तांडव

Society | विवाद

‘तांडव’ हिंदू विरोधी नहीं बल्कि कुछ जगहों पर प्रो-हिंदू है

भगवान शिव वाले सीन से जुड़े अनावश्यक विवाद में कोई तांडव के उस पक्ष की ओर क्यों नहीं देखता जो प्रो-हिंदू है?

शुभम उपाध्याय | 21 January 2021 | फोटो: यूट्यूब

आखिरकार ‘तांडव’ में से विवादित सीन हटा लिए गए. एक दिन पहले ही इसके निर्देशक अली अब्बास जफर ने तमाम दबावों के आगे झुकते हुए ऐलान किया था कि जल्द ही ‘तांडव’ में जरूरी बदलाव किए जाएंगे. अगले ही दिन एमेजॉन प्राइम वीडियो ने अपनी इस वेब सीरीज में से ये तथाकथित विवादित दृश्य हटा दिए. 

ये ‘जरूरी बदलाव’ वे थे जिनकी वजह से पिछले कुछ दिनों से कथित रूप से हिंदुओं की भावनाएं आहत हो रही थीं. वेब सीरीज पर हिंदू विरोधी प्रोपेगेंडा फैलाने का आरोप लग रहा था. साथ ही इसकी सोच को दलित विरोधी भी कहा जा रहा था. सत्ताधारी पार्टी के नेता बढ़-चढ़कर इस सीरीज का विरोध कर रहे थे/हैं और सोशल मीडिया पर ‘बैन ‘तांडव’’ से लेकर ‘माफी नहीं सजा’ जैसे हैशटैग्स लगातार ट्रेंड किए और करवाए जा रहे थे/हैं.

लेकिन, सवाल यह है कि क्या सच में गुणवत्ता के लिहाज से औसत से नीचे की इस वेब सीरीज को हिंदू या दलित विरोधी कहा जा सकता है?

पहले बात करते हैं इसके हिंदू विरोधी होने और भगवान शिव का अपमान कर हिंदुओं की भावनाएं आहत करने वाले आरोपों पर. यह पूरा विवाद सीरीज के पहले एपीसोड के एक-डेढ़ मिनट के सीन पर शुरू हुआ था (जिसे अब हटा लिया गया है).

इस सीन में मोहम्मद जीशान अय्यूब का किरदार शिवा भगवान शिव का वेश धरकर भगवान राम के मुकाबले अपनी गिरती लोकप्रियता पर तंज करता है और नारद मुनि बने एक छात्र के साथ सोशल मीडिया पर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के प्रयासों पर हास्य-विनोद करता है. इस सीन में भगवान राम के राजनीतिक फायदों के लिए दोहन किए जाने पर भी तंज है और साथ ही ‘देश से आजादी नहीं चाहिए, देश में रहते हुए आजादी चाहिए’ जैसी गहरी राजनीतिक बात भी है. लेकिन अगर आप इन बातों से इत्तेफाक नहीं भी रखते, आपकी राजनीति इन बातों से अलग है, तब भी आप इसमें देवी-देवताओं का वह अपमान ढूंढ़ते ही रह सकते हैं जिसके आरोप तांडव पर लगाये जा रहे हैं. समझ नहीं आता कि इस सीन में मौजूद किस चीज़ से हिंदुओं की भावनाएं आहत हुई हैं? एक्जेक्टली किस चीज से?

मनुष्यों द्वारा भगवान का रूप धरकर हास्य-विनोद करना, या कोई पैनी बात कर जाना हमारी संस्कृति का हमेशा से हिस्सा रहा है. यह एक धर्म के सहिष्णु होने की पहचान है, जो अब बीते समय की बात होती जा रही है. अगर चिंता करनी है तो असली चिंता यह होनी चाहिए. सिर्फ सिनेमा के माध्यम में नहीं, रंगमंच से लेकर नुक्कड़ नाटकों तक में कलाकार भगवान का रूप धरकर जरूरी बातें करते आए हैं और कुछ समय पहले तक किसी को ईश्वर और नाट्य कला के इस संगम से दिक्कत नहीं होती थी. नाट्य कला के सृजन के शुरुआती दिनों से ही यह मान लिया गया था कि भगवान का रूप धरकर कोई मारक बात भी आसानी से आम जनता को समझाई जा सकती है. तो उसी कला का उपयोग कर ‘तांडव’ ने क्या गलत किया है?

