एमनेस्टी इंटरनेशनल के भारत छोड़ने और मोदी सरकार द्वारा एफसीआरए कानून में किये गए बड़े बदलावों के बाद यह सवाल लगातार पूछा जा रहा है
अभय शर्मा | 22 अक्टूबर 2020 | फोटो : एमनेस्टी इंडिया
हाल ही भारत में गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) से जुड़ी दो खबरों ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरीं. पहली खबर मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल से जुड़ी है. भारत सरकार ने एमनेस्टी के बैंक खाते फ्रीज कर दिए जिसके बाद संस्था ने भारत में अपना काम बंद करने की घोषणा कर दी. दूसरी खबर विदेशी अंशदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) में किया गया बदलाव है. इन दो घटनाओं को लेकर दुनिया भर में भारत सरकार की काफी आलोचना हो रही है. कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार जान-बूझकर गैर सरकारी संगठनों को निशाना बना रही है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि उसे उसके कामकाज की वजह से निशाना बनाया जा रहा है. मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली इस संस्था ने बीते अगस्त में दिल्ली के दंगों पर एक रिपोर्ट जारी की थी. इसमें दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार पर गंभीर आरोप लगाए गये थे. रिपोर्ट में दिल्ली पुलिस पर दंगे ना रोकने, उनमें शामिल होने, फ़ोन पर मदद मांगने पर मना करने, पीड़ित लोगों को अस्पताल तक पहुंचने में बाधा खड़ी रोकने और ख़ास तौर पर मुस्लिम समुदाय के साथ भेदभाव करने जैसे संगीन आरोप लगाए गए थे. एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस रिपोर्ट के लिए दंगाग्रस्त इलाकों की पड़ताल और करीब 50 लोगों से बात की थी. इनमें दंगों में किसी तरह बच गए लोग, चश्मदीद गवाह, वकील, डॉक्टर, मानवाधिकार कार्यकर्ता और सेवानिवृत्त पुलिस अफसर शामिल थे. इसके अलावा संस्था ने दंगों से जुड़े कई वीडियो को भी अपनी रिपोर्ट का आधार बनाया था.
एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में पुलिस द्वारा वकीलों और पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार और उन पर हमले के बारे में भी विस्तार से बताया गया है. इसके अलावा रिपोर्ट में यह दावा भी किया गया है कि दंगों में बच गए लोगों में से कइयों को पुलिस ने डराया, उन्हें गैर-कानूनी हिरासत में रखा और कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया. मानवाधिकार संस्था ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ तौर पर कहा कि दिल्ली पुलिस के जवान हिंसा में सक्रिय रूप से भागीदार थे, लेकिन इसके बावजूद इस मामले में छह महीनों में एक भी जांच नहीं बैठाई गई.
एमनेस्टी इंटरनेशनल बीते कई सालों से लगातार जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघनों को लेकर भी केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करता आ रहा है. वह बार-बार यह कहते हुए सरकार की आलोचना करता रहा है कि जम्मू-कश्मीर सहित भारत के कई हिस्सों में असंतोष का दमन किया जा रहा है. बीते साल संस्था ने अमेरिका में विदेश मामलों की एक समिति के सामने दक्षिण एशिया में मानवाधिकारों की स्थिति पर अपनी एक रिपोर्ट पेश की थी. इसमें उसने विशेष तौर पर कश्मीर घाटी में की गयी अपनी जांच के बारे में विस्तार से लिखा था. संगठन, जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म किए जाने के बाद से हिरासत में रखे गए सभी नेताओं, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को रिहा किए जाने और वहां सामान्य इंटरनेट सेवा को बहाल करने की मांग को भी दुनिया के कई मंचों पर उठाता रहा है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि इन कामों की वजह से ही मोदी सरकार उसके खिलाफ बदले की भावना से काम कर रही है और उसकी वित्तीय परिसंपत्तियों को निशाना बना रही है. एमनेस्टी के एक वरिष्ठ अधिकारी रजत खोसला कहते हैं, ‘बीते कुछ सालों से हमें (भारत) सरकार की ओर से आधिकारिक तौर लगातार धमकाया जा रहा था और हमारा उत्पीड़न किया जा रहा था. अब हमें बिना आधिकारिक सूचना दिए हमारे बैंक अकाउंट फ्रीज कर दिए गए….एमनेस्टी ने जिन स्रोतों से पैसा लिया वे पूरी तरह वैध हैं, फंड लेने के लिए कोई कानून भी नहीं तोडा गया है, हमें (भारत में) मानवाधिकारों के लिए खड़े होने की सजा दी गयी है.’ रजत खोसला के मुताबिक ‘एमनेस्टी की मानवाधिकार संबंधी दो प्रमुख रिपोर्टों के कारण उसके बैंक खातों को फ्रिज किया गया है. इनमें से एक रिपोर्ट इस साल हुए दिल्ली दंगों पर थी, जिसमें एमनेस्टी इंडिया ने मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा में पुलिस की मिलीभगत को उजागर किया था. दूसरी रिपोर्ट जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हटाए जाने के बाद वहां लगाए गए मनमाने प्रतिबंधों पर थी.’
