हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर

Politics | आरक्षण

जब निजी नौकरियों में आरक्षण के कानून सही नहीं लगते हैं तो राज्य सरकारें इन्हें बनाती क्यों हैं?

हरियाणा के बाद झारखंड ने भी फैसला किया है कि वह प्राइवेट नौकरियों में राज्य के लोगों को 75 फीसदी आरक्षण देने का कानून बनाएगा

विकास बहुगुणा | 30 March 2021 | फोटो: फेसबुक/मनोहर लाल खट्टर

झारखंड सरकार ने भी अपने यहां के निजी क्षेत्र में स्थानीय लोगों के लिए 75 फीसदी आरक्षण तय करने का फैसला किया है. हाल ही में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अध्यक्षता में हुई राज्य कैबिनेट की एक बैठक में इस प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी गई. इसके तहत निजी क्षेत्र में 30 हजार रुपये तक वेतन वाले 75 फीसदी पद स्थानीय युवाओं के लिए आरक्षित होंगे. जो कंपनियां ऐसा नहीं करेंगी, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होगी. बताया जा रहा है कि इससे संबंधित विधेयक जल्द ही विधानसभा में पेश किया जाएगा.

झारखंड सरकार के इस कदम से कुछ ही दिन पहले हरियाणा कुछ ऐसा ही कानून बना चुका है. हरियाणा राज्य स्थानीय उम्मीदवार रोजगार कानून 2020 के मुताबिक अब राज्य में मौजूद निजी क्षेत्र की कंपनियां 50 हजार रु तक की तनख्वाह वाले 75 फीसदी पदों पर स्थानीय युवाओं को भर्ती करेंगी. ऐसा न करने वालों पर 10 हजार से दो लाख रु तक का आर्थिक दंड लगाया जा सकता है. अगर फिर भी कोई कंपनी उल्लंघन करना जारी रखती है तो उसे रोज प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना भरना पड़ेगा. कानून के अनुपालन के संबंध में फर्जी जानकारी देने वाली कंपनियों पर 50 हजार रु का अर्थदंड लगेगा. अगर कंपनी दोबारा यह अपराध करती है तो यह आंकड़ा दो से पांच लाख रु तक जा सकता है. राज्य से ताल्लुक रखने वाला कोई दक्ष कर्मचारी न मिलने पर कंपनी कानून में छूट चाहती है तो उसे इसके लिए आवेदन करना होगा और जांच के बाद यह फैसला किया जाएगा कि उसे यह छूट मिलेगी या नहीं.

इस तरह देखें तो एक नया चलन चल पड़ा है. जुलाई 2019 में आंध्र प्रदेश की जगन मोहन रेड्डी सरकार ने कानून बनाकर सभी श्रेणियों की निजी नौकरियों में 75 फीसदी सीटें स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित कर दी थीं. फिर बीते साल कर्नाटक सरकार ने भी एक आदेश जारी कर कहा कि जो कंपनियां राज्य में पंजीकृत हैं उन्हें नई भर्तियों के वक्त स्थानीय युवाओं को तरजीह देनी चाहिए. मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे दूसरे कई राज्यों में भी सरकारों की तरफ से निजी क्षेत्र में स्थानीय लोगों को आरक्षण देने संबंधी बयान आते रहे हैं. वैसे इस मामले में शुरुआत गुजरात ने की थी जिसने 1995 में ही एक प्रस्ताव पारित कर कारोबारियों से 85 फीसदी रोजगार स्थानीय लोगों को देने को कहा था.

कई जानकार मानते हैं कि इस तरह के कानून और आदेश असंवैधानिक तो हैं ही, व्यवहार में इन्हें लागू करना भी लगभग नामुमकिन है. संविधान का अनुच्छेद 14 देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है. संविधान का ही अनुच्छेद 15 कहता है कि राज्य अपने किसी भी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग, नस्ल और जन्म स्थान या इनमें से किसी भी आधार पर कोई भेद नहीं करेगा. अनुच्छेद 16 अवसरों की समानता की बात करता है तो अनुच्छेद 19 के अंतर्गत हर नागरिक को भारत में कहीं भी आजीविका पाने और काम-धंधा करने का अधिकार मिला है.

