असम में इस बार कांग्रेस वह सबकुछ करने में कामयाब होती दिख रही है जो उसे भाजपा को शिकस्त देने के लिए करना चाहिए था
अभय शर्मा | 15 मार्च 2021 | फोटो : सर्वानंद सोनोवाल/ट्विटर
पांच राज्यों में चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है. पूर्वोत्तर के राज्य असम में तीन चरणों में चुनाव होंगे और दो मई को नतीजे घोषित किये जाएंगे. असम में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच में है. राज्य में 2016 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन ने कुल 126 सीटों में से 86 पर जीत हासिल की थी. एनडीए में भाजपा के अलावा असम गण परिषद (एजीपी) और बोडो बहुल क्षेत्रों में खासा प्रभाव रखने वाली पार्टी बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) शामिल थीं. इस गठबंधन में अकेले भाजपा ने 60 सीटें जीती थीं. इसके तीन साल बाद लोकसभा चुनाव हुआ जिसमें भाजपा को फिर सबसे ज्यादा सीटें मिलीं. इसमें राज्य की 14 सीटों में से भाजपा को नौ सीटें मिली थीं. लेकिन, 2016 और फिर 2019 में बड़ी कामयाबी पाने वाली भाजपा के लिए इस बार के विधानसभा चुनाव में परिस्थितियां पहले जैसी नजर नहीं आ रही हैं. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो ऐसा इसलिए है क्योंकि असम में इस बार कांग्रेस वह सबकुछ करने में कामयाब होती दिख रही है, जो उसे भाजपा को शिकस्त देने के लिए करना चाहिए था. दूसरी ओर कांग्रेस से मिल रही इन चुनौतियों से निपटने के लिए भाजपा कोई ख़ास रणनीति नहीं बना पायी है.
कांग्रेस और एआईयूडीएफ का साथ आना
2005 में इत्र के चर्चित व्यापारी बदरुद्दीन अजमल ने ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) का गठन यह कहते हुए किया था कि असम में अवैध घुसपैठियों की पहचान करने के नाम पर मुसलमानों का उत्पीड़न किया जा रहा है. मुस्लिमों को इससे बचाने के लिए ही वे राजनीतिक पार्टी बना रहे हैं. असम में करीब 35 फीसदी मुस्लिम आबादी है और यही तबका बदरुद्दीन अजमल की पार्टी की सबसे बड़ी ताकत बना. मुस्लिम मतदाताओं के बीच जनाधार के चलते ही एआईयूडीएफ ने 2006 के असम विधानसभा चुनाव में दस सीटें जीतीं. 2011 के विधानसभा चुनाव में 12 फीसदी वोट के साथ उसने राज्य की 126 में से 18 सीटों पर कब्जा जमाया और विधानसभा में प्रमुख विपक्षी पार्टी बन गई. 2016 के चुनाव में एआईयूडीएफ का मत प्रतिशत बढ़कर 13 फीसदी तक पहुंच गया.
असम की राजनीति पर करीब से निगाह रखने वाले कुछ पत्रकार बताते हैं कि एआईयूडीएफ को मुस्लिमों की पार्टी के तौर पर देखा जाता है. इसके कुछ नेता भड़काऊ बयानबाजी के लिए भी चर्चा में रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस को डर था कि अगर उसने एआईयूडीएफ से हाथ मिलाया तो असम में बहुसंख्यक हिंदू आबादी उससे नाराज हो सकती है. लेकिन 2019 में आए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) ने राज्य की राजनीतिक परिस्थितयों को बदल दिया. राज्य में हुए सीएए के तीखे विरोध ने लगभग सभी विपक्षी पार्टियों को भाजपा के खिलाफ एक छतरी के नीचे ला दिया है.
असम कांग्रेस के कुछ नेता बताते हैं कि सीएए की वजह से असमिया भाषी लोगों में भाजपा विरोध का रुख भांपने के बाद ही उनकी पार्टी ने एआईयूडीएफ से गठबंधन करने का फैसला किया है. राज्य में 36 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां असमिया भाषी लोग चुनावी नतीजे तय करते हैं. इन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी कम होने के चलते एआईयूडीएफ ने यहां अपनी दावेदारी पेश नहीं की है जिस वजह से यहां सीधी लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच में है. 2016 के विधानसभा चुनावों में इन 36 सीटों में से कांग्रेस को महज चार सीटें ही मिली थी. लेकिन, अब कांग्रेस को उम्मीद है कि इन क्षेत्रों में सीएए के कारण नाराज असमिया भाषी लोग भाजपा के बजाय उसे तरजीह देंगे. और यहां के जितने भी मुस्लिम वोट हैं वे भी अब नहीं बटेंगे.
