नरेंद्र मोदी

Politics | विचार-विमर्श

वह फर्क क्या है जो न होता तो नरेंद्र मोदी और इंदिरा गांधी एक जैसे होते

शुरुआत में इंदिरा गांंधी अपने पूर्ववर्तियों की तरह ही थीं लेकिन, 1969 में कांग्रेस को तोड़ने के बाद वे बदल गईं

रामचंद्र गुहा | 19 July 2020 | फोटो: नरेंद्रमोदी.इन

दिसंबर 2015 में प्रकाशित अपने एक लेख में मैंने भारत पर मंडरा रहे एक खतरे के बारे में लिखा था. मैंने लिखा था कि देश सिर्फ चुनाव का लोकतंत्र रह गया है. यानी भारत उस मोड़ पर आ गया है जहां कोई पार्टी और उसके नेता चुनाव जीतने के बाद खुद को किसी भी आलोचना से परे समझने लगते हैं. यही नहीं, उन्हें लगता है कि अगले चुनाव यानी पांच साल तक वे कुछ भी कर सकते हैं.

सही मायने में जहां भी लोकतंत्र होता है वहां चुनाव जीतकर आए राजनेताओं की तानाशाही प्रवृत्तियों पर अंकुश रखने के लिए कुछ संस्थाएं बनाई जाती हैं. ये हैं ठीक से चलने वाली संसद और स्वतंत्र प्रेस, नौकरशाही और न्यायपालिका. पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के ज्यादातर हिस्सों में लोकतंत्र इसी तरह चलता है और हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत के बारे में भी इसी तरह की उम्मीद की थी.

आजादी के बाद के पहले दो दशक तक काफी हद तक ऐसा हुआ भी. अपने शुरुआती वर्षों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री जैसे अपने पूर्ववर्तियों के रास्ते पर ही चलीं. यानी वे संसद में होने वाली चर्चाओं में नियमित रूप से हिस्सा लेती थीं. उन्होंने नौकरशाही और न्यायपालिका को राजनीतिक दखल से मुक्त भी रखा. इंदिरा गांधी ने पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह प्रेस को डराने की कोशिश भी नहीं की.

लेकिन 1969 में कांग्रेस का विभाजन करने के बाद उनके तौर-तरीके बदल गये. उन्होंने न्यायपालिका और नौकरशाही में ऐसे लोगों को भाव देना शुरू किया जो उनकी तरफ झुकाव रखते थे. उन्होंने संसद की परवाह करना भी छोड़ दिया. अखबार मालिकों और संपादकों को धमकियां देना शुरू कर दिया. उन्होंने कांग्रेस के भीतर का लोकतंत्र भी खत्म कर दिया. इंदिरा गांधी ने इसे एक व्यक्ति और आने वाले वर्षों में एक परिवार की पार्टी बना दिया.

यह समझना महत्वपूर्ण है कि स्वतंत्र संस्थाओं को कमजोर करने का यह काम इंदिरा गांधी ने आपातकाल से कई साल पहले ही शुरू कर दिया था. आपातकाल लगने और हटने यानी जून 1975 से लेकर मार्च 1977 तक भारतीय लोकतंत्र आधिकारिक रूप से मृत अवस्था में रहा. इसे हटाने और चुनाव का ऐलान चमत्कारिक रूप से इंदिरा गांधी ने ही किया था. इन चुनावों में वे और उनकी पार्टी खेत रहीं. इसके बाद लोकतंत्र के इन संस्थानों ने फिर से अपनी स्वतंत्रता पर जोर देना शुरू किया. खास कर प्रेस ने जिसका वर्णन रॉबिन जेफरी ने अपनी चर्चित किताब ‘इंडियाज न्यूजपेपर रेवॉल्यूशन’ में किया है. उन्होंने लिखा है कि अंग्रेजी और खास कर भारतीय भाषाओं में छपने वाले अखबार और पत्रिकाएं अब कहीं ज्यादा निडर हो गए थे. उनमें सभी पार्टियों के राजनेताओं के काले कारनामों से जुड़ी शोधपरक खबरें छपा करती थीं.

