प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

राजनीति | भाजपा

चुनाव प्रबंधन में सब पर भारी भाजपा बाकी मोर्चों पर थकी-हारी क्यों दिखती है?

कोरोना महामारी के प्रबंधन से लेकर अर्थ और विदेश नीति तक तमाम अहम मोर्चों पर भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार का प्रदर्शन कई सवाल खड़े करता है

विकास बहुगुणा | 23 अप्रैल 2021 | फोटो: पीआईबी

2019 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो सबकी नजरें इस पर थीं कि पांच साल पहले नरेंद्र मोदी की अगुवाई में प्रचंड जनादेश लाने वाली भाजपा कैसा प्रदर्शन करती है. एक वर्ग का मानना था कि इस बार पार्टी के लिए मुश्किल होगी. फिर जब चुनाव का पहला और दूसरा चरण निपटा और मतदान का प्रतिशत अपेक्षाकृत कम रहा तो यह चर्चा और गर्म हो गई.

लेकिन आखिर में चुनाव के नतीजे आए तो ऐसे सारे अनुमान ध्वस्त हो गए. 2014 में भाजपा को 282 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी तो 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 303 तक पहुंच गया. भाजपा की सिर्फ सीटों में ही बढ़ोतरी नहीं हुई बल्कि 2014 के मुकाबले उसे करीब 33 प्रतिशत अधिक वोट भी मिले. चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2014 में पार्टी को कुल 17.16 करोड़ वोट मिले थे जबकि 2019 में यह आंकड़ा 22.90 करोड़ को पार कर गया. मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को पूरे देश में 52 सीटें मिलीं जबकि भाजपा ने अकेले उत्तर प्रदेश में 62 सीटें अपनी झोली में डाल लीं. इस तरह 2014 के लोकसभा चुनावों में अपनी पार्टी के लिए 282 सीटें जीतने के बाद नरेंद्र मोदी, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद अकेले ऐसे नेता बन गये जिनके नेतृत्व की वजह से उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला और वह भी लगातार दो बार.

इस आम चुनाव से पहले और इसके बाद भी उत्तर प्रदेश से लेकर हाल में बिहार तक तमाम राज्यों के चुनाव में भाजपा सबको चौंकाने वाला प्रदर्शन करती रही है. इसकी वजह है उसका शानदार चुनावी प्रबंधन. इस मामले में भाजपा 2014 के बाद से ही दूसरे दलों से मीलों आगे रही है. कई जानकार इसके तीन मुख्य कारण मानते हैं. पहला नरेंद्र मोदी की छवि, दूसरा, पार्टी संगठन और तीसरा मीडिया. एक साक्षात्कार में वरिष्ठ पत्रकार प्रशांत झा कहते हैं कि नरेंद्र मोदी के लिए राजनीति का मतलब सत्ता है जो चुनाव से आती है और चुनाव में छवि प्रबंधन यानी इमेज मैनेजमेंट का अहम योगदान होता है, यानी नरेंद्र मोदी के लिए राजनीति का मतलब एक तरह से इमेज मैनेजमेंट है.

लेकिन चुनाव जीतने के लिए सिर्फ छवि काफी नहीं होती. इसके लिए असाधारण जमीनी मौजूदगी भी चाहिए. जैसा कि प्रशांत झा कहते हैं, ‘अमित शाह ने राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी दुर्जेय चुनाव मशीनरी बनाई है जो इस देश ने पहले कभी नहीं देखी. कांग्रेस भाजपा से कहीं ज्यादा समय तक सत्ता में रही है, लेकिन कांग्रेस जनाधार वाली पार्टी थी. वो कैडर पर इतना ज्यादा निर्भर नहीं थी. हमने मजबूत संगठनों के क्षेत्रीय स्वरूप देखे हैं. बंगाल में वाम दल, तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियां इस तरह के मजबूत संगठन रहे हैं. लेकिन कोई राष्ट्रीय पार्टी ऐसी नहीं है जिसके पास इस तरह का संगठन हो जैसा भाजपा के पास है, और ये साफ तौर पर अमित शाह के चुनावी प्रबंधन की देन है.’

