जर्मन तानाशाह हिटलर का डिप्टी हिमलर योग के द्वारा जर्मनों को क्षत्रियों जैसी योद्धा जाति बनाना चाहता था
राम यादव | 21 जून 2020 | फोटो: विकिमीडिया कॉमन्स
भगवद गीता का संस्क़ृत से जर्मन भाषा में पहला अनुवाद 1823 में हुआ था. इसे किया था जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय में भारतविद्या के प्रोफ़ेसर आउगुस्त विलहेल्म श्लेगल ने. गीता के छठें अध्याय में योगसाधना पर विस्तार से प्रकाश डाला गाया है. जनसाधारण तो नहीं, पर जर्मनी के तत्कालीन विद्वान, चिंतक और धर्मशास्त्री गीता के इसी अनुवाद के माध्यम से ‘योग’ शब्द से परिचित हुए थे.
‘योग’ शब्द के बाद योगाभ्यास को जनसाधारण तक पहुंचने में हालांकि पूरी एक सदी बीत गई. 1921 में राजधानी बर्लिन में योगाभ्यास सिखाने का पहला स्कूल खुला. बोरिस सखारोव नाम के 22 वर्ष के जिस युवक ने बर्लिन की हुम्बोल्ट सड़क पर यह स्कूल खोला था, वह जर्मन नहीं एक रूसी था. उन दिनों वह बर्लिन के तकनीकी महाविद्यालय में गणित और भौतिकशास्त्र की पढ़ाई कर रहा था. 1917 की ‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति’ के दौरान रूसी कम्युनिस्टों ने उसके माता-पिता की संपत्ति ज़ब्त कर उनकी हत्या कर दी थी, इसलिए 1919 में उसे रूस से भागना पड़ा था. जर्मनी ही नहीं, शायद पूरे यूरोप में योगाभ्यास सिखाने के इस पहले स्कूल का नाम था ‘भारतीय शारीरिक व्यायाम स्कूल.’
‘योग’ शब्द सुपरिचित नहीं था
‘योग’ शब्द उन दिनों इतना सुपरिचित नहीं था कि लोग उसका सही अर्थ समझ पाते. इसलिए बोरिस सखारोव ने स्कूल के नाम में ‘योग’ शब्द का प्रयोग नहीं किया. समझा जाता है कि सखारोव ने योग-आसन पुस्तकों और उनमें छपे चित्रों की सहायता से स्वयं ही सीखे थे. बाद में वह हॉलैंड की यात्रा पर आए भारतीय दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति से मिला था और उस ज़माने के योग-गुरू स्वामी शिवानंद सरस्वती का शिष्य भी बन गया था.
1933 में तानाशाह हिटलर द्वारा सत्ता हथिया लेने के बाद जर्मनी में अंधराष्ट्रवाद का जो उन्माद फैला और जो भयावह दमनचक्र चला, बोरिस सखारोव पर उसकी आंच नहीं आयी. सखारोव का स्कूल 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय तक चलता रहा. इसका कारण यह नहीं था कि सखारोव की हिटलर या उसकी नाजी पार्टी के साथ कोई मिलीभगत थी. सच्चाई तो यह है कि भारत के बारे में हिटलर के विचार बहुत ही घटिया क़िस्म के थे. यहां तक कि जिन दिनों नेताजी सुभाषचंद्र बोस बर्लिन में थे, हिटलर ने उनसे कह दिया था कि भारतीय लोग मक्खी तक को तो मार नहीं सकते इसलिए भारत को आज़ादी लायक बनने में अभी डेढ़ सौ साल लगेंगे! बर्लिन में खुले प्रथम योग स्कूल को आंच नहीं आने का शायद एक दूसरा ही कारण था.
हिटलर का डिप्टी हिमलर
हाइनरिश हिमलर, पदानुक्रम में तानाशाह अडोल्फ़ हिटलर के बाद, उस समय के जर्मनी का दूसरा सबसे शक्तिशाली नाज़ीवादी नेता था. हिमलर ही ‘एसएस’ (शुत्सश्टाफ़ल/सुरक्षा स्क्वैड्रन) नाम के उस विशेष आंतरिक सुरक्षा बल का प्रमुख था जिसके तहत हिटलर का अंगरक्षक दस्ता, गुप्तचर पुलिस ‘गेस्टापो’, ‘वाफ़न (हथियारबंद) एसएस’, सारे यातना शिविर और ज़हरीली गैस की भट्ठियों वाले सारे मृत्युशिविर आते थे. वह एक कैथलिक ईसाई था, पर साथ ही आध्यात्मिक रहस्यवाद और तंत्र-मंत्र में भी रूचि रखता था.
