वान गॉग

समाज | पुण्यतिथि

विन्सेंट वान गॉग : महान चित्रकार जो रंगों में लोरी सुनाता था

विन्सेंट वान गॉग को गए एक सदी बीत चुकी है, फिर भी उनके चित्रों में नए अर्थ खोज निकालने का उत्साह बरक़रार है

प्रभात | 29 जुलाई 2020 | फोटो: theartstory.org

विन्सेंट वान गॉग ने जब कहा होगा कि ‘कला उन्हें ढांढस बंधाने के लिए है, जो ज़िन्दगी से हारे हुए हैं’ तो उन्हें यह अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि परोक्ष में वह अपनी तस्वीरों की व्याख्या कर रहे हैं. उनकी तस्वीरों में जीवन की धड़कन महसूस करने वाले, रंगों और रेखाओं से ऊर्जा पाकर खिल उठने वाले, कला कर्म की प्रेरणा पाने और उनके विचारों की क़द्र करने वाले बेशुमार लोग पूरी दुनिया में हैं. यह बात दीगर है कि विन्सेंट वान गॉग के जीते जी कला की दुनिया उनसे बेहद बेमुरव्वती से पेश आई.

कुल 37 साल की उथल-पुथल भरी ज़िंदगी में रोज़गार की जद्दोजहद, अवसादग्रस्त और एकाकी जीवन में दो हज़ार से ज्यादा तस्वीरों का सृजन उनके नाम है – क़रीब 900 पेंटिग्ज़ और बाक़ी रेखाचित्र. वह भी तब 27 साल की उम्र में उन्होंने चित्रकार बनने का इरादा किया.

विन्सेंट वान गॉग ने एक बार अपने भाई थियो को लिखा था, ‘क्या सचमुच मेरे रंगों में लोरी के स्वर हैं, यह तय करने का ज़िम्मा मैं आलोचकों पर छोड़ता हूं.’ उनकी कला के प्रशंसकों और समीक्षकों ने उनके रंगों की छटा और चौड़ी-मोटी लकीरों में अन्तर्निहित संगीत महसूस ज़रूर किया, मगर उनके चले जाने के बाद.

30 मार्च 1853 को नीदरलैंड के एक गांव ज़ुडेर्ट में जन्मे विन्सेंट वान गॉग का कला से नाता तो हालांकि किशोरवय से ही रहा, जब 16 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने गूपिल एंड कम्पनी की हेग शाखा में नौकरी कर ली. 19वीं सदी में कला की तिज़ारत करने वाली की वह मशहूर कम्पनी थी. कुछ अर्से बाद कम्पनी ने उन्हें लंदन और बाद में पेरिस भेज दिया मगर अभिजात और कला के रिश्तों का मर्म समझते हुए इस नौकरी से उनका जी उचट रहा था. सन् 1876 में उन्हें नौकरी से अलग होना पड़ा तो इंग्लैंड जाकर पढ़ाने लगे. उसी साल के आख़िर में अपने परिवार के पास हॉलैंड लौटे तो फिर पढ़ाने का इरादा छोड़कर एम्सटर्डम में रहकर यूनिवर्सिटी की पढाई करना तय किया.

मगर यह सब भी थोड़े समय चला. बाद में विन्सेंट वान गॉग ने पढ़ाई छोड़ दी और बेल्जियम के एक धार्मिक संस्थान में दाख़िला ले लिया, जहां पादरियों को प्रशिक्षित किया जाता था. मगर यहां भी उन्हें संतोष नहीं मिला तो वे बोरीनाज के कोयला खदानों वाले इलाक़े में एक चर्च के प्रभारी हो गए. यह बात दिसम्बर 1878 की है, विन्सेंट तब 25 साल के ऐसे युवा थे, जो आर्ट डीलर और शिक्षक के तौर पर असफल हो चुके थे. रेखाएं खींचने का शौक ज़रूर था मगर चित्रकार बनने का ख़्याल दूर-दूर तक नहीं था.

तो बोरीनाज में खदान मजदूरों के बीच उपदेशक के तौर पर पहुंचे विन्सेंट वान गॉग के रहने का इंतज़ाम एक व्यापारी बेंजामिन के घर में किया गया. वहां फ़ायरप्लेस था सो घर गर्म रहता. लेकिन विन्सेंट का सारा जोश जाता रहा जब उन्होंने देखा कि खदानों में कड़ी मेहनत करके कोयला निकालने वाले मज़दूरों को अपने घर गर्म रखने की कोई सहूलियत नहीं थी. एक बार ठंड की वजह से किसी मजदूर के बच्चे को बीमार पाकर वे अपने गर्म कपड़े उसे दे आए. बल्कि अपने लिए एक जोड़ी कपड़ा रखकर सब कुछ बांट दिया.

