वे तथ्य जो बताते हैं कि कोरोना वायरस की वैक्सीन जल्द ही बनने वाली है और उसके तुरंत बाद वह ज्यादातर भारतीयों को भी मिल जाएगी
अंजलि मिश्रा | 10 अगस्त 2020 | फोटो: पिक्साबे
कहा जाता है कि दो अनजाने या कम जान-पहचान वाले लोग जब मिलते हैं तो अक्सर मौसम की बातें करते हैं. लेकिन आजकल या तो ऐसे लोग मिलते ही नहीं हैं और अगर मिल भी जाएं तो उनके बीच बातचीत का विषय मौसम नहीं बल्कि कोरोना वायरस होता है. और, अक्सर यह बातचीत यहां पर आकर खत्म होती है कि ‘जब तक कोरोना वायरस का कोई इलाज नहीं मिल जाता या कोई वैक्सीन नहीं बन जाती है तब तक न कुछ सामान्य होने वाला है और न ही भविष्य के बारे में कुछ सोचा जा सकता है.’ अब ज़रा इस बात पर गौर कर देखिए कि आपने खुद यह लाइन दूसरों के साथ बातचीत में या अपने मन में ही कितनी बार दोहराई होगी. शायद अनगिनत बार. यानी, यह कहा जा सकता है कि कोविड-19 का इलाज या वैक्सीन, वे चीजें हैं जिनका इस वक्त सारी दुनिया को बड़ी शिद्दत से इंतज़ार है.
इसके साथ ही कोविड-19 की वैक्सीन, वह चीज भी है जिसे बनाने के लिए दुनिया भर में, एक साथ सबसे ज्यादा प्रयास हो रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक दुनिया भर में 166 वैक्सीन कैंडिडेट्स पर काम किया जा रहा है. इनमें से कई क्लीनिकल ट्रायल की अलग-अलग स्टेज पर पहुंच चुकी हैं. वहीं, कुछ ऐसी भी हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वे अप्रूवल से कुछ ही हफ्तों की दूरी पर हैं. इसके अलावा, इस बात की भी पूरी संभावना है कि डब्ल्यूएचओ में रजिस्टर्ड इन वैक्सीन्स के अलावा भी, दुनिया के अलग-अलग कोनों में कोरोना वायरस का टीका विकसित करने के प्रयास किए जा रहे होंगे.
लेकिन क्या दुनिया को एक से ज्यादा वैक्सीन की ज़रूरत है?
वैक्सीन बनाए जाने की इन कोशिशों के बारे में जानते ही एक छोटा सा सवाल मन में यह उठता है कि सैकड़ों की संख्या में अलग-अलग वैक्सीनों पर पैसा, संसाधन और समय बरबाद करने की ज़रूरत क्या है? क्या इसके बजाय, दुनिया के सबसे प्रखर दिमागों और धनवान संस्थाओं को मिलकर एक ही प्रभावी वैक्सीन बनाने की कोशिश नहीं करना चाहिए? क्या ऐसा करने से एक ज्यादा असरकारी वैक्सीन ज्यादा जल्दी विकसित नहीं की जा सकती है? यह सवाल इसलिए भी पूछा जाना चाहिए कि एक वैक्सीन आने के बाद तो वैसे भी बाकियों की ज़रूरत खत्म हो जाएगी. तब क्या इतने प्रयास निरर्थक नहीं हो जाएंगे. इन तमाम सवालों का जवाब यह है कि सबसे पहले तो किसी भी वैक्सीन के सफल होने की संभावना बहुत कम होती है. इसके साथ ही, किसी भी बीमारी के लिए वैक्सीन बनाना एक ऐसा काम है जो लंबे समय, मेहनत और संसाधनों की मांग करता है. ऐसे में अगर केवल एक ही वैक्सीन के लिए प्रयास किया गया और वह असफल हो गया तो फिर सबकुछ शुरू से शुरू करना पड़ेगा और कोविड-19 जैसी महामारी की स्थिति में ऐसा कर पाना न तो संभव है और न ही तर्कसंगत.
