अर्णब गोस्वामी

Society | शख्सियत

अर्णब गोस्वामी: एक फनकार, जो कभी पत्रकार था

क्या अर्णब गोस्वामी के बचाव में उस पत्रकारिता से जुड़े अधिकारों की बात करना ठीक लगता है जिसे खुद उन्होंने ही मरणासन्न अवस्था में पहुंचा दिया है?

विकास बहुगुणा | 18 November 2020 | फोटो: यूट्यूब स्क्रीनशॉट

पत्रकारिता में अर्णब गोस्वामी के सफर की शुरुआत कोलकाता से निकलने वाले चर्चित अखबार द टेलिग्राफ के साथ हुई थी. यह 1994 की बात है. शुरू में अर्णब गोस्वामी को तथ्यों की पुष्टि करने की जिम्मेदारी मिली थी. कौन जानता था कि एक दिन यह शख्स हिंदुस्तान की पत्रकारिता के शिखर (जिसे कई गर्त भी मानते हैं) पर जा पहुंचेगा और उस पर तथ्यों और जिम्मेदारी, दोनों से दूरी बरतने के आरोप लगेंगे.

मूल रूप से असम के बरपेटा जिले से ताल्लुक रखने वाले अर्णब गोस्वामी के दादा रजनीकांत जाने-माने वकील और कांग्रेसी नेता थे. उनके नाना गौरीशंकर भट्टाचार्य का नाम कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं और बुद्धिजीवियों में गिना जाता था जिन्होंने असम में कई साल तक नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी निभाई. अर्णब गोस्वामी के ताऊ दिनेश गोस्वामी असम गण परिषद से सांसद होने के साथ-साथ वीपी सिंह सरकार में कानून मंत्री भी रहे. दूसरी तरफ, सेना में कर्नल रहे उनके पिता मनोरंजन गोस्वामी का ताल्लुक भाजपा से रहा. पार्टी के टिकट पर उन्होंने 1998 में गुवाहाटी से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था.

इस पृष्ठभूमि से चलते हुए वर्तमान तक पहुंचें तो अर्णब गोस्वामी की कहानी विविधता से भरी एक धारा के इकरंगी होने की कहानी है. यह कहानी एक ऐसे पत्रकार की मौत की भी कहानी है जिसने एक लिहाज़ से पूरी पत्रकारिता को मरणासन्न हालत में पहुंचा दिया.

अर्णब गोस्वामी ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से सोशल एंथ्रॉपॉलॉजी में मास्टर्स किया है. इसके बाद ही वे कोलकाता से निकलने वाले द टेलिग्राफ में पहुंचे थे. कुछ साल पहले चर्चित पत्रिका कैरेवां से बातचीत में उस समय उनके वरिष्ठ रहे रुद्रांग्शु मुखर्जी ने उन्हें एक उत्सुक और उत्साही युवा के तौर पर याद किया था जिसमें कुछ ज्यादा ही विनम्रता थी और जो दिन भर सिर झुकाए अपने काम में डूबा रहता था.

एक साल बाद ही 1995 में अर्णब गोस्वामी ने द टेलिग्राफ को अलविदा कह दिया और एनडीटीवी आ गए. इस लिहाज से उन्होंने अपने सीनियर राजदीप सरदेसाई वाली राह पकड़ी थी जो साल भर पहले ही द टेलिग्राफ छोड़कर एनडीटीवी गए थे. एनडीवी पर अर्णब, राजदीप के साथ प्राइम टाइम में आने वाले शो न्यूजऑवर की एंकरिंग करते थे. साथ ही वे न्यूजनाइट नाम के डिबेट शो का जिम्मा भी संभालते थे. उन दिनों के उनके सहयोगी याद करते हैं कि तब अर्णब की राजदीप के साथ होड़ होती थी. राजदीप किसी मुद्दे पर रिपोर्टिंग करने फील्ड में जाते तो अर्णब उसी मुद्दे पर पैनल डिबेट करने लगते. हालांकि अगर एनडीटीवी के समय को देखें तो राजदीप इस दौड़ में अर्णब गोस्वामी से हमेशा आगे रहे. यह प्रतिद्वंदिता आगे भी रही जब दोनों ने लगभग एक ही समय पर दो अलग-अलग चैनल लॉन्च किए. वक्त के साथ इस होड़ से उपजी कड़वाहट बढ़ती गई और यह सिलसिला आज भी जारी है.