ग़रीबी और तकलीफ़ के बावजूद खदान मजदूरों के धैर्य और जीवट ने विन्सेंट वान गॉग को बहुत प्रभावित किया था. वे मज़दूरों से बेहद हमदर्दी रखते. मज़दूर भी उन्हें ‘कोयला खदानों का ईसा’ पुकारते मगर चर्च के इंतज़ामिया को विन्सेंट का यह रवैया नागवार लगा. धर्म उपदेशक के तौर पर अयोग्य ठहराते हुए छह महीने बाद ही उन्हें चर्च की ज़िम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया.

अब विन्सेंट वान गॉग के पास कोई और काम नहीं था तो डेढ़ साल तक बोरीनाज में ही रुककर उन्होंने रेखांकन की बुनियादी चीज़ों को समझा और रियाज़ करते रहे. दूसरों के चित्रों का अध्ययन किया, साहित्य पढ़ा और खदान मज़दूरों के चित्र बनाए. 1880 में विन्सेंट ने जब बोरीनाज छोड़ा, उनके चित्रकार बनने की राह तय हो चुकी थी. उन्होंने लिखा कि बोरीनाज को वह कभी नहीं भूल पाएंगे हालांकि वहां रहकर बनाए लगभग सभी चित्र उन्होंने नष्ट कर दिए थे.

हॉलैंड विन्सेंट एट्टन में अपने मां-पिता के पास रुके तो चित्रकला के अध्ययन में जुटने के साथ उन्होंने कुछ चित्रकारों से दोस्ती की. इनमें अंतोन वैन रेपार्ड भी थे जिनके साथ उन्होंने काम करना शुरू किया. अगले कुछ वर्षों में उन्होंने अंतोव मॉव के साथ काम किया, बाद में उनसे झगड़ा भी हुआ. न्यूनेन में रहते हुए 1885 में विन्सेंट वान गॉग ने अपनी पेंटिग ‘पोटैटो ईटर्स’ पूरी की और इसकी आलोचना करने पर वैन रेपार्ड से भी नाराज़ हो गए. दो साल बाद अपनी बहन विलेमिना को लिखे ख़त में भी विन्सेंट ने ‘पोटैटो ईटर्स’ को अपना सफल चित्र बताया.

उन दिनों गहरे स्याह रंगों और शरीर-रचना में तमाम नुक़्स बताते हुए ‘पोटैटो ईटर्स’ की ख़ासी आलोचना भी हुई थी. मगर सच्चाई यह भी है कि सवा सौ साल से ज्यादा पुराने इस चित्र का शुमार अब भी विन्सेंट के महत्वपूर्ण चित्रों में होता है. धुएं से काली दीवारों वाले कमरे में छत से टंगे लैंप की रोशनी में एक मेज के गिर्द बैठे पांच लोगों में से चार के चेहरे सामने दिखाई देते हैं. धूसर रंगों वाले इस चित्र में इतने सीमित रंगों का इस्तेमाल हुआ है कि एकबारगी यह मोनोक्रोमेटिक लग सकता है. चेहरों पर ग़ौर करते हुए थियो को लिखे विन्सेंट के उस ब्योरे की बरबस याद हो आती है, जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘उन खेतिहरों के चेहरों पर पहले किए हुए रंग को बदल दिया है. मैं चाहता हूं कि उनके चेहरों पर वही रंगत दिखाई दे, जो ज़मीन से खोदकर निकाले हुए मिट्टी में सने आलू की होती है. ये रंग लगाते हुए मुझे याद आता रहा कि मिले (ज्यां फ्रांसुआ मिले) के खेतिहरों के बारे में कहते हैं कि वे उसी मिट्टी में रंगे गए हैं, जिसमें वे काम करते हैं. और खेतिहरों को काम करते हुए देखकर यह बात मुझे अक्सर याद आ जाती है.’

ग्राम्य जीवन और मेहनतकश किसानों की ज़िन्दगी के यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए ही इस चित्र में विन्सेंट वान गॉग ने खुरदुरे चेहरे और हड़ीले हाथ बनाए, धूसर रंग बिखेरे. वे चाहते थे कि चित्र देखने वाले महसूस कर सकें कि तश्तरी से आलू निकालते इन्हीं हाथों से उन्होंने धरती का सीना चीरा है. मेहनत और ईमानदारी से अपना भोजन जुटाया है. एम्सटर्डम के वान गॉग संग्रहालय रखी इस पेंटिग के बारे में समझा जाता है कि विन्सेंट के इस चित्र की प्रेरणा बेल्जियन चित्रकार डी ग्रू का चित्र ‘द ब्लेसिंग बिफ़ोर सपर’ है, जिनके वह प्रशंसक भी थे. ‘पोटैटो ईटर्स’ को पेंट करने से पहले विन्सेंट ने इस संयोजन का एक लिथोग्राफ भी बनाया था.