न्यायपालिका की आजादी की वापसी भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी और वह भी खास कर सुप्रीम कोर्ट की. 1980 और 90 के दशक में संसद में जोशीली चर्चाओं का 1950 के दशक वाला दौर भी लगभग लौट आया था. बस, नौकरशाही ही अकेली संस्था थी जो अपनी आजादी फिर से हासिल नहीं कर सकी. अब अधिकारियों की तैनाती और उनके तबादलों का आधार उनकी पेशेवर क्षमता के अलावा सत्ताधारी राजनेताओं ने उनकी करीबी भी होने लगा था. हालांकि संस्थाओं की आजादी बहाल होने की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी वह आंशिक और अधूरी थी. फिर भी इसने कई विश्लेषकों, जिनमें मैं भी शामिल हूं, के मन में उम्मीद जगा दी थी कि भारत ने उस मंजिल का कम से कम आधा रास्ता तय कर लिया है जो इस गणतंत्र के संस्थापकों ने इसके लिए तय की थी.

फिर 2014 के चुनाव आए और इनके जरिये एक ऐसे प्रधानमंत्री का दिल्ली की सत्ता में आना हुआ जिन्हें अपनी राजनीतिक शैली के कारण ‘इंदिरा गांधी ऑन स्टेरॉयड्स’ कहा जा सकता है. नरेंद्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए ही साफ दिखने लगा था कि वे संस्थाओं की स्वतंत्रता के प्रति इंदिरा गांधी से भी ज्यादा शंकालु हैं और उनके मन में इन संस्थाओं को कमजोर करने की इच्छा पूर्व प्रधानमंत्री से भी प्रबल है. इंदिरा गांधी की तरह उनके समय में भी प्रेस को अपने खेमे में लाने और डराने की कोशिश की गई और राजनीतिक प्रतिद्वंदियों और विरोधियों के पीछे जांच एजेंसियां लगा दी गईं. इस दौरान सेना, रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग जैसी वे संस्थाएं भी नहीं छोड़ी गईं जिन्हें अब तक राजनीतिक दखलअंदाजी से आजाद माना जाता था.

अपनी पार्टी, सरकार और देश पर पूरी तरह नियंत्रण करने की इस कोशिश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक अहम सहयोगी का साथ भी मिला. ये थे गुजरात से ही ताल्लुक रखने वाले और लंबे समय से उनके सहयोगी अमित शाह. पहले पार्टी अध्यक्ष और अब गृह मंत्री के रूप में अमित शाह ने सरकार के प्रतिपक्ष को कुंद करने में अभिन्न और खतरनाक रूप से प्रभावी भूमिका निभाई है. सरकार के भीतर भी जो स्वायत्त संस्थाएं थीं, वे भी आज सत्ताधारी नेताओं और पार्टी के आगे नतमस्तक हैं और यह भी उनके चलते ही हुआ है.

केंद्र में नरेंद्र-मोदी और अमित शाह की इस जुगलबंदी को डेढ़ साल तक महसूस करने के बाद ही मैंने दिसंबर 2015 में वह लेख लिखा था जिसका जिक्र शुरुआत में हुआ है – जिसका निष्कर्ष था कि अब चुनावी जीत ही हर बात की कसौटी हो गई है. दुख की बात है कि अब उस लेख का निष्कर्ष मुझे बदलना पड़ रहा है और कहना पड़ रहा है कि लोकतंत्र का स्तर और गिर गया है. एक देश के तौर पर अब हम अपने इतिहास के उस मोड़ पर पहुंच गए हैं जहां अब चुनाव भी लगातार महत्वहीन होते जा रहे हैं.

बीते हफ्ते की शुरुआत में आयकर विभाग ने केंद्र सरकार के आदेश से राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के करीबी सहयोगियों पर छापे मारे. यह कार्रवाई ठीक उसी समय हो रही थी जब उनसे खफा राज्य के उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट को भाजपा अपने खेमे में लाकर सरकार गिराने की कोशिश कर रही थी. फिलहाल यह कवायद नाकाम हो गई है लेकिन, एक खतरनाक महामारी के बीच जिस तरह से यह कोशिश हुई उससे पता चलता है कि संवैधानिक लोकतंत्र के मूल्यों और इसकी प्रक्रियाओं के लिए अब कितना सम्मान बचा रह गया है.

राजस्थान में वही हो रहा है जो मार्च में मध्य प्रदेश में हुआ था, और जो पिछले साल कर्नाटक में हुआ था. इन तीनों ही राज्यों में चुनावों के बाद गैर भाजपा सरकार बनी थी – मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की और कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन की. इन तीनों ही राज्यों में भाजपा ने सत्ताधारी पार्टियों के विधायकों को या पार्टी छोड़ने के लिए उकसाया ताकि सरकार गिरे और उसकी सरकार बन सके.

