ई-कार

Science-Technology | पर्यावरण

क्या बैटरी से चलने वाली गाड़ियां उतनी ही अच्छी हैं जितना उन्हें बताया और समझा जा रहा है?

दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने फैसला किया है कि उसके सभी विभागों में अब बैटरी से चलने वाली गाड़ियां (ईवी) ही इस्तेमाल होंगी

राम यादव | 26 March 2021 | फोटो: पिक्साबे

राइन नदी के तट पर बसा मात्र 10 लाख की जनसंख्या वाला कोलोन जर्मनी का चौथा सबसे बड़ा शहर है. इस शहर में आज भी दो ऐसी जगहें हैं जहां बैटरी से चलने वाली सवा सौ वर्ष तक पुरानी कारें और कुछ दूसरे वाहन देखे जा सकते हैं. जर्मनी, पेट्रोल या डीज़ल से चलने वाली संसार की पहली कारों का ही नहीं, बिजली यानी बैटरी से सड़क पर चलने वाले पहले वाहनों का भी देश है.

कोलोन में ही, 1898 में, बैटरी से चलने वाली जर्मनी की पहली इलेक्ट्रिक यानी ई-कार बनी थी. 1904 तक ऐसी कारें बनने लगी थीं जो एक बार में 100 किलोमीटर दूर तक जा सकती थीं. समय के साथ बैटरी-चालित दूसरे वाहन भी बने. 1906 में कोलोन की नगरपालिका के लिए पहली एम्बुलेंस गाड़ी और 1914 में आग बुझाने का पहला दमकल वाहन बना. एम्बुलेंस की गति 20 और दमकल की गति 35 किलोमीटर प्रति घंटा थी. लेकिन जिस प्रकार महंगी क़ीमत और कम पहुंच वाली आजकल की ई-कारें ज्यादा तेज़ी से लोकप्रिय नहीं हो पा रही हैं, उसी तरह सौ साल पहले की बिजली-चालित कारों को भी पेट्रोल या डीज़ल कारों की लंबी पहुंच के आगे, हार माननी पड़ी. समय के साथ पेट्रोल या डीज़ल वाली और जर्मनी में बनी मर्सिडीज़, पोर्शे, बीएमडब्ल्यू या फॉक्सवागन कारों और अन्य वाहनों की दुनिया भर में धूम मच गयी. आज स्थिति यह है कि इसी ख्याति को बनाये रखने के मोह में जर्मन कार-उद्योग, बिजली-चालित कारों के विकास और निर्माण में अमेरिका, चीन या जापान से पिछड़ गया है. जर्मनी की अन्यथा पर्यावरण के प्रति बहुत सचेत जनता भी बिजली-चालित कारें ख़रीदने के लिए उतनी उत्सुक नहीं दिखती.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, हर परिवार के पास औसतन दो कारों वाले जर्मनी की सड़कों पर एक जनवरी 2021 तक करीब छह लाख इलेक्ट्रिक कारें चल रही थीं जो देश में कुल पंजीकृत कारों का सिर्फ 1.2 फीसदी है. इनकी संख्या तेजी से बढ़ाने के लिए सरकार 60, 000 यूरो (1 यूरो= करीब 89 रु.) मूल्य तक की विशुद्ध बिजली-चालित कार खरीदने पर 4,000 यूरो और बिजली-पेट्रोल मिश्रित ‘प्लग-इन हाइब्रिड’ कार के लिए 3,000 यूरो ‘पर्यावरण बोनस’ देती है. यूरोप के अन्य देश भी बिजली-चालित कारों की बिक्री बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील हैं. हालांकि इन सरकारी प्रलोभनों का कोई विशेष प्रभाव होता दिख नहीं रहा है.

कारण अनेक हैं. बिजली से चलने वाली कारें बहुत महंगी होती हैं और एक बार चार्ज करने पर उनके द्वारा तय की जाने वाली दूरी बहुत कम होती है. बैटरी री-चार्ज करने में कुछेक घंटे लग सकते हैं. री-चार्ज की सुविधा वाले पेट्रोल पंप, चार्जिंग स्टेशन या चार्जिंग प्वाइंट काफी कम हैं. सरकार 2020 तक जर्मनी में एक लाख ऐसी सुविधाएं चाहती थी. अप्रैल 2019 तक उनकी कुल संख्या केवल 14,322 ही हो पायी थी. इसके बाद कोरोना वायरस की वजह से इस मामले में भी ज्यादा कुछ नहीं हो सका. ऊपर से चार्जिंग के सॉकेट और प्लग भी एक समान नहीं. घरों या मकानों में लगने वाले साधारण सॉकेट से चार्जिंग के दौरान उनके बहुत गर्म हो जाने से आग लग जाने का ख़तरा भी रहता है.