विन्सेंट वान गॉग की ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव, कलाकार के तौर पर उनके इरादे और सरोकार, कला सिद्धांतों पर उनके विचार, अपने समय, समाज और ख़ासतौर पर ग़रीबों, मेहनतकशों और क़ुदरत के बारे में उनका नज़रिया समझने के लिए उनके 903 ख़त हमारे पास हैं. इनमें से 820 ख़त तो विन्सेंट के लिखे हुए ही हैं जिनमें सर्वाधिक 650 थियो को लिखे गए हैं. बाक़ी ख़त बहन विलेमिना, चित्रकार दोस्तों गॉगां, वैन रैपार्ड, एमिल बर्नार्ड और रिश्तेदारों के नाम हैं या वे ख़त हैं जो विन्सेंट को लिखे गए.

विस्तार से लिखे गए उनके पत्रों और चित्रों पर बेशुमार शोध हुए हैं, अब भी हो रहे हैं. कितनी ही फ़िल्में और किताबें हैं. इसके बावजूद विन्सेंट के बारे में गढ़ी गई कुछ किवदंतियां अब भी बनी हुई हैं. मसलन उनकी ज़िन्दगी में उनकी एक पेंटिंग ही बिक सकी थी, किसी मोहासक्त वेश्या ने उनके कानों की तारीफ़ कर दी तो कान काटकर उसे भेंट कर दिया, उन्हें ‘ज़ेन्थॉपिस्या‘ यानी ऐसा दृष्टिदोष था, जिसमें रोगी को पीला दिखाई देता है वगैरह-वगैरह. कुछ दवा कम्पनियों ने ऐसी ही किवदंती के हवाले से मिर्गी की दवा के ब्रोशर पर बाक़ायदा उनके सेल्फ़ पोर्टेट भी छापे. हालांकि तमाम ऐसी कम्पनियां भी हैं जो विन्सेंट की तस्वीरों की नक़लें तोहफ़े में बांटती हैं.

यह सच है कि विन्सेंट वान गॉग मानसिक विचलन के शिकार थे और जीवन के अंतिम वर्षों में कुछ समय तक मानसिक अस्पताल में रहे भी. मगर उनके दोस्त और चिकित्सक डॉ. गैशे के ख़तों में मिर्गी का ज़िक्र कहीं नहीं है. चित्रकार दोस्त पॉल गॉगां के साथ हुए झगड़े में वे एक कान गंवा बैठे थे और उनके कैनवस पर बिखरी सुनहरे पीले रंगों की आभा दृष्टिदोष के चलते नहीं, समय औऱ सोच में बदलाव की वजह से है. चित्रकार अन्ना बोख ने उनकी एक पेंटिंग ‘द रेड विनयार्ड’ ब्रूसेल्स की नुमाइश से ख़रीदी थी. मगर कलाविद् लिज़ा मर्डार अपने शोध के हवाले से कहती हैं कि विन्सेंट के एक ही चित्र बिकने का मिथक शायद इसलिए है कि उनके चित्रों को शोहरत ही तब मिल सकी, जब 1888 में रहने के लिए वह आर्ल आए यानी मृत्यु से सिर्फ़ दो वर्ष पहले. औपचारिक तौर पर ‘द रेड विनयार्ड’ की बिक्री ही कला की दुनिया में याद रखी गई वरना इसके काफी पहले उनके चाचा कोर ने ही उन्हें हेग शहर के 19 चित्र बनाने का काम दिया था. इसके अलावा शुरुआती दिनों में उनके पेंटिंग देकर भोजन या रंग-ब्रश खरीदने के कई वाक़ये हैं. यह कोई असामान्य बात भी नहीं क्योंकि करिअर की शुरुआत करने वाले चित्रकार उन दिनों ऐसा किया ही करते थे. उनके जीवन में कुछ और चित्रों की बिक्री, लेन-देन का ब्योरा मिलता है.

