उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कहते थे, ‘पूरी दुनिया में चाहे जहां चले जाएं हमें सिर्फ हिंदुस्तान दिखाई देता है और यहां चाहे जिस शहर में हों, सिर्फ बनारस दिखता है’
पुलकित भारद्वाज | 21 अगस्त 2021
‘सुखन रा नाजिशे-मीनू क्फुमाशी जे गुलबांगे-समाइश हाय काशी
बनारस राकसे-गुफ्रता चुनीनस्त हुनूज अज गंगे-चीनश बरजबीं अस्त’
(काशी की तारीफ का फल है कि मेरी शायरी को आसमान जैसा ऊंचा और हसीन लिबास मिला)
मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की ये पंक्तियां उनकी मसनवी च़िऱाग-ए-द़ैर (मंदिर का दीया) की हैं. ये उन्होंने 1827 में बनारस यात्रा के दौरान लिखी थीं. ग़ालिब दिल्ली से कलकत्ता जाने के लिए निकले थे, लेकिन सुबह-ए-बनारस का मोह उन्हें यहां खींच लाया और फिर इसने कई महीने उन्हें बांधे रखा.
मां गंगा की आरती और अजानों की साथ गूंजती आवाजें, पानी पर सूरज की लालिमा का बनता सुर्ख़ अक्स और फिज़ा में बसी दीपकों में जलते घी की भीनी सी गंध. परंपराओं से भी पुराने बनारस की भोर न जाने कब से हर रोज किसी उत्सव की तरह आती रही है. इसने गा़लिब ही नहीं न जाने कितने ही दिलों को अपने मोहपाश में कैद किया चाहे वे भक्त शिरोमणि तुलसीदास हों या फिर ईरान के मशहूर शायर शेख अली हाजी. ये सभी इस सुबह पर अपना सब कुछ हार गए थे.
लेकिन पिछले कुछ सालों से सुबह-ए-बनारस कुछ मायूस और अधूरी सी लगती है. शायद इसलिए कि बनारस का वह कोना अब खाली हो गया है जहां से उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अपनी सांसों को आवाज बनाकर शहनाई के जरिए इस सुबह का इस्तकबाल किया करते थे. वे ऐसे फनकार थे जिन्होंने दुनिया के सामने बनारस को अपनी और खुद को बनारस की पहचान बनाकर पेश किया था.
बनारस के साथ खान साहब का लगाव इतना गहरा था कि वे बनारस में कम बल्कि बनारस उनकी रूह में ज्यादा रहता था. वे कहा करते थे, ‘पूरी दुनिया में चाहे जहां चले जाएं हमें सिर्फ हिंदुस्तान दिखाई देता है और हिंदुस्तान के चाहे जिस शहर में हों, हमें सिर्फ बनारस दिखाई देता है.’ खान साहब मानते थे कि यह बनारस का ही कमाल था जिसने उनकी शहनाई के सुरों में रूमानियत भरी थी. इस बात का जिक्र उन पर लिखी किताब ‘सुर की बारादरी’ में यतीन्द्र मिश्र ने भी किया है. बकौल मिश्र, खान साहब कहा करते थे, ‘हमने कुछ पैदा नहीं किया है. जो हो गया, उसका करम है. हां अपनी शहनाई में जो लेकर हम चले हैं वह बनारस का अंग है. जल्दबाजी नहीं करते बनारस वाले, बड़े इत्मीनान से बोल लेकर चलते हैं. जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में रियाज़ करते जवान हुए हैं तो कहीं ना कहीं बनारस का रस तो टपकेगा हमारी शहनाई में.’
लेकिन गंगा का नाम लिए बिना जब बनारस खुद अधूरा माना जाता है तो खान साहब का किस्सा भला कैसे पूरे हो सकता है. जिक्र मिलता है कि एक बार अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय ने उन्हें अपने यहां संगीत सिखाने का न्यौता भिजवाया था. साथ ही उन्होंने खान साहब के सामने बड़ी ही रोचक पेशकश भी रखी. विश्वविद्यालय वालों का कहना था कि खान साहब को अकेलापन महसूस न हो इसके लिए वे अपने कुछ करीबियों को भी शिकागो बुलवा सकते हैं और उनके वहीं रहने की सारी व्यवस्था करवा दी जाएगी. और उस्ताद को शिकागो अजनबी न लगे इसके लिए विश्वविद्यालय में उनके आसपास बनारस जैसा माहौल ही रखा जाएगा. लेकिन खान साहब ने उन्हें ऐसा जवाब दिया जो हमेशा के लिए एक नज़ीर बन गया. उनका कहना था, ‘ये तो सब कर लोगे. ठीक है मियां! लेकिन मेरी गंगा कहां से लाओगे?’ कहना गलत न होगा, यदि बनारस उनकी शहनाई में रस भरता था तो गंगा उनके सुरों को चाल देती थी. मशहूर शास्त्रीय गायिका और खान साहब की मुंह बोली बेटी डॉ सोमा घोष कहती हैं, ‘बाबा दूसरे संगीतकारों से अलग शुरुआत करते थे. वे सुरों को ऐसे घुमाते थे जैसे इतराती गंगा की लहरें मुड़ती हैं.’
