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क्या आने वाले समय में मोबाइल फोन के साथ चार्जर और ईयरफोन मिलना बंद हो जाएंगे?

और, क्या सच में यह कदम पर्यावरण की बेहतरी के लिए उतना कारगर साबित हो सकता है जितना इसकी शुरूआत करने वाली कंपनी एपल इसे बता रही है?

अंजलि मिश्रा | 28 अक्टूबर 2020 | फोटो: पिक्साबे

बीते कई सालों से जब भी एपल अपना कोई नया आईफोन लॉन्च कर रहा होता है तो भारतीय सोशल मीडिया पर एक चुटकुला चर्चा में आ जाता है. इन सालों में बेहद घिस चुके इस चुटकुले में कहा जाता है कि इस महंगे आईफोन को खरीदने के लिए तो किडनी बेचनी पड़ेगी. अक्टूबर के दूसरे हफ्ते में जब आईफोन-12 सीरीज लॉन्च हुई तो हर बार की तरह यह चुटकुला फिर-फिर दोहराया गया. बस, इस बार नया यह था कि एक की बजाय दोनों किडनियां बेचे जाने की बात कही जा रही थी. मजे लेते हुए कहा गया कि पहली किडनी तो केवल फोन खरीदकर घर लाने में खर्च हो जाएगी. इसका इस्तेमाल किया जा सके, इसके लिए चार्जर, हेडफोन और बाकी एक्सेसरीज की ज़रूरत भी होगी और इन्हें खरीदने के लिए दूसरी किडनी का सौदा भी करना पड़ सकता है.

एपल ने इस महीने आईफोन-12 सीरीज के चार मोबाइल फोन – आईफोन-12, आईफोन-12 मिनी, आईफोन-12 प्रो और आईफोन-12 प्रो मैक्स – लॉन्च किए हैं. 30 अक्टूबर से भारतीय बाज़ार में उपलब्ध हो रहे इन मोबाइल फोन्स की कीमत 70,000 से 1,30,000 रुपए के बीच होने का अंदाज़ा लगाया जा रहा है. ऐसी भारी-भरकम कीमत वाला आईफोन-12 अपनी लॉन्चिंग के बाद से अपनी 5-जी तकनीक या किसी भी और फीचर से ज्यादा इस बात के लिए चर्चा बटोर रहा है कि इसके साथ वॉल-चार्जर (चार्जिंग एडॉप्टर) और ईयरफोन्स नहीं दिए जा रहे हैं. यानी, आईफोन-12 के बॉक्स में मोबाइल फोन के अलावा केवल यूएसबी-सी टाइप केबल ही होगी.

एक्सेसरीज न देने के इस फैसले पर एपल का कहना है कि कंपनी ने इलेक्ट्रॉनिक कचरे (ई-वेस्ट) और अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए ऐसा किया है. एपल के मुताबिक यह फैसला न सिर्फ मोबाइल फोन पर लगने वाले कच्चे माल की लागत कम करेगा बल्कि इससे रिटेल बॉक्स का साइज भी छोटा होगा जिससे ढुलाई यानी ट्रांसपोर्टेशन की लागत भी कम होगी. कंपनी का दावा है कि ऐसा करने से एपल महज साल भर में 20 लाख मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जन कम कर सकता है. इस फैसले से यूजर्स को होने वाली असुविधा से जुड़े सवाल का जवाब देते हुए एपल की मार्केटिंग वाइस प्रेसिडेंट काइएन ड्रैंस का कहना था कि ‘ईयरफोन और चार्जर हटाने का फैसला सस्टेनेबिलिटी को ध्यान में रखकर भी लिया गया है. अक्सर यूजर्स के पास ये एक्सेसरीज पहले से ही होती हैं. कई बार तो एक से ज्यादा भी होती हैं. पर्यावरण को बचाने जैसे बड़े उद्देश्यों को देखें तो यह (हर फोन के साथ एक्सेसरीज देना) ठीक नहीं लगता है.’