कुछ जानकार कहते हैं कि एमनेस्टी इंटरनेशनल के साथ जो हो रहा है, वह नया नहीं है. इस संस्था का मिजाज़ हमारी ज्यादातर सरकारों को कभी पसंद नहीं आया है क्योंकि वह हमेशा मानवाधिकारों के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करती रही है. यह संगठन भारत में 1984 में हुए दंगों, जम्मू-कश्मीर में होने वाली ज्यादतियों, सशस्त्र बल (विशेष शक्ति) अधिनियम (अफ्स्पा) के दुरुपयोग और अल्पसंख्यकों एवं आदिवासियों से जुड़े मुद्दों को लगातार दुनिया के सामने उठाता रहा है और इसीलिए भारत की तमाम सरकारें इसे दबाने की कोशिश करती रही हैं.
सत्याग्रह से बातचीत में एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि आज भले ही एमनेस्टी इंटरनेशनल को लेकर कांग्रेस के नेता व्याकुल और व्यथित नजर आते हों, लेकिन इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन सिंह के दौर तक में इस संस्था पर लगातार सवाल उठाये जाते रहे हैं.
2009 में मनमोहन सिंह सरकार की कार्रवाई के चलते इसे कुछ दिन अपना कामकाज तक बंद करना पड़ा था. 2012 में तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु बिजली संयंत्र को लेकर बड़े प्रदर्शन हुए थे, इनमें एमनेस्टी सहित कई एनजीओज़ की भागेदारी थी. उस समय तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने प्रदर्शनों को विदेशी फंडिंग पाने वाले गैर सरकारी संगठनों की साजिश बताया था. तब सरकार ने कई एनजीओज़ को चिन्हित भी किया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी सार्वजानिक रूप से यह आरोप लगाया था कि इस आंदोलन के पीछे विदेशी शक्तियां हैं जो भारत को ऊर्जा के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ने देना चाहती हैं. इसके दो साल बाद, फरवरी 2014 में, यूपीए सरकार ने एमनेस्टी इंडिया की उस फंडिंग को रोक दिया था जो इसे अपनी पेरेंट संस्था से मिलनी थी.
इन आरोपों पर मोदी सरकार का क्या कहना है?
भारतीय गृह मंत्रालय ने एमनेस्टी द्वारा केंद्र सरकार पर लगाये गये आरोपों का जवाब दिया है. उसका कहना है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल का रुख और बयान दुर्भाग्यपूर्ण, अतिश्योक्तिपूर्ण और सच्चाई से परे हैं. मंत्रालय का कहना है कि ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल को विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) के अंतर्गत सिर्फ एक बार और वह भी 20 साल पहले स्वीकृति दी गई थी. तब से अभी तक एमनेस्टी इंटरनेशनल के कई बार आवेदन करने के बावजूद पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा एफसीआरए स्वीकृति से इनकार किया जाता रहा है, क्योंकि कानून के तहत वह इस स्वीकृति को हासिल करने के लिए पात्र नहीं है.’