इन तथ्यों का हवाला देकर कहा जा रहा है कि ये विधेयक अदालती कसौटियों पर नहीं टिक पाएंगे. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय की है और वह भी सिर्फ सरकारी नौकरियों पर लागू होती है. पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा के मुताबिक निजी कंपनियां संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत राज्य की परिभाषा में नहीं आतीं और इसलिए उन पर आरक्षण लागू करने का दबाव नहीं डाला जा सकता. इसके अलावा स्थानीयता के आधार पर आरक्षण का कानून बनाना राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात है. संविधान का अनुच्छेद 16 (3) अपवाद के रूप में सिर्फ संसद को यह अधिकार देता है कि वह किसी राज्य में स्थानीय लोगों को आरक्षण देने के लिए कानून बना सके लेकिन वह भी ऐसा सिर्फ अपनी और राज्यों की नौकरियों के मामले में ही कर सकती है.

अगर इसे और साफ करें तो राज्य सरकारें अपनी नौकरियों में पिछड़ा वर्गों को तो आरक्षण दे सकती हैं लेकिन स्थानीयता के आधार पर उनमें आरक्षण देने का काम केवल संसद ही कर सकती है. यही वजह रही होगी कि हरियाणा सरकार अपनी नौकरियों में तो स्थानीय लोगों को आरक्षण नहीं दे रही है लेकिन निजी क्षेत्र को ऐसा करने के लिए मजबूर कर रही है. उसके प्रतिनिधियों का यह कहना भी है कि संविधान केवल सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों को आरक्षण देने के लिए संसद को अधिकृत करता है इसलिए वह निजी क्षेत्र के बारे में कानून बना सकती हैं. हालांकि यह पहली नजर में ही इसलिए भी अटपटा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट जब सरकारी नौकरियों तक में 75 फीसदी आरक्षण की इजाज़त नहीं देता तो निजी नौकरियों के लिए यह किस तरह तर्कसंगत ठहराया जा सकता है?

इस तरह के मामलों में अदालतों के रुख को देखें तो वह काफी साफ रहा है. 1984 के डॉ. प्रदीप जैन बनाम भारतीय संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि स्थानीय होने के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था असंवैधानिक है. 1995 में सुनंदा रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश सरकार मामले में शीर्ष अदालत ने राज्य सरकार की वह नीति रद्द कर दी थी जिसमें नियुक्ति के लिए तेलुगू माध्यम से पढ़ाई करने वाले उम्मीदवारों को पांच फीसदी अतिरिक्त ‘वेटेज’ देने का प्रावधान था. 2019 में ही इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भर्ती के लिए निकाली गई राज्य सरकार की उस अधिसचूना को रद्द कर दिया था जिसमें उत्तर प्रदेश की मूल निवासी महिलाओं को तरजीह देने की बात थी. इसलिए माना जा रहा है कि निजी क्षेत्र में 75 फीसदी आरक्षण का प्रावधान करते ये नए कानून भी अदालतों में नहीं टिक पाएंगे. आंध्र प्रदेश के वर्तमान कानून को ही लें, जो उद्योगों और कारखानों में 75 फीसदी नौकरियां स्थानीय लोगों को आरक्षण देने की बात करता है, तो यह अब तक इसलिए लागू नहीं हो पाया है. आंध्र प्रदेश ने अनुच्छेद 16 (3) से बचने कि लिए सिर्फ निजी, संयुक्त उपक्रमों और पीपीपी परियोजनाओं में ही आरक्षण लागू किया है. लेकिन फिर भी अदालत ने इसे हरी झंड़ी नहीं दी है. माना जा रहा है कि बाकी मामलों में भी ऐसा ही होगा.

