कोरोना वायरस के संक्रमितों में 2-3 महीनों में ही एंटीबॉडीज भी कम होते देखे गये हैं. इससे हर्ड इम्यूनिटी और वैक्सीन की उम्मीदों पर क्या असर पड़ता दिखता है
अंजलि मिश्रा | 14 नवंबर 2020 | फोटो: फैक्टली.इन
अगस्त और सितंबर में देश में कोरोना वायरस से दोबारा संक्रमित होने के तीन मामले दर्ज किए गए हैं. बीते महीने भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के महानिदेशक डॉ बलराम भार्गव ने मीडिया को इसकी जानकारी देते हुए बताया था कि दोबारा कोरोना संक्रमण (कोविड रिइन्फेक्शन) का एक मामला अहमदाबाद में और दो मुंबई में पाए गए हैं. इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि आईसीएमआर ने देश में दोबारा संक्रमण के मामलों की पहचान के लिए 100 दिनों की समय सीमा भी तय कर दी है. यानी, अगर कोरोना संक्रमण ठीक होने के 100 दिनों बाद किसी को दोबारा संक्रमण होता है तो ही इसे कोविड पुनर्संक्रमण (रिइन्फेक्शन) का केस माना जाएगा. इस बातचीत में डॉक्टर भार्गव का यह भी कहना था कि 100 दिनों के बाद, कोरोना संक्रमित हो चुके लोगों में एंटीबॉडीज (वायरस से लड़ने वाली कोशिकाएं) घटने लगती हैं जिसके कारण उन्हें दोबारा यह संक्रमण हो सकता है. इसलिए ऐसे लोगों को खुद को इम्यून मानने के बजाय मास्क लगाने, हाथ धोने और सोशल डिस्टेंसिंग जैसी सावधानियों का पालन बाकी लोगों की तरह ही करते रहना चाहिए.
हालांकि जानकार आईसीएमआर के इस निर्देश को बिना सोच-समझे लिया गया फैसला बता रहे हैं. इसके पीछे वे तर्क देते हैं कि दुनिया भर में महज 15-20 दिनों के बाद ही दोबारा कोरोना संक्रमण होने के मामले सामने आए हैं. भारत में ही, अगस्त में तेलंगाना में 2 और मुंबई में 4 ऐसे मामले देखने को मिल चुके हैं लेकिन चूंकि ये आईसीएमआर की 100 दिनों की सीमा में नहीं फिट होते हैं, इसलिए इन्हें रिइन्फेक्शन का मामला नहीं माना जा रहा है. महामारी विशेषज्ञों का कहना है कि कुछ शुरूआती शोधों के आधार पर आईसीएमआर ने मान लिया है कि कोरोना संक्रमण के बाद एंटीबॉडीज की उम्र दो-तीन महीने होती है और इसी के आधार पर 100 दिनों का कटऑफ घोषित कर दिया गया है. जानकारों के मुताबिक कोरोना एक नया वायरस है जिसके बारे में अभी भी लगातार नई जानकारियां सामने आ रही हैं और रिइन्फेक्शन इसमें सबसे नई बात है. इसलिए इस तरह के मामलों में फिक्स्ड कटऑफ सही आंकड़ों तक पहुंचने में बाधा साबित हो सकता है. वैज्ञानिकों की सलाह है कि कटऑफ पर निर्भर रहने के बजाय कोविड रिइन्फेक्शन के मामलों की पहचान के लिए, इस पर बारीक समझ विकसित करने और रिइन्फेक्शन को कंफर्म करने वाले मौजूदा तकनीकी उपायों को हासिल करने पर विचार किया जाना चाहिए.