आंकड़ों में इसी बात को दोहराएं तो वैक्सीन से जुड़े 100 में से 20 शोध ही क्लीनिकल ट्रायल यानी जानवरों पर परीक्षण किए जाने के स्तर तक पहुंच पाते हैं. वहीं, मात्र एक को ही फाइनल स्टेज तक जाने यानी ह्यूमन ट्रायल की अनुमति मिल पाती है. ऐसे में अगर डब्ल्यूएचओ में लिस्टेड 166 वैक्सीन कैंडिडेट्स में से 4-5 भी सफल होते हैं तो यह बहुत बड़ी सफलता दर मानी जाएगी.
और हां, दुनिया को एक से ज्यादा वैक्सीनों की ज़रूरत है. इसलिए कि कोरोना संकट अब धरती के हर कोने पर पहुंच चुका है और हर कोई चाहता है कि उसके पास तक वैक्सीन या इलाज जल्द से जल्द पहुंचे. ऐसे में केवल एक वैक्सीन, इस वैश्विक मांग को पूरा करने के लिए काफी नहीं होगी. किसी एक संस्था या देश द्वारा एक वैक्सीन बनाए जाने की सूरत में यह भी हो सकता है कि दुनिया के पिछड़े देशों तक इसके पहुंचने में लंबा समय लग जाए. ऐसा होना, निश्चित रूप से महामारी के नियंत्रण या खात्मे में देरी की वजह बन सकता है. इसके अलावा, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है कि जो पहली सफल वैक्सीन होगी, वह कोविड-19 से बचाव में लंबे समय के लिए कारगर ही होगी. हो सकता है, पहली वैक्सीन हमें दो या तीन सालों के लिए ही बीमारी से सुरक्षा दे पाए, ऐसे में सबसे बड़ा काम यह होगा कि यह एक स्थायी इलाज तक पहुंचने के लिए दुनिया को थोड़ा समय दे देगी. इसके साथ ही, अलग-अलग प्रयोगों में कई तरह के दृष्टिकोण और तकनीकों का इस्तेमाल होगा, जो इस वैक्सीन के असफल होने पर भी वैज्ञानिकों के लिए नए रास्ते खोलने वाले साबित हो सकते हैं.
वैक्सीनों का ट्रायल कैसे होता है?
वैक्सीनों के बारे में याद रखी जाने वाली पहली बात यह है कि इन्हें बनने में सालों का वक्त लगता है. और बनने के बाद इनके ट्रायल में और आम जनता तक पहुंचने में भी सालों का वक्त लग जाता है. इसलिए, अगर आने वाले दिनों में कोरोना वायरस की कोई ऐसी वैक्सीन उपलब्ध हो जाती है जो बीते कुछ ही महीनों में बनी हो, तो इसे किसी चमत्कार से कम नहीं माना जाना चाहिए. जहां तक वैक्सीन बनाए जाने का सवाल है तो किसी भी वायरस का इलाज करने के लिए उसके जीनोम यानी जेनेटिक कोडिंग में बदलाव किया जाता है. फिर इन्हें किसी होस्ट सेल – आम तौर पर बैक्टीरिया या यीस्ट – में रखा जाता है, ताकि ये अपनी संख्या को बढ़ा सकें. इन्हें ही वैक्सीन कहा जाता है. इसे बाद में मानव शरीर के भीतर पहुंचाकर वायरस से सुरक्षा के लिए मेमोरी बी-सेल्स तैयार की जाती हैं. इसके चलते आगे कभी वायरस का संक्रमण होने पर शरीर उसका मुकाबला आसानी से कर सकता है.
