समाज | उस साल की बात है

भारत का पहला आम चुनाव, जिसे दुनिया ने भी टकटकी लगाकर देखा था

नया-नया आजाद हुआ भारत 1952 में सभी वयस्क लोगों को वोट का अधिकार देकर इस लिहाज से अमेरिका और यूरोप से भी आगे निकल गया था

अनुराग भारद्वाज | 04 दिसंबर 2021

1950 का साल. एक तरफ आजाद भारत गणतंत्र बन चुका था. दूसरी ओर, एशियाई देशों में उथल-पुथल थी. चीन साम्यवाद की जकड़ में आ गया था. जॉर्डन और ईरान के प्रधानमंत्रियों का क़त्ल हो चुका था. उधर कश्मीर को लेकर भारत में भी उबाल था. जवाहरलाल नेहरू यूं तो कहने को प्रधानमंत्री नियुक्त हो गए थे, पर अभी तक देश ने उन्हें चुना नहीं था. रूस नेहरू पर अपना प्रभाव बढ़ा रहा था तो उधर अमेरिका भी इसी कोशिश में था. कुल मिलाकर अस्थिरता का माहौल था.

इसी असमंजस की स्थिति में सबके सामने पहला यक्ष प्रश्न था कि गणतंत्र तो बन गया है, लेकिन देश लोकतंत्र कब बनेगा? सभी की उम्मीदें देश के मुखिया पर ही टिकी थीं. नेहरू को भी देश को लोकतंत्र बनाने की जल्दी थी. नतीजतन भारत चुनावी महाकुंभ की तैयारी करने लगा.

‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि पहला आम चुनाव, बाकी बातों के अलावा जनता का विश्वास हासिल करने की भी जंग था. यह बात सही है. यूरोप और अमेरिका में जहां वयस्क मताधिकार के सीमित मायने थे, मसलन औरतों को पहले-पहल इस अधिकार से वंचित रखा गया था, वहीं इसके उलट नए-नए आज़ाद हुए हिंदुस्तान ने देश के सभी वयस्क लोगों को मताधिकार सौंप दिया था. जिस देश को आज़ाद हुए बमुश्किल पांच साल हुए हों, जिस देश में सदियों से राजशाही रही हो, जहां शिक्षा का स्तर महज 20 फीसदी हो, उस देश की आबादी को अपना शासन चुनने का अधिकार मिलना उस देश के लिए ही नहीं, शायद पूरे विश्व के लिए उस साल की सबसे बड़ी घटना थी. यह बात 1952 की है. पहले आम चुनाव की.

चुनाव आयोग का गठन और सुकुमार सेन का जीवट

भारत के गणतंत्र बनने के एक दिन पहले चुनाव आयोग का गठन किया गया था. जवाहरलाल नेहरू के सुझाव पर सुकुमार सेन को पहला मुख्य चुनाव आयुक्त किया गया. सुकुमार सेन बेहद काबिल आईसीएस अफ़सर होने के अलावा विद्वान गणितज्ञ थे. उन्होंने नेहरू की आदतन जल्दबाज़ी को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया था. जवाहर लाल नेहरू 1951 की शुरुआत में ही चुनाव चाहते थे.

हालांकि भारत में चुनाव की प्रक्रिया आजादी के पहले शुरू हो चुकी थी, पर तब इसका राजनैतिक दायरा ब्रिटिश हिंदुस्तान के 11 प्रान्तों तक ही सिमटा हुआ था. रियासतों की जनता तब तक चुनाव प्रक्रिया से महरूम थी. एकीकरण के बाद यह उसके लिए पहला अवसर था. इस पहले चुनावी दंगल का दायरा एक लाख वर्ग मील में फैला हुआ था. तब देश की कुल 36 करोड़ आबादी में से लगभग साढ़े 17 करोड़ लोग बालिग थे. लगभग 4500 सीटों के लिये चुनाव होने थे जिनमें लोकसभा की 489 थीं और अन्य राज्य विधानसभाओं की.