एपल जहां इसे पर्यावरण की बेहतरी की तरफ बढ़ाया गया कदम बता रहा है, वहीं बाज़ार के जानकार इसे पर्यावरण को नहीं बल्कि लागत बचाने की जुगत बता रहे हैं. वे इसे एक चालाक बिजनेस स्ट्रेटेजी बताते हुए कहते हैं कि अगर यूजर एन्ड्रॉयड से आईफोन पर शिफ्ट कर रहा हो या फिर इससे पहले वह आईफोन-11 सीरीज के स्मार्टफोन (जैसे, आईफोन एक्सआर या आईफोन-11 प्रो मैक्स) को इस्तेमाल न कर रहा हो तो बहुत संभावना है कि उसे नया चार्जर खरीदना ही पड़ेगा. आईफोन-11 से पहले मोबाइल के साथ आने वाला चार्जिंग एडॉप्टर यूएसबी-ए टाइप कॉर्ड के लिए उपयुक्त था जबकि आईफोन-12 सीरीज के साथ यूएसबी-सी टाइप कॉर्ड दी जा रही है. ऐसे में जानकार संभावना जताते हैं कि आईफोन-12 खरीदने वाले ज्यादातर यूजर्स को अलग से चार्जर और ईयरफोन लेने की ज़रूरत पड़ने वाली है.

यह रणनीति आईफोन के लिए किस तरह से मुनाफा बढ़ाने वाली होगी यह समझने के लिए एक उदाहरण पर गौर करते हैं. मान लीजिए, अगर यूजर आईफोन-12 सीरीज का सबसे सस्ता फोन या लगभग 70,000 रुपए की कीमत वाला आईफोन-12 मिनी भी खरीदता है तो उसे साधारण वॉल चार्जर के लिए डेढ़ हजार रुपए और खर्च करने होंगे. अब चूंकि आईफोन-12 सीरीज के फोन्स मैग्नेटिक चार्जिंग फीचर (मैग्सेफ) से लैस हैं, इसलिए इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि यूजर वायरलेस चार्जिंग की यह सुविधा भी चाह सकता है. ऐसे में वह डेढ़ हजार के साधारण चार्जर की बजाय तीन हजार रुपए वाले वायरलेस चार्जर को चुन सकता है. दुनिया भर में ऐसा करने वाली उपभोक्ताओं की संख्या कितनी हो सकती है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि साल 2020 की पहली छमाही में लगभग 37 मिलियन (3 करोड़ 70 लाख) आईफोन बेचे जा चुके हैं.

वहीं, मोबाइल एक्सेसरीज की बात करें तो एक और आंकड़े का जिक्र यहां पर किया जा सकता है. साल 2018 में एपल ने लगभग 217 मिलियन (21 करोड़ 70 लाख) आईफोन बेचे थे. इनमें से महज पांच फीसदी के साथ एयरपॉड्स खरीदे गए थे. यह छोटा आंकड़ा भी एपल के मुनाफे में 700 मिलियन डॉलर (लगभग 5000 करोड़ रुपए) जोड़ता है. ऐसे में, आईफोन-12 सीरीज का यूजर जहां ईयरफोन के लिए 3000 रुपए खर्चने पर मजबूर होगा वहीं, अगर वह साधारण ईयरफोन के बजाय एयरपॉड्स खरीदने का मन बनाता है तो यह खर्च लगभग 15 हजार रुपए हो जाएगा. हालांकि जानकार कहते हैं कि सिर्फ चार्जर और ईयरफोन की बिक्री से एपल के मुनाफे में आने वाला अंतर महज एक-डेढ़ फीसदी ही होगा, लेकिन फिर भी वे इसे सफल व्यावसायिक रणनीति करार देते हैं. क्योंकि अगर आईफोन-12 की कीमतें ज्यादा रखी जातीं तो उसको होने वाला फायदा कहीं कम हो सकता था.