‘पोटैटो ईटर्स’ के धूसर रंगों से लेकर ‘द स्टारी नाइट’ या ‘बेडरूम इन आर्ल’ के सुनहरे पीले, नीले, लाल और हरे रंगों तक की विन्सेंट की यात्रा एक कलाकार के उत्तरोत्तर विकास के साथ ही ख़ुद को साबित करने और कलात्मकता के लिहाज़ से नया कर गुज़रने के संकल्प का दस्तावेज़ भी है. किसी दृश्य में वास्तविक रंगों की जगह दूसरे रंगों का इस्तेमाल उन दिनों प्रचलन में नहीं था मगर विन्सेंट ने ऐसे प्रयोग का जोख़िम उठाया और इस तरह से चित्रकला में नई लीक बना डाली. उन्होंने लिखा है, ‘जो दिखाई दे रहा है, उसे ठीक वैसे ही चित्रित करने के बजाय आवेग और संवेदनाओं को मज़बूती से अभिव्यक्त करने के लिए मैं मनमाने ढंग से रंगों का इस्तेमाल करता हूं.’ सूरजमुखी श्रृंखला के चित्रों में ही पीले रंग के कितने शेड्स मिलते हैं, ‘द स्टारी नाइट’ के चांद को भी याद कर सकते हैं या फिर ‘द सोअर’, ‘द यलो हाउस’ या ‘कैफ़े टेरेस एट नाइट’.

सूरजमुखी विन्सेंट के ख़ूब मक़बूल चित्रों में है और इनके बनने का क़िस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है. फरवरी 1888 में आर्ल पहुंचे विन्सेंट ने पॉल गॉगां के साथ काम करने की सोची और गॉगां भी आर्ल आने को तैयार हो गए. उनके प्रति आभार जताने के इरादे से भाड़े के अपने घर यानी ‘यलो हाऊस’ में उनका कमरा सजाने के लिए विन्सेंट ने सूरजमुखी के कई चित्र बनाए. उन्होंने गॉगां को बताया कि नई शैली ईजाद करने के लिए वे उनका अनुसरण करना चाहेंगे. फूलदान में सूरजमुखी के पंद्रह फूल सजे हैं और चित्र के लिए इन्हीं फूलों को चुनने की वजह यह थी कि ये सूरज का पीछा करते हैं. विन्सेंट ने ख़ुद को सूरजमुखी और गॉगां को पार्श्व में सूर्य के प्रतीक पीले रंग में अभिव्यक्त किया.

बहुत से लोग ‘द स्टारी नाइट’ को विन्सेंट वान गॉग की कला प्रतिभा का चरम मानते हैं. कई बार बीमार हुए विन्सेंट ने ख़ुद ही तय किया कि वे सेंट पॉल मौसोल मानसिक रोग चिकित्सालय में रहने जाएंगे. यह वाक़या मई 1889 का है. वहां रहते हुए वे लगातार चित्र बनाते रहे, शुरुआत में अस्पताल के अंदर रहते हुए और फिर बाहर जाकर भी. जून में उन्होंने ‘द स्टारी नाइट’ चित्र पूरा कर लिया. यहां से थियो को भेजे ख़त में विन्सेंट ने लिखा, ‘सूर्योदय के काफ़ी समय पहले से आज मैं अपनी खिड़की के बाहर का नज़ारा देखता रहा, बस तारों भरा आकाश और सवेरे का तारा जो बहुत बड़ा लग रहा था.’ विन्सेंट के कमरे से सां रैमी गांव की दृश्यावली वाले इस चित्र में घुमावदार स्ट्रोक और लहरदार लाइनें उन दिनों की उनके अस्थिर चित्त और मनोदशा की अभिव्यक्ति समझी जाती हैं. चित्र में काले, नीले, पीले रंगों के विविध शेड्स संतुलन के साथ ही दुनियावी अस्तव्यस्तता के बीच सुखद क़िस्म के ठहराव का बोध भी कराते हैं.

विन्सेंट वान गॉग की कला की दुनिया उनके दयालु, संवेदनशील, ईमानदार, उत्साही और लगनशील इंसान होने का पता तो देती ही है, ऐसे चित्रकार से भी साक्षात कराती है जो दुनिया को नए नज़रिये से देखने की ज़िद ठाने रहा. विन्सेंट के चित्रों को पहले पहल सराहने वाले कला समीक्षक जी.एल्बेयर ऑरियर ने कहा था, ‘उसकी तरह के इंसान पूरी तरह नहीं मरते, क़ायनात रहने तक उसकी कृतियां उसका नाम बचाए रखेंगी.’ मृत्यु की एक सदी बीत जाने के बाद भी विन्सेंट के चित्रों में नए अर्थ खोज निकालने का उत्साह बरक़रार है.

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