अर्णब एनडीटीवी में एक लंबे समय तक रुके और 2006 में उन्होंने चैनल को तभी छोड़ा जब उन्हें टाइम्स नाउ को लांच करने का मौका मिला. बेनेट एंड कोलमैन ग्रुप के मुखिया समीर और विनीत जैन अपने इस चैनल को न्यूज और बिजनेस न्यूज चैनल का मिला-जुला रूप देना चाहते थे. जानकारों के मुताबिक उनका लक्ष्य सीएनबीसी-टीवी 18 को चुनौती देना था. शुरुआत में टाइम्स नाउ इसी रास्ते पर चला भी. जानकारों के मुताबिक अर्णब गोस्वामी के लिए ऊपर से निर्देश बिल्कुल साफ थे – इसे विशुद्ध समाचार चैनल बनाना है जिसमें हर खबर को समुचित रूप से पुष्टि के बाद ही चलाया जाए. माना जाता है कि ऐसा होने में रॉयटर्स की एक बड़ी भूमिका थी क्योंकि इस प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी की टाइम्स नाउ में एक चौथाई से ज्यादा हिस्सेदारी थी.

लेकिन मामला जमा नहीं. चैनल टीआरपी में कहीं नहीं था. कोढ़ में खाज वाली बात यह थी कि टाइम्स नाउ से महीना भर पहले ही लांच हुआ सीएनएनआईबीएन कहीं ज्यादा टीआरपी और चर्चा बटोर रहा था. आलम यह हो गया कि जैन बंधु अर्णब गोस्वामी का विकल्प ढूंढने लगे. बताया जाता है कि उन दिनों चर्चित पत्रकार वीर सांघवी को भी चैनल की कमान थामने का ऑफर मिला था.

यहीं से अर्णब गोस्वामी ने गियर बदला. उन्होंने वह करना शुरू किया जो टाइम्स नाउ ही नहीं पूरे भारतीय मीडिया का स्वरूप बदलने वाला था. इसे अर्णब गोस्वामी की पेशेवर यात्रा का दूसरा चरण भी कहा जा सकता है.

अब तक टाइम्स नाउ विशुद्ध समाचार दिखाता था. हफ्ते के आखिर यानी वीकेंड में उस पर फीचर शोज आते. अब अर्णब गोस्वामी ने पैकेजिंग से लेकर एंकरिंग तक समाचारों के हर पहलू में नाटकीयता का पुट डालना शुरू किया. यह 2007 की बात है. अब टाइम्स नाउ में एंकर बोलने की जगह चिल्लाने लगे. मेहमान भी कभी एक-दूसरे पर तो कभी एंकर पर चिल्लाते. प्राइम टाइम पर आने वाले अर्णब के न्यूजऑवर में यह सिलसिला अति पर पहुंच जाता.

टाइम्स नाउ में काम कर चुके एक पत्रकार कहते हैं, ‘चिल्लाना, आरोप लगाना और फिर जज की तरह फैसले सुनाना आम बात हो गई थी. उनके कार्यक्रम में विचारों की दो अतियां एक दूसरे से टकराती थीं और एक नाटकीय माहौल बनाती थीं.’ जानकारों के मुताबिक यह एक तरह का बौद्धिक रियलिटी शो था जिसमें आने की शर्त ही यही होती थी कि दोनों पक्षों से आए लोग अच्छी अंग्रेजी बोलते हों और आक्रामक रवैये वाले हों. कभी-कभी तो पैनलिस्ट गुस्से में शो छोड़कर भी चले जाते.