लेकिन इस मामले में सबसे बड़ी समस्या है बैटरी. उसके निर्माण और री-चार्जिंग संबंधी बारीकियों को नजरअंदाज करके बिजली-चालित कारों को पर्यावरण और जलवायुरक्षा के सबसे अनुकूल बताना विज्ञापन और बहकावा है, न कि वास्तविकता! दुनिया की सभी सरकारें फिलहाल इस बहकावे में आ गयी लगती हैं. भारत सरकार के बारे में भी यह कहा जा सकता है जिसने 2030 तक वाहनों की सकल बिक्री में इलेक्ट्रिक कारों का हिस्सा 30 प्रतिशत कर देने का लक्ष्य रखा है. इस सिलसिले में ताजा खबर यह है कि दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार ने अपने सभी विभागों और संस्थानों में सिर्फ इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल करने का फैसला किया है. इसके तहत पेट्रोल, डीजल और सीएनजी से चलने वाले मौजूदा वाहनों को छह महीने में इलेक्ट्रिक वाहनों से बदल दिया जाएगा. फिलहाल दिल्ली सरकार के दफ्तरों में करीब 2000 वाहनों का बेड़ा है. उसका कहना है कि यह फैसला पर्यावरण संरक्षण के लिए लिया गया है.

जर्मनी के ऑटोमोबाइल और पर्यावरण विशेषज्ञ लंबे समय से बिजली-चालित वाहनों और जलवायु तथा पर्यावरण पर उनके प्रभावों की गहराई से छानबीन करते रहे हैं. यदि वे स्वयं ऑटोमोबाइल उद्योग पर निर्भर नहीं हैं, तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचते रहे हैं कि इस समय की बिजली-चालित कारें जलवायु या पर्यावरण में वैश्विक स्तर पर सुधार लाने के लिहाज से फिलहाल तो ठीक नहीं हैं.

इस सिलसिले में अप्रैल 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन का जिक्र किया जा सकता है. जिस कोलोन शहर में 1898 में बैटरी से चलने वाली पहली कार बनी थी, वहीं के भौतिक विज्ञान के एक प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफ़ बुख़ाल ने इसका निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है, ‘इलेक्ट्रिक कार का जलवायु-सम्मत प्रभाव केवल कागज़ी है. वास्तविकता यह है कि उसके कारण कार्बन-डाईऑक्साइड का उत्सर्जन कुल मिलाकर और बढ़ेगा.’ प्रो. बुख़ाल ने पाया कि कार की बैटरी के निर्माण और उसे री-चार्ज करने में लगने वाली बिजली और जर्मनी में बिजली उत्पादन के विभिन्न स्रोतों का इस समय जो मिश्रण है, उस सबको मिला कर देखने पर बिजली-चालित कारें, डीज़ल से चलने वाली कारों की अपेक्षा, जलवायु पर 11 से 18 प्रतिशत तक अधिक बोझ डालेंगी.

ध्यान देने की बात है कि 2018 में जर्मनी में 40.2 प्रतिशत बिजली सौर, पवन, पानी और बायोमास जैसे अक्षय या नवीकरणीय स्रोतों से बन रही थी. नॉर्वे को छोड़ कर संसार में शायद ही कोई ऐसा देश होगा, जहां बिजली बनाने में नवीकरणीय ऊर्जा का इतना बड़ा हिस्सा है. ऐसे में यदि बैटरी वाली कार से जर्मनी में कार्बन-डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 18 प्रतिशत तक बढ़ सकता है, तो भारत सहित उन देशों में तो और अधिक बढ़ना चाहिये, जहां बिजली बनाने में रिन्यूएबल ऊर्जा-स्रोतों का हिस्सा जर्मनी के मुकाबले बहुत कम है.