कहा जाता है कि भाजपा का ध्यान लगातार अगले चुनाव पर केंद्रित रहता है, यानी पार्टी हमेशा ‘इलेक्शन मोड’ में रहती है. दूसरी पार्टियों की बूथ कमेटियां चुनाव के बाद निष्क्रिय हो जाती हैं. लेकिन भाजपा के मामले में ऐसा नहीं है. जैसा कि प्रशांत झा कहते हैं, ‘2014 के चुनाव के तुरंत बाद बूथ कमेटियों के हर सदस्य को 100 नए सदस्य बनाने के निर्देश मिल गए थे. उन 100 सदस्यों को फिर 100-100 नए सदस्य बनाने का जिम्मा दे दिया गया.’ इसी तरह पार्टी नए-पुराने सदस्यों के लिए प्रशिक्षण सहित तमाम तरह के आयोजन भी करती रहती है.

सक्रियता का यह सिलसिला जड़ से लेकर शीर्ष तक जाता है. जैसा कि अपने एक लेख में मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं, ‘बिहार चुनाव में एनडीए की जीत के बाद इसकी छाया में सुस्ताने के बजाय भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तुरंत ही ऐलान कर दिया कि वे उन इलाकों में 100 दिन की यात्रा करेंगे जहां भाजपा को कमजोर माना जाता है. उनका सोचना था कि भले ही केंद्र सहित उत्तर और पश्चिम भारत पार्टी की मुट्ठी में हों लेकिन ये काफी नहीं है और भाजपा को दक्षिण और पूर्व में भी अपना दायरा बढ़ाना होगा. ‘

नरेंद्र मोदी के जादू और संगठन की मजबूती के अलावा भाजपा के चुनावी प्रबंधन में मीडिया को साधने के उसके हुनर का भी अहम योगदान माना जाता है. टीवी चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक हर मंच पर पार्टी का खासा दबदबा दिखता है. पार्टी की अपनी आईटी सेल तो है ही, माना जाता है कि पार्टी और सरकार के विज्ञापनों के जरिये वह अखबार और टीवी जैसे मीडिया के पारंपरिक माध्यमों के एक बड़े हिस्से को भी अपने पाले में रखती है. दिल्ली स्थित संस्थान सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में अलग-अलग पार्टियों ने कुल मिलाकर करीब 60 हजार करोड़ रु खर्च किए. इनमें से 27 हजार करोड़ रु यानी लगभग 45 फीसदी अकेले भाजपा ने खर्च किए और इस रकम का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापनों पर खर्च हुआ. डिजिटल माध्यमों पर खर्च के मामले में तो पार्टी ने सबको एक साथ बहुत पीछे छोड़ दिया. एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 के चुनाव के दौरान गूगल और इससे जुड़ी कंपनियों पर जितने भी विज्ञापन आए उनमें से 80 फीसदी से भी ज्यादा भाजपा के थे.

साफ है कि चुनावी प्रबंधन के मामले में भाजपा का कोई सानी नहीं. लेकिन क्या प्रशासन, आपदा प्रबंधन, अर्थनीति और विदेश संबंध जैसे दूसरे क्षेत्रों के बारे में भी यह कहा जा सकता है? इस सवाल के जवाब के लिए पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के कुछ बड़े कदमों को परखा जा सकता है.

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दो बड़े कदम नोटबंदी और जीएसटी माने जाते हैं. पहले नोटबंदी की बात करते हैं. आठ नवंबर 2016 की शाम को खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्र को संबोधित करने वाले हैं. आठ बजे वे दूरदर्शन पर आए और ऐलान किया कि चार घंटे बाद यानी 500 और एक हजार रु के नोट अमान्य हो जाएंगे. उन्होंने इसके फायदे गिनाते हुए कहा कि इससे भ्रष्टाचार, कालाधन, आतंकवादी गतिविधियों की ​फंडिंग और जाली नोटों की समस्या पर प्रभावी अंकुश लग जाएगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ऐसा कहना था कि देश भर में अफरातफरी मच गई. सरकार ने एक सीमित अवधि तक प्रत्येक व्यक्ति को 4000 रुपये तक के प्रतिबंधित नोटों को बैंकों में बदलने की सुविधा दी थी. इसके साथ ही 2000 और 500 रु के नए नोट भी जारी किए गए थे. नतीजा यह हुआ कि बैंकों और उनके एटीएम के बाहर लंबी-लंबी कतारें लग गईं. वे लोग खासकर ज्यादा परेशान हुए जिनके घर में शादी जैसे आयोजन थे और इसके लिए उन्होंने काफी नकदी निकालकर रखी थी. इस दौरान लाइन में लगे-लगे कई लोगों की मौत की खबर भी आई.

