जैसलमेर के आस-पास स्थित रेत के टीलों पर या उनके आस-पास जो हो रहा है, चलता रहा तो इन इलाकों की पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था चौपट होनी तय है
अश्वनी कबीर | 11 जुलाई 2022 | फ़ोटो: विकीपीडिया
महिषाराम मेघवाल जैसलमेर के खुरी में स्थित सैंड ड्यून्स यानी रेत के टीलों में ऊंट सफारी का कार्य करते हैं. वे इस काम में पिछले तीन दशकों से जुड़े हुए हैं. किसी समय उनके पास पांच ऊंट हुआ करते थे. लेकिन अब उनके पास केवल एक ही ऊंट बचा है. वे इसे भी बेचने के बारे में सोच रहे हैं. लेकिन आजीविका का कोई दूसरा विकल्प नहीं होने की वजह से ऐसा नहीं कर पा रहे हैं. हालांकि वे यह मानते हैं कि जल्द ही उन्हें ऐसा करना ही पड़ेगा.
जैसलमेर में पर्यटकों के घूमने की दो मुख्य पसंदीदा जगहें हैं – सम सैंड ड्यून्स ओर खुरी सैंड ड्यून्स. ये दोनों जगहें अपने घुमावदार बालू रेत के टीलों, दुर्लभ वनस्पतियों और ख़ास प्रकार के जीव-जंतुओं के लिए जानी जाती हैं. सम सैंड ड्यून्स जैसलमेर से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित हैं और खुरी लगभग 50 किलोमीटर.
जैसलमेर आने वाले पर्यटक इन मिट्टी के धोरों में जाए बगैर नहीं रहते. या यूं कहें कि वे इन्ही रेत के धोरों से मिलने जैसलमेर आते हैं. यहां आकर वे कुदरत की अठखेलियों को देखना चाहते हैं. मिट्टी के धोरों की कलाबाजियों में जीना चाहते हैं. वे उस बालू रेत से खेलना चाहते हैं जो इस स्थान के रहने वालों के लिए सबकुछ है.
रेगिस्तान की पहचान मिट्टी के धोरों (टीलों) से ही है. ये रेत के टीले ही यहां के लोगों की आजीविका, पारिस्थितिकी ओर लोक संस्कृति तीनों से बेहद करीब से जुड़े हुए हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से लगातार इनके साथ हमारे सम्बन्धों को बिगाड़ने का काम हो रहा है. रेगिस्तान को जानने-समझने वाले मानते हैं कि यदि यही स्थिति जारी रही तो पहले से निर्जन रेगिस्तान को बेजान बनने में अब ज्यादा वक्त नहीं है.
दरअसल पिछले कुछ समय में हुआ यह है कि जीप सफारी, मोटे टायरों वाली मोटरसाइकिलों, नाइट सफारी, धोरों पर मौजूद तमाम नाइट कैम्प्स ने इन रेत के धोरों को लगभग बर्बाद सा कर दिया है. इनकी वजह से सम और खुरी में मौजूद बालू रेत के टीले समतल हो रहे हैं. इस वजह से इन इलाकों में आने वाले पर्यटकों के मन में इनका आकर्षण कम हो रहा है. इसका सीधा असर यहां के लोगों की आजीविका पर पड़ रहा है.
आजीविका का संकट
अकेले खुरी और उसके नजदीक की ढाणियों में रहने वाले महिषाराम जैसे करीब 200 परिवारों का रोजगार पर्यटकों को ऊंट की सवारी कराने या यों कहें कि मिट्टी के टीलों पर ही टिका है. आज ये सभी ऊंट पालक गहरी चिंता में हैं. पिछले कुछ समय से यहां पहले ही पर्यटक बहुत कम आ रहे हैं. और उनको भी जीप सफारी ने इनसे छीन लिया है. अगर ऐसे ही चलता रहा तो जल्दी ही इन लोगों के सामने रोजगार का और भी गंभीर संकट पैदा हो सकता है.
यही हालात सम सैंड ड्यून्स के भी हैं. वहां पर करीब 500 परिवारों की रोजी-रोटी ऊंट सफारी से जुड़ी है. ऊंट सफारी का काम छह महीने – अक्टूबर से मार्च तक – चलता है. लेकिन यहां पर इस बार जनवरी के महीने में ही सन्नाटा पसरा हुआ है. इसकी एक वजह तो कोरोना महामारी है लेकिन वही इसकी एकमात्र वजह नहीं है.