मंत्रालय के मुताबिक इसके बावजूद एमनेस्टी यूके ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई बताकर भारत में पंजीकृत चार संस्थाओं को बड़ी मात्रा में धन भेजा. भारतीय गृह मंत्रालय की अनुमति के बिना एमनेस्टी इंडिया को भी बड़ी मात्रा में विदेशी धन भेजा गया. गलत तरह से भेजे गए ये पैसे मौजूदा क़ानूनी प्रावधानों का उल्लंघन था. गृह मंत्रालय ने अपने बयान में यह भी कहा है कि एमनेस्टी के इन अवैध तरीक़ों की वजह से पिछली सरकार ने भी विदेशों से फंड लेने के एमनेस्टी के आवेदनों को बार-बार अस्वीकार्य कर दिया था. इसलिए इससे पहले भी एमनेस्टी को भारत में अपना काम-काज बंद करना पड़ा था. एमनेस्टी के प्रति अलग-अलग सरकारों का यह रुख बताता है कि एमनेस्टी ने अपने कामकाज के लिए धनराशि हासिल करने को पूर्ण रूप से संदिग्ध प्रक्रियाएं अपनाईं.
मंत्रालय के अनुसार ‘एमनेस्टी की ओर से मानवीय कार्य और सत्य की ताकत के बारे में की जा रही बयानबाजी और कुछ नहीं, सिर्फ अपनी गतिविधियों से ध्यान भटकाने की एक चाल है. एमनेस्टी स्पष्ट रूप से भारतीय कानूनों की अवहेलना में लिप्त रही है. ऐसे बयान पिछले कुछ सालों के दौरान की गईं अनियमितताओं और अवैध कार्यों की कई एजेंसियों द्वारा की गई जा रही जांच को प्रभावित करने के प्रयास भी हैं.’
केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से एमनेस्टी को साफ़ संदेश देते हुए कहा गया है, ‘एमनेस्टी भारत में मानवीय कार्य जारी रखने के लिए स्वतंत्र है, जिस तरह से अन्य संगठन कर रहे हैं. लेकिन भारत के कानून विदेशी चंदे से चलने वाली इकाइयों को घरेलू राजनीतिक बहस में दखल देने की अनुमति नहीं देते हैं. ये कानून सभी पर समान रूप से लागू होते हैं और एमनेस्टी इंटरनेशनल पर भी लागू होंगे.’
लेकिन कई जानकार मोदी सरकार द्वारा एमनेस्टी पर की गयी कार्रवाई को पूरी तरह सही नहीं मानते हैं. वरिष्ठ पत्रकार करन थापर अपनी एक टिप्पणी में लिखते हैं, ‘अगर यह मान लिया जाए कि एमनेस्टी ने गलत किया तो भी एक लोकतान्त्रिक देश को सावधानीपूर्वक यह सोचना चाहिए कि उसे (एमनेस्टी के खिलाफ) क्या कदम उठाने चाहिए. क्योंकि अगर (सरकार) का कोई कदम इस संस्था को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अपना काम बंद करने को मजबूर करता है तो यह हमारे लिए बड़ी क्षति और बेहद शर्मिंदगी की बात है.’ वे मानते हैं कि एमनेस्टी को चेताये जाने की जरूरत हो सकती थी लेकिन ऐसी सजा सही नहीं है जिससे इस देश में वह अपने दरवाजे बंद कर दे. थापर आगे लिखते हैं, ‘एमनेस्टी ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र से हटने का फैसला किया है, यह भारत के लिए सम्मान की बात नहीं है बल्कि इससे वह पाकिस्तान और चीन जैसे उन देशों में शामिल हो जाएगा जहां एमनेस्टी काम नहीं कर सकती. यानी अब हम इनसे बेहतर नहीं दिखते.’
थापर के मुताबिक ‘भले ही एमनेस्टी की आवाज कभी-कभार देश के लोगों और सरकार को चुभ जाती हो, लेकिन इस आवाज का होना बेहद जरूरी है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह आवाज हमारे लोकतांत्रिक होने के पुख्ता सबूत की तरह थी. अब इस आवाज का न होना यह संदेश देगा कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को भी चुप्पी ही पसंद है.’
