भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की हालत आज जैसी है उसके लिए एक लिहाज़ से देखें तो राहुल गांधी से ज्यादा जिम्मेदार सोनिया गांधी हैं
रामचंद्र गुहा | 14 जून 2021 | फोटो : कांग्रेस / ट्विटर
जितिन प्रसाद के कांग्रेस छोड़ने का जो विश्लेषण हो रहा है, उसमें उनकी तुलना पार्टी के दो पिछले बागियों से की जा रही है. इनमें पहले हैं हिमंत बिस्व सरमा और दूसरे, ज्योतिरादित्य सिंधिया. इनकी तरह जितिन प्रसाद ने भी पार्टी इसलिए छोड़ी क्योंकि उन्हें लग रहा था कि भाजपा में उनकी प्रगति की बेहतर संभावना है.
इस तिकड़ी पर हम बाद में लौटेंगे, लेकिन उससे पहले मैं दो महिला राजनेताओं की तरफ आपका ध्यान खींचना चाहूंगा. इन दोनों महिलाओं की राजनीतिक यात्राओं का अंतर भी यह बता सकता है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सर पर किस कदर खुद को खत्म करने का जुनून चढ़ा हुआ है.
इनमें पहली हैं महुआ मोइत्रा. असम के एक मध्यवर्गीय बांग्लाभाषी परिवार में पली-बढ़ीं मोइत्रा ने अमेरिका के बेहतरीन कॉलेजों में से एक में गणित और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की. ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने जेपी मॉर्गन चेज के साथ अपने करिअर की शुरुआत की. अगले एक दशक के दौरान उन्होंने न्यूयॉर्क और लंदन में कंपनी की विभिन्न जिम्मेदारियां निभाईं. वे पश्चिमी दुनिया के किसी शानदार शहर में रह सकती थीं, कॉरपोरेट जगत की नई ऊंचाइयां हासिल कर सकती थीं. लेकिन 35 साल की उम्र में महुआ मोइत्रा ने विदेश की अपनी शानदार नौकरी छोड़ दी और कांग्रेस में शामिल होकर सार्वजनिक जीवन में आ गईं.
फिर शायद ऐसा हुआ कि उन्हें कांग्रेस कहीं जाती नहीं दिखी तो उन्होंने तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया. इसके बाद महुआ मोइत्रा ने खूब तरक्की की. उनकी इस प्रगति में उनकी अपनी बुद्धिमत्ता, प्रतिबद्धता और वाककला का अहम योगदान रहा. महुआ मोइत्रा धीरे-धीरे आगे बढ़ती गईं. ऊंची पढ़ाई कर चुके पेशेवर लोग जब राजनीति में आते हैं तो अमूमन राज्य सभा की सीट के लिए लामबंदी करते हैं. लेकिन महुआ मोइत्रा ने पहले विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता. इसके बाद वे लोकसभा चुनाव के रण में उतरीं और जीत हासिल की. उन्हें संसद में बोलने के भले ही कम मौके मिले, लेकिन जब भी मिले तो उन्होंने लोगों पर अपनी अच्छी-खासी छाप छोड़ी. यही बात मीडिया को दिए गए उनके साक्षात्कारों के बारे में भी कही जा सकती है. पश्चिम बंगाल में हालिया विधानसभा चुनाव के दौरान महुआ मोइत्रा ने कई निर्वाचन क्षेत्रों की खाक छानी और प्रचार किया. यानी तृणमूल की शानदार जीत में उनका भी योगदान रहा.
अब अगर आप महुआ मोइत्रा की राजनीतिक यात्रा की तुलना प्रियंका गांधी के सियासी सफर के साथ करेंगे तो आपको पता चल जाएगा कि कांग्रेस की इतनी बुरी हालत क्यों है. कई वर्षों तक अपने परिवार और बच्चों की दुनिया में सिमटी रहीं प्रियंका मार्च 2019 में कांग्रेस में शामिल हुईं. उन्हें सीधे महासचिव जैसा शीर्ष पद दिया गया. कहना गलत न होगा कि इस तरह की ‘हाई लेवल एंट्री’ उनके एक विशेष परिवार से होने के चलते हुई. उनके भाई और माता-पिता कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहे हैं और इस नाते यह सवाल ही नहीं उठता कि कोई बड़ी जिम्मेदारी दिए जाने से पूर्व प्रियंका गांधी को खुद को साबित करना पड़े जैसा कि किसी दूसरे कार्यकर्ता के मामले में होता है. महासचिव बन जाने के बाद भी उन्हें खुद को साबित करने की कोई जरूरत नहीं है. बीते दो साल के दौरान प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश की प्रभारी रही हैं लेकिन, राज्य में कांग्रेस की हालत में कोई सुधार नहीं दिखता.