प्रोफ़ेसर बुख़ाल का अपने अध्ययन में कहना है कि बिजली-चालित कारों में जिन लीथियम-आयन बैटरियों का इस्तेमाल होता है, उन्हें बनाने में लीथियम के अतिरिक्त कोबाल्ट और मैंगनीज़ जैसे दुर्लभ खनिज लगते हैं. उन्हें पाने ओर शोधित करने में बहुत अधिक बिजली ख़र्च करनी पड़ती है. उदाहरण के लिए, अमेरिका में एलन मस्क की बनायी और इस समय सबसे अधिक बिक रही ‘टेस्ला-3’ में लगी हर बैटरी के उत्पादन के दौरान 11 से 15 टन के बराबर कार्बन-डाईऑक्साइड का उत्सर्जन होता है. ‘टेस्ला-3’ का माइलेज औसतन 535 किलोमीटर प्रति चार्ज और यूरोप में क़ीमत 56,180 से 66,980 यूरो तक है.

प्रोफ़ेसर बुख़ाल के अनुसार यदि यह मान कर चला चला जाये कि ‘टेस्ला-3’ जैसी किसी लीथियम-आयन बैटरी का औसत जीवनकाल 10 साल होगा और कार औसतन 15,000 किलोमीटर प्रतिवर्ष चलेगी, तो इस दौरान वह प्रति-किलोमीटर 73 से 98 ग्राम कार्बन-डाईऑक्साइड के उत्सर्जन का कारण बनेगी. इसमें यदि री-चार्ज वाली बिजली के उत्पादन में लगे, कोयले आदि जैसे ग़ैर-नवीकरणीय स्रोतों से हुए उत्सर्जन को भी जोड़ दिया जाये, तो ‘टेस्ला-3’ प्रति-किलोमीटर 156 से 181 ग्राम कार्बन-डाईऑक्साइड उत्सर्जित करेगी. यह मात्रा डीज़ल से चलने वाली किसी मर्सिडीज़ कार की अपेक्षा कहीं अधिक है. तब भी जब ऐसी कारों को चलाने के दौरान ही नहीं बल्कि इनके भी निर्माण के दौरान काफी कार्बन डाइआक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है.

प्रोफ़ेसर बुख़ाल ने अपने अध्ययन में बेकार हो चुकी लीथियम-आयन बैटरियों के निपटारे से जुड़े प्रदूषण और संभावित ख़र्च को शामिल नहीं किया है. इसके अलावा लीथियम और कोबाल्ट जैसी धातुएं बहुत दुर्लभ खनिज हैं. भारत में लीथियम है ही नहीं और कोबाल्ट की मात्रा भी बहुत कम है. जिन गिने-चुने देशों में लीथियम या कोबाल्ट अधिक मात्रा में मिलते हैं, वे अधिकतर तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के विकासशील देश हैं. इन सभी देशों को लीथियम और कोबाल्ट की उत्पादन-प्रक्रिया के हानिकारक परिणाम झेलने पड़ रहे हैं.

निष्पक्ष अध्ययन

कोलोन के प्रो़. क्रिस्टोफ़ बुख़ाल के अध्ययन से पहले भी जर्मनी में जो निष्पक्ष अध्ययन हुए हैं, उनमें भी जलवायु और पर्यावरण की कसौटी पर बिजली-चालित कारों की उपयोगिता संदिग्ध ही पायी गयी है. अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले जर्मनी के ‘फ्राउनहोफ़र शोध संस्थान’ की रॉबेर्टा ग्राफ़ ने अपने संस्थान में हुए अध्ययनों के आधार पर, फ़रवरी 2018 में बताया कि इलेक्ट्रिक कारें बनाने की उत्पादन प्रक्रिया के दौरान, पेट्रोल या डीज़ल कारों की उत्पादन प्रक्रिया की अपेक्षा, ढाई टन अधिक कार्बन-डाईऑक्साइड उत्सर्जित होता है. इससे पर्यावरण 65 प्रतिशत तक अधिक प्रभावित होता है.

रॉबेर्टा ग्राफ़ का भी कहना था कि पर्यावरण पर अतिरिक्त बोझ के लिए मुख्यतः कार की बैटरी ज़िम्मेदार होती है. बैटरी ही कार को बहुत महंगा बनाती है और उसका वज़न भी बढ़ा देती है. कुल मिलाकर एक बिजली-चालित कार को 80,000 किलोमीटर चल चुकने के बाद ही पर्यावरण के लिए,पेट्रोल या डीज़ल कारों की अपेक्षा, बेहतर कहा जा सकता है. इस दूरी को तभी घटाया जा सकता है, जब कार की बैटरी को केवल सौर या पवन ऊर्जा जैसे अक्षय स्रोतों की बिजली से ही हमेशा री-चार्ज किया जा सके. दूसरा विकल्प है, बैटरी का वज़न घटाते हुए उसके भीतर ऊर्जा के घनत्व को खूब बढ़ाना. इसमें अभी 10-12 साल और लग सकते हैं.