सम सैंड ड्यून्स में ऊंट पालन का काम करने वाले लुंगे खान ने दो महीने पहले अपना ऊंट बेंच दिया. 55 वर्षीय लुंगे खान का कहना है कि “जब पर्यटक ही नहीं आ रहे तो वे ऊंट का करेंगे क्या? और जो आ रहे हैं वो जीप सफारी वाले है. इस वजह से हमारे पास काम नहीं रहा. पिछले एक दशक में इन जीपों के कारण सैंड ड्यून्स लगातार गायब हो रहे हैं. इस वजह से सैलानी धीरे-धीरे कम होते-होते अब बहुत कम हो गए हैं.”
लुंगे खान हमे बताते हैं कि “पहले कितने ही फ़ोटोग्राफर यहां आते थे. वे हमारे ऊंटों पर बैठकर दिन भर घूमते अपनी फोटोग्राफी के लिए स्थान तलाशते लेकिन अब वे बिल्कुल बन्द हो गए हैं. हमने झाड़- बोजड़ियों को हटा दिया, धोरों को समतल कर दिया और लोक संगीत के स्थान पर डीजे बजाने लगे तो विदेशी सैलानियों के साथ-साथ लोकल लोगों ने भी यहां पर आना कम कर दिया. जब ऊंट से परिवार को चलाना मुश्किल हो गया तो हमने अपने ऊंट को बेच दिया.”
महिषाराम भी लुंगे खान की बातों से सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘ऊंट के पैरों के नीचे गद्दियां लगी होती हैं. वो मिट्टी को समतल नहीं करता. एक ऊंट एक दिन में अधिकतम दो-तीन पर्यटकों को घुमा सकता है. एक चक्कर सुबह और एक शाम. अगर 200 ऊंट भी मान लें तो दिन भर में 400 लोग हुए जो किसी रेत के धोरे पर ज्यादा से ज्यादा एक बार जाएंगे ओर एक बार वापस आयेंगे. इतनी बालू रेत को तो आंधी बराबर कर देती है. इसलिए ऊंटों से बालू रेत के टीलों पर कोई दबाव नहीं बनता.’
लेकिन एक ही जीप जब सैंकड़ों बार एक ही धोरे पर आती जाती है तो वहां की बालू रेत समतल हो जाती है. पिछले तीन-चार सालों से नाइट जीप सफारी भी चल रही है. अकेले खुरी में 50 से ज्यादा रिज़ॉर्ट ओर इतने ही होटल हैं. हर रिज़ॉर्ट में कम से कम एक जीप है. एक जीप दिन व रात की सफारी मिलाकर औसतन 300/400 बार एक ही धोरे से गुजरती है. यदि कुल जीपों की संख्या 100 मान लें और एक दिन में एक जीप 300 बार भी चली तो 100 जीप एक धोरे से कुल 30 हज़ार बार निकलेंगी. वे एक महीने में नौ लाख बार एक टीले पर चलेंगी और अक्टूबर से लेकर फरवरी तक वो 54 लाख बार निकली होंगी. इतने में उस टीले का क्या बचेगा?
खुरी में राजस्थान डेजर्ट रिज़ॉर्ट के मालिक खुशपाल भाटी हमें बताते हैं, ”हम पिछले दो दशकों से अपना रिज़ॉर्ट चला रहे हैं. ये बात बिल्कुल सही है कि जीप सफारी और नाइट जीप सफारी से मिट्टी के टीले समतल हो रहे हैं. लेकिन हमने भी जीप रखी हुई हैं. दूसरे रिज़ॉर्ट से कॉम्पटीशन का मामला हैं.’’
खुशपाल भाटी आगे बताते हैं” यहां एक दूसरी बात भी है जिस पर हम ध्यान नहीं दे रहे हैं. इस इलाके में मिट्टी के नये टीले नहीं बन रहे हैं. हमने उनके बनने-बिगड़ने के नेचुरल प्रोसेस को रोक दिया है. धोरों के किनारों पर पेड़ लगा रहे हैं. वहां पत्थर की दीवार लगा रहे हैं. उनके फैलाव को रोक रहे हैं. जब धोरों का फैलाव नहीं होगा तो नए धोरे बनेंगे कैसे?’