कांग्रेस पर एक परिवार की पांचवीं पीढ़ी का नियंत्रण है यह बात कई लोगों को फूटी आंखों नहीं सुहाती है. इन लोगों में अब बुजुर्ग हो चुका भारतीय राष्ट्रवाद का यह इतिहासकार भी शामिल है जिसने अपने करिअर का काफी वक्त इस पर शोध करने में खर्च किया है कि कैसे स्वतंत्रता आंदोलन से उपजी इस पार्टी ने एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और गैरसांप्रदायिक देश के विचार को पोसा था. इन वंशवादी नेताओं के पास अगर जीत का एक ठीक-ठाक ट्रैक रिकॉर्ड होता और इसकी वजह से वे लोकतंत्र के तोड़फोड़ की उस प्रक्रिया को ही रोक पाते जिसे नरेंद्र मोदी, अमित शाह और संघ परिवार अंजाम दे रहे हैं तो भी यह नापसंदगी दबाई जा सकती थी. लेकिन राजनीतिक सत्ता हासिल करने का मोर्चा हो या उसे बनाए रखने का, वे साफ-साफ इतने अक्षम हैं कि भारतीय लोकतंत्र की हालिया गिरावट से चिंतित कई लोगों को उस विनाशकारी और दमघोंटू फंदे को देखकर बेहद निराशा होती है जिसमें सोनिया गांधी और उनकी संतानों ने देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को जकड़ा हुआ है.
राहुल और प्रियंका गांधी राजनीति के मोर्चे पर कितने अक्षम हैं, यह हालिया विधानसभा चुनावों में भी दिखा. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस साफ हो गई जहां उसने वाम मोर्चे के साथ गठबंधन किया था. इसके बाद राज्य के एक बड़े पार्टी नेता ने तंज भी किया कि चुनाव ट्विटर पर नहीं जीते जाते. तमिलनाडु में कांग्रेस को अपमान का घूंट पीकर एक लोकप्रिय क्षेत्रीय दल का जूनियर पार्टनर बनना पड़ा. असम में वह लगातार दूसरी बार हारी. लेकिन उसे सबसे बड़ा झटका केरल ने दिया. राज्य से खुद राहुल गांधी सांसद हैं और इसके बावजूद करीब आधी सदी में पहली बार ऐसा हुआ कि यहां हर चुनाव में कम्युनिस्टों और कांग्रेस के बीच सत्ता बदलने का सिलसिला टूट गया.
हिमंत बिस्व सरमा और ज्योतिरादित्य सिंधिया और कुछ-कुछ जितिन प्रसाद की भी विदाई गांधी परिवार की राजनीतिक अक्षमता का एक और उदाहरण है. महत्वाकांक्षी सरमा असम का मुख्यमंत्री बनना चाहते थे. लेकिन कांग्रेस ने ऐसा करने से इनकार किया तो उन्होंने उस पार्टी का दामन थाम लिया जिस पर वे ताजिदंगी हमलावर रहे थे. आखिरकार उन्हें इसका ईनाम मिल गया. वे अब असम के मुख्यमंत्री हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस से राज्य सभा की सीट चाहते थे, लेकिन यह उनके बजाय परिवार के पुराने वफादार दिग्विजय सिंह को दे दी गई. सिंधिया भी भाजपा में चले गए.