जर्मन चिंतकों और साहित्यकारों के बीच भारतीय दर्शन की लोकप्रियता 19वीं सदी के दौरान लगातार बढ़ी थी. इस दौरान इस दर्शन को प्रतिबंबित करती कई जर्मन रचनाएं भी आईं. इसका एक प्रभाव यह हुआ कि 20 वीं सदी आने तक पढ़े-लिखे और सभ्रांत जर्मनों के बीच भगवद गीता के उपदेशों और भारतीय तत्वदर्शन पर काफ़ी चर्चाएं होने लगी थीं. 2011 में प्रकाशित एक पुस्तक ‘नाज़ीकाल में योग’ के लेखक मथियास टीट्के कहते हैं कि हाइनरिश हिमलर भी इन चर्चाओं से परिचित था. वह भी गीता के उस अध्याय में विशेष दिलचस्पी लेता था, जिसमें नाद-योग की साधना से ज्ञानप्रप्ति पर प्रकाश डाला गया है. टीट्के कहते हैं, ‘उस समय के जर्मनी में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो योग-साधना को तन और मन उन्नत बनाने के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे. निजी तंदुरुस्ती को एक व्यावहारिक राष्ट्रीय अवधारणा का रूप देना चाहते थे. 20 वीं सदी में ऐसे अनेक दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नेता योगाभ्यास के भी समर्थक रहे हैं, जो उसकी इस कारण प्रशंसा किया करते थे कि उसके द्वारा पूरे राष्ट्र को और भी ऊंची नस्ल का बनाया जा सकता है.’
योग का भारतीय होना रास नहीं आ रहा था
लेकिन, इस नस्ल-संवर्धन की राह में एक रोड़ा भी दिख रहा था – योग का भारतीय उद्गम! जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता के उस समय के पुजारियों को लग रहा था कि जर्मन जाति के परंपरागत रीति-रिवाज़ों से इस ग़ैर-जर्मन योगसाधना का मेल नहीं बैठता. उनकी समझ से, यह हो नहीं सकता कि ग़ैर-जर्मन भारत के पास ऐसा भी कुछ है जो संसार की सबसे श्रेष्ठ जाति हम जर्मनों के पास नहीं है और जिसे अब हम भारत से लेने की सोचें. मथियास टीट्के बताते हैं कि इन आपत्तियों को देखते हुए एक नया रास्ता निकाला गया. योग का उद्गम पाश्चात्य को बताया जाने लगा.
योग का समर्थन करने वाले जाने-माने जर्मन राष्ट्रवादियों के बीच उस समय के एक भारतशास्त्री प्रोफ़ेसर विलहेल्म हाउएर भी गिने जाते थे. उन्होंने और उनके जैसे कुछ दूसरे लोगों ने भी, भारत के प्राचीन ग्रंथों को योगविद्या का मूल स्रोत बताने के बदले, उत्तरी यूरोप की ऐसी कथा-कहानियों को उसका उद्गम बताना शुरू कर दिया, जिनके आधार पर कहा जाता था कि आदि मनुष्य उत्तरी यूरोप में ही रहा करता था और वहीं से अन्य स्थानों पर गया था.
नए-नए मिथक गढ़े गए
नए-नए मिथक गढ़ने के इसी क्रम में ‘आर्यों’ के बारे में यह कहा जाने लगा कि ‘आर्य’ अपनी जातीय शुद्धता के प्रति सचेत, शारीरिक-बौद्धिक दृष्टि से दूसरों से कहीं श्रेष्ठ और दूसरों पर राज-पाट करने की जन्मजात प्रतिभा वाले लोग रहे हैं. यह बात छिपायी जाने लगी कि ‘आर्य’ मूल रूप से मध्य एशिया में भारोपीय (भारतीय-यूरोपीय / इंडो-जर्मैनिक) उद्भव के ऐसे चरवाहे लोग थे, जिन्होंने कालांतर में भारतीय वेदों का सृजन किया था.