कोविड रिइन्फेक्शन से जुड़ी सबसे शुरुआती खबर अगस्त में हांगकांग से आयी थी जहां एक मामले में साढ़े चार महीने बाद कोरोना संक्रमण फिर लौटा था. इसके बाद अगस्त और सितंबर में अमेरिका, भारत और यूरोप में दोबारा संक्रमण के मामले दर्ज किए गए. इस पर बात करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की प्रमुख वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन का कहना था कि ‘एक बार ठीक होने के बाद भी कोरोना संक्रमण हो सकता है. लेकिन अच्छी बात यह है कि बहुत कम लोगों के साथ ही ऐसा हुआ है. दुनिया भर में अब तक महज दो दर्जन लोग ही दोबारा कोविड संक्रमण का शिकार हुए हैं.’
डब्ल्यूएचओ की वैज्ञानिक द्वारा बताए गए इन आंकड़ों पर कितना भरोसा किया जा सकता है, यह सोचने वाली बात होनी चाहिए. वह भी तब, जब भारत का उदाहरण सामने है जहां ठीक होने के बाद 100 दिनों तक होने वाले संक्रमणों को कोविड रिइन्फेक्शन के मामलों में नहीं गिना जा रहा है. इसके अलावा, यह बात भी ध्यान खींचने वाली हैं कि भारत में कोविड रिइन्फेक्शन की पहचान के लिए जहां 100 दिनों की समयसीमा रखी गई है, वहीं अमेरिका ने इसके लिए 90 दिन निर्धारित किए हैं. अन्य देशों के मामले में भी समय सीमा अलग-अलग हो सकती है, इसलिए डब्ल्यूएचओ के बयान के बावजूद यह कह पाना मुश्किल लगता है कि इस समय दुनिया भर में दोबारा कोविड संक्रमण के कुल कितने मामले हैं.
कोविड रिइन्फेक्शन पर बढ़ रही चिंताओं पर वैज्ञानिकों के एक तबके का कहना है कि कुछ मामलों के सामने आने का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि लोगों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित नहीं हो रही है. वे कहते हैं कि कोरोना संक्रमण की जांच में अभी कई त्रुटियां हैं जो संक्रमण होने या ना होने की गलत सूचना दे सकती हैं. यानी किसी संक्रमित व्यक्ति में कोरोना वायरस के जीनोम बहुत कम रह जाने पर भी उसकी जांच रिपोर्ट निगेटिव आ सकती है. ऐसे में कुछ दिनों में फिर कोविड-19 के लक्षण उभर सकते हैं. विषाणु विज्ञानी कहते हैं कि किसी को दोबारा संक्रमण हुआ है या नहीं, इस बात का पता केवल वायरस के जीनोम (जेनेटिक कोड) की सीक्वेंसिंग करके ही लगाया जा सकता है. इसकी तकनीक अभी बहुत सीमित पैमाने पर ही उपलब्ध है, इसलिए कोविड रिइन्फेक्शन के मामलों की संख्या बता पाना अभी व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है.
सौम्या स्वामीनाथन समेत दुनिया भर के कई वैज्ञानिक बताते हैं महामारियों के मामले में अक्सर ही दोबारा संक्रमण देखने को मिलता है. लेकिन ऐसा होने पर आम तौर पर इसके बहुत हल्के-फुल्के लक्षण ही उभरते हैं. तो फिर कोरोना वायरस से जुड़े कुछ मामलों में इसका गंभीर असर देखने को क्यों मिल रहा है, इस पर किसी शोध के अभाव में वैज्ञानिक अंदाज़ा लगाते हुए यह तो बताते हैं कि ऐसा एक ही वायरस के अलग स्ट्रेन्स से होने वाले संक्रमण की वजह से हो सकता है लेकिन उससे बचाव या इलाज का कोई तरीका फिलहाल वे नहीं सुझा पाते हैं. कुल मिलाकर, कोविड रिइन्फेक्शन की पहचान से लेकर इससे बचाव तक के बारे में, वैज्ञानिक तबका अभी कोई भी ठोस बात कहता नहीं दिख रहा है.