मैं इन दोनों राजनेताओं में से किसी का समर्थन नहीं करता. उनके रातों-रात हिंदुत्ववादी हो जाने को मैं अच्छी निगाहों से नहीं देखता हूं. लेकिन यह तथ्य अपनी जगह है कि असम अगर कांग्रेस के हाथ से निकलकर भाजपा के पास चला गया तो इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि पार्टी सरमा को अपने पाले में नहीं रख सकी. इसी तरह मध्य प्रदेश की सत्ता उसने खो दी तो इसका एक बड़ा कारण यह था कि वह सिंधिया को भाजपा के साथ जाने से नहीं रोक सकी.
मई 2012 में मैंने फाइनेंशियल टाइम्स में एक लेख लिखा था. तब तक यह पूरी तरह साफ हो चुका था कि राहुल गांधी एक उदासीन राजनेता हैं. इस लेख का शीर्षक था कि ‘कांग्रेस पार्टी को गांधी परिवार से आगे देखना ही होगा’. इसमें मैंने लिखा था कि देश का सबसे बड़ा दल लगातार उतार के रास्ते पर है और इसका संबंध प्रथम परिवार के घटते करिश्मे से है. अगले आम चुनाव से दो साल पहले आए इस लेख में मैंने यह भी लिखा था कि ‘कांग्रेस की संभावनाएं धूमिल दिखती हैं. दरबारी संस्कृति और चापलूसी के बोलबाले की वजह से आज प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी लोग कांग्रेस में शामिल होना तो दूर उसे वोट तक नहीं देना चाहते.’
2012 में मैंने कहा था कि खुद में नई जान फूंकने के लिए पार्टी को बुजुर्ग और कमजोर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को हटाकर उनकी जगह किसी ऐसे नौजवान और सक्षम राजनेता को लाना चाहिए जो गांधी न हो. मेरा मानना था कि यह शख्स आम चुनाव में कांग्रेस की अगुवाई करे. इससे यह संदेश जाता कि ‘योग्यता को परिवार और वफादारी से ज्यादा महत्व दिया जाता है.’ मैंने आगे लिखा था, ‘यथार्थवादी और आलोचक कहेंगे कि मैं जो उपाय सुझा रहा हूं वे इतने क्रांतिकारी हैं कि श्रीमती (सोनिया) गांधी के लिए उन पर विचार करना मुश्किल होगा. लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी को अप्रासंगिक होने से बचाने का सिर्फ यही रास्ता है…’
लेकिन मैं बहरों की सभा में ढोल बजा रहा था. 2014 के चुनाव आए और सोनिया गांधी ने कांग्रेस की नैया राहुल गांधी के हवाले कर दी जिसके विनाशकारी परिणाम हुए. पांच साल बाद एक और चुनाव आया. इस बार राहुल गांधी अध्यक्ष थे और उनकी बहन पार्टी महासचिव. सोनिया गांधी के बेटे की अगुवाई में पार्टी को एक और अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा. राहुल गांधी की इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि इसके बाद उन्होंने इस्तीफा देने का फैसला किया. लेकिन उनकी मां ने इस अच्छे फैसले की तुरंत ही हवा निकाल दी और वे कांग्रेस की ‘कार्यवाहक’ अध्यक्ष बन गईं. 22 महीने बाद भी वे इस पद पर बनी हुई हैं और चुनाव दर चुनाव कांग्रेस की दुर्गति और नेताओं के दूसरी पार्टियों में जाने के सिलसिले को देखने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहीं.