बीते कुछ चुनावों से साफ़ पता चलता है कि असम में मुस्लिम वोट दो हिस्सों – कांग्रेस और एआईयूडीएफ – में बंट गया जिसका सीधा फायदा भाजपा गठबंधन को मिला. कांग्रेस और एआईयूडीएफ के नेताओं की मानें तो अगर अब वे राज्य में मुस्लिम वोटों का बिखराव रोकने में कामयाब रहते हैं तो 33 मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटों पर उन्हें कामयाबी हासिल हो जाएगी और इसके बाद उन्हें सत्ता की चाबी हासिल करने से कोई नहीं रोक पाएगा. एआईयूडीएफ के महासचिव और प्रवक्ता अमीनुल इस्लाम सत्याग्रह से फोन पर हुई बातचीत में कहते हैं, ‘2016 के चुनाव में करीब 27 विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे जिन पर कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों के प्रत्याशी होने के चलते वोटों का जबरदस्त बिखराव हुआ और यहां भाजपा जीत गयी. साथ आने से निश्चित तौर पर हमारा फायदा और भाजपा का नुकसान होगा.’ इन दावों से अलग अगर आंकड़े देखें तो पिछले विधानसभा चुनाव में 19 सीटें ऐसी थीं जिन पर एनडीए गठबंधन के प्रत्याशी की जीत हुई थी, लेकिन अगर इन सीटों पर कांग्रेस और एआईयूडीएफ के प्रत्याशियों को मिले वोटों को जोड़ दें तो यह जीतने वाले उम्मीदवार को मिले वोटों से ज्यादा हो जाता है. यानी कांग्रेस और एआईयूडीएफ का साथ आना भाजपा की मुश्किलें बढ़ाता नजर आ रहा है.
बीपीएफ ने भाजपा की चिंता बढ़ाई
असम में करीब साल भर पहले ही इस बात के संकेत मिल गए थे कि 2021 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और एआईयूडीएफ मिलकर चुनावी मैदान में उतरेंगे. हालांकि, तब यह साफ़ नहीं था कि यह सिर्फ दो पार्टियों का गठबंधन होगा या फिर महागठबंधन. लेकिन चुनाव से चार महीने पहले भाकपा, माकपा, भाकपा (माले) और पूर्व पत्रकार अजित भुयान की पार्टी आंचलिक गण मोर्चा (एजीएम) ने भी कांग्रेस और एआईयूडीएफ के गठबंधन में शामिल होने की घोषणा कर दी. हालांकि, जानकारों की मानें तो भाजपा के लिए ज्यादा मुश्किलें तब पैदा हुईं जब बीते चुनाव में उसकी साथी रही बीपीएफ ने भी इस महागठबंधन का हाथ थाम लिया. बोडोलैंड स्वायत्त क्षेत्रों में आने वाले चार जिलों में अच्छी पकड़ रखने वाली बीपीएफ और भाजपा के बीच अनबन बीते साल दिसंबर में तब सामने आयी थी, जब बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) के चुनाव भाजपा ने अकेले लड़ने की घोषणा की थी. चुनाव प्रचार के दौरान दोनों पार्टियों के नेताओं ने एक-दूसरे पर जमकर आरोप लगाए थे. भाजपा के कड़े विरोध के बावजूद बीटीसी के चुनाव में बीपीएफ 17 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. कुल 40 सीटों पर होने वाले इस चुनाव में यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल) को 12, भाजपा को नौ और कांग्रेस को एक सीट पर जीत हासिल हुई.