1978 में भी नोटबंदी हुई थी. तब सरकार ने 1000, 5000 और 10000 रु के नोट बंद कर दिए थे. इसके बाद 75 फीसदी रकम बैंकों में लौट आई थी जबकि बची हुई 25 फीसदी नकदी अर्थव्यवस्था से बाहर हो गई थी. इसी रकम के बारे में तब कहा गया था कि यह कालाधन है. यही सरकार का फायदा भी था. 2016 में हुई नोटबंदी के समय देश भर में 500 और 1000 रुपए के कुल 15 लाख 41 हजार करोड़ रुपए के नोट चलन में थे. अगस्त 2017 में रिजर्व बैंक ने बताया कि इनमें से 99 फीसदी नोट बैंकों में वापस आ गए हैं.

नोटबंदी लगाए जाने के कुछ दिन बाद बाद तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में इसका बचाव किया था. उनका कहना था, ‘सरकार ने ये क़दम उत्तर पूर्व और कश्मीर में भारत के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा देने में इस्तेमाल हो रहे चार लाख से पांच लाख करोड़ रुपए तक की रकम को चलन से बाहर करने के लिए उठाया है.’ लेकिन रिजर्व बैंक पर यकीन करें तो ऐसा नहीं हुआ. यानी नोटबंदी से आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले काले धन पर अंकुश लगाने की बात सच साबित नहीं हुई. इस कदम का ऐलान करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह भी कहना था कि बड़े नोट कालेधन को बढ़ाते हैं. लेकिन 500 और 1000 रु के तत्कालीन नोट बंद करने के साथ ही सरकार ने 2000 रु का नया नोट जारी कर दिया. इससे यह सवाल उठना स्वाभाविक ही था कि जब देश का मुखिया बड़े नोटों से कालाधन बढ़ने की बात कह रहा है तो सरकार तब प्रचलित सबसे बड़े नोट से दोगुना बड़ा नोट क्यों जारी कर रही है.

नोटबंदी से जाली नोटों पर भी अंकुश नहीं लगा जैसा कि सरकार ने दावा किया था. कहा गया था कि पांच सौ और दो हजार रुपये के जो नए नोट जारी किए गए हैं उनकी नकल कर पाना मुश्किल होगा. लेकिन रिजर्व बैंक के ही मुताबिक नोटबंदी के फैसले के बाद 500 और 1000 रुपये के जाली नोट कहीं ज्यादा संख्या में बरामद हुए. इसके अलावा नोटबंदी ने जिस तरह से अर्थव्यवस्था पर चोट की उसका विकास दर, निवेश और रोजगार पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा. 2016 में जनवरी से सितंबर के बीच की तीन तिमाहियों में अर्थव्यवस्था की विकास दर क्रमश: 7.9, 7.9 और 7.5 फीसदी थी. उम्मीद जताई जा रही थी कि आने वाली तिमाहियों में यह दर और तेज होगी. इस बीच नवंबर में नोटबंदी की घोषणा हो गई. इसके बाद की तीन तिमाहियों में विकास दर केवल 7.0, 6.1 और 5.7 फीसदी रही.

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल का दूसरा बड़ा फैसला वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) था. एक देश एक कर के नारे के साथ एक जुलाई 2017 से जब यह नई व्यवस्था लागू हुई तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे ऐतिहासिक करार दिया. इसे गुड एंड सिंपल टैक्स बताते हुए उनका यह भी कहना था कि जीएसटी दुनिया के लिए मिसाल बनेगा. प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि व्यापारी जीएसटी को अपने कंधे पर उठाएंगे और देश को खुशहाल बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे.

लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता. इसी साल 26 फरवरी को देश के व्यापारियों की प्रमुख संस्था कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने जीएसटी की जटिलताओं के विरोध में भारत बंद का आह्वान किया था. इसका समर्थन करते हुए ट्रांसपोर्ट क्षेत्र के सबसे बड़े संगठन ऑल इंडिया ट्रांसपोर्ट वेलफेयर एसोसिएशन ने इसी दिन देश भर में चक्का जाम करने का ऐलान किया. व्यापारियों का कहना था कि वे व्यापार करने के बजाय दिन भर जीएसटी के अनुपालन में लगे रहते हैं. उनके मुताबिक चार साल में लगभग 937 से ज्यादा संशोधनों के बाद जीएसटी का बुनियादी ढांचा ही बदल गया है. इस प्रणाली के सरलीकरण की मांग कर रहे व्यापारियों का यह भी कहना था कि बार-बार कहने के बावजूद जीएसटी काउंसिल उनकी बात का संज्ञान नहीं लेती.

