जवाहरलाल नेहरू के पास चीन को लेकर कोई बड़ा अनुभव नहीं था, जबकि नरेंद्र मोदी के सामने इस पड़ोसी देश की करतूतों का 60 साल का इतिहास है
अभय शर्मा | 05 October 2020 | फोटो: पीआईबी
पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में 15-16 जून की रात को चीन और भारत की सेना के बीच आमने-सामने का संघर्ष हुआ था. इसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए. इसके बाद दोनों देशों के बीच राजनयिक और सैन्य स्तरों पर बातचीत शुरू हुई. लेकिन बीते दो महीने में 22 से ज्यादा बैठकें होने के बाद भी बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी है. पिछले दो हफ़्तों के दौरान दोनों देशों की ओर से आये बयानों से इसका पता चलता है. चीन का कहना है कि उसकी सेना वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से पीछे हट चुकी है. जबकि भारत ने कहा है कि लद्दाख में एलएसी पर सेना के पीछे हटने की प्रक्रिया में बहुत थोड़ी प्रगति हुई है और चीन के साथ सीमा पर संघर्ष लंबा भी खिंच सकता है. इससे कुछ रोज पहले ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि दोनों देशों में बातचीत जारी है और समस्या का हल निकल जाना चाहिए. लेकिन ये मामला कब तक हल होगा, इसकी गारंटी वे नहीं दे सकते. कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत और चीन के बीच संघर्ष का खतरा अभी भी बना हुआ है.
बीते कुछ समय से भारत और चीन के बीच जो कुछ भी हो रहा है, उसे देखकर कई जानकारों को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समय की याद ताजा हो गयी है. इतिहास के जानकारों की मानें तो भारत-चीन के बीच जैसे हालात 1950 से लेकर 1962 तक थे, बीते कुछ सालों से लगभग वैसे ही हालात फिर से बने हुए हैं. सीमा पर जो क्षेत्र तब विवादास्पद थे, वे आज भी वैसे ही हैं, जिस तरह राजनीतिक यात्राएं और वार्ताएं उस समय जारी थीं वैसी ही नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान भी दिखीं. उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरु और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ की दोस्ती के किस्से भी उसी तरह आम थे, जिस तरह अपने कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने संबंध चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बताते रहे हैं. 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेंद्र मोदी और शी जिंनपिंग 16 बार मुलाकातें कर चुके हैं. इनमें से कुछ तो बेहद गर्मजोशी भरे माहौल में हुई हैं.
कुछ जानकारों के मुताबिक तब और अब में एक बात और भी समान दिखती है, उस समय चीन को लेकर जवाहरलाल नेहरू ने जो गलती की थी, वैसी ही या उससे भी बड़ी गलती अपने कार्यकाल के दौरान नरेंद्र मोदी ने भी की है.
जवाहरलाल नेहरू की गलती
चीन को लेकर जवाहरलाल नेहरू ने क्या गलतियां की थीं इसका पता बीते पचास सालों में आई कई रिपोर्टों और किताबों से लगता है. अक्टूबर 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा किया तो कुछ भारतीय सैन्य अधिकारी और नेताओं ने चीन की विस्तारवादी नीति को भांप लिया था. इन्होंने भारत सरकार को समय-समय पर इसके बारे में आगाह भी किया. तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने नेहरू से कहा था कि चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है और न ही हिंदुस्तान को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के तौर पर चीन की दावेदारी को बढ़ावा देना चाहिए. पटेल के इस विचार को नेहरू ने तरजीह नहीं दी. उनका मानना था कि चीनी साम्यवाद का मतलब यह नहीं हो सकता कि वह भारत की तरफ कोई दुस्साहस करेगा. उन्होंने, तिब्बत पर कब्जे के बावजूद चीन से गहरे रिश्ते बनाने पर ही जोर दिया. इसके कुछ ही महीनों बाद ही वल्ल्भभाई पटेल की मृत्यु हो गयी. और चीन पर नेहरू को समझा सकने वाला नहीं रहा.