धुआं कारखानों और बिजलीघरों से निकलता है

जर्मनी के ही एक दूसरे शोध संस्थान ‘ईफ़ो इंस्टीट्यूट’ ने पाया कि बैटरी को री-चार्ज करने में यदि ऐसी बिजली लगी है, जो कोयले से चलने वाले किसी बिजलीघर से आयी है (भारत के अधितर बिजलीघर इसी प्रकार के हैं), तो कार के निर्माण और उपयोग से बनी कार्बन-डाईऑक्साइड का हिस्सा दोगुना हो जाता है. जब तक बैटरी बनाने की तकनीक में भारी प्रगति नहीं होती और बिजली उत्पादन में अक्षय या नवीकरणीय ऊर्जा-स्रोतों का अनुपात भारी मात्रा में बढ़ नहीं जाता, तब तक बिजली-चालित कार का जलवायु और पर्यावरण के लिए हितकारी लाभ नगण्य ही रहेगा.

दूसरे शब्दों में, पर्यावरण को प्रदूषित करने और तापमान को बढ़ाने वाला धुआं बिजली-चालित कार से नहीं निकलता. सारा धुंआ हमारे लिए अदृश्य कहीं दूसरी जगह उन खानों और कारखानों से निकलता है, जहां बैटरी के लिए आवश्यक लीथियम, कोबाल्ट, मैंगनीज़, ग्रेफ़ाइट आदि का खनन और शोधन होता है और जहां कार के सारे कल-पुर्जे बनते हैं. कार जब सड़क पर चलने लगती है और उसकी बैटरी री-चार्ज करनी पड़ती है, तब यही धुआं हमें दिखायी नहीं पड़ रहे और दूर कहीं बने बिजलीघरों से निकलता है.

कारों से पहले उत्सर्जनमुक्त बिजलीघर चाहिये

चूंकि हमें तुरंत कोई धुआं दिखता नहीं, सो हम मान लेते हैं कि इलेक्ट्रिक कार ख़रीद कर हम पर्यावरण और जलवायु के लिए बहुत बड़ा हितकारी काम कर रहे हैं. हम नहीं सोचते कि ऐसी कारों की ख़रीद को प्रोत्साहन देने या सड़क-यातायाात का बिजलीकरण करने से पहले हम पूरे देश में ऐसे बिजलीघरों का व्यापक जाल बिछाते, जहां केवल नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा-स्रोतों से ही बिजली बनती! जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक इलेक्ट्रिक कारों का होना, न होने के ही बराबर है. यह चुनौती भारत के ही नहीं, सभी देशों के सामने है.

इसके अलावा बिजली-चालित वाहनों की संख्या बढ़ाने से पहले सभी देशों को अपना बिजली-उत्पादन भी बढ़ाना होगा. वे लाखों-करोड़ों वाहन, जो आज डीज़ल और पेट्रोल से चलते हैं, जब बैटरी से चलने लगेंगे, तो उनकी बैटरी री-चार्ज करने के लिए पर्याप्त बिजली भी तो होनी चाहिये. और पर्यावरण और जलवायु के हित में उसका स्रोत अक्षय या नवीकरणीय होना अनिवार्य है.

नयी बिजली का असाधारण आयाम

बिजली की कारों को चलाने के लिए और कितनी बिजली की जरूरत होगी, इसे समझने के लिए मात्र सवा आठ करोड़ की जनसंख्या वाले जर्मनी का उदाहरण काफ़ी है. अकेले जर्मनी में, जहां बिजली की कमी नहीं है और कभी कोई कटौती नहीं होती, 20 से 25 टेरावाट (1 टेरावाट=एक अरब किलोवाट) प्रतिघंटे प्रतिवर्ष अतिरिक्त बिजली की ज़रूरत पड़ेगी. इस क्षमता में छिपी चुनौती इस बात से समझी जा सकती है कि 2006 में संसार के सभी देशों के पनबिजलीघरों की स्थापित (न कि वास्तव में उत्पादित) क्षमता केवल एक टेरावाट के बराबर थी! भारत में बिजली का एक बड़ा हिस्सा पनबिजलीघरों से आता है.