इन्हें बनाए जाने की अलग-अलग तकनीकों को जिक्र करें तो कोरोना वायरस के चर्चित वैक्सीन कैंडिडेट्स में शामिल मोरेना (अमेरिका) और क्योरवैक (जर्मनी) की वैक्सीन, सबसे नई तकनीक से बनाई जा रही है. यह एम-आरएनए (mRNA) बेस्ड वैक्सीन हैं. यानी इस तकनीक में किसी वायरस के एम-आरएनए यानी एक तरह की जेनेटिक सूचना को ही शरीर में पहुंचाकर, उसकी मेमोरी तैयार की जाती है जिससे संक्रमण होने पर शरीर उससे लड़ सकता है. वहीं, अमेरिकी वैक्सीन नोवावैक्स में कोरोना वायरस के स्पाइक्स-प्रोटीन (एस-प्रोटीन यानी उसके सबसे बाहरी सिरे पर रहने वाले कांटेदार प्रोटीन में मौजूद एंटीजन) का इस्तेमाल किया जा रहा है. एंटीजन किसी सूक्ष्मजीव में मौजूद वे विषैले पदार्थ होते हैं जो शरीर के इम्यून रिस्पॉन्स को ट्रिगर करते हैं. कुछ अन्य प्रयोगों जैसे हांगकांग यूनिवर्सिटी द्वारा विकसित की जा रही वैक्सीन में एन्फ्लुएंजा वायरस और सार्स कोव-2 के प्रोटीन का इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके अलावा बीसीजी या मीजल्स के टीकों में भी कोरोना वायरस के इलाज की संभावनाएं ढूंढी जा रही हैं. इन सबका, उद्देश्य शरीर में नए कोरोना वायरस के लिए इम्यून रिस्पॉन्स या उसकी मेमोरी तैयार करना है जिसके बाद संक्रमण होने पर शरीर उससे प्रभावी ढंग से लड़ सके.
ऊपर बताई गई, इन तकनीकों से वैक्सीन विकसित होने के बाद इनके क्लीनिकल ट्रायल आम तौर पर तीन या चार चरणों में किए जाते हैं. शुरूआती पहले और दूसरे चरण में जांच की जाती है कि वैक्सीन सुरक्षित है या नहीं, इसका उचित डोज कितना होगा, इसके संभावित साइड इफेक्ट्स क्या हो सकते हैं और यह रोगाणुओं से लड़ने में कितनी प्रभावी होने वाली है. तीसरे चरण में हजारों की संख्या में लोगों पर प्रयोग कर देखा जाता है कि यह बड़े जनसमूह पर प्रभावकारी है या नहीं.
इन चरणों पर जरा विस्तार से बात करें तो जानवरों पर परीक्षण सफल होने के बाद कोई वैक्सीन क्लीनकल ट्रायल के पहले चरण में पहुंचती है. इस चरण में 20 से 100 लोगों पर दवा की अलग-अलग मात्रा का परीक्षण कर देखा जाता है कि मानव शरीर पर वैक्सीन का कोई साइड इफेक्ट, जैसे कि इंजेक्शन वाली जगह पर सूजन, जलन या बुखार वगैरह तो नहीं हो रहा है. थोड़ी बहुत मात्रा में ऐसा होने पर इसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है लेकिन तेज बुखार या बेहोशी की सूरत में इसे गंभीरता से लिया जाता है. पहले चरण में सुरक्षित साबित होने के बाद, दूसरे चरण में दवा का परीक्षण सैकड़ों लोगों पर किया जाता है. इन्हें दवा के अलग-अलग डोज दिए जाते हैं और परखा जाता है कि उनका इम्यून सिस्टम किस तरह की प्रतिक्रिया देता है. यानी, क्या शरीर भारी संख्या में ऐसी एंटीबॉडीज बनाता है जो कोरोना वायरस सरीखे संक्रमण को खत्म कर सकें या फिर शरीर में मौजूद रोग प्रतिरोधक कोशिकाओं को किसी संक्रमण से लड़ने का निर्देश देता है.
वहीं, तीसरे चरण के ट्रायल में हजारों लोगों पर दवा का परीक्षण किया जाता है. जैसे कि कोरोना वायरस के मामले में इस चरण में पहुंची प्रत्येक वैक्सीन का परीक्षण न्यूनतम दस हजार लोगों पर किया जा रहा है. सामान्य परिस्थितियों में, अगर इस चरण में शामिल लोगों में से आधे लोग संक्रमण से सुरक्षित हो जाते है तो इसे एक सफल वैक्सीन मान लिया जाता है. कोरोना वायरस के मामले में वैज्ञानिक इस आंकड़े को अधिकतम स्तर तक ले जाने की कोशिश कर रहे हैं. इसके साथ ही, कोविड वैक्सीन को लेकर वैज्ञानिक एंटीबॉडी डिपेंडेंस एन्हांसमेंट (एडीई) को लेकर भी खासे सजग हैं. एडीई वह दुर्लभ घटना है, जब शरीर में वैक्सीन से बनने वाले एंटीबॉडीज, वायरल संक्रमण होने पर उसे और ज्यादा गंभीर बना देती हैं. जैसा कि कई बार डेंगू वैक्सीन के मामले में होता है. 2003 में कहर बरपाने वाले कोरोना वायरस, सार्स-कोव की वैक्सीन विकसित न हो पाने का एक बड़ा कारण एडीई ही रहा था.