पिछले साल ही केंद्र ने पहली बार माना था कि वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) के तहत राज्यों को मुआवजा देने के लिए उसके पास पर्याप्त पैसे नहीं है. दरअसल टैक्स की यह नई व्यवस्था लागू होने से पहले तय हुआ था कि इससे राज्यों को राजस्व का जो नुकसान होगा उसकी पांच साल तक भरपायी की जाएगी. लेकिन फिर खबरें आईं कि खर्च चलाने के लिए केंद्र ने राज्यों से कर्ज उठाने के लिए कहा है. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इस मामले में सिर्फ इतना कहती रही हैं कि जीएसटी संग्रह कम रहने से राज्यों को क्षतिपूर्ति के भुगतान में देरी हो रही है. वे खुलकर यह नहीं कहतीं कि जीएसटी संग्रह में कमी का कारण आर्थिक सुस्ती है. जाहिर सी बात है कि अगर कारोबार में कमी आएगी तो सरकार को मिलने वाले करों – जिनमें जीएसटी भी शामिल है – में भी कमी आनी ही है. इस वजह से केंद्र सरकार अपना वह वादा पूरा नहीं कर पा रही है जो उसने इस कर सुधार को लागू करते समय देश के सभी राज्यों से किया था.

जुलाई 2019 में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी ने भी वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) को लेकर केंद्र सरकार पर सवाल खड़े किए थे. अपनी एक रिपोर्ट में उसका कहना था कि सरकार ने जीएसटी को लाने से पहले इससे जुड़ी व्यवस्थाओं का ठीक से परीक्षण नहीं किया. सीएजी का मानना था कि इसके चलते ही इसमें कई दिक्कतें हो रही हैं और सरकार को कम राजस्व मिल रहा है. उसकी यह रिपोर्ट संसद में भी रखी गई थी. इसके कुछ समय बाद ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी कहा था कि भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने पहले नोटबंदी और फिर जल्दबाजी में जीएसटी लागू करते हुए अर्थव्यवस्था पर एक के बाद एक दो बड़े प्रहार किए.

कई विश्लेषक मानते हैं कि इन समस्याओं की जड़ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वह शैली है जिसके तहत उन्हें लोगों को चौंकाना पसंद है. इन लोगों के मुताबिक राजनीति में तो इससे फायदा हो सकता है, लेकिन शासन के मामले में इसका हमेशा नुकसान ही होता है क्योंकि जब सरकार चौंकाने वाली शैली में काम करती है तो इससे अस्थिरता, अनिश्चितता और अराजकता का वातावरण बनता है. नतीजतन आम आदमी से लेकर व्यापारी वर्ग तक सांसत में रहता है कि पता नहीं सरकार कब क्या कर दे.

कुछ ऐसा ही मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में तब देखने को मिला जब बीते साल भारत में कोरोना ने दस्तक दी. इसकी प्रतिक्रिया में भाजपा सरकार ने पहले 22 मार्च 2020 को जनता कर्फ्यू लगाया. इसके दो ही दिन बाद यानी 24 मार्च को शाम आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को बताया कि चार घंटे बाद से ही देश भर में एक सख़्त लॉकडाउन लागू होने जा रहा है जो 21 दिनों का होगा. प्रधानमंत्री ने लोगों को आश्वासन दिया कि कोरोना महामारी के खिलाफ यह युद्ध तीन हफ्ते में जीत लिया जाएगा. उन्होंने कहा, ‘महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीता गया. आज कोरोना के ख़िलाफ़ जो युद्ध पूरा देश लड़ रहा है उसमें 21 दिन लगने वाले हैं.’

इसके बावजूद हालात वैसे ही हो गए जैसे नोटबंदी के ऐलान के बाद हुए थे. देश भर में दहशत और घबराहट का माहौल पैदा हो गया. लोग जरूरी सामान स्टॉक करने के लिए बाजारों में टूट पड़े. अगले दिन से देश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे प्रवासी मजदूर और उनके परिवार अपने घर जाने के लिए सड़कों पर पैदल ही निकल पड़े. यह एक असाधारण मानवीय संकट की शुरुआत थी.