एफसीआरए में बदलाव कर एनजीओ पर शिकंजा
भारत में विदेशी अंशदान नियमन कानून (एफसीआरए) एनजीओ नियमन से जुड़ा सबसे अहम कानून है. एफसीआरए को साल 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाधी ने आपातकाल के दौरान लागू किया था. तब यह कानून भारत की चुनावी प्रक्रिया और लोकतंत्र में बाहरी हस्तक्षेप को रोकने के लिए बनाया गया था. आपातकाल के साथ-साथ यह उस समय की बात भी है जब भारत एक नया-नवेला देश था और उस समय शीत युद्ध भी चरम पर था. ऐसे में भारत की राजनीति और नीतियों को बाहरी असर से बचाने के घोषित उद्देश्य से इस कानून को बनाया गया था. इस कानून के आने से राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों, पत्रकारों और समाचार पत्रों के प्रकाशकों, न्यायाधीशों, नौकरशाहों और संसद के सदस्यों के विदेशी धन हासिल करने पर रोक लग गई थी. साल 2010 में एक नया सख्त एफसीआरए कानून बनाया गया जिसमें उन चीजों को शामिल किया गया जो पिछले कानून में शामिल नहीं थीं.
एफसीआरए 1976 के परिचय में लिखा गया था कि यह कानून ‘संसदीय, राजनीतिक और शैक्षिक संस्थाओं और अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं और देश के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में काम करने वाले व्यक्तियों’ द्वारा विदेश से लिये जाने वाले धन के नियमन के लिए बनाया गया है ताकि ये सभी ‘एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणतंत्र के मूल्यों’ के मुताबिक आचरण कर सकें. उधर एफसीआरए 2010 इसमें मुख्य रूप से यह जोड़ता है कि यह कानून उन गतिविधियों को रोकने के लिए भी बनाया गया है जो ‘राष्ट्र के हितों के खिलाफ’ हैं.
2014 में दिल्ली हाई कोर्ट ने भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों को एफसीआरए के नियमों का उल्लघंन करने और अन्य देशों से फंड लेने का दोषी पाया. इसके बाद कोर्ट ने मोदी सरकार और चुनाव आयोग को दोनों पार्टियों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया. जब सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में दोनों पार्टियों को कोई राहत नहीं दी तो मोदी सरकार ने एफसीआरए कानून में दो बार संशोधन किये. इनसे राजनीतिक पार्टियों को विदेश से पैसे लेने की आजादी मिल गयी. पहले 2016 में फाइनेंस एक्ट 2016 के जरिये एफसीआरए 2010 में संशोधन किया गया. लेकिन कांग्रेस और भाजपा ने विदेशी कंपनियों से चंदा इसके पहले भी लिया था इसलिए फाइनेंस बिल 2018 के जरिये इस संशोधन को एफसीआरए 1976 पर भी पूर्व प्रभाव से लागू कर दिया गया.
अब सितंबर 2020 में मोदी सरकार ने एक बार फिर एफसीआरए कानून में बदलाव किए हैं. जानकारों का कहना है कि इन बदलावों से एनजीओ का भारत में काम करना लगभग नामुमकिन हो जाएगा. अब तक गैर लाभकारी संगठनों को विदेशी सहायता लेने के लिए गृह मंत्रालय में स्वयं को रजिस्टर कराना होता था, उन्हें अपनी सालाना रिपोर्ट भी पेश करनी होती थी और अगर उनके वित्तीय लेन-देन में अनियमितता पाई जाती थी तो उनका लाइसेंस रद्द किया जा सकता था. अब एफसीआरए कानून में जो प्रमुख बदलाव किए गए हैं, उनमें एनजीओ को प्रशासनिक कार्यों के लिए 50 फ़ीसदी विदेशी फंड की जगह केवल 20 फ़ीसद फ़ंड इस्तेमाल करने की इजाजत दी गयी है. साथ ही अब एक एनजीओ किसी दूसरी एनजीओ के साथ अपना फंड साझा नहीं कर सकेगी.