तीसरा चरण पार करने के बाद वैक्सीन को इस्तेमाल की अनुमति दे दी जाती है. लेकिन कुछ वैक्सीन चौथे चरण के परीक्षण के लिए भी जाती हैं जिसे पोस्ट मार्केट सर्विलांस कहा जाता है. यह निगरानी एक तरह से किन्हीं विशेष परिस्थितियों में वैक्सीन के कुछ दुर्लभ साइड इफेक्ट्स की जानकारी जुटाने के लिए की जाती है.
सबसे ज्यादा भरोसेमंद वैक्सीन कैंडिडेट्स किन्हें माना जा रहा है?
कोविड-19 जैसी महामारियों से निपटने के लिए लगभग तीन साल पहले, कोअलीशन फॉर पैन्डेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन (सेपी) नाम का एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाया गया था. सेपी, कोविड-19 वैक्सीन से जुड़े कई बड़े प्रोजेक्ट्स की फंडिंग और मॉनीटरिंग कर रहा है. इनमें ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी-एस्ट्राजेनेका की ‘कोवीशील्ड’, मोडेर्ना-यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शस डिजीज द्वारा बनाई जा रही ‘एमआरएनए-1273’ (mRNA-1273), अमेरिका में ही विकसित की जा रही अन्य वैक्सीन ‘नोवावैक्स’, कैनसिनो बायोलॉजिक्स-बीजिंग इंस्टीट्यूट ऑफ बायोटेक्नोलजी की ‘एडी5-एनकोव’ (Ad5-nCoV) और जर्मनी की ‘क्योरवैक’ वैक्सीन जैसे प्रोजेक्ट शामिल हैं. ये सभी वैक्सीन अपने दूसरे या तीसरे चरण के ट्रायल में पहुंच चुकी हैं और इन चरणों में अपने सकारात्मक नतीजों के चलते दुनिया भर में उम्मीद की नज़रों से देखी जा रही हैं.
इनमें से सबसे आगे चल रही वैक्सीन, ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी और ब्रिटिश-स्वीडिश फार्मा कंपनी एस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित की जा रही है. वैज्ञानिक इसे ChAdOx1 nCoV-19 वैक्सीन कहकर संबोधित कर रहे हैं और अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में यह ‘ऑक्सफर्ड वैक्सीन’ के नाम से जानी जा रही है. भारत में इसे ऑक्सफर्ड वैक्सीन के साथ-साथ कोवीशील्ड के नाम से भी जाना जाता है. कोवीशील्ड को साधारण सर्दी-जुकाम के लिए जिम्मेदार अडिनोवायरस के एक वर्जन से बनाया जा रहा है. शोधकर्ताओं ने चिंपांजियों में पाए जाने वाले इस वायरस की जेनेटिक सूचना में बदलाव किया है और उसमें कोरोना वायरस के स्पाइक्स प्रोटीन की जेनेटिक सूचनाएं जोड़ी हैं. अगर आपने कभी कोरोना वायरस की संरचना पर ध्यान दिया हो तो इसके बाहरी सिरे की आकृति कांटेदार दिखाई देती है. यही कांटे या स्पाइक्स शरीर की कोशिकाओं से जुड़कर उसे संक्रमित करते हैं. इन स्पाइक्स पर मौजूद प्रोटीन ही शरीर की कोशिकाओं से जुड़ता है. वैक्सीन में इसका इस्तेमाल करने से शरीर इस प्रोटीन को पहले से ही पहचानने लगेगा और संक्रमण होने पर इम्यून सिस्टम इससे लड़ सकेगा.