कई मानते हैं कि इस संकट को खुद सरकार ने ही न्योता दिया था. एक लेख में स्वराज इंडिया पार्टी के मुखिया योगेंद्र यादव लिखते हैं, ‘चलिए मान लेते हैं कि एक ऐसे देश में कुछ मुश्किलें होना स्वाभाविक था जो इतना विशाल है और जिसमें इतनी गहरी गैरबराबरियां हैं. लेकिन हमें यह पूछना ही चाहिए कि क्या लॉकडाउन का ऐलान करते हुए सरकार ने इस मुश्किल का अनुमान लगाने और इसका असर कम करने की कोई योजना बनाने की कोशिश भी की.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘लॉकडाउन के शुरुआती 50 दिनों में सड़कों पर भटकते मजदूरों के लिए भोजन और आजीविका की दिशा में कोई विशेष इंतजाम क्यों नहीं थे? सरकार को क्या लगता था? ऐसे बेरोजगार लोग घर लौटने के अलावा क्या करेंगे जिनके पास न खाना हो और न कोई उम्मीद? दुनिया के किसी और देश में इस तरह की खबरें नहीं आईं, उन अफ्रीकी देशों से भी नहीं जो हमसे कहीं ज्यादा गरीब हैं… क्यों गृह मंत्रालय को यह साधारण सी एडवाइजरी जारी करने में भी छह हफ्ते लग गए कि सड़कों पर भटकते प्रवासियों की मानवीय आधार पर हरसंभव मदद की जाए.’

अब भारत कोरोना की दूसरी लहर की चपेट में है और हालात पहले से कहीं ज्यादा खराब दिख रहे हैं. बेड, दवाओं और ऑक्सीजन की कमी के चलते बदहाल अस्पतालों और श्मशान घाट पर चौबीसों घंटे जल रही चिताओं की तस्वीरें अखबारों से लेकर टीवी और सोशल मीडिया तक हर जगह छाई हुई हैं. कई मानते हैं कि पहले तो केंद्र सरकार (और तमाम राज्य सरकारें भी) इस संकट का अनुमान लगाने में विफल रही और फिर इसके प्रबंधन के मामले में भी ऐसा ही हुआ. आलोचक कहते हैं कि बीते अक्टूबर से लेकर फरवरी के बीच जब कोरोना वायरस का कहर कम हो गया था तो इस समय का बेहतर इस्तेमाल हो सकता था. मसलन स्वास्थ्य सेवाओं और दूसरे बुनियादी ढांचों को मजबूत बनाया जा सकता था और साथ ही ऑक्सीजन से लेकर दवाओं का भंडार इकट्ठा किया जा सकता था, लेकिन इस मौके को यूं ही जाने दिया गया.

प्रबंधन के मामले में यही हाल वैक्सीन के मोर्चे पर भी दिखा है. फरवरी में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कोरोना वायरस की वैक्सीन के लिए 35 हजार करोड़ रु का आवंटन किया था. कहा गया था कि इससे 46 करोड़ लोगों का मुफ्त टीकाकरण किया जा सकता है. लेकिन दो महीने बाद यह आंकड़ा 11 करोड़ यानी आबादी के करीब आठ फीसदी तक ही पहुंच सका है और इनमें से ज्यादातर का अभी आधा टीकाकरण ही हुआ है. लेकिन इसके बावजूद वैक्सीन की किल्लत की खबरें आ रही हैं. यह स्थिति एक ऐसे देश की है जिसके पास वैश्विक स्तर पर वैक्सीन बनाने की सबसे बड़ी क्षमता ही नहीं, बल्कि दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण कार्यक्रम को चलाने का भी अनुभव है. कई विश्लेषकों के मुताबिक इसके लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है जिसने वैक्सीन की खरीद से लेकर वैक्सीन निर्माण इकाइयों की क्षमता बढ़ाने और कई विदेशी वैक्सीनों के लिए देश के दरवाजे खोलने तक हर मोर्चे पर ढीलेपन (यह अलग से एक रिपोर्ट का विषय है) का परिचय दिया.

इससे पहले बीते साल जब भारत में कोरोना की शुरुआती आहटें सुनाई दे रही थीं तो केंद्र सरकार कह रही थी कि चिंता की कोई बात नहीं है और विपक्ष जनता को डरा रहा है. यही नहीं, फरवरी 2020 में ही गुजरात के अहमदाबाद में नमस्ते ट्रंप नाम का वह आयोजन हुआ था जिसमें एक लाख से भी ज्यादा लोग जुटे थे. बाद में कांग्रेस ने यह आरोप लगाते हुए इस सरकारी कार्यक्रम की जांच की मांग की थी कि इससे ही गुजरात में कोरोना फैला.