इस बार तो तजुर्बेकार अंग्रेज़ भी नहीं थे. लेकिन यह सुकुमार सेन और अन्य काबिल आईसीएस अफ़सरों का ही जीवट था कि इस पूरी प्रक्रिया को बेहद ईमानदार तरीके से अंजाम दिया गया. समस्याओं से निपटने के लिए कुछ बेहद दिलचस्प तरीके ईजाद किये गये. 22400 पोलिंग बूथ बनाये गए. जहां ज़्यादातर लोग पढ़ नहीं पाते थे वहां पार्टी नाम की जगह चुनाव चिन्ह दिए गए. लोगों की आसानी के लिए पोलिंग बूथ पर हर पार्टी के चुनाव चिन्ह वाला बैलेट बॉक्स रखा गया.

रामचंद्र गुहा के मुताबिक एक समस्या इस बात की भी थी कि जनगणना के वक़्त तब अशिक्षित महिलाएं अपना नाम ‘फलां की मां’ या ‘फलां की पत्नी’ ही बताती थीं. इसके चलते सुकुमार सेन ने निर्णय लिया कि ऐसी कुल 28 लाख महिलाओं के नाम वोटर लिस्ट में से हटा दिए जाएं और अगले चुनावों तक इस समस्या से निजात पायी जाए.चुनावों की प्रक्रिया को समझाने और चुनाव होने की ख़बर देने के लिए आयोग ने रेडियो और फ़िल्मों का सहारा लिया.

कांग्रेस का विघटन और प्रधानमंत्री के कई दावेदार

राजनीति में महत्वाकांक्षी होना ज़रूरी है. कहते हैं कि कांग्रेस में रसूख वाले ज़्यादातर राजनेताओं को गांधी द्वारा नेहरू को अपनी राजनैतिक विरासत सौंपे जाने से कुछ हद तक बैचनी थी. आज़ादी के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू के बीच तनातनी तो जग ज़ाहिर ही थी. उनका देहांत हो जाने से पार्टी के भीतर नेहरू सबसे बड़ी चुनौती समाप्त हो गयी थी.

1950 में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के चुनाव में नेहरू समर्थित और कट्टर गांधीवादी जीवटराम भगवान दास कृपलानी पार्टी के हिंदूवादी धड़े द्वारा समर्थित नेता पुरुषोत्तम दास टंडन से हार गए थे. आहत होकर आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस छोड़कर किसान मज़दूर प्रजा पार्टी बना ली थी. नेहरू से विरोध और पार्टी के भीतर बढ़ते मतभेदों के चलते बाद में टंडन ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया. जवाहरलाल नेहरू की प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी और मजबूत हो गई.

इसी दौरान सोशलिस्ट पार्टी के जयप्रकाश नारायण का भी तेजी से उभार हो रहा था. दूसरी तरफ, इंडियन नेशनल कांग्रेस छोड़कर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की और पहले आम चुनाव में अपनी दावेदारी ठोक दी. जनसंघ ने हिंदू वोट बैंक को अपना मुख्य आधार माना था. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के श्रीपाद अमृत डांगे भी बड़े सपने देख रहे थे.

लेकिन सबसे ज़्यादा चौंकाने वाले थे भीमराव अंबेडकर. कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू से आहत होकर हिंदुस्तान के जातीय समीकरणों के सबसे बड़े जानकार अंबेडकर ने भी कांग्रेस छोड़कर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन बना ली थी जो बाद में रिपब्लिकन पार्टी बनी. अंबेडकर चुनावी सभाओं में सीधे-सीधे तौर पर नेहरू पर यह कहकर निशाना साध रहे थे कि वे नीची कही जाने वाली जातियों के लिए कुछ नहीं कर रहे. संविधान को लागू हुए मुश्किल से दो साल भी नहीं हुए थे और अंबेडकर ने मान लिया था कि कांग्रेस समाज की सबसे निचले पायदान के लिए कुछ नहीं कर रही.

चुनाव प्रचार के अनोखे तरीके

हर पार्टी अपने-अपने तरीके से प्रचार में जुट गयी. नेहरू ने साम्प्रदायिकता पर हमला बोला तो अंबेडकर ने नेहरू की नीतियों पर. जनसंघ ‘संघ शक्ति कलियुगे’ की अवधारणा को फैलाने लग गया. कृपलानी और जेपी ने कांग्रेस द्वारा ग़रीबों की अनदेखी पर प्रहार किया. कम्युनिस्ट पार्टी ने अन्य को ‘भ्रष्ट’ और ‘धूर्त’ बताने में कसर नहीं छोड़ी. कम्युनिस्ट पार्टी को सोवियत रूस से सहयोग मिल रहा था. मास्को रेडियो पार्टी के एजेंडे को लोगों तक पहुंचा रहा था.