नए कानून में यह भी जोड़ा गया है कि भारत में एनजीओ को मिलने वाले विदेशी फ़ंड स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की नई दिल्लीशाखा में ही भेजे जाएंगे. अब तक इस फंड के लिए सिर्फ एक अलग बैंक अकाउंट रखने का ही प्रावधान था. विदेशी फंडिंग से जुड़े नियमों में एक बदलाव यह भी हुआ है कि एनजीओ से जुड़े सभी उच्च अधिकारियों को अब अपने आधार कार्ड की जानकारी सरकार को देनी होगी.
लोकसभा में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय का इस बिल को लेकर कहना था कि यह विधेयक किसी धर्म या एनजीओ के खिलाफ नहीं है. इस विधेयक से विदेशी धन का दुरुपयोग रोकने में मदद मिलेगी और यह आत्मनिर्भर भारत के लिए भी जरूरी है. उनका कहना था कि कानून में बदलाव का मकसद सिर्फ विदेशों से मिलने वाले फ़ंड को रेगुलेट करना है ताकि ये फ़ंड किसी भी सूरत में देश विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल ना हों सके.
लेकिन सरकार के दावों से उलट जानकारों का मानना है कि कानून में किये गये बदलाव देश में काम कर रहे तमाम एनजीओ के लिए बड़ी परेशानी खड़ी कर देंगे. इनके मुताबिक सरकार के सब-ग्रांट यानी बड़ी एनजीओ द्वारा छोटी एनजीओ को फंड देने पर रोक लगा देने से छोटी एनजीओ तो लगभग ख़त्म ही हो जाएंगी. नए नियम इन्हें आत्मनिर्भर और सशक्त करने के बजाय और कमज़ोर कर देंगे. सेंटर फ़ॉर सोशल इंपेक्ट एंड फ़िलेंथ्रपि की प्रमुख इंग्रिड श्रीनाथ एक न्यूज़ वेबसाइट से बातचीत में कहती हैं, ‘ये नियम पहले से ही है कि उन्हीं एनजीओ को सब-ग्रांट दिया जाता है जो एफसीआरए के तहत रजिस्टर्ड हैं. ये डेटा सरकार की वेबसाइट पर होता है. लेकिन सब ग्रांट पर रोक लगा देने से छोटी-छोटी संस्थाएं ख़त्म हो जाएंगी, वो संस्थाएं जो सक्षम नहीं हैं सीधे फ़ंडिंग पाने में वो बड़ी संस्थाओं के जरिए मदद पाती हैं.’ कुछ जानकार कहते हैं कि गृह मंत्रालय की वेबसाइट पर पहले ही तीन महीने में एक बार हर एनजीओ को अपने फ़ंड का ब्यौरा अपलोड करना पड़ता है तो फिर ऐसा नियम बनाने का मकसद समझ नहीं आता.
भारत में कुछ एनजीओ से जुड़े लोगों का यह भी कहना है कि सरकार ने पूरी तरह से ऐसी व्यवस्था की है जिससे एनजीओ काम ही न कर पाएं. दिल्ली में स्थिति एक समाजसेवी संगठन में उच्च पद पर काम करने वाले एक अधिकारी सत्याग्रह को बताते हैं, ‘अक्सर बड़ी एनजीओ द्वारा किसी छोटी एनजीओ को इसलिए पैसा दिया जाता है क्योंकि ये एनजीओ ही ग्रामीण क्षेत्रों में जमीन पर काम करवाती हैं. अब बड़ी एनजीओ छोटी एनजीओ को तो पैसा दे नहीं पाएंगी और अपने आप भी इन क्षेत्रों में काम करने के लिए ज्यादा लोगों को नौकरी पर रख नहीं सकेंगीं क्योंकि अब इन कामों के लिए वे सिर्फ 20 फीसदी फंड का ही इस्तेमाल कर सकती हैं.’
