उधम सिंह देश के बाहर फांसी की सजा पाने वाले दूसरे क्रांतिकारी थे
विकास बहुगुणा | 31 जुलाई 2020
13 मार्च 1940 की उस शाम लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था. मौका था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक का. हॉल में बैठे कई भारतीयों में एक ऐसा भी था जिसके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी. यह किताब एक खास मकसद के साथ यहां लाई गई थी. इसके भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर रख दिया गया था.
बैठक खत्म हुई. सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे. इसी दौरान इस भारतीय ने अपनी किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई. हाल में भगदड़ मच गई. लेकिन इस भारतीय ने भागने की कोशिश नहीं की. उसे गिरफ्तार कर लिया गया. ब्रिटेन में ही उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई. इस क्रांतिकारी का नाम उधम सिंह था.
इस गोलीकांड का बीज एक दूसरे गोलीकांड से पड़ा था. यह गोलीकांड 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुआ था. इस दिन अंग्रेज जनरल रेजिनाल्ड एडवार्ड हैरी डायर के हुक्म पर इस बाग में इकट्ठा हुए हजारों लोगों पर गोलियों की बारिश कर दी गई थी. बाद में ब्रिटिश सरकार ने जो आंकड़े जारी किए उनके मुताबिक इस घटना में 370 लोग मारे गए थे और 1200 से ज्यादा घायल हुए थे. हालांकि इस आंकड़े को गलत बताते हुए बहुत से लोग मानते हैं कि जनरल डायर की अति ने कम से कम 1000 लोगों की जान ली. ड्वॉयर के पास तब पंजाब के गवर्नर का पद था और इस अधिकारी ने जनरल डायर की कार्रवाई का समर्थन किया था.
इतिहास के पन्नों में जिक्र मिलता है कि उधम सिंह भी उस दिन जलियांवाला बाग में थे. उन्होंने तभी ठान लिया था कि इस नरसंहार का बदला लेना है. मिलते-जुलते नाम के कारण बहुत से लोग मानते हैं कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारा. लेकिन ऐसा नहीं था. इस गोलीकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर की 1927 में ही लकवे और कई दूसरी बीमारियों की वजह से मौत हो चुकी थी. यही वजह है कि इतिहासकारों का एक वर्ग यह भी मानता है कि ड्वायर की हत्या के पीछे उधम सिंह का मकसद जलियांवाला बाग का बदला लेना नहीं बल्कि ब्रिटिश सरकार को एक कड़ा संदेश देना और भारत में क्रांति भड़काना था.
उधम सिंह भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे. दोनों दोस्त भी थे. एक चिट्ठी में उन्होंने भगत सिंह का जिक्र अपने प्यारे दोस्त की तरह किया है. भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. इन दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं दिखती हैं. दोनों का ताल्लुक पंजाब से था. दोनों ही नास्तिक थे. दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता के पैरोकार थे. दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही. दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई. भगत सिंह की तरह उधम सिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था.
उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब में संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था. बचपन में उनका नाम शेर सिंह रखा गया था. छोटी उम्र में में ही माता-पिता का साया उठ जाने से उन्हें और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी. यहीं उन्हें उधम सिंह नाम मिला और उनके भाई को साधु सिंह. 1917 में साधु सिंह भी चल बसे. इन मुश्किलों ने उधम सिंह को दुखी तो किया, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताकत भी बढ़ाई. 1919 में जब जालियांवाला बाग कांड हुआ तो उन्होंने पढ़ाई जारी रखने के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने का फैसला कर लिया. तब तक वे मैट्रिक की परीक्षा पास कर चुके थे.
1924 में उधम सिंह गदर पार्टी से जुड़ गए. अमेरिका और कनाडा में रह रहे भारतीयों ने 1913 में इस पार्टी को भारत में क्रांति भड़काने के लिए बनाया था. क्रांति के लिए पैसा जुटाने के मकसद से उधम सिंह ने दक्षिण अफ्रीका, जिम्बाब्वे, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा भी की. भगत सिंह के कहने के बाद वे 1927 में भारत लौट आए. अपने साथ वे 25 साथी, कई रिवॉल्वर और गोला-बारूद भी लाए थे. जल्द ही अवैध हथियार और गदर पार्टी के प्रतिबंधित अखबार गदर की गूंज रखने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर मुकदमा चला और उन्हें पांच साल जेल की सजा हुई.
जेल से छूटने के बाद भी पंजाब पुलिस उधम सिंह की कड़ी निगरानी कर रही थी. इसी दौरान वे कश्मीर गए और गायब हो गए. बाद में पता चला कि वे जर्मनी पहुंच चुके हैं. बाद में उधम सिंह लंदन जा पहुंचे. यहां उन्होंने ड्वॉयर की हत्या का बदला लेने की योजना को अंतिम रूप देना शुरू किया. उन्होंने किराए पर एक घर लिया. इधर-उधर घूमने के लिए उधम सिंह ने एक कार भी खरीदी. कुछ समय बाद उन्होंने छह गोलियों वाला एक रिवॉल्वर भी हासिल कर लिया. अब उन्हें सही मौके का इंतजार था. इसी दौरान उन्हें 13 मार्च 1940 की बैठक और उसमें ड्वायर के आने की जानकारी हुई. वे वक्त से पहले ही कैक्सटन हाल पहुंच गए और मुफीद जगह पर बैठ गए. इसके बाद वही हुआ जिसका जिक्र लेख की शुरुआत में हुआ है.
उधम सिंह सर्व धर्म समभाव में यकीन रखते थे. और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक है. वे न सिर्फ इस नाम से चिट्ठियां लिखते थे बल्कि यह नाम उन्होंने अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.
देश के बाहर फांसी पाने वाले उधम सिंह दूसरे क्रांतिकारी थे. उनसे पहले मदन लाल ढींगरा को कर्ज़न वाइली की हत्या के लिए साल 1909 में फांसी दी गई थी. संयोग देखिए कि 31 जुलाई को ही उधम सिंह को फांसी हुई थी और 1974 में इसी तारीख को ब्रिटेन ने इस क्रांतिकारी के अवशेष भारत को सौंपे. उधम सिंह की अस्थियां सम्मान सहित उनके गांव लाई गईं जहां आज उनकी समाधि बनी हुई है.
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