हिंदी सिनेमा की सार्वकालिक महान फिल्मों में गिनी जाने वाली ‘शोले’ याद कीजिए. इसके एक दृश्य में हेमा मालिनी के किरदार को प्रभावित करने के लिए नायक धर्मेंद्र भगवान शिव की विशाल मूर्ति के पीछे खड़े होकर शिव की आवाज बनकर अपनी पैरवी हीरोइन से करते हैं. तो क्या हास्य-विनोद में रचे इस दृश्य की वजह से फिल्म को बैन करने और कलाकारों और निर्देशकों को जेल भेजने का उन्मादी माहौल तैयार हुआ कभी?

1983 में आई ‘जाने भी दो यारो’ का वह कालजयी महाभारत वाला सीन भी याद कीजिए, जिसे हिंदी सिनेमा में आइकॉनिक कॉमेडी सीन होने का दर्जा हासिल है. क्या द्रौपदी चीरहरण पर हास्य-विनोद करने वाले उस सीन से किसी भी हिंदू की भावनाएं 1983 से लेकर अब तक आहत हुई हैं?

खूब पसंद की गई अक्षय कुमार और परेश रावल की ‘ओह माय गॉड’ याद कीजिए. इसमें परेश रावल ईश्वर में विश्वास नहीं रखने वाले एक नास्तिक के रोल में हैं जिन्हें ईश्वर में विश्वास दिलवाने के लिए अक्षय कुमार भगवान विष्णु का मॉडर्न अवतार धारण करते हैं. पूरी फिल्म परेश रावल के उन रैशनल सवालों के इर्द-गिर्द घूमती है जो वे हिंदू धर्म से जुड़ी मान्यताओं और कर्म-कांडों को निशाना बनाकर पूछते हैं. क्या किसी ने परेश रावल के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज की और अक्षय कुमार पर आरोप लगाए कि सूट-बूट पहनकर, मोटरसाइकिल चलाकर, उंगलियों में छल्ला घुमाकर उन्होंने भगवान विष्णु का अनादर किया है? इस फिल्म के एक सीन में तो भगवान कृष्ण बने अक्षय कुमार कुछ उसी तरह का संवाद बोलते हैं जैसा ‘तांडव’ के विवादित दृश्य में है. अपने नए मॉडर्न रूप पर वे कहते हैं, ‘क्या है न, हमारी लेटेस्ट फोटो अब तक फेसबुक पर अपडेट नहीं की है….’

इस फिल्म के निर्देशक उमेश शुक्ला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर एक वेब सीरीज ‘मोदी : जर्नी ऑफ अ कॉमन मैन’ बना चुके हैं. खुद परेश रावल एक जाने-माने मोदी प्रशंसक और समर्थक हैं. वे भाजपा के सांसद भी रह चुके हैं. तो क्या उमेश शुक्ला और खुद को राष्ट्रवादी मानने वाले परेश रावल भी ‘ओह माय गॉड’ में हिंदू धर्म का मजाक उड़ा रहे थे और उन्होंने भी हिंदुओं की भावनाएं आहत की थीं? 

ऐसे ढेरों उदाहरण आपको साहित्य से लेकर फिल्मों तक में मिलते हैं जिनमें ईश्वर और नाट्य कला को जोड़कर कोई गहरी बात की गई है या किसी खास समय व स्थान को रेखांकित किया गया है. काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ की आत्मा में शिव बसते हैं लेकिन उपन्यास में ढेरों गालियां हैं जो बनारस की ठेठ संस्कृति का आईना है. इसमें मौजूद शिव भक्त से लेकर राम भक्त किरदार तक हर बात की शुरुआत और अंत गालियों से करते हैं.

इस उपन्यास पर एक फिल्म भी बनी थी जिसे ‘मोहल्ला अस्सी’ के नाम से जाना जाता है. फिल्म तथा उपन्यास दोनों में एक किरदार भगवान शिव का रूप धरकर कभी अस्सी घाट पर मौजूद पंडों से हास्य-विनोद करता है तो कभी लड़ाई-झगड़ा. जो विदेशी पर्यटक वहां आते हैं, उन्हें मूर्ख बनाकर लूटने का प्रयास भी करता है. तो क्या ये उपन्यास और फिल्म शिव का यह रूप दिखाने की वजह से हिंदू धर्म विरोधी हैं?