हालांकि, इसके जवाब में यह कहा जा सकता है कि जरूरी नहीं है कि समाजसेवा के लिए विदेशी धन पर ही निर्भर रहा जाए. एनजीओ अपने कामों के लिए घरेलू स्तर पर भी धन का प्रबंध कर सकती हैं. वर्तमान केंद्र सरकार ने अगर विदेश से पैसा लेने के नियम कड़े किए हैं तो पिछली सरकार ने ऐसी व्यवस्था की थी जिससे देश में ही समाज सेवा के लिए धन की व्यवस्था हो सके. 2013 में मनमोहन सिंह सरकार ने कंपनी अधिनियम-2013 के अनुच्छेद-135 के जरिये देश में कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) को अनिवार्य कर दिया था. भारत दुनिया में इकलौता ऐसा देश है, जहां सीएसआर नियमों का पालन करना अनिवार्य है.
एक अप्रैल 2014 से लागू इस कानून के तहत जिन कंपनियों की कुल सालाना संपत्ति 500 करोड़ रुपये है या कंपनी का सालाना राजस्व 1,000 करोड़ रुपये है या कंपनी शुरू होने के बाद पहले वित्तीय वर्ष में शुद्ध लाभ 5 करोड़ रुपये है, तो ऐसी कंपनियों को सीएसआर पर खर्च करना जरूरी है. यह खर्च इन कंपनियों के तीन साल के औसत लाभ का कम से कम दो फीसदी होना चाहिए. इसमें शिक्षा, स्वच्छता, भूखमरी खत्म करना, गरीबी और कुपोषण, विरासतों का संरक्षण, कला और संस्कृति और व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसे कि सिलाई के लिए प्रशिक्षण केंद्र या प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करना शामिल है. कंपनिया खुद अपनी संस्थाएं बनाकर इस तरह के काम कर सकती हैं या फिर दूसरी संस्थाओं के जरिये, जिनमें गैर सरकार संस्थाएं भी शामिल हैं, अपने सीएसआर से जुड़े दायित्वों को पूरा कर सकती हैं.
सीएसआर का अनुपालन नहीं करने वाली कंपनियों के लिए दंड का प्रावधान भी किया गया है. और सरकार कंपनियों को सीएसआर के लिए लगातार प्रोत्साहित भी करती है. इस मामले में बेहतर काम करने वाली कंपनियों को हर साल पुरस्क़ृत किया जाता है. वित्तीय सर्वेक्षण करने वाली दुनिया की जानी-मानी कम्पनी केपीएमजी के मुताबिक भारत में 2014 में कानून बनने के बाद से सीएसआर खर्च लगातार बढ़ रहा है. सीएसआर मामलों की जानकारी देने वाली वेबसाइट सीएसआर जर्नल के मुताबिक सीएसआर कानून के लागू होने के बाद से मार्च 2019 तक सीएसआर गतिविधियों पर कुल 50,000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए गए हैं. बीते साल सीएसआर पर सबसे ज्यादा खर्च करने वाली शीर्ष दस कंपनियां टाटा कैमिकल्स, इंफोसिस, बीपीसीएल, महिंद्रा, आईटीसी, अंबुजा, टाटा मोटर्स, वेदांता, आदित्य बिड़ला समूह की हिंडाल्को इंडस्ट्रीज और टोयोटा किर्लोस्कर मोटर थीं.
लेकिन अगर इस साल की बात करें तो एफसीआरए के मोर्चे पर चोट खाने के अलावा विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं को कंपनियों की सीएसआर गतिविधियों से भी कोई खास उम्मीद नहीं है. एक एनजीओ के प्रतिनिधि के मुताबिक ‘इसकी वजह पीएम केयर्स फंड भी है जिसमें कंपनियों द्वारा दिये गये डोनेशन को मोदी सरकार ने सीएसआर खर्चों में शामिल किया है. अब अगर कॉरपोरेट पीएम केयर्य फंड में ही हजारों करोड़ रुपया जमा कर देंगे तो वे हमें धन क्यों देंगे? पीएम केयर्स फंड कोविड-19 महामारी जैसे आपात संकट से निपटने के लिए मोदी सरकार द्वारा बनाया गया एक सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट है जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री और सदस्य देश के रक्षा मंत्री, गृह मंत्री एवं वित्त मंत्री हैं. यह अपने गठन के समय से ही विवादों में घिरा रहा है.