जल्द ही इसके नतीजे भी दिखने लगे. टीआरपी के लिहाज से न्यूजऑवर नौ बजे अंग्रेजी चैनलों पर आने वाला सबसे लोकप्रिय शो बन गया. अर्णब गोस्वामी का ‘नेशन वांट्स टू नो’ कहना एक मुहावरा बन गया. और फिर न सिर्फ न्यूजऑवर बल्कि टाइम्स नाउ भी टीआरपी के मामले में नंबर वन हो गया. आखिरकार अर्णब गोस्वामी ने उस एनडीटीवी को पीछे छोड़ दिया था जिसमें उन्होंने करीब एक दशक गुजारा था और जिसकी खबरों के प्रस्तुतिकरण की शैली उन्हें पसंद नहीं थी. अर्णब गोस्वामी ने उन राजदीप सरदेसाई के चैनल को भी आखिरकार मात दे दी थी जिनके साथ वे एक दशक तक होड़ करते रहे थे.

मुंबई हमले और कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले जैसे मुद्दों पर टाइम्स नाउ की कवरेज ने टाइम्स नाउ की लोकप्रियता में और भी बढ़ोतरी की. लेकिन जिस घटना ने इसे चरम पर पहुंचाया वह थी अन्ना आंदोलन. अन्ना हजारे ने जब भ्रष्टाचार के विरोध और लोकपाल के समर्थन में जंतर-मंतर पर धरने का ऐलान किया तो शुरुआत में बाकी समाचार चैनलों ने इसे खास तवज्जो नहीं दी. लेकिन जब अर्णब गोस्वामी ने एक दिन जंतर-मंतर पर अपने सारे रिपोर्टर तैनात कर दिए और घंटों तक इसकी कवरेज की तो फिर दूसरे चैनलों को भी अपने रिपोर्टर वहां भेजने पड़े. बहुत से लोगों के मुताबिक यह टाइम्स नाउ और अर्णब गोस्वामी की आक्रामक कवरेज के चलते ही संभव हुआ कि अन्ना आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर छा गया.

इससे कुछ महीने पहले ही ट्यूनीशिया और मिस्र में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों ने तत्कालीन सत्ताओं को उखाड़ फेंका था. इसे अरब क्रांति कहा गया. भारत में जिस तरह अर्णब गोस्वामी ने अन्ना आंदोलन को एक आंधी में तब्दील किया उसके चलते कई विश्लेषक चुटकी लेते हुए इसे अर्णब क्रांति भी कहने लगे थे. बेनेट और कोलमैन ग्रुप की अलग-अलग समाचार संस्थाओं से जुड़े मौजूदा संपादकों में अर्णब गोस्वामी अपवाद हो गए थे. उनका नाम उस ब्रांड से बड़ा हो गया था जिसके लिए वे काम करते थे.

संस्कृति हमेशा सफलता की होती है. कारोबार की दुनिया में तो यह बात और भी मजबूती से लागू होती है. अर्णब गोस्वामी की शैली ने टाइम्स नाउ को शीर्ष पर ला खड़ा किया तो बाकी भी उनकी नकल करने लगे. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आज भी ऐसा लगता है मानो हर एंकर अर्णब गोस्वामी जैसा होना चाहता है. उनकी वजह से हंगामाखेज पैनल डिबेट प्राइम टाइम शो का पर्याय हो गए. इनमें काम की बात कम होती, शोर ज्यादा. चीखना-चिल्लाना, आरोप लगाना, फैसले सुनाना. हिंदी न्यूज चैनलों में यह बदलाव सबसे विकृत रूप में दिखा जहां कुछ एंकरों को आलोचक चुटकी लेते हुए छोटा या सस्ता अर्णब कहने लगे. बहस और चर्चा का स्तर रसातल में पहुंच गया.