दरअसल, एपल पहली बार अपनी किसी आईफोन सीरीज में 5-जी तकनीक का इस्तेमाल कर रहा है जो इन्हें पुराने सभी मोबाइल से बेहतर और महंगा बनाती है. टेक-एक्सपर्ट बताते हैं कि 5जी इंटरनेट और कनेक्टिविटी पाने के लिए आईफोन-12 में जो कम्पोनेंट्स लगाए गए हैं उनकी लागत फोन की एक-तिहाई कीमत के बराबर है. ऐसे में कुछ जानकार एक्सेसरीज नहीं दिए जाने को व्यावसायिक रणनीति के साथ-साथ एपल की मजबूरी भी ठहराते हैं.

जहां तक पर्यावरण को बचाए जाने का सवाल है, जानकारों का यह भी कहना है कि अलग से चार्जर और बाकी एक्सेसरीज खरीदी जाएंगी तो उनका पैकेजिंग वेस्ट और अलग से शिपिंग के चलते होने वाला कार्बन उत्सर्जन उस बड़े आंकड़े को अपेक्षाकृत छोटा कर देगा, जो एपल ने फोन की लॉन्चिंग के समय दिया था. यहां पर सहज ही यह सवाल किया जा सकता है कि तो क्या एपल का यह कदम पर्यावरण के लिए ज़रा भी फायदेमंद नहीं होगा? इस पर हम इसी आलेख में आगे चर्चा करेंगे. लेकिन उससे पहले इस पर बात कर लेते हैं कि क्या आने वाले समय में बाकी मोबाइल निर्माता भी एपल की राह जाते दिख सकते हैं.

इसी साल जुलाई में इस बात की चर्चा जोरों पर रही थी कि सैमसंग जल्दी ही अपने प्रीमियम मोबाइल फोन के साथ चार्जर देना बंद करने वाला है और इसकी शुरूआत नए गैलेक्सी एस-30 की लॉन्चिंग के साथ होगी. हालांकि आईफोन-12 सीरीज के लॉन्च होने के बाद सैमसंग ने जिस तरह से एपल की चुटकी ली, उसके बाद कई लोगों को ये चर्चाएं अफवाह लगने लगी हैं. लेकिन ऐसा पहले भी हो चुका है कि फोन कंपनियों ने शुरूआत में जिस फीचर या एक्सेसरी के न होने के लिए एपल का मजाक उड़ाया, बाद में उनके कुछ लीडिंग मॉडल्स से वे गायब मिली हैं. सैमसंग के मामले में हालिया उदाहरण हेडफोन जैक हटाए जाने का है जिसके लिए उसने अपने विज्ञापनों में एपल पर जमकर तंज किया था. यहां तक कि सैमसंग अपने प्रीमियम फोन्स के लिए अलग से चार्जर खरीदे जाने की बढ़ावा देता है. गैलेक्सी एस-20 अल्ट्रा में फास्ट चार्जिंग के लिए यूजर को नया चार्जर खरीदने की जरूरत होती है. ऐसे में यह कह पाना कठिन है कि इस समय एपल का मजाक उड़ाने वाला सैमसंग आने वाले समय में अपनी बात पर कितना कायम रह पाता है.