यहां दिलचस्प बात यह है कि अपने दिल में बनारस और गंगा के लिए बेइंतहा मुहब्बत रखने वाले खान साहब की पैदाइश वहां की नहीं थी. खान साहब महज छह साल की उम्र में अपने पैतृक गांव डुमराव (बिहार) से बनारस, अपने मामू के पास चले आए थे. उनकी अम्मी ने उन्हें भेजा तो किताबी तालीम लेने के लिए था लेकिन वे सीख कुछ और गए. उनके मामू अली बख्श ‘विलायती’ काशी विश्वनाथ मंदिर के अधिकृत शहनाई वादक होने के साथ खान साहब के उस्ताद भी बन गए. नन्हें बिस्मिल्लाह बनारस की गलियों में खेलते-कूदते कभी मुंह से तो कभी छोटी नफीरियों से मामू की सिखाई बन्दिशों का रियाज करते बड़े होने लगे.
शुरुआत में आम बालकों की तरह खान साहब को भी रियाज करने में थोड़ी दिक्कत जरूर होती थी. लेकिन किशोरावस्था आते-आते उन्होंने इस फन में इतनी महारत हासिल कर ली थी कि वे शहनाई जैसे संगत वाद्य यंत्र को शास्त्रीय संगीत के मुख्य वाद्यों के बीच जगह दिलाने में सफल रहे. मामू की सिखाई तालीम का ही असर था कि वे शहनाई वादन में नित नए प्रयोग करते. जहां एक तरफ उन्होंने ‘कजरी’, ‘चैती’ और ‘झूला’ जैसी लोक धुनों को शहनाई के जरिए एक नए रूप में प्रस्तुत किया वहीं ‘ख्याल’ और ‘ठुमरी’ जैसी जटिल विधाओं को शहनाई के विस्तार में ला दिया. इस तरह खान साहब ने शहनाई को उन तमाम बुलंदियों तक पहुंचाया जहां इससे पहले यह कभी नहीं पहुंची थी.
उस जमाने में उस्ताद की शोहरत इतनी थी कि उन्हें आजाद भारत की पहली शाम पर लाल किले से अपनी प्रस्तुति देने का एहतराम मिला. ऐसा करने वाले उस जमाने के वे इकलौते संगीतकार थे. उसके बाद लगभग हर साल, लाल किले से उनकी शहनाई की मधुर तान के साथ ही स्वाधीनता दिवस मनाने का रिवाज सा शुरू हो गया. गुजरते वक्त के साथ उन्हें फिल्मों से भी बुलावा आने लगा. उन्होंने फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ (1959) से लेकर ‘स्वदेश’ (2004) तक में अपना संगीत दिया. लेकिन फकीराना स्वभाव के बिस्मिल्लाह को बॉलीवुड की चमक-दमक कभी प्रभावित नहीं कर सकी और वे हमेशा बनारस में ही रहे.
यतीन्द्र मिश्र के मुताबिक उन्होंने सिनेमा के अलावा रेडियो और टीवी के लिए भी अपने सुरों की सौगात दी थी. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर श्रोताओं के दिन का बिस्मिल्लाह करने वाली वाली मंगल ध्वनि के लिए उन्होंने विशेष रिकॉर्डिंग तैयार करवाई थीं. इनमें सुबह और शाम के अलग-अलग सात रागों को तीन-तीन मिनट के लिए बजाया गया. बीते सालों में चौदह रागों का यह संग्रह अब आकाशवाणी और दूरदर्शन की मंगल ध्वनि का पर्याय बन चुका है. कला और संस्कृति में खान साहब के इन्हीं अभूतपूर्व योगदानों को देखते हुए उन्हें भारतरत्न (2001) समेत न जाने कितने सम्मानों से नवाजा गया.
लेकिन अगर बिस्मिल्लाह सिर्फ एक आम फनकार होते तो शायद शोहरत तो उन्हें उतनी ही मिल जाती लेकिन वह मुकाम कभी नहीं मिल पाता जिसके लिए लोगों ने उन्हें अपने दिलों में जगह दी थी. दरअसल बिस्मिल्लाह की आत्मा में वही गंगा-जमुनी तहजीब बसती थी जिसे कबीर सरीखे संत- फकीर विरासत में छोड़ कर गए थे और जो बनारस की असल पहचान भी थी. उस्ताद साहब साम्प्रदायिक सद्भाव की जीती-जागती मूरत थे और उनके सुर भी किसी एक महजब तक कभी सिमट कर नहीं रहे. ‘सुर की बारादरी’ में यतीन्द्र मिश्र के मुताबिक खान साहब कहते थे, ‘संगीत वह चीज है जिसमें जात-पात कुछ नहीं है. संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं मानता.’ वे कहा करते थे कि सुर भी एक है और ईश्वर भी. शिया मुस्लिम बिस्मिल्लाह खान, जन्माष्टमी पर वृन्दावनी सारंग के सुर छेड़ते तो मोहर्रम के दिनों में आंखों में आंसू भरकर मातमी धुनों को बजाने के साथ होली की उमंग में राग ‘काफी’ से और मस्ती भर देते. वे पांच वक्त की नमाज भी पढ़ते तो देवी सरस्वती की उपासना भी उनके लिए जरूरी थी.
