बचपन की याद हो या जवानी में होते-होते रह गई कोई दुर्घटना, सुदर्शन फाकिर पर जो गुजरी उसे उनकी शायरी में जगह मिल गई
अमरीक सिंह | 19 December 2021 | फोटो: फेसबुक/सुदर्शन फाकिर (फैन पेज)
19 दिसंबर, 1934 को जन्म लेने वाले अज़ीम शायर सुदर्शन फाक़िर की कलम का सफर लगभग बचपन से ही शुरू हो गया था और यह आखिरी सांस तक चलता रहा. एक से एक नायाब गजलें, नज्में और नगमे लिखने वाले फाकिर को गाया तो खूब गया लेकिन उनके जीते जी उनकी कोई किताब प्रकाशित नहीं हो सकी. अब उनके दुनिया से रुखसत होने के पूरे ग्यारह साल बाद उनका पहला संग्रह ‘कागज की कश्ती’ प्रकाशित हुआ है जिसका प्रकाशन राजपाल एंड संस ने किया है. यकीनन, इस मायने में वे इकलौते बड़े शायर होंगे, जिनके लिखे को किताब की शक्ल लेने में 50 साल से भी ज्यादा लंबा वक्त लग गया. ऐसा तब हुआ जब उनके लिखे गीतों को सुनने वाले दुनिया भर में लाखों की तादाद में हैं.
फाकिर के गीतों को बेगम अख्तर, मोहम्मद रफी, मन्ना डे, उदित नारायण, कविता कृष्णमूर्ति, अभिजीत, कुमार सानू सहित फिल्म संगीत के तमाम बड़े नामों ने अपनी आवाज दी है. लेकिन उनके सबसे ज्यादा गीत जगजीत सिंह ने गाये हैं. दरअसल, सुदर्शन फाकिर और जगजीत सिंह (जालंधर में) कॉलेज के दिनों से गहरे दोस्त थे और ताउम्र एक-दूसरे के पूरक बने रहे. फाकिर कहा करते थे कि वे जगजीत के बगैर अधूरे हैं और जगजीत का मानना भी कुछ ऐसा ही था. अपने एक इंटरव्यू में फाकिर ने कहा था कि वे अपना लिखा सिर्फ जगजीत को देना चाहते हैं. जगजीत सिंह ने उनकी सबसे ज्यादा लोकप्रिय नज्म ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी’ गाई, जो दुनिया भर में आज भी उसी शिद्दत के साथ सुनी जाती है. उनका एक भी लाइव कार्यक्रम ऐसा नहीं था जिसमें उन्होंने इसे न गाया हो.
इस नज़्म में सुदर्शन फाकिर के अपने बचपन की अमिट छवियां हैं. बचपन से ही वे अलहदा स्वभाव के थे और अपने परिवार वालों से भी बहुत कम बोलते थे. पढ़ाई में तो उनका मन कभी नहीं लगा लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ कि पढ़ाई छोड़ दी हो. हां, कभी-कभार स्कूल से बंक मार लिया करते थे. उनसे जुड़े किस्सों में जिक्र किया जाता है कि फिरोजपुर के रत्तेवाली गांव में उनका बचपन बीता था और वहां पर एक नहर बहती थी. एक दिन सुदर्शन फाकिर स्कूल न जाकर नहर की ओर चल दिए. फिर एक जगह थक कर बैठे तो कागज की कश्ती बनाई और पानी में फेंक दी. इत्तेफाक कुछ ऐसा रहा कि इतने में बारिश आ गई तो कश्ती गीली होकर डूब गई. चूंकि स्कूल का समय पूरा होने से पहले वे घर नहीं जा सकते थे इसलिए वहीं पर रेत के घरौंदे बनाते हुए उन्होंने वक्त काटा. यह किस्सा तब का है जब वे सातवीं में पढ़ते थे. इन सबका असर यह हुआ कि एक तरह की बेफिक्री उनके मन में बस गई. बचपन की यही यादें बाद में नज़्मों में बयान हुईं. इस नज़्म में एक लाइन आती है, ‘वह बुढ़िया जिसे बच्चे कहते थे नानी.’ यह नानी भी उनके घर पर काम करने वाली एक बूढ़ी औरत थी. उसे वे खुद बचपन में नानी पुकारा करते थे.