कइयों का मानना है कि जिस आक्रामक भावुकता भरे राष्ट्रवाद को अर्णब गोस्वामी ने अपनी शैली बनाया उसका मकसद राजदीप सरदेसाई और एनडीटीवी के संस्थापक प्रणब रॉय से अलग पहचान बनाना था. एनडीटीवी में यह संभव नहीं था क्योंकि वहां वे इन हस्तियों की छाया में थे. उधर, टाइम्स नाउ में भी शुरुआत में उन्हें वही करना पड़ा जो जैन बंधु चाहते थे. तब अर्णब गोस्वामी का कोई ऐसा नाम भी नहीं था. उन दिनों बड़ी खबर यही थी कि टाइम्स ग्रुप ने अब एक अंग्रेजी समाचार चैनल भी शुरू किया है, न कि यह कि इसकी कमान अर्णब गोस्वामी संभाल रहे हैं. लेकिन जब टीआरपी के मामले में वैसे नतीजे नहीं आए और उनकी कुर्सी खतरे में आ गई तो उन्होंने आखिरी दांव चला. कैरेवां से बात करते हुए टाइम्स नाउ के सबसे पहले कर्मचारियों में से एक नाओमी दत्ता का कहना था, ‘मुझे लगता है कि अपना इस तरह का व्यक्तित्व पेश करने की बात उनके दिमाग में पहले से थी. यानी उन्माद और भावुकता के मेल वाला एंकर बनने की. ये बाद में नहीं हुआ. बाद में ये बस काम करने लगा, लेकिन ये हमेशा से ही उनकी योजना का हिस्सा था… एक बार उन्हें यह महसूस हो गया कि ये सफलता का मंत्र बन गया है और लोग उन्हें फॉलो कर रहे हैं तो उन्होंने इसे ही अपना फॉर्मेट बना लिया दिया.’ 

2012 आते-आते दो से तीन घंटे चलने वाले न्यूजऑवर के विज्ञापन रेट बाकी अंग्रेजी समाचार चैनलों के मुकाबले सबसे ऊपर पहुंच गए थे. बताते हैं कि चैनल दस सेकेंड के स्पॉट के लिए 16 हजार रु तक वसूलने लगा था. संपादकीय संसाधनों का 60 फीसदी हिस्सा न्यूजऑवर पर ही खर्च होता था. बताया जाता है कि चैनल के कुल दर्शकों में इस शो का 40 फीसदी योगदान था और करीब डेढ़ सौ करोड़ रु के सालाना राजस्व का 20 फीसदी हिस्सा इसकी देन था. भीतर की जानकारी रखने वालों की मानें तो उस समय अर्णब गोस्वामी खुलेआम कहा करते थे कि चैनल के कर्मचारियों की सैलरी उनके शो से आती है.

रिपब्लिक : अर्णब का अपना साम्राज्य

फिर नवंबर 2016 में अचानक खबर आई कि अर्णब गोस्वामी टाइम्स नाउ छोड़ रहे हैं. लोगों के लिए यह हैरानी का सबब था क्योंकि उस समय उनकी और उनके ब्रांड की लोकप्रियता शिखर पर बनी हुई थी. अपनी विदाई के मौके पर न्यूजरूम में मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए उनका कहना था, ‘खेल अब शुरू होगा… स्वतंत्र मीडिया का समय आ चुका है.’ उन्होंने अखबारों को जो इंटरव्यू दिए उनमें उनका यह भी कहना था कि टाइम्स नाउ में उन्हें पूरी स्वतंत्रता नहीं दी जा रही थी. बिजनेस स्टैंडर्ड से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘मैंने फर्जी और समझौता करने वाले मीडिया से अपनी आजादी का ऐलान कर दिया है.’ उनका यह भी कहना था कि वे अब एक निष्पक्ष मीडिया संस्थान की स्थापना करेंगे. यहां से अर्णब गोस्वामी की पेशेवर यात्रा का तीसरा चरण शुरू होता है.

अर्णब गोस्वामी के मुताबिक 18 नवंबर 2016 को टाइम्स नाउ में उनका आखिरी दिन था, लेकिन दो दिन पहले ही उन्हें बताया गया कि वे अपना शो नहीं कर सकते. उन्होंने कहा, ‘मुझे अपने ही स्टूडियो में नहीं घुसने दिया गया. जो स्टूडियो मैंने बनाया था वहीं मुझे जाने नहीं दिया गया.’ अर्णब गोस्वामी की मानें तो ऐसा तब हुआ जब उन्होंने नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की एक रैली पर सवाल उठाए. भविष्य को लेकर उनका कहना था, ‘ओपीनियन (नजरिया) ही पत्रकारिता का भविष्य है. अगर मैं दिन भर दूसरे लोगों को सुनता रहूंगा तो बीमार पड़ जाऊंगा.’