इसके अलावा, आने वाले समय में 5-जी तकनीक की भारी लागत के चलते मोबाइल की कीमतों को नियंत्रण में रख पाना फोन कंपनियों के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकती है. सैमसंग के साथ-साथ शाओमी और वनप्लस जैसे लीडिंग ब्रांड्स के एक्जीक्यूटिव तक इस बात की आशंका जता चुके हैं कि 5-जी तकनीक इन कंपनियों के प्रीमियम फोन्स की कीमत में भारी बढ़त और मुनाफे में कमी की वजह बन सकती है. टेक-एक्सपर्ट कहते हैं कि स्मार्टफोन प्रोसेसर बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनियों क्वालकॉम और मीडियाटेक द्वारा बनाए जाने वाले 5-जी स्मार्टफोन चिपसेट्स की कीमत, 4-जी की तुलना में चार से छह हजार रुपए ज्यादा है. यानी, अगर 4-जी स्मार्टफोन प्रोसेसर 8000 रुपए में उपलब्ध था तो 5-जी प्रोसेसर की कीमत सीधे 12-14 हज़ार रुपए हो जाती है. स्वाभाविक है कि इसका असर मोबाइल फोन्स की कीमतों पर भी दिखाई देगा. ऐसे में फोन निर्माता कंपनियों को मजबूरन कॉस्ट कटिंग के दूसरे तरीकों पर विचार करना पड़ सकता है और चार्जर-ईयरफोन जैसी एक्सेसरीज को कम कर देना इसका सबसे सहज रास्ता हो सकता है. हो सकता है, लो और मिड-रेंज वाले मोबाइल फोन अपनी तमाम एक्सेसरीज के साथ ही मिलते रहें, लेकिन प्रीमियम मोबाइल फोन्स के बारे में कई जानकार यह बात पक्के तौर पर कहते हैं कि इनके साथ चार्जर और ईयरफोन मिलने के दिन लदने वाले हैं.

अब उस सवाल पर आते हैं जिसमें कहा जा रहा है कि मोबाइल बॉक्स से चार्जर हटा लेने से कार्बन उत्सर्जन कम करने में मदद मिलेगी और दुनिया भर में बढ़ रहा इलेक्ट्रॉनिक कचरा कम होगा. अगर सबसे पहले इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के कारण पर्यावरण को होने वाली नुकसान की भयावहता का जिक्र करें तो 2019 को अब तक का सबसे बुरा साल घोषित किया जा सकता है. इस साल धरती पर सबसे ज्यादा 536 लाख टन ई-कचरा पैदा किया गया जिसमें लैपटॉप, कम्प्यूटर, मोबाइल और तमाम तरह के बाकी गैजेट शामिल हैं. केवल मोबाइल चार्जर की बात करें तो यह आंकड़ा लगभग तीन लाख टन के करीब रहा और इन आंकड़ों को थोड़ा कम या ज्यादा मानकर इसे सालाना औसत भी समझा जा सकता है.

इस संदर्भ में एपल की बात करें तो जैसा कि ऊपर भी जिक्र किया गया है कि मोबाइल के साथ एक्सेसरीज ना देने का कदम फिलहाल पर्यावरण की बेहतरी की तरफ कोई महसूस हो सकने वाला असर डालता नहीं दिखने वाला है. लेकिन जानकार मानते हैं कि अगर एपल के साथ बाकी टेक-कंपनियां अपनी सोच और रणनीति में थोड़ा बदलाव करती हैं तो इसका असर निश्चित तौर पर भविष्य में देखने को मिल सकता है.

तकनीक के जानकार, इसके लिए सबसे पहले यूनिवर्सल चार्जर यानी एक ऐसा चार्जर जो हर तरह की डिवाइस के लिए काम करे, बनाए जाने की ज़रूरत बताते हैं. यहां पर एपल की एक पहल का जिक्र किया जा सकता है, कंपनी ने बीते कुछ समय में अपने कम्प्यूटर्स, आईपैड-प्रो और आईफोन-12 जैसी डिवाइसेज को यूएसबी-सी टाइप चार्जर दिया है. यानी, अब अगर एक व्यक्ति कई एपल डिवाइसेज रखता है तो उसे अलग-अलग चार्जर की ज़रूरत नहीं होगी. इसके अलावा, सैमसंग और वन-प्लस समेत एंड्रायड के कई लीडिंग ब्रांड्स भी अपने प्रीमियम फोन्स के साथ यूएसबी-सी टाइप चार्जर दे रहे हैं. टेक-एक्सपर्ट्स इसे पर्यावरण की नज़र से भी गंभीरता से लेने और आईओएस, विंडोज, एंड्रॉयड सभी तरह के ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए एक कॉमन चार्जर बनाए जाने की सलाह देते हैं.