‘मोहल्ला अस्सी’ के निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने एक वक्त में ‘चाणक्य’ जैसा कालजयी टीवी सीरियल बनाया था. कर्ण के जीवन पर ‘मृत्युंजय’ नाम का धारावाहिक बनाया था. अब पृथ्वीराज चौहान के जीवन पर अक्षय कुमार के साथ ‘पृथ्वीराज’ नाम की फिल्म बना रहे हैं. 2015 में वे मोदी सरकार के मातहत आने वाले सेंसर बोर्ड के सदस्य भी रह चुके हैं. तो क्या अपने धार्मिक ग्रंथों को इतना चाहने वाले निर्देशक द्वारा ‘मोहल्ला अस्सी’ में भगवान शिव का रूप धारण किए किरदार रखना और उस किरदार का ठेठ बनारसी अंदाज में संवाद करना हिंदुओं की भावनाएं आहत करता है?

जाहिर सी बात है कि ऊपर दिए गए उदाहरणों ने कभी किसी हिंदू की भावना आहत नहीं की. एक और उदाहरण की तरफ गौर कीजिए. ‘तांडव’ से कुछ महीने पहले ही ‘लूडो’ भी रिलीज हुई थी. उसमें आपको अभिषेक बच्चन और एक छोटी बच्ची वाली कहानी तो याद होगी? उस कहानी के कुछ दृश्यों और एक गाने में भी भगवान शिव और माता काली का रूप धरकर कुछ कलाकार छोटी बच्ची का दिल बहलाने की कोशिश करते हैं. तब भी बतौर हिंदू हमारी-आपकी भावनाएं आहत नहीं हुई थी. फिर ‘तांडव’ ने ऐसा क्या कर दिया कि ऐसा तूफान उठा कि सीरीज के कलाकारों से लेकर लेखक और निर्देशक तक को सोशल मीडिया पर भद्दी-भद्दी गालियां और मां-बहन के बलात्कार तक की धमकियां मिलने लगीं? 

सबसे दुखद है कि भगवान शिव वाले सीन से जुड़े इस पूरे विवाद में सभी लोग भूल गए कि यह सीरीज कितनी प्रो-हिंदू भी है. एक लोकतांत्रिक किरदार जिसका नाम शिवा है (मोहम्मद जीशान अय्यूब), वह अपनी पार्टी खड़ी करते वक्त कहता है कि ‘हम सबके अंदर एक गुस्सा है. बहुत सारा गुस्सा… और मेरा तो नाम ही शिवा है, इसलिए बहुत सारा है.’ क्या यह संवाद भगवान शिव के क्रोध और उनके उग्र रूप की बढ़िया अभिव्यक्ति नहीं है?

आगे चलकर जब यह किरदार शिवा अपनी खुद की पार्टी खड़ी करता है तो उसका नाम भी शिव के मशहूर तांडव नृत्य पर तांडव रखता है. और अपनी इस पार्टी के चुनाव चिन्ह में कलम के साथ-साथ शिव के त्रिशूल और माथे की तीन धारियों (त्रिपुंड तिलक) का भी इस्तेमाल करता है (देखिए एपीसोड 8, 16.18 मिनट पर). क्या ऐसा करना हिंदू धर्म से प्यार करना और उसका स्तुतिगान करना नहीं है? क्या अब इस देश में सिर्फ इसलिए भावनाएं आहत होने लगेंगी कि किसी मुस्लिम एक्टर ने हिंदूओं के इष्ट देव को अभिनीत किया?

तांडव के विवादित दृश्य को लेकर यह भी आरोप लगाया जा रहा है कि शिवा का किरदार भगवान शिव के रूप में ‘व्हाट द…’ बोलता है. लेकिन हो सकता है कि वह ‘व्हाट द हेल’ बोलने वाला हो. वह गाली ही देने वाला है यह तो विवाद खड़ा करने वालों ने मान लिया है. तकनीकी रूप से इस सीरीज में भगवान शिव के रूप में शिवा कहीं भी गाली देता हुआ नजर नहीं आता.

‘तांडव’ पर एक दूसरा आरोप दलित विरोधी होने का भी है. सीरीज में एक जगह ऊंची जाति वाला तिग्मांशु धूलिया का किरदार अपने दलित मंत्री को बुरी तरह बेइज्जत करता है. एक दूसरी जगह डिनो मोरिया का प्रोफेसर किरदार अपनी दूर जा चुकी पत्नी (संध्या मृदुल) से कहता है, ‘जब एक छोटी जात का आदमी एक ऊंची जात की औरत को डेट करता है न, तो वो बदला ले रहा होता है सदियों के अत्याचार का, सिर्फ उस एक औरत से.’ बाद में ठीक यही संवाद संध्या मृदुल अनूप सोनी के लिए दोहराती हैं जो कि दलित मंत्री हैं. (ये तीनों ही सीन अब सीरीज से हटा दिए गए हैं.)