कर्नाटक, मध्य प्रदेश और अब राजस्थान में भाजपा ने पूरी तरह से अनैतिक और अलोकतांत्रिक तरीकों से अपने खिलाफ आया चुनाव का नतीजा बदलने की कोशिश की है. लेकिन उसकी ये कवायदें सिर्फ इन्हीं राज्यों तक सीमित नहीं हैं. गोवा और मणिपुर में निर्दलीय या छोटी पार्टियों के विधायकों के भाजपाई खेमे में आने की वजह उनमें नरेंद्र मोदी या हिंदुत्व के प्रति अचानक उमड़ा भक्ति भाव नहीं था. इसी तरह यह कहना मुश्किल है कि गुजरात और दूसरे राज्यों में हुए राज्य सभा चुनाव से पहले कांग्रेस विधायकों के इस्तीफा देने की वजह सत्ताधारी पार्टी की मोटी जेब से जुड़ी हुई नही है.

इन विधायकों को कितने पैसे की पेशकश की गई, इस बारे में अलग-अलग अनुमान हैं. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का दावा है कि कांग्रेस विधायकों को भाजपा में शामिल होने के लिए 15 करोड़ रु का लालच दिया गया. जिन पत्रकारों से मैंने बात की उनका कहना था कि यह आंकड़ा कहीं ज्यादा है, हर विधायक को 25 करोड़ का ऑफर मिला था. माना जा सकता है कि मध्य प्रदेश और कर्नाटक में भी विधायकों को इससे मिलती-जुलती रकम की पेशकश हुई होगी. यह आंकड़ा वास्तव में काफी बड़ा है. सवाल है कि यह पैसा कहां से आ रहा है. उन चुनावी बॉन्डों से जिन पर कई सवाल उठ रहे हैं और जिन पर रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया था? या फिर और भी ज्यादा सवालिया स्रोतों से?

इन सौदेबाजियों से एक बुनियादी सवाल भी उठता है. अगर विधायक किसी भी समय खरीदे और बेचे जा सकते हैं तो फिर चुनाव करवाने का मतलब ही क्या है? क्या इससे उन भारतीयों की लोकतांत्रिक इच्छा के कुछ मायने रह जाते हैं जिन्होंने इन राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में वोट दिया था? अगर पैसे की ताकत का इस्तेमाल करके इतने प्रभावी तरीके से निष्पक्ष और स्वतंत्र कहे जाने वाले किसी चुनाव का नतीजा पलटा जा सकता है तो भारत को सिर्फ चुनाव भर का लोकतंत्र भी कैसे कहा जाए?

मैंने नरेंद्र मोदी को ‘इंदिरा गांधी ऑन स्टेरॉयड्स’ कहा. इससे मेरा मतलब है कि वे अपनी कार्यशैली में पूर्व प्रधानमंत्री से ज्यादा महीन और निर्मम हैं. संस्थाओं की ताकत कम करने के लिए इंदिरा गांधी ने अगर भोंथरी खुरपी का इस्तेमाल किया था तो नरेंद्र मोदी तेज धार तलवार का कर रहे हैं. इंदिरा गांधी ने अपने कुछ फैसलों पर पुनर्विचार किया था. आपातकाल उनमें से एक है. उधर, नरेंद्र मोदी की कार्यशैली में पश्चाताप और अपराधबोध का कोई स्थान नहीं है. इसके अलावा तमाम दोषों के बावजूद इंदिरा गांधी धार्मिक बहुलतावाद के लिए गहराई से समर्पित थीं. दूसरी तरफ, नरेंद्र मोदी की राजनीति एकाधिकार और बहुसंख्यकवाद वाली है.

भारतीय लोकतंत्र की संस्थाओं और इसके मूल्यों को इंदिरा गांधी के कार्यकाल में काफी नुकसान पहुंचा था. आखिरकार धीरे-धीरे उनकी बहाली हुई. भले ही वह अपने संविधान निर्माताओं के आदर्शों तक न पहुंच पाया हो और उसमें कई दोष रहे हों, लेकिन 1989 से 2014 तक का भारत एक लोकतंत्र जैसा दिखता था. अब देखना बाकी है कि भारतीय लोकतंत्र की संस्थाएं कभी उस नुकसान से उबर पाएंगी या नहीं जो उन्हें नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान हो रहा है.

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022