गुजरात में जब नमस्ते ट्रंप का आयोजन हो रहा था तो उसी दौरान दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाके में भीषण दंगे हुए. ये दंगे तब हुए जब नए नागरिकता कानून (सीएए) का समर्थन और विरोध करने वाले लोगों की आपसी भिड़ंत हिंसक संघर्षों में बदल गई. इस दौरान भी दिल्ली पुलिस और इसे संचालित करने वाला केंद्रीय गृह मंत्रालय अपने सबसे बुरे रूप में दिखा. तब उठा सबसे बड़ा सवाल यह था कि पुलिस ने सीएए समर्थक गुटों को विरोधी गुटों तक पहुंचने क्यों दिया, वह भी तब जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत की यात्रा पर थे. इस पूरे मामले में शिवसेना सहित तमाम विपक्षी दलों ने सरकार पर सवाल खड़े किए. अपने मुखपत्र सामना में शिवसेना ने लिखा था कि जब दिल्ली में लोग मर रहे थे तो गृह मंत्री सहित आधा केंद्रीय मंत्रिमंडल अहमदाबाद में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को ‘नमस्ते साहब’ कर रहा था. पार्टी ने अमित शाह को घेरते हुए यह भी कहा था कि चुनाव के दौरान गृह मंत्री पूरा समय निकाल कर घर-घर प्रचार करने के लिए गए थे, लेकिन दिल्ली में हिंसा के दौरान वे गायब रहे.

कुछ ऐसे ही सवाल इस साल गणतंत्र दिवस के मौके पर भी खड़े हुए जब नए कृषि कानूनों के विरोध में ट्रैक्टर रैली निकाल रहे कई किसान लाल किले तक पहुंच गए जो इस मौके पर सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील माना जाता है. कई लोगों को दिल्ली पुलिस इस बार भी उतनी ही गैरपैशेवर और राजनीतिक दिखाई दी. न तो वह ऐसा कुछ करते हुए दिखी जिसमें कुछ विशेष झलकता हो, न ही उसे निर्देशित करने वाला राजनीतिक नेतृत्व जिसके पास इस मसले से निपटने की असली ताकत थी. सवाल उठता है कि जब यह साफ था कि न तो लाखों किसानों को रोकने का परिणाम अच्छा होने वाला है और न उन्हें दिल्ली में परेड करने की इजाजत देने का तो फिर सवाल यह उठता है कि इसका कुछ भी करके कोई राजनीतिक हल निकालने की कोशिश क्यों नहीं की गई? क्या ऐसा कुछ भी नहीं किया जा सकता था कि किसान ट्रैक्टर रैली निकालने की योजना रद्द कर देते? क्या प्रधानमंत्री के सीधे किसानों से बात करने या बात करने की तारीख तय करने की बात से किसानों को ट्रैक्टर रैली रद्द करने के लिए नहीं मनाया जा सकता था? जब एक शहर और सैकड़ों लोगों के जीवन का सवाल जैसी असाधारण स्थिति थी तो क्या सुलह का कोई असाधारण और असामान्य सा तरीका नहीं ढूंढ़ा जा सकता था?

घर के बाद अब बाहर की बात करते हैं. कई मानते हैं कि विदेश नीति के मामले में भी भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार का प्रदर्शन निराश करने वाला है. सुरक्षा मामलों के जानकार और नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से जुड़े प्रोफेसर भरत कर्नाड उनमें से एक हैं. उनके मुताबिक मोदी सरकार अमेरिका और चीन जैसे ताकतवर देशों के सामने दंडवत दिखती है तो कमजोर देशों पर धौंस जमाती. अपनी किताब स्टैगरिंग फॉरवर्ड : नरेंद्र मोदी एंड इंडियाज ग्लोबल एंबिशन में भरत कर्नाड यह भी लिखते हैं कि हाल के समय में पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों और सुरक्षा के लिहाज से देखें तो भारत की स्थिति कमजोर हुई है, भले ही वह नेपाल हो या मालदीव या फिर श्रीलंका, म्यामांर, बांग्लादेश और भूटान या फिर दक्षिण-पूर्व एशिया जहां हमारे दोस्त हमसे दूर हुए हैं. वे इसकी वजह भाजपा सरकार की अस्थिर और अकुशल नीतियों को बताते हैं.