बिजली उत्पादन में भारी वृद्धि जैसी ही दूसरी चुनौती है, लीथियम-आयन बैटरी का वज़न घटाना और उसकी क्षमता में या तो भारी वृद्धि करना या फिर उसका कोई दूसरा सरल व सस्ता विकल्प विकसित करना. इस समय मोबाइल फ़ोन या लैपटॉप कंप्यूटरों जैसे आजकल के लगभग सभी इलेक्ट्रिॉनिक उपकरण भी लीथियम-आयन बैटरियों से ही चलते हैं. एक टन लीथियम का अंतरराष्ट्रीय भाव, जून 2015 में 7,000 यूरो से बढ़ कर 2018 में 17,000 डॉलर (करीब 12 लाख रुपये) हो गया था. 2019 में विश्व भर में क़रीब 58,000 टन लीथियम की खपत हुई थी. 2022 तक यह खपत तीन गुनी बढ़ कर 1,16,000 टन हो जाने का अनुमान है.

लीथियम के सीमित भंडार

लीथियम के विश्व भर में ज्ञात भंडारों की दो-तिहाई मात्रा अकेले लैटिन अमेरिका के तीन देशों चिली, अर्जेन्टीना और बोलिविया में है. एक टन लीथियम पाने के लिए, ढेर सारी बिजली के अतिरिक्त, 20 लाख लीटर पानी खर्च करना पड़ता है. इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और कार-बैटरी के लिए, अकेले लीथियम के कारण, पर्यावरण और जलवायु के साथ बलात्कार कितना बढ़ जायेगा.

चिली इस समय लीथियम का सबसे बड़ा निर्यातक है. वहां के अताकामा मरुस्थल के उत्तर में, अर्जेन्टीना और बोलीविया की सीमा के पास, खारे पानी की एक झील के नीचे लीथियम छिपा है. उसे पाने के लिए पानी को बड़ी-बड़ी क्यारियों-जैसे बेसिनों में पंप किया जाता है. क़रीब 45 वर्ग किलोमीटर के दायरे में बने इन क्यारीनुमा बेसिनों में पानी को धूप की गर्मी से भाप बन कर उड़ने दिया जाता है. इसमें क़रीब पांच महीने लगते हैं. सारा पानी भाप बन कर उड़ जाने के बाद सफ़ेद रंग की एक तलछट रह जाती है. उसी में छह प्रतिशत लीथियम मिला होता है. इसे शुद्ध लीथियम प्राप्त करने के विशेष संयंत्र में भेजा जाता है. इस सारी प्रक्रिया में हर दिन दो करोड़ 10 लाख लीटर स्वच्छ भूगर्भीय पानी भी ख़र्च होता है, जिसके कारण भूगर्भीय जलस्तर तेज़ी से गिर रहा है.

लीथियम के कारण पानी का अकाल

अताकामा मरुस्थल संसार का एक सबसे वर्षाहीन सूखा मरुस्थल है. इसके बावजूद, 1980 वाले दशक में लीथियम की मांग शुरू होने तक वहां सब जगह पानी था. पानी के अभाव में अब वहां की ज़मीन रेतीली होने लगी है. गांव उजड़ते जा रहे हैं. तब भी, बिजली-चालित कारों के लिए लीथियम की भारी मांग को देखते हुए चिली की सरकार 2025 तक उसका उत्पादन चार गुना बढ़ा कर 3,50,000 टन कर देना चाहती है. वहां के पानी के उपयोग का अधिकार लीथियम कंपनियों को बेच दिया गया है. पानी के अभाव में लोग ही पलायन नहीं कर रहें हैं, फ्लैमिंगो जैसे पक्षियों का वहां आना और ठहरना भी घटता जा रहा है.

लीथियम-आयन बैटरियों में लगने वाला कोबाल्ट भी कुछ कम समस्याकारक नहीं है. कारों के हर बैटरी-सेट के लिए करीब 10 किलो लीथियम के साथ-साथ लगभग इतने ही या इससे ज्यादा कोबाल्ट की भी ज़रूरत पड़ती है. कोबाल्ट का दो-तिहाई वैश्विक उत्पादन अकेले अफ्रीकी देश कांगो गणराज्य में होता है. वहां की तानाशाही सरकार काफी कुछ कोबाल्ट की कमाई से ही चलती है. देश के दक्षिण में स्थित पांच लाख निवासियों वाला कोलवेसी कोबाल्ट की खानों का शहर है. शहर के ठीक नीचे ही कोबाल्ट का भंडार है. एक चीनी कंपनी यहां सबसे बड़ी खान की मालिक है. वहां चीनी ही काम करते हैं.