साइंस जरनल द लैंसेट पर 20 जुलाई को कोवीशील्ड के पहले और दूसरे चरण के नतीजे प्रकाशित किए गए थे जो बताते हैं कि इन चरणों में वैक्सीन सुरक्षित पाई गई है. प्रयोग में हिस्सा लेने वालों ने इंजेक्शन की जगह पर थोड़े दर्द और हल्के बुखार के अलावा, वैक्सीन के किसी गंभीर असर की शिकायत नहीं की है. कोवीशील्ड के नतीजे यह भी बताते हैं कि वैक्सीन शरीर के इम्यून सिस्टम को नए कोरोना वायरस (सार्स-कोव2) के लिए विशेष टी-सेल्स बनाने के लिए प्रेरित करती है. टी-सेल्स शरीर में मौजूद श्वेत रक्त कोशिकाओं का वह समूह होता है जो रोगजनक सूक्ष्मजीवों यानी बैक्टीरिया या वायरसों का मुकाबला करता है.
इसके अलावा, पहले और दूसरे चरण के नतीजे यह भी बताते हैं कि वैक्सीन एंटीबॉडीज को निष्क्रिय करती है या सरल भाषा में कहें तो शरीर के उन अणुओं को निष्क्रिय करती है जो वायरस से जुड़ जाते हैं और संक्रमण के आगे बढ़ने की वजह बनते हैं. शोधकर्ता बताते हैं कि ऑक्सफर्ड वैक्सीन टी-सेल्स रिस्पॉन्स को शुरू करने में 14 दिन और एंडीबॉडी रिस्पॉन्स के लिए 28 दिन का समय लेती है. इनके मुताबक टी-सेल्स का बनना और एंटीबॉडीज का निष्क्रिय होना, वायरस का दोहरा असर है जो वैक्सीन के सफल होने की संभावनाएं कई गुना बढ़ा देता है. शरीर में होने वाली इन प्रक्रियाओं को इम्युनोजेनेसिटी विकसित होना कहा जाता है.
ऑक्सफर्ड वैक्सीन का तीसरे चरण का ट्रायल जुलाई के दूसरे पखवाड़े में शुरू हो चुका है. ब्राजील में जहां इसके लिए 5,000 और दक्षिण अफ्रीका में 2000 वॉलंटीयर्स को रजिस्टर किया गया है, वहीं ब्रिटेन में 10,500 और अमेरिका में 30,000 लोगों पर इसका परीक्षण किए जाने की तैयारी की जा रही है. इसके साथ ही भारत में भी दिल्ली, जोधपुर और पुणे में इसके ट्रायल के लिए रजिस्ट्रेशन शुरू कर दिए गए हैं. जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया था कि आम तौर पर तीसरे चरण के परीक्षण में दस हजार के आसपास का सैंपल साइज रखा जाता है. लेकिन ऐसा सामान्य परिस्थितियों में ही किया जाता है. चूंकि कोविड-19 अपने फैलाव और शरीर पर असर के मामले में बहुत घातक है और वैक्सीन को जल्द से जल्द तैयार भी किया जा रहा है, इसलिए बड़ा सैंपल साइज रखकर वैज्ञानिक इसमें गलतियों की गुंजाइश को खत्म कर देना चाहते हैं.
वैक्सीन आने में अभी कितना समय और लग सकता है?
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राजेनेका दुनिया भर में क्लीनिकल पार्टनर्स यानी वैक्सीन का उत्पादन करने वालों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. ब्रिटेन और अमेरिका की सरकारों समेत सेपी, यूरोप की इन्क्लूसिव वैक्सीन अलायंस (आईवीए), अपेक्षाकृत गरीब देशों तक वैक्सीन पहुंचाने के लिए बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन द्वारा बनाया गया संगठन – गावी द वैक्सीन अलायंस और भारत के सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के साथ इनका करार हुआ है. अगर वैक्सीन सफल रहती है तो उम्मीद की जा रही है कि जनवरी 2021 तक ये सभी संस्थान मिलकर इसके लगभग 200 करोड़ डोज तैयार कर देंगे.