कई और जानकार भी यह बात मानते हैं. एक अखबार से बातचीत में पूर्व विदेश सचिव शशांक कहते हैं, हमें इस नीति से बाहर आना चाहिए कि अमेरिका खुश है तो सब ठीक चलेगा.’ उनके मुताबिक नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका और पाकिस्तान समेत अन्य पड़ोसियों और दुनिया के दूसरे देशों के साथ रिश्तों की भी अहमियत कम नहीं है.

कुछ समय पहले भाजपा के ही बड़े नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने भी मोदी सरकार से यह सच्चाई स्वीकार करने को कहा था कि भारत की विदेश नीति चीथड़े-चीथड़े हो चुकी है. उनका कहना था, ‘इसे फिर से रीसेट करने की जरूरत है.’ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी कुछ समय पहले कुछ यही बात कही थी. विदेश नीति के इस हाल को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए उनका कहना था, ‘भारत की विदेश नीति हमेशा उसके राष्ट्रीय हितों से चलती रही है, न कि किसी शख्स की छवि बनाने के लिए.’

एक वर्ग का आरोप है कि इस छवि के चक्कर में ही किसान आंदोलन से ठीक से नहीं निपटा गया. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में प्रोफेसर अजय गुडावर्थी एक साक्षात्कार में कहते हैं कि नरेंद्र मोदी ने अपनी आक्रामक और किसी की परवाह न करने वाले राजनेता की छवि बनाई है. उधर, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी से जुड़े प्रोफेसर मोहसिन खान अपने एक लेख में कहते हैं, ‘मध्यमार्गी शक्तियों के उलट दुनिया भर में दक्षिणपंथी ताकतें दृढ़ता को सम्मान के साथ जोड़कर देखती हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपने वोटरों के बीच लोकप्रियता का आधार भी यही है. पीछे हटने का मतलब कमजोरी और तिरस्कार होता है.’

माना जाता है कि इसीलिए सरकार ने दिल्ली आ रहे किसानों को आंसूगैस और लाठीचार्ज से रोकने की कोशिश की ताकि केंद्र के सख्त रुख का संदेश दिया जा सके. फिर सोशल मीडिया पर आंदोलन को खालिस्तान समर्थक ताकतों से जोड़ने की कोशिशें जरूर हुईं. यह भी कहा गया कि महंगी गाड़ियां लेकर दिल्ली आने वाले ये अमीर किसान गरीबों और मजूदरों का शोषण करते हैं. और यह भी कि उनके इस आंदोलन की वजह से आम आदमी को तकलीफ उठानी पड़ रही है. भाजपा के कई नेताओं की तरफ से भी इस तरह के बयान आए. 26 जनवरी के हंगामे के बाद जब राकेश टिकैत को गिरफ्तार करने की कोशिशें असफल रहीं तो आंदोलनस्थलों पर कीलें, बाड़ और कंक्रीट की दीवारों जैसी बाधाएं खड़ी कर दी गईं. लेकिन आंदोलन या इसकी साख खत्म करने के इन प्रयासों का वैसा असर नहीं हुआ जैसा सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान दिखा था. बल्कि इससे सरकार की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भद्द ही पिटी.

कई मानते हैं कि सरकार को ऐसा करने की जरूरत नहीं थी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों पर अमल स्थगित करते हुए उसे एक सुरक्षित रास्ता दे दिया था. उनके मुताबिक जब ऐसा हो ही गया था तो अपनी हंसी उड़वाने के बजाय किसानों से बातचीत कर नये कानून लाने का आश्वासन दे सकती थी. इसके बाद आंदोलन खत्म हो जाता. लेकिन अपनी जिद में उसने ऐसा नहीं किया.

कई आलोचक आरोप लगाते हैं कि महामारी प्रबंधन से लेकर अर्थव्यवस्था और विदेश नीति तक तमाम मोर्चों पर अपनी इन असफलताओं को छिपाने के लिए ही मोदी सरकार राष्ट्रवाद को आगे करती है. अपने एक लेख में सीपीआई महासचिव डी राजा कहते हैं, ‘इस तरह के कुशासन के खिलाफ प्रतिरोध को दबाने के लिए छद्म राष्ट्रवाद का सहारा लिया जा रहा है.’ उनके मुताबिक इस सबसे भारत का संघीय चरित्र बर्बाद हो रहा है.

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