बाबा विश्वनाथ और उनकी सर्वव्यापकता पर खान साहब का अटूट विश्वास था. वे कहा करते थे, ‘लोग मंदिर के अंदर जाकर जल चढ़ाते हैं और प्रार्थना करते हैं. लेकिन मंदिर के अंदर भी वही पत्थर है और मंदिर के बाहर भी. हम बाहर हाथ लगा देते हैं और जो पढ़ना होता है, पढ़ देते हैं.’ वे कहा करते थे, ‘हर रोज बाबा के मंदिर के पट हमारी शहनाई की आवाज सुनने के बाद खुलते हैं. जीवन में इससे ज्यादा और क्या चाहिए.’ इसके अलावा देवनदी गंगा को वे अपनी मां मानते थे और कहते, ‘गंगा में स्नान करना हमारे लिए उतना ही जरूरी है जितना शहनाई बजाना. चाहे कितनी भी सर्दी हो गंगा में नहाए बिना सुकून ही नहीं मिलता.’ गंगा के प्रति बिस्मिल्लाह की अगाध श्रद्धा पर नज़ीर बनारसी का यह शेर याद आता है –
सोयेंगे तेरी गोद में एक दिन मरके, हम दम भी जो तोड़ेंगे तेरा दम भर के
हमने तो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर, गंगा तेरे पानी से वजू कर-कर के’
लेकिन कुछ कट्टरपंथियों को खान साहब के शहनाई वादन पर ऐतराज था. उनके मुताबिक संगीत बजाना इस्लाम के उसूलों की मुखालफत करने जैसा था. ऐसे ही जब किसी मौलवी ने उनसे संगीत के लिए मना किया तो उन्होंने अपनी शहनाई उठाई और ‘अल्लाह हू…’ बजाने लगे. और मौलवियों से पूछा, ‘क्या मेरी ये इबादत हराम है?’ जाहिर है कि उनकी इस बात का जवाब किसी के पास नहीं था.
लेकिन तमाम पांबदियों के बावजूद अपने मजहब से उनका जुड़ाव कभी कम नहीं हुआ. वे हंसकर कहा करते थे, ‘भले ही कुरान पूरी है लेकिन उसकी शुरुआत तो बिस्मिल्लाह से ही होती है.’ हां, अपने मजहब में संगीत पर मनाही को लेकर उनके मन में हमेशा कसक जरूर रही. इस बारे में खान साहब कहा करते थे, ‘जब हमारे मजहब में संगीत हराम है तब हम यहां हैं. अगर इसे इजाजत होती तो हम कहां होते?’ इस मामले में उनके विचारों को यतीन्द्र मिश्र ने अपनी किताब में जगह दी है. उनके मुताबिक खान साहब कहते थे, ‘मुझे लगता है कि इस्लाम में मौसिकी को इसलिए हराम कहा गया है कि अगर इस जादू जगाने वाली कला को रोका न गया तो एक से एक फनकार इसकी रागनियों में डूबे रहेंगे और दोपहर और शाम की नमाज़ कज़ा हो जाएगी.’ इसके अलावा बिस्मिल्लाह खान धर्म के नाम पर की गयी किसी भी तरह की हिंसा के सख्त विरोधी थे. बनारस के संकटमोचन हनुमान मंदिर में विस्फोट की उन्होंने कड़ी निंदा करते हुए कहा था, ‘यह काम शैतान की ही औलादें कर सकती हैं, इंसान की नहीं.’
21 मार्च 1916 को जन्मे बिस्मिल्लाह खान ताउम्र कौमी एकता की मिसाल बने रहे और 21 अगस्त 2006 को इस दुनिया से रुखसत हुए. जीते जी उस्ताद कबीर की विरासत को बखूबी सजाते-संवारते रहे. ताज्जुब की बात कि इस मामले में अपनी मौत के बाद वे कबीर से भी एक कदम आगे निकल गए. कहा जाता है कि कबीर की मौत पर हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों में उनके मृत शरीर पर अधिकार को लेकर झगड़ा हो गया था. लेकिन फ़ातिमा कब्रगाह में नीम के पेड़ के नीचे जब उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को शहनाई के साथ दफनाया गया तो फ़ातेहा पढ़ते रिश्तेदारों के बीच उनके हिंदू मुरीद बड़ी सहजता से सुंदरकांड का पाठ करते नजर आए.
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