रिइन्फेक्शन की अनिश्चितताओं के बीच हाल ही में हुए कुछ शोध भी कोरोना वायरस को लेकर भ्रम की वजह बनते दिख रहे हैं. जून के महीने में साइंस जरनल नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि कोरोना वायरस का संक्रमण होने पर बनने वाले एंटीबॉडीज महज दो महीने तक ही शरीर में रहते हैं. कुछ इसी तरह की बात, जून से सितंबर के बीच इंपीरियल कॉलेज, लंदन में हुआ एक शोध भी दोहराता है. 3,65,000 लोगों पर किया गया यह शोध बताता है कि पहले संक्रमण का शिकार हो चुके लोगों में महज तीन महीनों में एंटीबॉडीज कम हो गए हैं. शोध में शामिल लगभग 27 फीसदी लोगों में यह गिरावट दर्ज की गई है. शुरूआत में इनके शरीर में जहां छह फीसदी एंटीबॉडीज मौजूद थे, वहीं कुछ समय बाद ये केवल 4.4 फीसदी ही पाए गए.
कोराना वायरस को लेकर फैला भ्रम कई चिंताओं को जन्म दे रहा है. एक तरफ संक्रमण के चलते प्राकृतिक रूप से हर्ड इम्यूनिटी की तरफ बढ़ने की बात एक लंबे समय से कही जा रही है, और दूसरी तरफ वैक्सीन के जरिए एंटीबॉडीज विकसित कर महामारी से बचाव खोजे जाने की उम्मीद भी की जा रही है. लेकिन रिइन्फेक्शन के मामलों और एंटीबॉडीज घटने से जुड़े शोधों के चलते लोग इस घबराहट का शिकार हो रहे हैं कि कोरोना वायरस से बचने का कोई रास्ता निकट भविष्य में मिलेगा भी या नहीं. ऐसे में रिइन्फेक्शन के सीमित मामले ही सामने आना जहां थोड़ी राहत देता है, वहीं जानकारों का यह कहना भी थोड़ा ढाढस बंधा सकता है कि महज एंटीबॉडीज कम होना चिंता का विषय नहीं होना चाहिए.
एंटीबॉडीज कम होने पर थोड़ा और विस्तार से बात करें तो वैज्ञानिक कहते हैं कि संक्रमण से उबरने के कुछ समय बाद ऐसा हो जाना स्वाभाविक ही है. यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिल्वेनिया के इम्युनोलॉजिस्ट डॉ स्कॉट हेंसली के मुताबिक ‘संक्रमण ठीक होने के बाद एंटीबॉडीज का कम होना सामान्य हेल्दी इम्यून रिस्पॉन्स की पहचान है. जब संक्रमण होता है तो उससे लड़ने के लिए एंटीबॉडीज की जरूरत हो जाती है, संक्रमण के ठीक होने पर उनका कोई काम नहीं है, इसलिए उनकी संख्या कम हो जाती है. इसका मतलब यह नहीं है कि आगे ऐसे लोगों के शरीर में एंटीबॉडीज नहीं बनेगें या वे संक्रमण से सुरक्षित नहीं रह सकेंगे.’ वैज्ञानिक कहते हैं कि अक्सर वायरल संक्रमणों के मामले में इम्युनिटी की बात करते हुए केवल एंटीबॉडीज का ही जिक्र किया जाता है क्योंकि इन्हें आसानी से मापा जा सकता है लेकिन एंटीबॉडीज हमारे इम्यून रिस्पॉन्स का एक हिस्सा भर होते हैं.