अगर फिर से एफसीआरए पर आएं तो ज्यादातर लोग हर एनजीओ का एफसीआरए अकाउंट दिल्ली स्थित स्टेट बैंक में ही खुलवाने की शर्त को भी पूरी तरह से अतार्किक बताते हैं. ऑक्सफ़ैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर भी इन लोगों में से एक हैं. उनके मुताबिक यह कानून में किए गए बदलावों में सबसे विचित्र है. डिजिटल इंडिया के इस दौर में जहां बैंको के बीच में इन्टरनेट के माध्यम से नेटवर्किंग हो, वहाँ इस तरह की बाध्यता का कोई तुक नहीं है. इससे यह सन्देश भी जाता है कि सरकार को अपनी बैंकिंग प्रणाली पर ही संदेह है.
गैर सरकारी संगठनों से जुड़े लोग एक और बदलाव को लेकर खासे नाराज हैं. ये लोग कहते हैं कि एनजीओ में उच्च पदों पर बैठे लोगों के आधार नंबर अनिवार्य कर दिए गए हैं, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि आधार अनिवार्य नहीं हो सकता. इन लोगों के मुताबिक ऐसे में इन संस्थाओं के प्रमुख बनने और बोर्ड को ज्वाइन करने से लोग कतराएंगे क्योंकि कोई नहीं चाहता कि उसकी व्यक्तिगत जानकारियां सार्वजनिक हों. अमिताभ बेहर इसे लेकर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘प्रत्येक विश्वसनीय सिविल सोसाइटी समूह अपने और अपने पदाधिकारियों की व्यक्तिगत जानकारी साझा करने को तैयार हो जाएगा. लेकिन सवाल यह है कि आधार ही क्यों जरूरी है? पासपोर्ट, पैन या इसी तरह के अन्य दस्तावेजों की कॉपी पारदर्शिता और जवाबदेही का काम क्यों नहीं कर सकती है.’
इंग्रिड श्रीनाथ एक चर्चा के दौरान कहती हैं, ‘ये देश की सिविल सोसाइटी को कंट्रोल करने का सबसे बड़ा क़दम और अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन है. सरकार कह रही है कि विदेशी फ़ंड के दुरुपयोग को रोकने के लिए ये बिल लाया गया है लेकिन ऐसा कोई भी सबूत, डेटा नहीं दिखाया गया है जिससे उसके इस दावे को साबित किया जा सके कि कहीं भी विदेशी फ़ंड का इस्तमाल संस्थाओं द्वारा ग़लत काम के लिए किया गया हो.’
कुछ जानकार एक और बात भी बताते हैं. इनके मुताबिक एफसीआरए को राजनीति दलों पर विदेशी प्रभाव को कम करने के लिए बनाया गया था, लेकिन बीते कुछ वर्षों में इस कानून को तोड़-मरोड़कर सिर्फ गैर-लाभकारी संगठनों के खिलाफ एक हथियार का रूप दे दिया गया. आज एनजीओ को छोड़कर सभी को विदेश से पैसा लेने का अधिकार है. आज भारत सरकार हथियारों, शराब, तंबाकू, पेट्रोलियम, फार्मास्यूटिकल्स और अन्य सभी ऐसी चीजें, जिनकी कल्पना तक नहीं कर सकते, उनमें विदेशी निवेश को आमंत्रित करती है. लेकिन मोदी सरकार सक्रिय रूप से उन संगठनों में निवेश को लगातार प्रतिबंधित कर रही है, जो शिक्षा, आपदा राहत, महिलाओं के खिलाफ हिंसा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, मानव अधिकार, आपराधिक न्याय प्रणाली, पर्यावरण, कृषि और तमाम इसी तरह के मुद्दों पर काम करते हैं और समाज को सशक्त बनाते हैं. आंकड़ों को देखें सरकार के ऐसे प्रयासों के चलते ही साल 2014 से 2018 के बीच एनजीओ की विदेशी फंडिंग में लगभग 40 फीसदी की गिरावट आई है.
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