कांगो में कोबाल्ट की अवैध खुदायी

कोलवेसी के हज़ारों निवासी, जगह-जगह कुंओं-जैसे अवैध गहरे गड्ढे खोद कर नंगे हाथों से ही कोबाल्टधारी मिट्टी निकालते हैं. इस मिट्टी को बोरियों में भर कर रस्सियों के सहारे वे बाहर खींचते हैं और उसे धोकर उन ढेलों को छांटते हैं, जिनमें कोबाल्ट हो सकता है. इनमें क़रीब आठ प्रतिशत कोबाल्ट होता है. कांगो का 20 प्रतिशत कोबाल्ट इसी तरह की अवैध खानों से आता है. इन ढेलों को वे अक्सर चीनियों को ही औने-पौने दामों पर बेच देते हैं.

कांगो के ही काजूरू नाम के एक गांव में कुछ साल पूर्व कोबाल्ट के नये स्रोतों का पता चाला. इस बीच वहां के क़रीब हर घर, हर झुग्गी-झोपड़ी के आगे-पीछे या अगल-बगल में कोबाल्ट-खुदाई के अवैध गड्ढे खुद गये हैं. सारा गांव इन गड्ढों से भर गया है. कई बार बाहर खेलते बच्चे ही नहीं, वयस्क भी उनमें गिर कर घायल हो जाते हैं. काजूरू के निवासी भी कोबाल्ट-धारी ढेलों को बोरियों में भर कर इस शिकायत के साथ चीनियों को बेचते हैं कि चीनी उन्हें इन ढेलों में केवल तीन प्रतिशत कोबाल्ट होने की दर से हीे पैसा देते हैं. चीन के कारख़ानों में इनसे शुद्ध कोबाल्ट प्राप्त किया जाता है. कार-बैटरी सहित हर प्रकार के लीथियम-आयन बैटरी सेल मुख्यतः चीन, जापान व दक्षिण कोरिया में ही बनते हैं और वहां से अन्य देशों को निर्यात किये जाते हैं.

भावी कारों में ड्राइवर की जगह कंप्यूटर

बैटरी से चलने वाली कारें भविष्य में बढ़ेंगी ही नहीं बल्कि वे बिना किसी ड्राइवर के अपने आप चलने वाली कारें भी होंगी. ड्राइवर का स्थान लेने के लिए उनमें जो तेज़ गति वाले कंप्यूटर, नेविगेटर, कई कैमरे, दूरी मापने वाले राडार आदि कई नये उपकरण होंगे, उनके कारण बिजली की खपत और बढ़ेगी. इसे ध्यान में रखते हुए जर्मनी सहित सभी कार-निर्माता देशों में अभी से ऐसी नये प्रकार की बैटरियां विकसित करने का काम शुरू हो गया है, जो बहुत हल्की-सस्ती-सुरक्षित हों, तेज़ी से अधिक मात्रा में बिजली संचित करें और उसे लंबे समय तक मुक्त कर सकें.

तथाकथित ‘सॉलिड स्टेट’ (घनावस्था) बैटरी तकनीक में इस प्रश्न का उत्तर देखा जा रहा है. जर्मनी सहित कई देशों की प्रयोगशालाओं में इस तकनीक पर ज़ोर-शोर से काम हो रहा है. इस तकनीक में अजकल की लीथियम-आयन बैटरी से भिन्न किसी तरल इलेक्ट्रोलाइट की ज़रूरत नहीं पड़ती. इससे विद्युत-ऊर्जा का घनत्व तथा बैटरी की सुरक्षा और भी बढ़ जाती है और कारें एक बार में 700 से 800 किलोमीटर दूर तक जा सकती हैं. री-चार्ज करने का समय भी काफी कम हो सकता है.

2025 तक ‘सॉलिड स्टेट’ बैटरी!