हाल ही में अमेरिका के हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विस डिपार्टमेंट ने एस्ट्राजेनेका को कोवीशील्ड वैक्सीन बनाने की रफ्तार बढ़ाने और इसके 30 करोड़ डोज बनाने के लिए लगभग 1.2 बिलियन डॉलर (नौ हजार करोड़ रुपए) की मदद देने की घोषणा की है. हालांकि अमेरिकी सरकार से मिलने वाली यह मदद कोवीशील्ड के साथ-साथ मोडेर्ना और नोवावैक्स को भी दी गई है, जो कि कोरोना वैक्सीन के सबसे मजबूत दावेदारों में शामिल हैं. लेकिन उम्मीद की जा रही है कि सबसे पहले यानी अक्टूबर तक कोवीशील्ड के ही नतीजे आ पाएंगे, इसलिए इसके तुरंत बाद इसका उत्पादन शुरू किए जाने की तैयारी की जा रही है. अगर शुरूआती दौर में आने वाले ये वैक्सीन कैंडिडेट्स सफल रहते हैं तो बहुत संभावना है कि 2021 की पहली तिमाही में कोई एक या दो वैक्सीन आम जनता के लिए उपलब्ध हो जाएगी.
भारत कोवीशील्ड से उम्मीद क्यों रख सकता है?
भारत की बात करें तो यहां पर सरकार के स्तर ऐसी किसी मदद की घोषणा नहीं की गई है लेकिन जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है कि भारत की वैक्सीन निर्माता कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) ने ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राजेनेका के साथ साझेदारी की है. अगर उत्पादन के लिहाज से देखें तो एसआईआई दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन निर्माता कंपनी है जो अपेक्षाकृत बहुत कम कीमतों पर दुनिया के 70 फीसदी बच्चों के लिए विभिन्न वैक्सीनें मुहैया करवाती है.
हालांकि कई बार दूसरे और तीसरे चरण में अच्छे नतीजे देने वाली वैक्सीन भी तीसरे चरण में आकर असफल हो जाती हैं. एचआईवी वैक्सीन इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है जिसका परीक्षण इसी साल मार्च में रोक दिया गया है. लेकिन कोवीशील्ड को लेकर एसआईआई और एस्ट्राजेनेका समेत कई फार्मा कंपनियां और दुनिया भर की सरकारें जिस तरह से बड़े रिस्क लेकर भी प्रोडक्शन की तैयारियां करती दिख रही हैं, उससे यही लगता है कि इसके सफल होने की संभावनाएं ज्यादा हैं.
एसआईआई के सीईओ अदर पूनावाला ने पिछले दिनों दिए अपने कई साक्षात्कारों में बताया है कि उनकी कंपनी की कई वैक्सीनों का प्रोडक्शन पिछले दिनों सिर्फ इसलिए रोक दिया, ताकि वे कोविड-19 की वैक्सीन बनाने के लिए अपने संसाधन तैयार रख सकें. एक अन्य बातचीत में वे कोवीशील्ड पर बात करते हुए कहते हैं कि ‘अगस्त के दूसरे हफ्ते से भारत में कोवीशील्ड का तीसरे चरण का परीक्षण शुरू होने जा रहा हैं और हम उसी समय इसका प्रोडक्शन शुरू करने जा रहे हैं. इस प्रोडक्शन की लागत लगभग 200 मिलियन डॉलर (डेढ़ हजार करोड़ रुपए) होगी जो हमारे लिए एक बहुत बड़ी कीमत है. इससे वैक्सीन के लगभग 30 से 40 करोड़ डोज तैयार किए जाएंगे. लेकिन अगर यह वैक्सीन फेल होती है तो हम इतने ही बड़े नुकसान में भी होंगे जिसमें यह भी शामिल होगा कि इतने समय और संसाधनों में हम कुछ और कर सकते थे.’