मई 2017 में अर्णब गोस्वामी ने रिपब्लिक टीवी लॉन्च किया. इसे चलाने वाली कंपनी थी एआरजी आउटलायर मीडिया प्राइवेट लिमिटेड. टाइम्स नाउ छोड़ने के एक दिन बाद यानी 19 नवंबर 2016 को अर्णब को इसका एमडी यानी प्रबंध निदेशक नियुक्त किया गया था. राज्यसभा सांसद और तब केरल में एनडीए के उपाध्यक्ष राजीव चंद्रशेखर भी इसके निदेशक थे जिन्होंने इसमें एक बड़ी रकम निवेश की थी. राजीव चंद्रशेखर की एशियानेट न्यूज नेटवर्क, सुवर्णा न्यूज और कन्नड़ अखबार प्रभा में भी हिस्सेदारी है.

इसके अलावा एआरजी आउटलायर मीडिया में एसएआरजी मीडिया होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक कंपनी की भी प्रमुख हिस्सेदारी थी. एसएआरजी के निदेशक अर्णब गोस्वामी और उनकी पत्नी सम्यब्रत रे गोस्वामी थे और इस कंपनी की ज्यादातर हिस्सेदारी भी उन्हीं के पास थी. रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज के मुताबिक एसएआरजी ने एआरजी आउटलायर में 26 करोड़ रु का निवेश किया था. एसएआरजी में गोस्वामी दंपत्ति के अलावा 14 अन्य हिस्सेदार भी थे. इनमें से एक रंजन रामदास पई भी थे जो मणिपाल ग्रुप के मुखिया हैं.

अप्रैल 2018 में चंद्रशेखर औपचारिक रूप से भाजपा में शामिल हो गए. इसके बाद उन्होंने नैतिकता का हवाला देते हुए एआरजी आउटलायर मीडिया के बोर्ड से इस्तीफा दे दिया. मई 2019 में इस कंपनी में उनकी ज्यादातर हिस्सेदारी अर्णब गोस्वामी ने खरीद ली. इस तरह अर्णब के पास अब उस कंपनी की कुल 82 फीसदी हिस्सेदारी हो गई जिसका कुल मूल्य 1200 करोड़ रु से भी ज्यादा बताया जाता है. इस लिहाज से भी वे अपने समकालीनों से बहुत आगे दिखते हैं

चार साल पहले जब अर्णब के नए चैनल में राजीव चंद्रशेखर के मुख्य निवेशक होने की खबर आई थी तो एक वर्ग की तरफ से आरोप लगने लगे थे कि यह चैनल सत्ता प्रतिष्ठान और भाजपा के प्रति झुकाव वाला होगा. राजीव चंद्रशेखर उन दिनों कर्नाटक से निर्दलीय सांसद थे, लेकिन साथ ही वे केरल में एनडीए के उपाध्यक्ष भी थे. यही नहीं, 2016 में केरल में हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने एनडीए के लिए वोट मांगे थे और वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों में भी शामिल हुए थे.

इस तरह के आरोपों ने तब और जोर पकड़ लिया जब सितंबर 2016 में जूपिटर कैपिटल के सीईओ अमित गुप्ता की एक मेल लीक हो गई. यह वही फर्म है जिसके जरिये राजीव चंद्रशेखर मीडिया से जुड़े उद्यमों में निवेश करते हैं. संपादकीय विभाग के शीर्ष लोगों को भेजी गई इस मेल में कहा गया था कि विभाग से जुड़े जिन भी लोगों को भर्ती किया जा रहा है उनका झुकाव थोड़ा सा दक्षिणपंथी होना चाहिए. अमित गुप्ता का यह भी निर्देश था कि नया स्टाफ भारत समर्थक, सेना समर्थक और चेयरमैन (राजीव चंद्रशेखर) की विचारधारा से जुड़ा होना चाहिए और उसे राष्ट्रवाद और शासन को लेकर चेयरमैन के विचारों से भली-भांति परिचित होना चाहिए, और हायरिंग मैनेजर को सुनिश्चित करना होगा कि जो भी जरूरी बातें बताई गई हैं उनका पालन हो. हालांकि अगले ही दिन अमित गुप्ता की एक और मेल आई जिसमें पहले वाली मेल को अनदेखा करने का निर्देश था. हालांकि बाद में सत्याग्रह की सहयोगी वेबसाइट स्क्रोल.इन के साथ बातचीत में राजीव चंद्रशेखरन ने दावा किया कि इस मेल का उनकी टीम के किसी भी सदस्य से कोई लेना-देना नहीं था.

