अब फिल्मों के लिए विदेश भी एक प्रमुख बाजार बन गया है. लेकिन शांताराम को बहुत पहले इस दिशा में बेहतरीन कामयाबी मिली थी
Satyagrah Bureau | 30 October 2021
हिंदी फिल्म उद्योग जिस समय अपने विकास के शुरूआती दौर में था उसी समय एक ऐसा फिल्मकार भी था जिसने कैमरे, पटकथा, अभिनय और तकनीक में तमाम प्रयोग कर दो आंखें बारह हाथ, डा. कोटनीस की अमर कहानी, झनक झनक पायल बाजे और नवरंग जैसी कई बेमिसाल फिल्में बनाई. यह फिल्मकार था वी शांताराम.
करीब छह दशक लंबे अपने फिल्मी सफर में शांताराम ने हिंदी व मराठी भाषा में कई सामाजिक एवं उद्देश्यपरक फिल्में बनाईं और समाज में चली आ रही कुरीतियों पर चोट की. दिलचस्प है कि 18 नवंबर 1901 को कोल्हापुर में पैदा हुए शांताराम यानी राजाराम वांकुरे शांताराम ने बहुत शिक्षा ग्रहण नहीं की थी, लेकिन उनकी फिल्में सिनेमा के छात्रों के लिए पाठ्यपुस्तक हैं.
शांताराम फिल्मों में प्रवेश करने के पहले गंधर्व नाटक मंडली में छोटे-मोटे काम करते थे. बाद में वे बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फिल्म कंपनी से जुड़ गए जहां उन्होंने फिल्म निर्माण की बारीक जानकारियां हासिल की. हालांकि उस दौरान पेंटर ने उन्हें अभिनय के लिए छोटी-छोटी भूमिकाएं भी दीं. वह दौर मूक फिल्मों का था. शांताराम ने 1927 में नेताजी पालकर का निर्देशन किया. बाद में उन्होंने तीन-चार लोगों के साथ मिलकर प्रभात फिल्म कंपनी की स्थापना की. शुरू में वे पेंटर से काफी प्रभावित रहे और उन्हीं की तरह पौराणिक व ऐतिहासिक फिल्में बनाते रहे.
कहा जाता है कि शांताराम एक बार जर्मनी गए, जहां उनकी सिनेमाई दृष्टि को नई दिशा मिली. उसके बाद वे गंभीर और सामाजिक फिल्मों की ओर मुड़े. इस दौरान उन्होंने दुनिया ना माने आदमी, पड़ोसी आदि फिल्में बनाईं. वर्ष 1942 में प्रभात कंपनी के पार्टनर अलग हो गए और शांताराम ने उसी वर्ष राजकमल कलामंदिर की स्थापना की. यहां से उनका एक नया और शानदार दौर शुरू हुआ जो अगले कई दशकों तक जारी रहा. इस अवधि में उन्होंने कई बेहतरीन फिल्में बनाई, जिनमें कई को आज क्लासिक्स माना जाता है. इन फिल्मों में शकुंतला, डॉ कोटनीस की अमर कहानी, जीवन यात्रा, झनक झनक पायल बाजे, नवरंग, सेहरा, जल बिन मछली-नृत्य बिन बिजली, दो आंखें बारह हाथ आदि शामिल हैं. हिंदी के अलावा उन्होंने मराठी में भी कई बेहतरीन फिल्में बनाईं.
भारत में फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार और पद्म विभूषण से सम्मानित शांताराम ने अपनी फिल्मों में तकनीक की ओर भी विशेष ध्यान दिया. नृत्य, संवाद, कथानक, संगीत के अलावा तकनीक हमेशा उनकी फिल्मों का सबल पक्ष रहा. उन्होंने 1933 में ही पहली रंगीन फिल्म सैरंध्री बनाने के लिए काफी मेहनत की. फिल्मों के निर्माण के अलावा शांताराम 1970 के दशक में कुछ समय बाल फिल्म सोसायटी के अध्यक्ष भी रहे. शांताराम ने ही पहली बाल फिल्म रानी साहिबा (1930) बनाई थी.
88 साल की उम्र में 1990 में वी शांताराम ने इस दुनिया को अलविदा कहा. वे नई पीढ़ी के लिए इतना कुछ छोड़ गए हैं, जो धरोहर है. अब फिल्मों के लिए विदेश भी एक प्रमुख बाजार बन गया है. लेकिन शांताराम को बहुत पहले इस दिशा में भी बेहतरीन कामयाबी मिली थी. डॉ कोटनीस की अमर कहानी और शकुंतला उन पहली फिल्मों में थीं, जिनका प्रदर्शन विदेशों में भी हुआ. इन फिल्मों को स्वदेश की तरह विदेशों में भी वाहवाही मिली और समीक्षक तथा दर्शकों ने उनकी सराहना की.
(यह लेख मूल रूप से यहांप्रकाशित हुआ है)
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