जहां तक एंटीबॉडीज घटने से वैक्सीन के असरकारी या सफल न हो पाने का सवाल है, वैज्ञानिक कहते हैं कि इन्फेक्शन से पैदा हुई प्रतिरोधक क्षमता और वैक्सीन से तैयार की जाने वाली प्रतिरोधक क्षमता में अंतर होता है. वैक्सीन शरीर में होने वाले प्राकृतिक इम्यून रिस्पॉन्स की नकल नहीं बनाती है बल्कि यह अधिक प्रभावी व्यवस्था तैयार कर इम्यून रिस्पॉन्स को और मजबूत बनाती है. दरअसल, वैक्सीन द्वारा किसी वायरल संक्रमण से बचाव करने के लिए शरीर में पैथोजीन्स मेमोरी (वायरस की मेमोरी बी-सेल्स) तैयार की जाती है जिससे शरीर में टी-सेल रिस्पॉन्स (संक्रमण से लड़ने की प्रक्रिया) शुरू होता है. एंटीबॉडीज कम होने की सूरत में भी शरीर में वैक्सीन से बनी यह मेमोरी और रिस्पॉन्स सक्रिय रहते हैं. यानी एंटीबॉडीज का कम होना वैक्सीन के चलते पैदा हुई प्रतिरोधक क्षमता के बनने में कोई बाधा नहीं बनता है.
इंपीरियल कॉलेज, लंदन में हुए जिस शोध का जिक्र ऊपर किया गया है, वह कुछ और दिलचस्प बातें बताता हैं. मसलन, शोध बताता है कि एशियाई या अश्वेत लोगों की तुलना में श्वेत लोगों में एंटीबॉडीज के घटने की दर ज्यादा है. इसी तरह इसमें यह भी कहा गया है कि 18 से 24 साल के युवाओं में एंटीबॉडीज के कम होने की दर सबसे कम थी और उम्र बढ़ने के साथ यह बढ़ रही थी. यानी 75 साल या इससे अधिक उम्र के लोगों में एंटीबॉडीज के कम होने की दर सबसे अधिक थी. इसके अलावा, इनमें ज्यादातर यानी 73 फीसदी संख्या उन लोगों की थी जिनमें एंटीबॉडीज की मात्रा में कोई बदलाव नहीं आया था. हालांकि अभी इस शोध पर विचार-विमर्श किया जाना और इसे आधिकारिक रूप से प्रकाशित किया जाना बाकी है. लेकिन किन्हीं खास नस्लों और आयुवर्ग में एंटीबॉडीज घटने की दर कम-ज्यादा होना, महामारी से निपटने के लिए एक नई रणनीति को अपनाने पर जोर देने की बात कहते लगते हैं.
दरअसल, हाल ही में दुनिया भर के 15 हज़ार से अधिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने कोरोना वायरस से निपटने के लिए अपनाये जा रहे लॉकडाउन जैसे उपायों की खामियों और उन्हें दूर करने के तरीके बताने वाले एक घोषणापत्र पर दस्तखत किए हैं. ग्रेट बैरिंग्टन डिक्लरेशन नाम का यह पत्र कोरोना महामारी से निपटने के लिए ‘फोकस्ड प्रोटेक्शन’ को अपनाने का सुझाव देता है. इसके मुताबिक कोरोना संक्रमण के मामलों में एक बड़े तबके में रिकवरी के बाद अब धीरे-धीरे दुनिया हर्ड इम्यूनिटी की ओर बढ़ रही है. कोरोना वायरस का वैक्सीन इस प्रक्रिया को तेज़ कर सकता है. लेकिन वहां तक पहुंचने से पहले हमें इस तरह की नीति अपनानी होगी जिससे लॉकडाउन की वजह से होने वाले सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक और मानसिक नुकसान और कोविड-19 से होने वाली मौतें कम से कम हों. घोषणापत्र के मुताबिक इस समय जिन लोगों को कोरोना वायरस से गंभीर नुकसान होने का खतरा सबसे कम है, यानी युवा और स्वस्थ लोग, वे सामान्य जीवन की तरफ कदम बढ़ा सकते हैं. वहीं, जिन लोगों पर कोरोना संक्रमण का सबसे ज्यादा असर हो सकता है उनके लिए अधिक से अधिक सुरक्षा उपायों को अपनाना चाहिए. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो आने वाले समय में चौतरफा ऐसा नुकसान देखने को मिलेगा जिसकी भरपायी कर पाना संभव नहीं होगा.
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