जगजीत सिंह ने उनकी एक और बेहद मकबूल ग़ज़ल गाई है ‘पत्थर के खुदा पत्थर के सनम, पत्थर के ही इंसां पाए हैं. तुम शहर ए मुहब्बत कहते हो, हम जान बचाकर आए हैं.’ इस ग़ज़ल के पीछे की कहानी भी जिक्रेखास है. बात 1983 की है. फाकिर साहब मुंबई से पंजाब आ रहे थे तो एक दोस्त से मुलाकात हो गई. लेकिन वे उसके पास ज्यादा रुके नहीं और कहने लगे कि ‘मेरी ट्रेन है, पंजाब जा रहा हूं.’ इस पर दोस्त ने कहा कि ‘तो यूं कहो न कि शहर ए मोहब्बत जा रहा हूं.’ खैर, सुदर्शन फाकिर पंजाब आ गए.
उस समय पंजाब में आतंकवाद का दौर था. हिंसा फैलाने वाले बसों को हाईजैक करके उसमें सवार हिंदुओं को मार दिया करते थे. उसी दौरान किसी काम से फाकिर साहब को सपरिवार चंडीगढ़ जाना पड़ा. चंडीगढ़ से जालंधर लौटते समय बस कुराली में रुकी. वहां से चली तो कुछ ही दूरी पर रास्ते में तीन लोग दोशाला ओढ़े खड़े थे, उन्होंने हाथ दिया तो ड्राइवर ने बस रोक दी. बस में दो सीटों पर बेटा मानव और पत्नी सुदेश एक साथ बैठे थे और एक पर फाकिर साहब अकेले बैठे थे. उन तीन में से एक आदमी फाकिर के बगल में आकर बैठ गया. बैठते हुए दोशाला कुछ ऊंचा हुआ तो उसकी बंदूक दिख गई. फाकिर साहब ने उसके साथियों को भी गौर से देखा तो उनके पास भी हथियार थे. उनका उड़ा हुआ रंग देखकर पत्नी ने पूछा, क्या हुआ? इस पर उन्होंने इशारे से हथियारों के बारे में बताया. फिर वे बलाचौर के चौक पर उतर गए राहत की सांस ली. अगले दिन अखबार मे खबर पढ़ी कि बलाचौर के पास आतंकियों ने एक बस के यात्रियों की हत्या की थी. इसके बाद जब वे मुंबई लौटे तो उन्होंने यह ग़ज़ल लिखी थी.
महान गायिका बेगम अख्तर का सुदर्शन फाकिर की ग़ज़ल ‘कुछ तो दुनिया की इनायत है दिल तोड़ दिया’ गाना, इस शायर के सफर का खास मुकाम है. यह किस्सा 1968 का है. सुदर्शन फाकिर जालंधर के ऑल इंडिया रेडियो में बतौर आर्टिस्ट काम करते थे. उन्हीं दिनों बेगम अख्तर, आईजी पुलिस अश्विनी कुमार के निमंत्रण पर लखनऊ से जालंधर आईं. रेडियो स्टेशन में उन्होंने अश्विनी कुमार की लिखी कुछ गजलें गाईं फिर उन्हें सुदर्शन फाकिर की भी एक गज़ल पकड़ा दी गई. बेगम अख्तर ने यह बात कबूली थी कि इसे पकड़ते हुए उनके मन में आया कि ‘इस छोटी सी उम्र वाले युवक की गज़ल में भला क्या दम होगा?’ फिर भी उन्होंने स्टूडियो में ही उसकी धुन बनाई और उसे गाया. जब गाना शुरू किया तो उसके शब्दों से इतनी प्रभावित हुईं कि अलग-अलग नोट्स पर उन तीन अंतरों को बार-बार गाती रहीं. वे आईजी साहिब की गजलें गाने आई थीं लेकिन उनसे ज्यादा समय उन्होंने सुदर्शन फाकिर की एक ग़ज़ल को ही दे दिया. इतना ही नहीं, मुंबई जाकर इस ग़ज़ल को रिकॉर्ड करवाने का वादा करके, जाते हुए बोलीं, ‘सुदर्शन तुम्हारी इस ग़ज़ल ने मेरा जालंधर आना सार्थक कर दिया.’
बेगम अख्तर ने उनकी कई गजलें गाई हैं. उन्हीं के बुलावे पर 1969 में पहली बार सुदर्शन फाकिर जालंधर से मुंबई गए और उसके बाद ताउम्र इन दोनों शहरों के बीच आवाजाही करते रहे. मुंबई से बेगम अख्तर का सुदर्शन फाकिर के लिए फोन आया कि गजल रिकॉर्ड हो गई है और तुम आ जाओ. फाकिर साहब मुंबई पहुंचे तो बेगम अख्तर ने उनकी मुलाकात म्यूजिक डायरेक्टर मदन मोहन से करवाई. वे उस समय के बड़े संगीतकार थे. इस मुलाकात के साथ ही मायानगरी का उनका सफर शुरु हुआ. ‘इश्क में गैरत ए जज्बात ने रोने न दिया’ से उनकी पहचान बनी और शोहरत दुनिया में फैलने लगी. मदन मोहन जी ने उनसे कुछ गीत लिए, धुनें भी बनीं लेकिन फिर जब वे असमय ही दुनिया से चले गए तो फाकिर साहब ने इसे अपनी बदकिस्मती ठहराया.