पूनावाला अपनी बातचीत में यह जानकारी भी देते हैं कि एसआईआई कोवीशील्ड के अलावा चार अन्य वैक्सीन कैंडिडेट्स पर भी काम कर रही है जिसमें शामिल नोवावैक्स और कोवैक्स के अलावा दो कैंडिडेट्स ऐसे हैं जिन्हें विकसित करने का काम कंपनी खुद कर रही है. लेकिन कोवीशील्ड के मामले में बड़ा रिस्क लेने की वजह बताते हुए अदर पूनावाला कहते हैं कि ‘शुरूआत से ही इस रिसर्च का स्केल बड़ा रखा गया है जैसे कि पहले चरण में मोडेर्ना और सिनोवैक ने जहां महज 50-60 लोगों पर परीक्षण किया था, वहीं कोवीशील्ड का परीक्षण 1000 लोगों पर किया गया था. इसके अलावा इस वैक्सीन के परीक्षण में शामिल लोगों के लिए इम्युनोजेनेसिटी का आंकड़ा भी लगभग 90 फीसदी है, वहीं बचे हुए दस फीसदी लोगों में दूसरे डोज के बाद रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई. अब अब एक बहुत बड़े समूह पर परीक्षण करके यह पता लगाना बाकी रह गया है कि वैक्सीन सचमुच कोविड-19 से बचाव करती है या नहीं. हालांकि अभी पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है लेकिन ये तमाम बातें वैक्सीन से उम्मीद लगाने और रिस्क लेने की वजह बन जाती हैं.’
जहां तक एचआईवी की वैक्सीन के तीसरे चरण में असफल होने की बात है, पूनावाला बताते हैं कि उसके पहले और दूसरे चरण के परीक्षण को कोवीशील्ड के मुकाबले बहुत सीमित लोगों पर किया गया था. इसलिए कोरोना वायरस की वैक्सीन के सफल होने की संभावना एचआईवी वैक्सीन से कहीं ज्यादा है.
ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया द्वारा भारत में कोवीशील्ड के दूसरे-तीसरे चरणों के परीक्षण को अनुमति देना इन मायनों में भी महत्वपूर्ण है कि इससे भारत की अलग-अलग विशेषताओं (एथनिसिटी) वाली जनसंख्या पर इसके असर का अंदाज़ा भी लगाया जा सकेगा. दूसरी तरफ, एसआईआई द्वारा लिया जा रहा यह रिस्क, यह बात पक्की कर देता है कि जब भारतीय कंपनी वैक्सीन का उत्पादन करेगी तो भारत में इसकी उपलब्धता को वरीयता दी जाएगी. हाल ही में एसआईआई ने घोषणा भी की है कि कंपनी 60 देशों के लिए वैक्सीन बनाएगी लेकिन इसके लगभग 50 फीसदी यानी 15 से 20 करोड़ डोज भारत के लिए होंगे. ऐसा भी हो सकता है कि यह वैक्सीन एक डोज़ के बजाय दो खुराकों में अपना सही असर दिखाये. फिर भी अगर इसका परीक्षण सफल रहा तो अगले साल की शुरुआत में ही इससे करीब 10 करोड़ सबसे ज्यादा असुरक्षित भारतीयों को कोरोना वायरस से सुरक्षा दी जा सकती है.
जहां तक ऐसे लोगों तक वैक्सीन पहुंचने का सवाल है, अदर पूनावाला अपनी एक बातचीत में कहते हैं कि शुरूआत में उनकी कंपनी सरकार को वैक्सीन की सप्लाई करेगी ताकि जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है उन लोगों तक यह आसानी से और हो सके तो बिना शुल्क के पहुंच सके. वहीं, महामारी से निजात मिलने के बाद वे इसकी बाज़ार कीमत 1000 रुपए के नीचे रखे जाने की बात कहते हैं. उनके इस बयान के तकरीबन दो हफ्ते बाद, हाल ही में एसआईआई ने भारत समेत कई अपेक्षाकृत गरीब देशों के लिए कोवीशील्ड की कीमत मात्र 225 रुपए रखे जाने की घोषणा भी की है.
कुल मिलाकर, अगर कोवीशील्ड के मामले में सबकुछ वैसा ही रहा जैसा होने की संभावना बहुत ज्यादा है, तो अगले साल की पहली तिमाही तक भारत में ज्यादातर लोगों के लिए कोरोना वायरस की वैक्सीन उपलब्ध हो जाएगी. इसका एक मतलब यह भी है कि कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई में अब इस मुकाम पर आकर थकने या लापरवाह होने की जरूरत नहीं है. बस अगले छह महीने तक जितना हो सके इससे बचकर रहने की ज़रूरत है.
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