‘नाज़ीकाल में योग’ के लेखक मथियास टीट्के कहते हैं कि भारत के बदले आज के स्कैंडिनेवियाई देशों को उत्तरी यूरोप का वह क्षेत्र बताया जाने लगा, जहां योग का सबसे पहले जन्म हुआ था. प्राचीन काल में होने वाले पलायनों की तरह वहां के लोग भी जब पलायन करते हुए एशिया में पहुंचे, तब स्वाभाविक है कि उनके साथ योग भी वहां पहुंचा. वहां उसे स्वीकारा और अपनाया गया और 19 वीं सदी में भारतीय संस्कृति के माध्यम से वह पश्चिमी देशों में वापस आया. यानी, नाज़ियों के कहने के अनुसार, योगविद्या अंततः वहीं वापस आयी, जहां से वह भारत पहुंची थी. इस विचित्र तोड़-मरोड़ के साथ जनता को यही पट्टी पढ़ायी गयी कि योग मिल-मिलाकर जर्मनी की ही देन है, इसलिए उसे सीखने में कोई राजनैतिक दोष नहीं है.
नाज़ियों को योग लुभा नहीं पाया
तब भी, तथ्य यही है कि योग-ध्यान उच्चपदस्थ नाज़ियों को लुभा नहीं पाया, इसलिए उनके समय में आम जनता तक पहुंच भी नहीं पाया. हाइनरिश हिमलर ही इसका अपवाद रहा, भले ही इसके पीछे उसके अपने कुछ अलग कारण थे. हिमलर पेट में दर्द और मरोड़ की शिकायत से काफ़ी परेशान रहता था. जब किसी दवा से उसे राहत नहीं मिल पायी, तो 1939 से वह फ़ेलिक्स केर्स्टन नाम के एक फिज़ियोथेरैपिस्ट (मालिश करने वाले) की सेवाएं लेने लगा.
फ़ेलिक्स केर्स्टन था तो जर्मनवंशी ही, पर वह फ़िनलैंड में रहा करता था और उसने वहीं की नागरिकता भी ले रखी थी. 1950 वाले दशक के एक रेडियो कार्यक्रम में अपने संस्मरण सुनाते हुए उसने बताया कि फ़िनलैंड के स्वतंत्रता संग्राम के समय, 1917 से 1919 तक, वह एक स्वयंसेवी स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर लड़ा था और घायल हो गया था. उसे बैसाखियों के सहारे चलना पड़ता था. 1922 में वह बर्लिन आ गया. वहां उसका परिचय एक चीनी डॉक्टर से हुआ, जिसने उसे ‘पूर्वी दुनिया की सोच-समझ और चिकित्सा पद्धति सिखायी.’
हिमलर बेचैन क़िस्म का आदमी था
फ़ेलिक्स केर्स्टन ने उस चीनी डॉक्टर से सीखा कि कोई दर्द होने पर मालिश वाला उपचार वहां नहीं किया जाता, जहां दर्द हो रहा है, बल्कि वहां किया जाता है, जहां स्नायु-केंद्र होते हैं (दर्दनिवारण की एक्यूप्रेशर विधि). इस विधि को अपनाते ही केर्स्टन की ख्याति और रोगियों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी. ‘मार्च 1939 में बात हिमलर के कानों तक भी पहुंची… वह बेचैन क़िस्म का आदमी था. उसकी स्नायविक गांठों में तनाव आ जाने से पेट में ऐंठन-जैसा दर्द पैदा होने लगता था.’ फ़ेलिक्स केर्स्टन की मालिश से हिमलर को काफ़ी राहत मिलती थी. इससे दोनों के बीच कुछ निकटता भी पैदा हो गयी थी.