26 जनवरी 1950 को संविधान के लागू होने के साथ ही भारत कई रियासतों के विलय से बनी एक भौगोलिक इकाई से आगे बढ़ते हुए एक गणतंत्र बन गया था. इसमें रहने वाले पंजाबी, गुजराती या मराठी लोगों की अब एक साझा सार्वभौमिक पहचान भी थी और यह थी – भारतीय नागरिक. इस पहचान के साथ अब कोई भी देश के किसी भी हिस्से में जाने, रहने और वहां आजीविका कमाने के लिए स्वतंत्र था. जानकारों के मुताबिक यही वजह है कि स्थानीयता के आधार पर आरक्षण की बात ठीक नहीं है. क्योंकि एक तो यह राष्ट्रीयता और एकता की उस भावना पर चोट करती है जो बड़ी मुश्किलों से हासिल हुई है और दूसरे, यह उस समावेशिता के खिलाफ भी जाती है जो हमारे संविधान के आधारस्तंभों में से एक है.

कई मानते हैं कि ऐसे कानूनों का प्रतिभाशाली युवाओं के भविष्य पर बुरा असर भी पड़ सकता है. उनके मुताबिक अगर देखा-देखी भारत का हर राज्य इस तरह के कानून बनाने लगा तो एक राज्य के प्रतिभाशाली युवा किसी दूसरे राज्य में नौकरी नहीं खोज पाएंगे. इसलिए बहुत से जानकारों का मानना है कि कुछ सीमा तक तो इस तरह के बंदोबस्त ठीक हो सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि बाकी भारत के लोगों को भेदभाव का अहसास हो. जैसा कि चर्चित अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता कॉलिन गोंसाल्विस कहते हैं, ‘यह बिल्कुल भी संवैधानिक या वैध नहीं है. आप मूल निवास को लेकर कुछ शर्तें लगा सकते हैं, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि 75 फीसदी कर्मचारी हरियाणा के ही निवासी होने चाहिए.’

इसके अलावा एक सवाल ऐसी कवायदों के उलटा पड़ने की आशंका से भी जुड़ा है. हरियाणा के गुरुग्राम में मारुति-सुजुकी से लेकर गूगल और फेसबुक सहित तमाम बड़ी कंपनियों के दफ्तर हैं. सवाल यह है कि क्या ये कंपनियां 75 फीसदी नौकरियां स्थानीय लोगों को दे सकेंगी, वह भी तब जब उस तरह की दक्षता वाले उम्मीदवार न मिल पाएं जो उन्हें चाहिए. नए कानून में दंड का प्रावधान तो है ही साथ ही उसमें यह प्रावधान भी है कि अधिकारी कभी भी किसी भी कंपनी का दौरा कर सकते हैं. साथ ही कंपनियों को बाकी कई औपचारिकताओं के अलावा राज्य सरकार को इस कानून के पालन से जुड़ी एक त्रैमासिक रिपोर्ट भी देनी होगी जिसकी सत्यता की जांच के लिए संबंधित अधिकारी उनसे किसी भी दस्तावेज़ की मांग कर सकता है. ऐसे में कई कंपनियां इस कानून को अपने काम में एक बड़ी बाधा की तरह भी देख सकती हैं और अपना कारोबार दूसरे राज्यों में ले जाने या हरियाणा में न बढ़ाने पर भी विचार कर सकती हैं. जाहिर सी बात है, इससे हरियाणा को नुकसान ही होगा.

नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज यानी नैसकॉम का एक हालिया सर्वे भी ऐसे ही संकेत दे रहा है. यह सर्वे हरियाणा के ताजा कानून के असर की थाह लेने के लिए किया गया था. इसमें शामिल 80 फीसदी कंपनियों ने कहा कि यह कानून उनके कारोबार और निवेश की योजनाओं पर बुरा असर डालेगा. उनका कहना था कि इसके चलते व्यापार या उसके विस्तार से जुड़ी नई योजनाओं को दूसरे राज्यों या देशों में शिफ्ट करने की संभावना पर विचार किया जा सकता है. ईज ऑफ डूइंग बिजनेस यानी कारोबार की सुगमता को लेकर सीआईआई की हरियाणा टास्क फोर्स के चेयरमैन हरभजन सिंह कहते हैं, ‘यह कानून औद्योगिक विकास के लिए ठीक नहीं है. उद्योग राजस्थान में भिवाड़ी और नीमराना या फिर उत्तर प्रदेश शिफ्ट हो सकते हैं.’ ये जगहें गुरुग्राम से ज्यादा दूर भी नहीं हैं.