इसके बाद जवाहरलाल नेहरू की चीन से करीबियां बढ़ीं और इस दौरान तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ से उनकी दोस्ती के किस्से अखबारों की सुर्खियां बनने लगे. 1956 में नेहरू के बुलावे पर चाऊ एन-लाइ भारत के दौरे पर आये और तब ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया गया. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि इसके साल भर बाद ही अक्टूबर 1957 में अचानक खबर आई कि चीन ने अपने शिनजियांग प्रांत से तिब्बत तक हाईवे का निर्माण कर लिया है और इसका कुछ हिस्सा भारतीय क्षेत्र अक्साई चिन से भी होकर जाता है. बताते हैं कि इसके बाद तत्कालीन सेनाध्यक्ष केएस थिमैय्या ने सरकार को चीन से लगती सीमा मज़बूत करने की सलाह दी. उनका कहना था कि भारत को असली ख़तरा चीन से ही है. लेकिन नेहरू सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई. उसका मानना था कि भारत को केवल पाकिस्तान से खतरा है और चीन से कोई खतरा नहीं है. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के करीबी और तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके मेनन का कहना था कि चीनी सीमा पर सेना बढ़ाने की जरूरत नहीं है.
इस घटनाक्रम के कुछ समय बाद ही चीनी घुसपैठ की खबरें आने लगीं. चीनी सैनिक बेख़ौफ़ भारतीय सीमा में घुसे चले आ रहे थे और हिंदी में लाउडस्पीकर से भारतीय गांवों को चीन का इलाक़ा बता रहे थे. चीन मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि आज की ही तरह उन दिनों भी संसद में आये दिन चीनी घुसपैठ पर नोंक-झोंक होती थी. एक बार संसद में अक्साई चिन में चीनी घुसपैठ पर नेहरू इतना ज्यादा बिफ़र पड़े कि बेख्याली में यह तक कह बैठे कि अक्साई चिन एक बंज़र इलाक़ा है जहां घास भी नहीं होती. उनके इस बयान के जवाब में एक सांसद ने कहा कि उनके (नेहरू के) सिर पर भी बाल नहीं उगते तो क्या वह भी चीन को दे दिया जाए.
1957 से लेकर 1960 तक भारत-चीन सीमा पर दोनों सेनाओं के बीच झड़प की कई घटनाएं हुईं. इस समय दोनों देशों के बीच पत्राचार भी लगातार चल रहा था. 1960 में नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ को फिर भारत आने का न्योता दिया. चाऊ एन-लाइ की इस यात्रा के बाद भी भारत-चीन सीमा विवाद जस का तस ही बना रहा. दोनों देश इस यात्रा और बातचीत के बाद भी किसी सहमति तक नहीं पहुंच पाए. इसके बाद 1962 के अक्टूबर में अचानक एक दिन युद्ध की शुरुआत हो गयी और चीनी सेना की कई टुकड़ियां हथियारों के साथ भारतीय सीमा के भीतर घुस आईं. भारतीय सेना के पास इनका मुकाबला करने के लिए न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही सैनिक. इस वजह से इस युद्ध में भारत की हार हुई और उसे काफी नुकसान उठाना पड़ा.
इतिहासकारों की मानें तो जवाहरलाल नेहरू ने चीन से धोखा खाने के बाद आठ नवंबर 1962 को संसद में एक प्रस्ताव रखा था. इसमें उन्होंने चीन से खाए धोखे की बात स्वीकार की. इस दिन उन्होंने सदन में कहा था, ‘हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे. हमने अपने लिए एक बनावटी माहौल तैयार किया और हम उसी में रहते रहे.’