नवंबर 1938 से पूरे जर्मनी में यहूदियों को मारने-पीटने और लूटने का अभियान शुरू हो गया था. 1सितंबर 1939 को हिटलर द्वारा पोलैंड पर अचानक आक्रमण के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध भी छिड़ गया था. इन परिस्थतियों में हिमलर को केर्स्टन की सेवाओं की कुछ ज़्यादा ही ज़रूरत पड़ने लगी थी. केर्स्टन ने पाया कि हिमलर भगवदगीता पढ़ा करता था. इसे याद करते हुए 1952 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘मृतक-खोपड़ी और निष्ठा – हाइनरिश हिमलर यूनिफ़ार्म के बिना’ में उसने लिखा है, ‘लगता था कि हिमलर की अंतरात्मा उसे कचोटने लगी थी… वह कोई आध्यात्मिक संबल खोजने लगा था. उस सब के लिए कोई वैधता तलाश रहा था, जो उसने किया था, कर रहा था या जिसके लिए उत्तरदायी था. उसका समझना था कि गीता में कहे के अनुसार निजी तौर पर वह यदि साफ़-सुथरा बना रहता है, तो उसके अपराध क्षम्य हैं. वह सोचता था कि मैं कोई भयंकर कृत्य करके भी निष्कलंक रह सकता हूं.’
‘हमें क्षत्रिय जाति बनना चाहिये’
केर्स्टन के मुताबिक हिमलर की टिप्पणियों में उसने पाया कि वह 1926 से ही जर्मनों को ‘क्षत्रिय’ बनाने की सोच रहा था. उसने एक टिप्पणी में लिखा था, ‘हां, क्षत्रिय जाति, यही हमें बनना चाहिये.’ यानी, हिमलर को पता था कि भारत में योद्धाओं की एक अलग जाति होती है, जिसे वहां क्षत्रिय कहा जाता है. केर्स्टन ने अपनी किताब में लिखा है, ‘उसे लगता था कि इस जाति का अपना अलग लोकाचार, अलग स्वभाव है. इस जाति के लोग निःसंकोच और निर्विकार भाव से मरते-मारते हैं. उनकी अंतरात्मा शुद्ध रहती है. अपने कृत्य के प्रति वे निर्लिप्त बने रहते हैं. यही हिमलर के जीवन का मूलमंत्र बन गया था,’
गीता की अपनी मनपसंद इसी व्याख्या पर चलते हुए हिमलर ने, द्वितीय विश्वयुद्ध वाले दिनों में, चार अक्टूबर 1943 को, पोलैंड के पोज़नान शहर में अपने अधीनस्थ ‘एसएस’ (शुत्सश्टाफ़ल) अफ़सरों को संबोधित करते हुए कहा, ‘हमें यह नैतिक अधिकार था, अपनी जनता के प्रति हमारा यह नैतिक कर्तव्य था कि हम इस (पोलिश) जनता को, जो हमें मार डालना चाहती थी, मौत के घाट उतार दें.’ यहां यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि पोलैंड या उसकी जनता न तो जर्मनों को मार डालना चाहती थी और न ही इसके समर्थन में थी. जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण कर उस पर क़ब्ज़ा कर लिया था, न कि पोलैंड ने जर्मनी पर आक्रमण किया था.
‘एसएस’ के अफ़सर ही हिमलर के ‘क्षत्रिय’ थे
‘एसएस’ को जिन उद्देश्यों व कार्यों के लिए गठित किया गया था, उन्हें हिटलर की नाज़ीवादी विचारधारा का सबसे हृदयहीन, सबसे नृशंस रूप माना जाता है. हाइनरिश हिमलर की नज़र में ‘एसएस’ के लिए काम करने वाले अफ़सर ही उसके ‘क्षत्रिय’ थे. वह ‘एसएस’ को किसी धार्मिक पंथ जैसा रूप देने लगा. जर्मनी के पाडरबोर्न नगर के पास वेवेल्सबुर्ग नाम की एक पुरानी किलेबंदी है. हिमलर ने वहां अपने ‘एसएस’ क्षत्रियों के लिए एक ‘आध्यात्मिक केंद्र’ बनवाया. उसके वास्तुशिल्प में 12 की संख्या को प्रमुखता देते हुए 12 स्तंभ, 12 खिड़कियां और फ़र्श के मध्य में 12-भुजी एक सजावटी आकृति बनवाई. कई वर्ष चले उसके निर्माण के दौरान 1285 बंधुआ मज़दूरों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी थी. हिमलर वहां अपने अफ़सरों के लिए ध्यानसाधना (मेडिटेशन) के सत्र लगाने की भी सोच रहा था.