सुदर्शन फाकिर बेहद एकांतप्रिय, स्वभाव से बहुत संकुचित और बहुत कम लोगों से खुलकर बात करने वाले थे. उनके दोस्तों की तादाद भी ज्यादा नहीं थी. जगजीत सिंह के अलावा बॉलीवुड के सितारे फिरोज खान, राजेश खन्ना और डैनी डेन्जोंगपा जरूर उनके गहरे दोस्त थे.
फिरोज खान को जब ज़ी सिने लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला तो उन्होंने फाकिर साहब का नाम लेते हुए अपनी इस पसंदीदा गजल का मुखड़ा बहुत भावुक होकर सुनाया था ‘ना मोहब्बत के लिए ना दोस्ती के लिए, वक्त रुकता नहीं किसी के लिए.’
जगजीत सिंह के संगीत निर्देशन में कुमार सानू ने सुदर्शन फाकिर का गीत ‘किस मौसम में’ गाया था. राजेश खन्ना ने जैसे ही इसे सुना तो तुरंत फाकिर साहब से मिलने की ख्वाहिश जाहिर की. वे अपनी जिंदगी को इस गाने से जोड़कर देखते थे. उस दौर में राजेश खन्ना अच्छी फिल्में और पारिवारिक सुख, दोनों ही नहीं थे. इन्हीं परेशानी और उदासी के दिनों में वे फाकिर साहब से मिले. अपने दर्द की दास्तां सुनाते हुए उन्होंने फाकिर से कहा था कि मेरे लिए कोई गजल लिखिए. बहुत कम लोगों को पता होगा कि अभिनेता डैनी डेन्जोंग्पा का संगीत से बेहद गहरा नाता है. एक प्राइवेट एल्बम में उन्होंने अपने दोस्त और सबसे पसंदीदा शायर सुदर्शन फाकिर की यह गजल गाई है ‘तुम्हारे इश्क में हमने जो जख्म खाए हैं, वह जिंदगी के अंधेरों में काम आए हैं’.
वैसे तो, सुदर्शन फाकिर किसी मजहब को नहीं मानते थे लेकिन उनका लिखा और जगजीत सिंह का गाया गीत (जिसे अनुराधा पौडवाल ने भी गाया है) ‘हे राम’ बेहद मकबूल हुआ. यह उनका इकलौता भक्ति गीत है. इसके साथ ही एनसीसी का राष्ट्रीय गीत ‘हम सब भारतीय हैं’ भी उनका लिखा हुआ है. कश्मीर के समकालीन हालात पर उनकी एक गजल मौजूं है ‘आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंजर क्यूं है, जख्म हर सर पे हर एक हाथ में पत्थर क्यूं है’. इसी गजल का एक शेर है ‘जब हकीकत है कि हर जर्रे में तू रहता है. फिर कलीसा, कहीं मस्जिद, कहीं मंदिर क्यों है?’
2007 में सुदर्शन फाकिर बीमारी की हालत में मुंबई से सदा के लिए वापस जालंधर, अपने घर लौट आए और अगले ही साल उनका इंतकाल हो गया. इसके बाद, उनके जिगरी यार जगजीत सिंह अपने आखिरी दिनों में इस कोशिश में थे कि सुदर्शन का संग्रह प्रकाशित हो लेकिन उन्होंने भी बेवक्त दुनिया से रुखसत ले ली और यह प्रोजेक्ट अधूरा रह गया. फाकिर साहब को भले ही गुमनामी का अंधेरा पसंद रहा हो लेकिन उनके लिखे ने हमेशा मकबूलियत का उजाला हासिल किया है. यह भी दिलचस्प है कि आसमां जैसी मकबूलियत और बुलंदी रखने वाले सुदर्शन फाकिर का न तो कोई ‘उस्ताद’ था और न उन्होंने किसी को अपना ‘शागिर्द’ बनाया. ‘गुरु-चेले’ की अदबी रिवायत में यह मिसाल भी शायद इकलौती है!
>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com