यहां पर यह जिक्र किया जा सकता है कि कारोबारी सुगमता से जुड़ी रैंकिंग में 2018 तक तीसरे पायदान पर रहा हरियाणा लुढ़क कर अब 16वें स्थान पर पहुंच गया है. इसलिए नैसकॉम के एक सदस्य का मानना है कि हरियाणा सरकार को यह कानून वापस ले लेना चाहिए. संस्था के सर्वे के मुताबिक राज्य में सक्रिय कई बड़ी कंपनियों को कम्युनिकेशन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग, फायनेंस एंड अकाउंटिंग, प्रोग्रामिंग और डेटा साइंस जैसे क्षेत्रों में दक्षता रखने वाले लोग चाहिए, लेकिन राज्य की युवा आबादी इन मोर्चों पर पीछे है. कई मानते हैं कि ऐसे में आरक्षण देने के बजाय बेहतर रास्ता यह हो सकता था कि स्थानीय युवाओं को विशेष ट्रेनिंग देकर उनको इन नौकरियों के अनुकूल बनाया जाता.

इतिहास भी ऐसे कानूनों की व्यावहारिकता पर सवालिया निशाना लगाता है. हरियाणा से पहले जिन भी राज्यों ने इस तरह की कवायदें की हैं वे बहुत प्रभावी तरीके से जमीन पर नहीं उतर सकीं. बीते फरवरी में ही गुजरात के श्रम और रोजगार मंत्री दिलीप ठाकोर ने यह बात मानी थी. महाराष्ट्र ने 2008 में ऐसे उद्योगों में स्थानीय लोगों के लिए 80 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया था जो टैक्स सब्सिडी और इंसेंटिव चाहते हैं. लेकिन यह नीति भी कभी जमीन पर नहीं उतर सकी. इसी तरह कर्नाटक सरकार ने दिसंबर 2019 में एक आदेश जारी कर कहा था कि जिन भी कंपनियों को सरकार से सब्सिडी, इसेंटिव या फिर टैक्स में छूट जैसे फायदे मिलते हैं वे नई भर्तियों में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता दें. लेकिन कुछ समय पहले ही राज्य के उद्योग विभाग के अधिकारियों ने माना था कि ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनी है जिससे पता चल सके कि इस नीति का पालन हो रहा है या नहीं. यानी मामला ठंडे बस्ते में पड़ा है.

जैसा कि हरियाणा के उदाहरण से साफ है, ये नए कानून कारोबारी सुगमता के लिए माहौल बनाने की उस कवायद के विपरीत दिशा में जाते दिखते हैं जिस पर केंद्र सरकार काफी जोर दे रही है. कई इन कानूनों को निरा पाखंड भी मानते हैं. उनके मुताबिक एक ओर तो भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार किसानों के लिए ऐसे कानून ला रही है कि वे अपना माल देश में कहीं भी बेच सकें और दूसरी ओर उसी भाजपा की सरकार हरियाणा में कंपनियों को मजबूर कर रही है कि वे ज्यादातर नौकरियां राज्य के लोगों को ही दें.

असंवैधानिक और अव्यावहारिक लगने के अलावा इन कानूनों का खतरा यह भी है कि इनसे भ्रष्टाचार बढ़ सकता है. जैसा कि अपने एक लेख में आईआईएम अहमदाबाद में असिस्टेंट प्रोफेसर चिन्मय तुंबे कहते हैं, ‘इससे ये हो सकता है कि खुद को स्थानीय निवासी साबित करने के लिए अपनाई जाने वाली जुगतों का एक समानांतर धंधा पनप जाए.’ भ्रष्टाचार कंपनियों को इस नियम से छूट देने के मामले में भी देखने को मिल सकता है और दूसरे तरह-तरह के कंप्लाएंसेज के मामले में भी. कुल मिलाकर कई लोग इसे एक नये किस्म के ‘इंस्पेक्टर राज’ के रूप में भी देख रहे हैं.