लेकिन, इन तीनों ही जगहों पर आपको यह सीरीज तभी दलित विरोधी लग सकती है जब आप इन दृश्यों को आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट देखेंगे और केवल बोले गए संवादों पर ध्यान देंगे. असल में ये दृश्य उस अपर कास्ट एन्टाइटलमेंट की बात करते हैं जिसमें आज भी ऊंची जाति के कई लोग जातिवाद से बाहर नहीं आ पाए हैं.

तिग्मांशु धूलिया वाले सीन में दलित मंत्री की बेइज्जती करना पॉवरफुल नेता के जातिवाद में बुरी तरह जकड़े होने को दर्शाने के लिए है. वहीं डिनो मोरिया इसलिए भी अपनी पत्नी संध्या मृदुल से दलित विरोधी बात बोलते हैं क्योंकि उनकी पत्नी उनसे दूर जा चुकी होती है और पत्नी के वापस उनके पास लौटकर न आने को वे अपनी हार के तौर पर देखते हैं. इस हार की बौखलाहट को कम करने के लिए ही वे अपनी पत्नी के दिमाग में ऐसी बात डालते हैं, जिसके परिणाम आगे चलकर अनूप सोनी और संध्या मृदुल के साथ वाले दृश्य में उनका फायदा कर जाते हैं.

सीरीज से एक बड़ी गलती यह जरूर हुई कि उसने अनूप सोनी के दलित मंत्री के पात्र को दिलचस्प कैरेक्टर आर्क नहीं दिया और इस किरदार की अच्छी शुरुआत के बाद उसे ठीक से कहानी में अहमियत नहीं दी. हो सकता है यह अहमियत सीरीज ने दूसरे सीजन के लिए बचाकर रखी हो, और दूसरे सीजन में जाकर अनूप सोनी का किरदार वह बदला ले जिसकी बात वह तिग्मांशु धूलिया के साथ वाले सीन में करता है. पहले सीजन में उनके किरदार की कमजोर लिखाई बड़ी वजह रही कि कुछ लोगों को बेवजह इस वेब सीरीज को दलित विरोधी कहने का मौका मिल गया. यहां एक छोटी सी जानकारी यह भी दी जा सकती है कि इस सीरीज के लेखक गौरव सोलंकी ने ‘आर्टिकल 15’ नाम की फिल्म भी लिखी है, जो जातिवाद की बारीक पड़ताल कर चुकी है.

अब सवाल यह है कि तांडव में जो भी था क्या वह इसे इतना विवादित बनाने के लिए काफी था? कुछ समय पहले ‘पाताल लोक’ को भी हिंदूफोबिक बताकर ऐसा ही विवाद खड़ा करने की कोशिश हुई थी, लेकिन तब सीरीज की तारीफों के आगे यह कोशिश आग बनने से पहले ही राख हो गई थी. इस तरह की पृष्ठभूमि में पिछले काफी समय से ओटीटी प्लेटफॉर्म्स को सरकारी सेंसर बोर्ड की जद में लाने के प्रयास भी चल रहे हैं. कई लोगों को ‘तांडव’ पर हुआ यह विवाद इसीलिए राजनीतिक ज्यादा लगकर मुख्य रूप से उस प्रयास को अमलीजामा पहनाने की कवायद लग रहा है. इसके अलावा कई ऐसे अनावश्यक विवाद तब भी उठते रहे हैं जब कुछ दूसरे असली मुद्दे या विवाद थोड़ा जोर पकड़ते दिखते हैं. हम चाहें तो अभी भी अपने चारों ओर ऐसे कुछ मुद्दों को बड़ी आसानी से ढूढ़ सकते हैं.

सत्ताधारी पार्टी के कुछ नेताओं के तांडव का विरोध करने के तुरंत बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एमेजॉन प्राइम वीडियो के अधिकारियों को समन भेजा था. इसके तुरंत बाद सीरीज के निर्देशक अली अब्बास जफर ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सहयोग करते हुए विवादित दृश्यों को हटाने की हामी भर दी थी. हिंदुस्तानी ओटीटी की दुनिया में दबाव में आकर अपने कंटेंट में बदलाव करने का यह पहला बड़ा मामला है. जानकारों को लगने लगा है कि इसके बाद इस तरह की सेंसरशिप ओटीटी मंचों पर अब बहुतायत में देखने को मिल सकती है. और बहुत जल्द ओटीटी संसार भी थियेटरों में रिलीज होने वाली फिल्मों की तरह सेंसर बोर्ड की जद में आकर कसमसाता हुआ मिलेगा.

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022