फिर भी माना जा रहा था कि भाजपा विधानसभा में अपनी सहयोगी बीपीएफ के साथ ही बीटीसी की भी सत्ता संभालेगी. लेकिन वह बीपीएफ की प्रतिद्वंदी पार्टी यूपीपीएल के साथ बीटीसी की सत्ता पर काबिज हो गयी. इसके बाद से ही आशंका जताई जाने लगी थी कि बीपीएफ अगले विधानसभा चुनाव में एनडीए का हिस्सा नहीं होगी. इस विधानसभा चुनाव को लेकर बीपीएफ ने अपने पत्ते बीते हफ्ते ही खोले और महागठबंधन में जाने की घोषणा कर दी. असम के कुछ पत्रकारों की मानें तो भाजपा को दिसंबर में हुए बीटीसी चुनाव में नौ सीटें मिली थी और यूपीपीएल को 12 सीटें. ऐसे में भाजपा को अब लगता है कि बोडो बहुल क्षेत्रों में उसकी भी उपस्थिति है और वह आगामी विधानसभा चुनाव में यूपीपीएल के साथ मिलकर यहां अच्छा प्रदर्शन कर सकती है. लेकिन बीपीएफ के महागठबंधन में आने से कांग्रेस को ज्यादा फायदा हो सकता है क्योंकि बोडो बहुल क्षेत्रों में कांग्रेस का जनाधार न के बराबर ही रह गया था, और वह यहां केवल गैर बोडो वोट ही साधने की कोशिश कर रही थी. लेकिन अब बीपीएफ के रूप में उसे एक ऐसा ताकतवर साथी मिला है, जो बीते 17 साल से बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद की सत्ता पर काबिज था और इस बार भी सबसे बड़ा दल बनकर सामने आया. बीपीएफ की ताकत का अंदाजा इस बात से भी लगता है कि 2006 के विधानसभा चुनाव में उसने बोडो बहुल क्षेत्रों की कुल 12 सीटों में से 11 जीती थीं और इसके बाद 2011 और 2016 के विधानसभा चुनावों में उसने इन क्षेत्रों की सभी 12 सीटों पर जीत का परचम लहराया था.
भाजपा और उसके सहयोगियों के लिए वोट प्रतिशत बरकार रखने की चुनौती
असम में 2016 का विधानसभा चुनाव भाजपा ने एजीपी और बीपीएफ के साथ मिलकर लड़ा था. इसमें भाजपा ने 89, एजीपी ने 30 और बीपीएफ ने 13 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. इनमें से भाजपा को 60, एजीपी को 14 और बीपीएफ को 12 सीटों पर जीत मिली थी. 2016 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को कुल 41.59 फीसदी वोट मिला था. इसमें भाजपा के 29.51 फीसदी, एजीपी के 8.14 और बीपीएफ के 3.94 फीसदी मत थे. दूसरी तरफ, 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अकेले ही मैदान में उतरी थी. उसने 122 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे जिनमें से महज 26 ही विधानसभा पहुंच सके थे. इसके बावजूद पार्टी का वोट प्रतिशत सबसे ज्यादा – 30.96 फ़ीसदी – रहा था. राज्य के तीसरे प्रमुख दल एआईयूडीएफ ने 74 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 13.05 फीसदी वोटों के साथ 13 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. इसके अलावा तीन वामपंथी पार्टियां – भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) ने 41 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, हालांकि इन्हें किसी भी सीट पर जीत नहीं मिल सकी थी. लेकिन इनके हिस्से में 0.86 फीसदी वोट आए थे.
अब अगर 2021 के विधानसभा चुनाव पर नजर डालें तो परस्थितियां काफी बदल चुकी हैं. कांग्रेस सात पार्टियों के महागठबंधन के साथ मैदान में है, भाजपा का एक अहम सहयोगी – बीपीएफ – भी अब कांग्रेस के साथ है. इस बार कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहीं सभी पार्टियों के पिछले चुनाव के वोट प्रतिशत को जोड़ दें तो महागठबंधन के खाते में 48.81 फीसदी वोट बन जाते हैं. जबकि एनडीए गठबंधन को मिले कुल वोट प्रतिशत में से बीपीएफ का हिस्सा हटा दें तो एनडीए के खाते में 37.65 वोट ही रह जाते हैं. असम के कुछ पत्रकार यह भी कहते हैं कि यह ध्यान रखना जरूरी है कि जब असम में पिछला चुनाव हुआ था तो कांग्रेस लगातार 15 साल से यहां की सत्ता में थी और उसे सत्ता विरोधी लहर का भी सामना करना पड़ा था. लेकिन इस बार भाजपा पांच साल से सरकार चला रही है और सत्ता विरोधी लहर का सामना उसे करना पड़ेगा. राज्य में चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों से सत्ता विरोधी लहर चलने की संभावना जताई भी गयी है. एबीपी न्यूज़-सी वोटर के सर्वे में 24.6 फीसदी लोगों ने कहा कि बेरोजगारी इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा है. इसी सर्वेक्षण में 24.2 फीसदी लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने महंगाई को सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा माना.
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