसने के बजाय अपने ग़रेबां में झांकने वाले कवि थे. उनकी मानवीयता निर्भय थी पर निर्दोष होने की ग़लतफ़हमी से मुक्त. निजी प्रसंग, सामाजिक राजनैतिक घटनाएं, अपनी परम्परा की मीठी-तीख़ी स्मृतियां सभी के लिए उनकी कविता में जगह थी. पर कोई भी दूसरे को बेदख़ल कर नहीं आ पाता था. शंख घोष इस अर्थ में एक बड़े नैतिक कवि थे जिनकी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता पर सन्देह नहीं किया जा सकता. उनकी चिन्ता राजनैतिक रूप से सही होने की नहीं, अपनी नैतिकता से विरत न होने की थी.
दूसरे दौर का एकान्त
कोराना महामारी का दूसरा दौर है. लगता है कि अधिक व्यापक, अधिक आक्रामक. इसी दूसरे दौर में कुम्भ मेले और कुछ राज्यों के चुनावों में सारी अनिवार्य सावधानियों की पूरी उद्दण्डता के साथ खुलेआम धज्जियां उड़ायी जा रही हैं. राज्य व्यक्तियों पर नाअमली के लिए कठोर दण्ड निर्धारित कर रहा है और समूहों को, धर्म या लोकतंत्र के आधार पर, उल्लंघन की खुली छूट दे रहा है. एक मरियल और सिरे से पक्षधर चुनाव आयोग, अपने को, वफ़ादारी निभाते हुए, अप्रासंगिकता के कगार पर ले जा चुका है. मीडिया के बड़े और प्रभावशाली हिस्से की स्वामिभक्ति और कायरता इन सब पर प्रश्न नहीं उठा पा रही है. हम जैसे सार्वजनिक जीवन के एक भयावह शून्य में पहुंच गये हैं जहां कोई मान-मर्यादा या मूल्य या नैतिक साहस दृश्य में सक्रिय और सजग नहीं है. यह ऐसा एकान्त है जो आत्मरक्षा के लिए तो ज़रूरी है पर अपने मूल में अव्यवस्था और अनैतिकता से उपजा है.
लगता था कि जीवन और रोज़मर्रा वापस जल्दी ही सामान्य हो जायेंगे. अब बीस दिनों से फिर घरबन्द हूं. टेलीविजन तो सात बरसों से नहीं देख रहा हूं सो कुछ ख़बरें एक अख़बार से और जब-तब फेसबुक से मिल जाती हैं. राज्य की पक्षपाती अनैतिकता और उसके द्वारा की गयी दुर्व्यवस्था पर सोशल मीडिया पर प्रश्न उठ रहे हैं. पर ख़बरों का अधिकांश टीके की कमी, अस्पतालों की चरमराती व्यवस्था, सत्तारूढ़ राजनेताओं के छल-कपट से भरे बयानों आदि पर केन्द्रित रहता है. कभी-कभी अपनी दुर्दशा से भी ऊब होती है. कब तक और कहां तक हम अपनी नीचता, अधमता और असंवेदनशीलता की छवियां देखें! दुख होता है, गुस्सा आता है, अन्याय और विषमता के लगातार विस्तार पर शर्म आती है. पर यह दिन में इतनी बार होता है कि अपने पर तरस आने लगता है – अपनी लाचारी और अकर्मण्यता पर.
इस एकान्त से तो शायद देर-सबेर मुक्ति मिल जायेगी. पर इस दौरान हमने जो क्षत-विक्षत किया है, जो तोड़ा-फोड़ा है उसकी क्षतिपूर्ति आसान और जल्दी नहीं हो पायेगी. किसने सोचा था कि थोड़े से भारतीय सारी भारतीयता के शत्रु और संहारक हो जायेंगे और हम इस भीषण क्षति के सुन्न गवाह बन रह जायेंगे?
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