थार की जैव विविधता पर संकट
दुनिया मे मौजूद तमाम रेगिस्तानों में थार एकमात्र एसा रेगिस्तान है जहां जैव विविधता इतने बड़े स्तर पर पाई जाती है. थार के रेगिस्तान में जीवन अत्यंत कठोर है. यहां जल तथा आहार का अभाव और भीषण गर्मी जीवन को और भी जटिल बना देते हैं. लेकिन इतनी विषम परिस्थिति के बावजूद इस इलाके में जीवों की अनेक प्रजातियां फलती-फूलती रहती हैं.
रेगिस्तान में जीवन की उत्तरजीविता का कारण रेगिस्तानी जीवों का यहां के वातावरण के अनुसार सुरक्षात्मक क्रियाविधियां विकसित कर लेना है. दिन के समय रेगिस्तान निर्जन स्थल लगता है. लेकिन दिन ढलते ही रात के अंधेरे में यहां विभिन्न जीव-जंतु अपने-अपने सुरक्षित आवास स्थलों से बाहर निकल कर मरुभूमि को एक बेहद जीवन्त स्थान बना देते हैं.
थार रेगिस्तान में पाए जाने वाले जीव-जंतुओं में ऊंट व भेड़-बकरियों के अलावा हिरण, लोमड़ी, गो, सेह, रेगिस्तानी बिल्ली, जंगली सुअर, खरगोश, जहरीले सांपों की तीनों प्रजातियां (कोबरा, वाइपर, करैत) विभिन्न छिपकलियां, सांडा, गिरगिट, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, उल्लू, बाज, सुनहरी चिड़िया, बिच्छू, झाऊ मुस्सा/कांटों वाला चूहा और असंख्य कीड़े-मकोड़े शामिल हैं.
रेगिस्तानी जीव ख़ास कर सरीसृप ओर स्तनधारी जीव अत्यधिक संवेदनशील होते हैं. उनके जीवन चक्र मे जरा सी दखलंदाजी उन्हें विलुप्ति की ओर ले जाती है. यहां पाए जाने वाले जीव-जंतुओं और यहां की वनस्पति में गहरा रिश्ता है. यानी कि इनमें से किसी एक के साथ कोई भी छेड़छाड़ यहां की सम्पूर्ण पारिस्थितिकी को बदलकर रख देती है.
खुरी स्थित राजस्थानी डेजर्ट रिज़ॉर्ट में डांसर का काम करने वाली खेतु कालबेलिया हमें बताती हैं कि “हमने सांपों के घर पर कब्जा कर लिया है. कुछ साल पहले तक रेगिस्तान का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जहां से हम जहरीले सांप व बिच्छू नहीं पकड़ते थे. लेकिन अब सप्ताह में कभी-कभार ही कोई सांप नजर आता है. अब मिट्टी के धोरों पर दिन-रात मोटर-गाड़ियों की चहलकदमी रहती है.”
कमल सिंह भाटी जैसलमेर में खुरी ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले धोबा गांव के नजदीक एक ढाणी (बहुत छोटी एक बसावट) में रहते हैं. उनके चार बच्चे हैं. 45 वर्षीय भाटी भेड़-बकरियां चराते हैं. उनके पास 30 भेड़-बकरियां हैं. वे रेगिस्तान में होने वाली न के बराबर बारिश से ही अपने खाने लायक अन्न उपजा लेते हैं.
कमल सिंह के पास एक झुप्पी (झोपड़ी) है जिसकी दीवारें मिट्टी की ओर छत खींप (घास) की बनी है. यह मिट्टी की झुप्पी यहां की जलवायु के एकदम अनुरूप है. यह गर्मी में ठंडी ओर सर्दी में गर्म रहती है. उनके पास भेड़-बकरियों के लिए एक बाड़ा भी है. जहां से आती छोटे मेमनों की आवाज आपकी ध्यान आकर्षित करती है.
>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें
>> अपनी राय mailus@en.satyagrah.com पर भेजें