ऐसा लगता है कि सोनिया गांधी ने पूरी तरह से ठानी हुई है कि कांग्रेस की कमान परिवार के पास ही रहे. इस लिहाज से उन्हें उनके बेटे की तुलना में ज्यादा दोषी माना जाना चाहिए. कुछ दोष उनके सबसे वरिष्ठ चापलूसों का भी है. जब जी-23 कहे जाने वाले नेताओं की एक चिट्ठी से थोड़े समय के लिए पार्टी के भीतर हलचल हुई भी तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने परिवार का बचाव किया था. उन्होंने व्यक्तिगत वफादारी को पार्टी के दीर्घकालिक हितों के ऊपर तरजीह दी. यहां पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद का भी उदाहरण दिया जा सकता है. हाल ही में राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री और राहुल गांधी की एक तस्वीर ट्वीट की. इसके नीचे लिखा था, ‘हमारे पूर्व और भावी सम्राट.’ यह न सिर्फ एक बहुत ही वाहियात हरकत थी (सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ अधिवक्ता को पता होना चाहिए कि लोकतंत्र में ऐसे सम्राट नहीं होते जिन्हें गद्दी एक वंश में पैदा होने के लिए मिलती है) बल्कि इससे पूरी तरह साफ हो जाता है कि कांग्रेस में चमचागिरी की संस्कृति का किस कदर बोलबाला है. इस संस्कृति की झलक उस मंडली से भी मिलती है जो राहुल गांधी को बचाती है और उन्हें ‘सुझाव’ देती है. इस मंडली में ऐसे चाटुकार शामिल हैं जिनके पास न कोई सियासी आधार है, न राजनीतिक विश्वसनीयता और न ही कोई खास राजनीतिक बुद्धिमत्ता.
नेहरू-गांधी परिवार की अगुवाई में कांग्रेस का लगातार उतार हर उस भारतीय के लिए चिंता की बात होनी चाहिए जो हिंदुत्व की नफरतवादी और विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ खड़ा है और जो चाहता है कि लोकतंत्र उस व्यापक सामाजिक, आर्थिक और सांस्थानिक नुकसान से उबरे जो नरेंद्र मोदी के शासनकाल में उसे हुआ है. जो लोग इस समय हम पर शासन कर रहे हैं उनकी तुलना में राहुल गांधी में कम से कम थोड़ी सी शिष्टता तो है. लेकिन दिक्कत यह है कि उनका ध्यान राजनीति पर केंद्रित नहीं दिखता. साथ ही उनमें राजनीतिक बुद्धिमत्ता की भी कमी है. उत्तर प्रदेश से तीन बार सांसद चुने जाने के बाद भी वे धाराप्रवाह हिंदी नहीं बोल पाते और एक परिवार विशेष की पांचवीं पीढ़ी के रूप में उन पर वंशवाद का बोझ भी है.
जो चाहते हैं कि 2024 में सरकार बदले उन्हें इस बात को निश्चित रूप से मानना होगा कि मौजूदा हालात में विपक्ष की सबसे कमजोर कड़ी कांग्रेस है. तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, सीपीएम और आरजेडी के पास वह ऊर्जा और राजनीतिक महत्वाकांक्षा है जिसकी कांग्रेस नेतृत्व में साफ कमी दिखती है. भले ही अंग्रेजी बोलने वाली ट्विटर की एक जमात के बीच राहुल गांधी लोकप्रिय हों लेकिन, चुनावी रण में वे नाकामयाब रहे हैं और उन क्षेत्रीय दलों के मुखियाओं के मन में भी उनके लिए ज्यादा सम्मान नहीं है जिनका समर्थन किसी संघीय या संयुक्त मोर्चे की सफलता के लिहाज से अहम होगा.
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मोदी सरकार ने जिस तरह का कुप्रबंधन दिखाया है और महामारी के दौरान इसके रवैय्ये की वजह से जो विनाश हुआ है, उससे पूरा देश व्यथित है. परेशानियां इस कदर रहीं कि देर से ही सही, सुप्रीम कोर्ट और यहां तक कि हिंदी मीडिया का एक हिस्सा भी सरकार से जवाबदेही की मांग कर रहा है. नरेंद्र मोदी के शासन में विशेषज्ञता की जिस तरह अवमानना की जाती रही है उसे देखते हुए यह बहुत मुश्किल लगता है कि यह सरकार अर्थव्यवस्था को फिर खड़ा और लोगों की आजीविका को बहाल कर सकती है. जैसे-जैसे 2024 नजदीक आ रहा है, पूरी संभावना है कि भाजपा हिंदुत्व के मुद्दे के साथ और भी जोर-शोर से मैदान में उतरे और लड़ाई को व्यक्तिकेंद्रित बनाने की कोशिश करे. तो अगर राहुल गांधी को लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में पेश किया जाए तो सत्ताधारी पार्टी के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं होगा. यही वह स्थिति है जिससे उन सबको बचना होगा जो भाजपा के खिलाफ खड़े हैं.
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