अपने लॉन्च के दिन यानी छह मई 2017 को रिपब्लिक टीवी ने जो सुपर एक्सक्लूसिव खबर ब्रेक की वह थी आरजेडी मुखिया लालू प्रसाद यादव और अपराध की दुनिया से राजनीति में आए मोहम्मद शहाबुद्दीन के बीच की कथित बातचीत की ऑडियो रिकॉर्डिंग. इसके बाद वेंकैय्या नायडू और सुशील कुमार मोदी जैसे भाजपा के बड़े नामों ने अर्णब को बधाई देते हुए उन्हें नए चैनल के लिए शुभकामनाएं दी थीं. बाद में भी रिपब्लिक की पत्रकारिता विपक्ष पर ज्यादा हमलावर दिखती रही और उस पर भाजपा का माउथपीस होने के आरोप बढ़ते गए.

इस सिलसिले में एक दिलचस्प उदाहरण पर गौर किया जा सकता है. भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार में इस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा 22 कैबिनेट मंत्री हैं. चार नवंबर को अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी के बाद नरेंद्र मोदी और नितिन गडकरी सहित चार नाम छोड़ दें तो हर केंद्रीय कैबिनेट मंत्री ने महाराष्ट्र पुलिस की इस कार्रवाई के खिलाफ ट्वीट या रिट्वीट किया है. जानकारों के मुताबिक बीते छह साल में ऐसा कभी नहीं देखा गया जब किसी पत्रकार की गिरफ्तारी को लेकर केंद्रीय मंत्रियों की पूरी फौज ने ऐसी एकजुटता दिखाई हो. अर्णब गोस्वामी के समर्थन में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे भाजपा की सत्ता वाले राज्यों के मुख्यमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा सहित पार्टी के तमाम बड़े नाम भी खड़े नजर आए. उधर, महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार में शामिल कांग्रेस और एनसीपी के नेतृत्व ने इस पर चुप्पी साधे रखी. दूसरी तरफ, इस सरकार की अगुवाई कर रही शिवसेना का यह कहना था कि कानून अपना काम कर रहा है और अर्णब की गिरफ्तारी को राजनीति से जोड़ना गलत है.

एक वर्ग के मुताबिक अर्णब के खिलाफ इस कार्रवाई को लेकर दो राजनीतिक खेमों का यह अलग-अलग बर्ताव बताता है कि इस पत्रकार का राजनीतिक इस्तेमाल हो रहा है. बीबीसी से बातचीत में महाराष्ट्र की वरिष्ठ पत्रकार सुजाता आनंदन कहती हैं, ‘जाहिर सी बात है इस पूरे मामले में राजनीति हो रही है. अर्णब का बीजेपी इस्तेमाल कर रही है. अर्णब की पत्रकारिता देख कर कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि वो बीजेपी के समर्थन की पत्रकारिता करते हैं. उनका जर्नलिज़्म प्रोपगैंडा जर्नलिज़्म है. बीजेपी के उनके समर्थन में उतरने से ये बात और साफ़ हो जाती है.’

वे आगे कहती हैं, ‘अब तक बीजेपी के निशाने पर शिवसेना रहती थी, इसलिए उसको अर्नब गोस्वामी ने अपनी पत्रकारिता में टारगेट किया. फिर चाहे वो मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के लिए अभ्रद भाषा का इस्तेमाल हो या उनके बेटे आदित्य ठाकरे या फिर मुंबई के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह के लिए. अगर आप किसी को रात-दिन टारगेट करेंगे तो ज़ाहिर सी बात है एक दिन आप भी उनके निशाने पर आएंगे ही. बात बस मौके की होती है.’ कई दूसरे जानकार भी कहते हैं कि जिस तरह से अर्णब गोस्वामी विपक्षी पार्टियों खासकर कांग्रेस के विरोध को भ्रष्टाचार से लेकर पाकिस्तान तक हर चीज के विरोध का पर्याय बनाने में लगे थे, उसका नुकसान उन्हें होना तय था. कभी जिन सोनिया गांधी का पहली बार साक्षात्कार लेने पर वे फूले नहीं समाए थे, उन्हीं को वे पिछले दिनों इटली वाली सोनिया कहकर संबोधित कर रहे थे.