नरेंद्र मोदी की गलती
2014 में नरेंद्र मोदी क प्रधानमंत्री बनने के तीन महीने बाद ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का अहमदाबाद में भव्य स्वागत किया गया. जिनपिंग भारत की यात्रा पर ही थे कि खबर आ गयी कि चीनी सैनिकों ने लद्दाख के चुमार और डेमचक में घुसपैठ शुरू कर दी है. चुमार में भारतीय इलाके में पांच किमी अंदर चीन ने सड़क बनाने की कोशिश की जिस पर कई दिनों तक गतिरोध चलता रहा. चीनी राष्ट्रपति की इस भारत यात्रा को मोदी सरकार ने अपनी बड़ी सफलता बताया जबकि जिनपिंग के वापस जाने के कई हफ्ते बाद तक चीनी सेना चुमार में तंबू लगाए बैठी रही. यह मसला तब सुलझा, जब एलएसी के निकट भारत ने वह निर्माण कार्य बंद किया जिसे वह अपने ही इलाकों में करवा रहा था. जानकार कहते हैं कि ऐसा करके मोदी सरकार ने चीन से सुलह नहीं की थी, बल्कि उसने चीन के प्रति तुष्टीकरण की नीति की शुरुआत की थी.
2015 में नरेंद्र मोदी चीन की यात्रा पर गए. इस दौरान उन्होंने अपने ही अधिकारियों को चौंकाते हुए चीनी नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक पर्यटक वीजा देने की घोषणा कर दी. मोदी की इस घोषणा से कुछ रोज पहले ही भारतीय गृह मंत्रालय और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने चीनी नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक पर्यटक वीजा देने का विरोध किया था. इनका मानना था कि इससे भारत को खतरा है. इस यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में चीनी निवेश को बढ़ाने के मकसद से उसका नाम ‘कंट्रीज ऑफ कंसर्न’ की सूची से हटा दिया. मोदी के इस फैसले से चीनी कंपनियों को भारत में आने की आजादी मिल गयी. इसके बाद से चीन का भारत के साथ व्यापार मुनाफा प्रति वर्ष 60 अरब डॉलर हो गया, जो इससे पहले से दोगुना है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चीन के हक़ में किए गए इन बड़े फैसलों के बाद भी चीन ने न तो भारत के बड़े राजनयिक और कूटनीतिक लक्ष्यों में अड़ंगा लगाना बंद किया और न ही उसकी सेना ने एलएसी पर भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ बंद की. भारत ने साल 2016 में वैश्विक संगठन – परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता पाने के लिए आवेदन किया. अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस और जर्मनी जैसे देश इस मामले में भारत के पक्ष में थे, लेकिन चीन ने पाकिस्तान से अपने संबंधों के चलते भारत के खिलाफ वीटो कर दिया. यह मोदी सरकार के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था.
इसके अगले ही साल यानी 2017 के मध्य में चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच सिक्किम के करीब डोकलाम में गतिरोध शुरू हो गया. इस गतिरोध का कारण चीन द्वारा भूटान के इलाके में कब्जा कर भारतीय सीमा तक सड़क बनाना था. 73 दिनों के बाद जब यह गतिरोध खत्म हुआ तो मोदी सरकार ने इसे अपनी जीत की तरह प्रचारित किया. जबकि गतिरोध समाप्त होने के बाद भी डोकलाम के आसपास के इलाकों में चीन की ओर से सैन्य ढांचे का विस्तार करना बंद नहीं हुआ था. ये ढांचा निर्माण इस मकसद से किए गए कि चीनी सेना को एलएसी तक पहुंचने में लगने वाले समय को कम किया जा सके. कुछ रिपोर्ट्स की मानें तो डोकलाम के आसपास जो निर्माण किया गया, उनमें बड़ी इमारतें जिनका आर्मी कैम्प्स की तरह इस्तेमाल किया जा सके, सुरंगे, चार लेन वाली सड़कें और हेलीपैड शामिल हैं. इसके अलावा चीन के इस निर्माण से यह भी साफ़ हो गया कि भारत अपने करीबी देश भूटान की संप्रभुता की रक्षा नहीं कर सका, जिसकी जिम्मेदारी उसी के हाथ में है.