ऐसे में सवाल उठता है कि जब ये कानून असंवैधानिक, अव्यावहारिक और नकारात्मक प्रभावों वाले दिखते हैं तो फिर सरकारें इन पर अड़ी क्यों हैं. इसका जवाब है लोकलुभावनवादी राजनीति. निजी क्षेत्र में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण की पहल करने वाले इन राज्यों पर नजर डालें तो एक दिलचस्प और साझा बात दिखाई देती है. इनमें लगभग सभी राज्य ऐसे हैं जहां उद्योग-धंधों की बहुतायत होने के साथ-साथ इंजीनियरिंग कॉलेजों की भी एक बड़ी संख्या है. महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक तो इस मामले में देश के शीर्ष सात राज्यों में शुमार हैं. इन कॉलेजों में पढ़ने वाली छात्रों की एक बड़ी संख्या संबंधित राज्य से ही ताल्लुक रखती है. लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर यह है कि इनमें से ज्यादातर छात्र जब इंजीनयरिंग पास करके निकलते हैं तो कंपनियां उन्हें रोजगार देने लायक नहीं समझतीं.

उदाहरण के लिए सबसे ज्यादा प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेजों वाले राज्यों की सूची में आंध्र प्रदेश का पांचवां स्थान है. उच्च शिक्षा को लेकर 2019 में हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय के एक देशव्यापी सर्वे के मुताबिक तब राज्य के इन कॉलेजों में साढ़े 11 लाख से भी ज्यादा छात्र पढ़ रहे थे. उसी साल दिल्ली स्थित चर्चित संस्था ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी’ ने एक सर्वे किया था जिसमें यह बात निकलकर आई कि आंध्र प्रदेश के ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट छात्रों में से 25 फीसदी से भी ज्यादा बेरोजगार हैं. यह आंकड़ा उस समय राष्ट्रीय औसत के दोगुने से भी ज्यादा था.

ऊपर जिन बाकी राज्यों का जिक्र हुआ उनका हाल भी कमोबेश ऐसा ही है. दूसरे शब्दों में कहें तो ये सभी ऐसे राज्य हैं जहां ऊंची पढ़ाई (जरूरी नहीं कि उसकी गुणवत्ता भी उतनी ही ऊंची हो) कर चुके युवाओं में बेरोजगारी की दर काफी ज्यादा है. कई जानकार मानते हैं कि यही वह स्थिति है जिसमें रोजगार को लेकर क्षेत्रवाद का जन्म होता है. चिन्मय तुंबे कहते हैं, ‘इतिहास को देखें तो जब-जब बेरोजगारी बहुत बढ़ी है तब-तब क्षेत्रवाद चरम पर गया है और जब-जब अर्थव्यवस्था ने अच्छा प्रदर्शन किया है तब-तब यह मुरझाया है.’

यह कोई छिपी बात नहीं है कि अर्थव्यवस्था की हालत इस समय क्या है. कोरोना वायरस संकट से पहले ही यह सुस्त हो गई थी और इस संकट के बाद से यह सिकुड़ रही है. जाहिर सी बात है कि इससे बेरोजगारी और बढ़ेगी. जानकारों के मुताबिक ऐसे में उभरने वाले असंतोष और इसके चलते जनसमर्थन खोने के खतरे से आशंकित सत्ताधारी पार्टियां निजी क्षेत्र में इस तरह के आरक्षण देकर क्षेत्रवाद को हवा दे रही हैं. उन्हें यह बढ़ती बेरोजगारी से उपजे असंतोष की काट लग रहा है. कुल मिलाकर कहें तो यह एक तरह का लोकलुभावनवाद है जिसकी राह पर पार्टियां सिर्फ इसलिए चल पड़ी हैं ताकि उनकी सत्ता सलामत बनी रहे.

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