2018 में अन्वय नाइक की आत्महत्या के जिस मामले में अर्णब गोस्वामी को गिरफ्तार किया गया उसे पुलिस बंद कर चुकी थी. अब उसे फिर से खोला गया है. 2018 में महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना की गठबंधन सरकार थी. जानकारों के मुताबिक तब राजनीतिक समीकरण कुछ और थे इसलिए जब पुलिस ने केस बंद किया तो शिवसेना को इससे कोई मतलब नहीं था. लेकिन अब समीकरण दूसरे हैं और लड़ाई शिवसेना और भाजपा के बीच है जिसमें अर्णब गोस्वामी भाजपा के हाथों में खेलने की कीमत चुका रहे हैं.

कई जानकार इस पूरे मामले की वजह सुशांत सिंह राजपूत की पूर्व मैनेजर दिशा सालियान की मौत पर रिपब्लिक टीवी के कार्यक्रम को मानते हैं. दिशा सालियान ने आठ जून 2020 को आत्महत्या की थी. इसके कुछ दिन बाद ही सुशांत की आत्महत्या की खबर आई थी. बीबीसी से बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘इस मामले पर अपने एक शो में अर्णब गोस्वामी ने इशारे में आदित्य ठाकरे पर निशाना साधा था. अर्णब ने उनके लिए ‘बेबी पेंगुइन’ शब्द का इस्तेमाल किया था. उद्धव ठाकरे उसी बात की गांठ बांध कर बैठे हैं.’

जानकारों के मुताबिक अर्णब गोस्वामी और उनका चैनल भाजपा और उसकी विचारधारा के हर सिरे से जुड़ा है. भावुकता और आक्रामकता से भरे राष्ट्रवाद से लेकर सेना को लेकर उनकी कवरेज तक तमाम मोर्चों पर यह साफ दिखता है. इस लिहाज से देखें तो अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी ने एक अहम बात की तरफ फिर से ध्यान खींचा है. जैसा कि द प्रिंट पर अपने एक लेख में राजनीतिक विश्लेषक जैनब सिकंदर कहती हैं, ‘अगर मीडिया खुद को किसी राजनीतिक पार्टी से जोड़ने की कोशिश करेगा तो वह सिर्फ मोहरा बनकर रह जाएगा. और लड़ाई में सबसे पहले मोहरों को ही कुर्बान किया जाता है. भाजपा अब अर्णब का इस्तेमाल ये दिखाने के लिए कर रही है कि महा विकास अघाड़ी और शिवसेना के राज में वैसी ही तानाशाही है जैसी इंदिरा गांधी के दौर में थी.’

हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि अर्णब गोस्वामी ने भी भाजपा, उसके नेताओं, विचारधारा और समर्थकों का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है. अगर वे ऐसा न करते तो उनका चैनल आज यहां तक न पहुंचता. यानी कि यह एक हाथ ले, दूसरे हाथ दे वाली स्थिति है. और इनमें से कुछ लोगों का यह भी मानना है कि अर्णब गोस्वामी भाजपा और उसके राजनीतिक-गैर राजनीतिक कुनबे के लिए सिर्फ महाराष्ट्र सरकार को केवल एक बार बुरा या नीचा या अलोकतांत्रिक दिखाने से ज्यादा कीमती हैं. वे विचारों की जटिल लड़ाई में अक्सर कमजोर पड़ती रही भाजपा को जिस तरह का समर्थन देते हैं और आगे भी दे सकते हैं, उसकी पार्टी को सख्त जरूरत है. इस लिहाज से भाजपा अर्णब को अपने से दूर या नाराज करके उनका फायदा उठा सकती है ऐसे सोचना ठीक नहीं लगता.

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