हिमलर यदि हिटलर का डिप्टी नहीं रहा होता और नियमित सेना ‘वेयरमाख्त’ को छोड़ कर बाक़ी का लगभग सारा सुरक्षा तंत्र उसके हाथ में न होता, तो वह ऐसी हरकतें भी नहीं कर पाता. उसकी इन हरकतों के बारे में दबी ज़बान खुसर-फुसर होने लगी थी. वह भी इसे जानता था. इसलिए अपने मन की जो बातें वह खुल कर नहीं कह सकता था, उन्हें अपने मालिशकर्ता फ़ेलिक्स केर्स्टन के साथ बांटा करता था. योग को लेकर हिमलर की समझ और जर्मनों को ‘क्षत्रिय’ बनाने की उसकी सनक के बारे में जितना फे़लिक्स केर्स्टन को पता था, उतना कोई और नहीं जानता था.
हिमलर में मानवीयता नहीं रह गयी थी
1950 वाले दशक के अंत में रेडियो पर प्रसारित अपने संस्मरणों में केर्स्टन ने कहा, ‘तबीयत ठीक होने पर हिमलर कुछ नहीं बताता था. केवल बीमारी से कराह रहे हिमलर से ही कुछ कहना-सुनना संभव था…अपने अधीन यातनाशिविरों के बंदियों के प्रति हिमलर के मन में मानवीय संवेदना रह ही नहीं गयी थी. उसके लिए वे आदमी नहीं, केवल नंबर थे. उन्हें ज़िंदा रहना ही नहीं चाहिये था.’ केर्स्टन ऐसे हज़ारों यहूदियों के बारे में जानकारी पाने में सफल रहा, जो हिमलर के यातनाशिविरों में क़ैद थे. यह जानकारी केर्स्टन ने ‘विश्व यहूदी कांग्रेस’ की स्वीडिश समिति के पास पहुंचा दी. उस के आधार पर द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों में अनुमानतः 60 हज़ार यहूदियों व ग़ैर-यहूदियों की जान बचायी जा सकी.
बर्लिन में बोरिस सखारोव का ‘भारतीय शारीरिक व्यायाम स्कूल’ भी, जो जर्मनी में योगाभ्यास सिखाने का पहला स्कूल था, नाज़ियों के नस्लवादी उन्माद की आंच से 1945 तक शायद इसीलिए बचा रहा कि हाइनरिश हिमलर योगाभ्यास के द्वारा जर्मनों की नस्ल को और अधिक उन्नत करने का कायल था. हिमलर से पहले किसी ने शायद कभी यह कल्पना भी नहीं की होगी कि भगवद गीता को साक्षी बना कर अपनी अंतरात्मा पर से अपने पापों का बोझ हटाया जा सकता है और भगवान श्रीकृष्ण की बतायी योगसाधना के द्वारा अपना नस्ली-संवर्धन भी किया जा सकता है.
हिटलर ने हिमलर को पार्टी से निकाला
द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों में हिमलर को जब पक्का विश्वास हो गया कि जर्मनी की हार तय है, तो वह गुप्त रूप से हिटलर-विरोधी गुट के पश्चिमी राष्ट्रों के साथ संपर्क साधने और उनके साथ किसी समझौते द्वारा अपने आप को बचाने का प्रयास करने लगा. हिटलर को जब इसका पता चला, तो 30 अप्रैल 1945 को, बर्लिन के भूमिगत बंकर में अपनी आत्महत्या से ठीक एक दिन पहले, उसने हिमलर को देशद्रोही घोषित करते हुए अपनी पार्टी से निकाल दिया.
इसके बाद तो हिमलर के अपने ‘एसएस’ कमांडरों ने भी उसका साथ छोड़ दिया. हिटलर-विरोधी गुट के मित्र राष्टों के सैनिक उसे गिरफ्तार करने के लिए पहले ही उसकी तलाश में लगे हुए थे. 21 मई 1945 को हिमलर कुछ रूसी युद्धबंदियों के हाथ लग गया. दो दिन बाद, 23 मई को, उन लोगों ने उसे जर्मन शहर ल्युइनेबुर्ग के पास ब्रिटिश सेना के एक कैंप को सौंप दिया. वहां पूछताछ में हिमलर ने अंततः स्वीकार कर लिया कि वही हाइनरिश हिमलर है, और संखिया ज़हर की एक गोली मुंह में डाल कर निगल गया.15 मिनट के भीतर ही उसका शरीर पूरी तरह ठंडा पड़ चुका था.
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