जापान की टोयोटा कंपनी 2025 तक ‘सॉलिड स्टेट’ बैटरी बाज़ार में लाना चाहती है. चीन की एक कंपनी उससे भी पहले. अमेरिका की एक कंपनी ‘फ़िस्कर’ ने दावा किया है कि उसकी सॉलिड स्टेट बैटरी में लीथियम-आयन बैटरी की अपेक्षा ढाई गुनी अधिक ऊर्जा होगी. उसकी क़ीमत एक-तिहाई ही होगी. और उसका वज़न भी कम होगा. इस बैटरी को री-चार्ज करने में एक मिनट भी नहीं लगेगा और कार, एक बार में, 800 किलोमीटर दूर तक जा सकेगी. यह बैटरी 2023 में उपलब्ध हो पायेगी.

दूसरी ओर, अब तक चीन, जापान या दक्षिण कोरिया से लीथियम-आयन बैटरियों के आयात पर निर्भर जर्मनी की डायम्लर बेंज़ कंपनी 20 अरब यूरो की लागत से और फॉक्सवागन 34 अरब यूरो की लागत से अपने निजी कारख़ाने बनाने जा रही हैं. बीएमडब्ल्यू ने अभी ऐसी कोई योजना घोषित नहीं की है. एलन मस्क की टेस्ला कंपनी ने अमेरिका के नेवादा में बैटरी-सेल बनाने वाले विश्व के सबसे बड़े कारख़ाने का निर्माण शुरू भी कर दिया है.

तेल का धनी नॉर्वे सबसे आगे

बिचली-चालित कारों के मामले सबसे अधिक महत्वाकांक्षी उच्च कोटि के कच्चे तेल के धनी देश नॉर्वे की सरकार है. नॉर्वे उत्तरी यूरोप के धुर उत्तर में बसा केवल 52 लाख 60 हज़ार निवासियों का एक धनी देश है. तेल का धनी होते हुए भी वहां की सरकार अपने यहां कार्बन-डाईऑक्साइड के उत्सर्जन को, 2030 तक, 50 प्रतिशत घटाने पर तुली हुयी है. वह चाहती है कि 2025 से देश में बिकने वाली कारों से कोई उत्सर्जन नहीं निकलना चाहिये.

नॉर्वे में बिजली-चालित कारों के पंजीकरण की संख्या, 2013 में ही अन्य कारों से अधिक हो गयी थी. उसका अपना कोई कार-उद्योग नहीं है. सभी कारें अन्य देशों से आयात होती हैं. इसलिए पेट्रोल या डीज़ल से चलने वाली कारों पर सीमाशुल्क और पंजीकरण फ़ीस बढ़ा कर उन्हें अन्य यूरोपीय देशों की अपेक्षा दोगुना महंगा करते हुए बिजली-चालित कारों को सभी शुल्कों से मुक्त कर दिया गया. फ़ेरी नौकाओं के उपयोग, पार्किंग और री-चार्जिंग के लिए भी उन्हें चिंता नहीं करनी थी. यहां तक कि बिजली-चालित कारों को सड़कों पर बसों के लिए आरक्षित विशेष लेन के इस्तेमाल की भी छूट है.

मतसर्वेक्षण कहते हैं कि नॉर्वे के 50 प्रतिशत से अधिक लोग बिजली-चालित कार ख़रीदने के पक्ष में हैं. इसका लाभ उठाते हुए एलन मस्क की टेस्ला कंपनी ने अपने पैर वहां अच्छी तरह जमा लिये हैं. इस सबका परिणाम यह है कि 2020 के आखिर तक नॉर्वे में जो नई कारें बिक रही थीं उनमें करीब 54 फीसदी हिस्सेदारी बैटरी से चलने वाली कारों की थी. एक दशक पहले तक यह आंकड़ा सिर्फ एक फीसदी ही था.

नॉर्वे की सरकार ने ई-कार अभियान पर एक बहुत बड़ी रकम खर्च कर दी है. लेकिन अब उसे लग रहा है कि इस बोझ को वह अधिक समय तक नहीं उठा सकती. इसलिए बिजली-चालित कारों से शत-प्रतिशत वाहनकर पुनः वसूलने का फ़ैसला किया गया है. बसों के लिए आरक्षित लेन के उपयोग को भी सीमित किया जायेगा. वहां ई-कारों की भीड़ से बस-चालकों की नाक में दम होने लगा है. बिजली-चालित कारों का चलन इसी तरह बढ़ते रहने से हो सकता है कि नॉर्वें को एक दिन उन पर वे सारे नियम फिर थोपने, पड़ें जो इस समय उठा लिये गये हैं.

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