जानकार कहते हैं कि रिसाइकिलिंग और ज्यादा एफिशंसी वाले उत्पाद बनाये जाना भी ई-कचरे को नियंत्रित करने में मददगार हो सकता है. रिसाइकिलिंग जहां कंपनियों के कार्बन उत्सर्जन में कमी की वजह बनेगी, वहीं एनर्जी एफिशंट उत्पाद ऊर्जा बचाने में मददगार साबित होंगे. इसके साथ ही, यह भी माना जा रहा है कि हमें किसी भी और समय से ज्यादा इस समय डिवाइसेज को रिपेयर करने लायक बनाए जाने की जरूरत है. इसके लिए अमेरिका जैसे देशों में राइट टू रिपेयर जैसे कैंपेन भी चल रहे हैं. यानी, पर्यावरण-प्रेमी यह मांग करते हैं कि टेक-कंपनियां उन्हें ऐसे उत्पाद दें जिनमें छोटी-मोटी गड़बड़ियां होने पर उन्हें सुधारा जा सके. उदाहरण के लिए एपल एयरपॉड्स में छोटी से छोटी गड़बड़ी होने पर भी वह बेकार हो जाता है. इसके साथ ही एपल के केबल और एडॉप्टर भी टूटने या जल्दी खराब होने के लिए बदनाम हो चुके हैं. एपल, सैमसंग समेत तमाम ब्रांड्स कुछ इस तरह से उत्पादों को बनाते हैं कि उनके खराब होने पर यूजर नया उत्पाद ही खरीदे. दूसरी तरफ अगर वह इसे सुधरवाना चाहता है तो उसके लिए भी उसे कंपनी के रिपेयरिंग सेंटर पर ही जाना होगा. बाज़ार की शब्दावली में इसके लिए रिपेयरिंग मोनोपली शब्द इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन इन आधिकारिक सेंटर्स पर मोबाइल का कोई भी पार्ट खरीदना या बदलवाना कई बार नया प्रोडक्ट खरीदने के बराबर ही पड़ता है. कहने का मतलब यह कि अगर सचमुच कंपनियां पर्यावरण की फिकर करती हैं तो उन्हें ऐसे प्रोडक्ट्स बनाने होंगे जिन्हें सुधारे जाने की गुंजायश हो.

तात्कालिक रुप से इस फैसले की सराहना करने के बावजूद पर्यावरण और तकनीक दोनों को साधने वाले जानकार सलाह देते हैं कि अगर एपल के बाद अन्य कंपनियां भी आगे से एक्सेसरीज न देने के इस कदम को अपनाने जा ही रही हैं तो वे अपनी रणनीति में थोड़े बदलाव कर इसमें ज्यादा सफल हो सकती हैं. फौरी उपाय के तौर पर वे सुझाते हैं कि कंपनियां बॉक्स में से एक्सेसरीज को पूरी तरह से हटाने की बजाय फोन शॉपिंग के समय इन्हें खरीदने या न खरीदने का विकल्प दे सकती हैं, जैसे कि वह फीचर, वर्जन या रंगो के चुनाव के लिए देती हैं. इन्हें ने खरीदने वालों के लिए टेक कंपनियां कुछ रिवॉर्ड पॉइन्ट्स भी दे सकती हैं जो उन्हें पर्यावरण का खयाल करने के लिए दिये जाएंगे. ऐसा करने से कंपनियां न सिर्फ यूजर्स को खुद से जोड़े रख सकेंगी बल्कि बगैर अतिरिक्त प्रयास के लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरुक भी बनाएंगी. कुल मिलाकर, इस रणनीति में संभावनाएं तो है लेकिन इसे थोड़ा और समझदारी और जिम्मेदारी से बरते जाने की ज़रूरत है.

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