लेकिन, इन सभी घटनाओं के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के प्रति भारत की तुष्टिकरण की नीति जारी रखी. डोकलाम विवाद के समय से ही मोदी सरकार ने नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच बैठक कराने के प्रयास तेज कर दिए थे. आखिरकार, अप्रैल 2018 में वुहान में अनाधिकारिक शिखर सम्मेलन पर बात बनी. लेकिन इससे पहले जो चीजें घटी वे हैरान करने वाली थीं. इस शिखर वार्ता से करीब एक महीने पहले मोदी सरकार की तरफ से अपने वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों को पत्र लिखकर दलाई लामा के कार्यक्रम में न जाने का आदेश दिया गया. बताया जाता है कि सरकार ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि दलाई लामा के भारत में 60 साल पूरे होने का उत्सव अगर दिल्ली में मनाया जाता और इसमें बड़े नेता और अधिकारी भी शामिल होते तो उससे चीन नाराज हो सकता था और शिखर सम्मेलन के लिए न भी कह सकता था. विदेश मंत्रालय के इस पत्र के बाद दलाई लामा का वह कार्यक्रम हिमाचल प्रदेश के मैक्लॉयडगंज में हुआ. कुछ मीडिया रिपोर्टों में तो यहां तक दावा किया गया कि यह पत्र चीन के कहने पर ही लिखा गया था क्योंकि जब भारतीय विदेश सचिव विजय गोखले ने इसे लिखा था तब वे चीन में ही थे.
वुहान के बाद नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच बीते साल अक्टूबर में एक और अनाधिकारिक शिखर सम्मेलन हुआ. दो दिवसीय यह सम्मलेन तमिलनाडु के महाबलीपुरम में हुआ. पहले की तरह ही इसे भी मोदी सरकार ने अपनी बड़ी सफलता बताया. लेकिन इसके चार महीने बाद ही लद्दाख के गलवान घाटी से चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबरें आनी शुरू हो गईं. जानकारों के मुताबिक चीनी सैनिकों ने गलवान में घुसपैठ बहुत सोच-समझकर की थी. उन्होंने यहां जिस तरह का बंदोबस्त कर रखा था उससे साफ़ पता चलता है कि इसकी तैयारी एक योजना के तहत काफी पहले शुरू की गयी थी.
विदेश मामलों के जानकार कहते हैं कि बीते छह सालों में नरेंद्र मोदी ने शी जिनपिंग के साथ 16 मुलाकातें की. मोदी सबसे ज्यादा बार चीन की यात्रा पर जाने वाले भारतीय प्रधानमंत्री भी हैं. लेकिन अगर इन सबका निष्कर्ष निकालें तो नतीजा सिफर नहीं बल्कि ऋणात्मक ही दिखता है. यानी इनसे भारत को कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि नुकसान ही उठाना पड़ा. जबकि इसके उलट चीन ने इन बैठकों से जमकर आर्थिक फायदा उठाया और साथ ही भारतीय क्षेत्रों में घुसता भी चला आया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह कई बार संसद में और खुले मंचों पर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आलोचना करते रहे हैं. ये लोग चीन से 1962 में हुए युद्ध और अक्साई चिन जैसे क्षेत्रों पर चीन के कब्जे के लिए नेहरू को गलत ठहराते रहे हैं. भाजपा के कई नेताओं ने तो गलवान विवाद के लिए भी देश के पहले प्रधानमंत्री को ही दोषी बताया है. लेकिन जानकारों की मानें तो चीन को लेकर नेहरू से कहीं बड़ी गलती नरेंद्र मोदी ने की है. इनके मुताबिक ऐसा इसलिए है कि नेहरू तो देश के पहले प्रधानमंत्री थे और उस समय तक चीन के छल-फरेब के बारे में उन्हें या उस समय के किसी भी अन्य नेता को कोई खास अनुभव नहीं था. लेकिन अब जब 1962 के युद्ध को 60 साल बीते चुके हैं और पूरी दुनिया चीन की चालों को बहुत अच्छी तरह से समझ चुकी है, तब नरेंद्र मोदी का चीन के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाना नेहरू से कहीं बड़ी गलती लगती है. इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि घड़ी-घड़ी जवाहरलाल नेहरू की गलतियां गिनाने वालों ने, उनकी गलतियों से भी कोई सबक नहीं लिया.
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