दीवारों और ऐतिहासिक स्थलों को पोस्टरों और नारों से पाटा गया. कहीं-कहीं तो गायों की पीठ पर लिखकर पार्टी के लिए वोट मांगे गए. नेहरू, श्यामाप्रसाद मुख़र्जी, जेपी सब एक से बढ़कर एक वक्ता थे. नेहरू ने खुद को देश की भलाई के लिए वोट मांगने वाला भिखारी कहा!

अंततः ‘अनपढ़’ देश जीत गया

सबसे पहला वोट हिमाचल की छिनी तहसील में पड़ा. दिन था 25, अक्टूबर 1951. फ़रवरी 1952 में चुनाव ख़त्म हुए. थके हारे सुकुमार सेन ने सभी का धन्यवाद देते हुए इसे लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रयोग कहा.

जवाहरलाल नेहरू की अपार लोकप्रियता ने आल इंडिया कांग्रेस पार्टी को बहुमत से जीत दिलाई. उन्होंने उत्तर प्रदेश की फूलपुर सीट भारी मतों से जीती. उनसे भी ज़्यादा मतों से जीतने वाले उम्मीदवार थे सीपीआई के रवि नारायण रेड्डी.

आचार्य कृपलानी फैजाबाद से हारे. भीमराव अंबेडकर बॉम्बे की रिज़र्व सीट एक छोटे से कांग्रेस के उमीदवार से हार गए. 1954 में भण्डारा (महाराष्ट्र) में हुए उपचुनाव में वे फिर खड़े हुए और फिर हार गए. संसद में उनकी एंट्री राज्य सभा से ही रही.

कांग्रेस संसद की 489 में से 324 सीटें जीतने में कामयाब रही और इसका सबसे बड़ा कारण थे जवाहरलाल नेहरू. उधर राज्यों की विधानसभाओं में भी उसका प्रदर्शन शानदार रहा. कुल 3280 सीटों में से कांग्रेस ने 2247 पर जीत हासिल की.

पहले आम चुनाव की सफलता से कई पश्चिमी राजनैतिक विश्लेषक भी हैरान हो गए. उन्हें संदेह था कि भारत इतनी बड़ी कवायद को कामयाबी से अंजाम दे पाएगा. छिन चुकी रियासतों के रियासतदार जो हर शाम जाम के साथ इसके असफल होने की शर्त लगाते, अब इस तैयारी में जुटने लग गए थे कि अगले आम चुनाव में उन्हें कांग्रेस से टिकट मिल जाए. कहते हैं कि देश में विलय का प्रतिरोध करने वाले हैदराबाद के निज़ाम सबसे पहले वोट देने वाले लोगों में से एक थे. इसलिए नहीं कि उन्हें इस व्यवस्था पर यकीन हो चुका था, बल्कि इसलिए कि आम लोगों के साथ लाइन में लगने की शर्मिंदगी न उठानी पड़े.

तुर्की के एक पत्रकार ने नेहरू की महानता का ज़िक्र करते हुए इसे 17 करोड़ लोगों की जीत बताया था. स्वीडन के नोबेल पुरुस्कार विजेता गुन्नार म्य्र्दल लोकतंत्र की जीत के बाद भी हिन्दुस्तान को ‘सॉफ्ट स्टेट’ ही कहते रहे. उनके पास यह कहने और मानने के अपने कारण हो सकते हैं पर हिंदुस्तान का पहला आम चुनाव यकीनन एक सफल प्रयोग था.

>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें

>> अपनी राय mailus@en.satyagrah.com पर भेजें

  • आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    समाज | धर्म

    आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    सत्याग्रह ब्यूरो | 19 अगस्त 2022

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    समाज | उस साल की बात है

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    अनुराग भारद्वाज | 14 अगस्त 2022

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    समाज | विशेष रिपोर्ट

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    पुलकित भारद्वाज | 17 जुलाई 2022

    संसद भवन

    कानून | भाषा

    हमारे सबसे नये और जरूरी कानूनों को भी हिंदी में समझ पाना इतना मुश्किल क्यों है?

    विकास बहुगुणा | 16 जुलाई 2022