स्कूल के बच्चे

Society | शिक्षा

कोरोना संकट ने सबसे ज्यादा नुकसान जिन क्षेत्रों का किया है शिक्षा उनमें सबसे आगे है

विडंबना यह है कि कोरोना संकट ने शिक्षा के क्षेत्र में जिन समस्याओं को जन्म दिया है उनका कोई फौरी हल ढूंढ़ पाना लगभग असंभव है

Anjali Mishra | 19 July 2020 | फोटो: फ्लिकर

जुलाई का महीना नई कक्षा, नई किताब-कॉपियों की खुशबू के साथ नए बस्ते, यूनिफॉर्म और जूतों की रंगत और कुछ नए चेहरों से दोस्ती का मौसम होता है. बरसात की आमद कन्फर्म हो चुकने के बाद, इस सीलन-उमस भरे मौसम का मिज़ाज कुछ ऐसा हुआ करता है कि सालों पहले पढ़ाई खत्म कर चुकने वालों को भी इन दिनों स्कूल से जुड़ा नॉस्टैल्जिया रह-रह कर सताता है. लेकिन 2020 किसी भी और चीज से ज्यादा कोरोना वायरस का साल है, इसका असर गुजरे कई महीनों की तरह जुलाई पर भी है. अब जब जुलाई का पहला पखवाड़ा बीत चुका है, तब स्कूल और बच्चों से जुड़ी कुछ उन खबरों पर गौर किया जा सकता है जो पिछले दिनों देश भर में सुर्खियों का हिस्सा बनीं, मसलन –

पश्चिम बंगाल में कोरोना संक्रमण के लगातार बढ़ते मामलों को देखते हुए, ममता बनर्जी सरकार ने कई लॉज, स्टेडियम, रैनबसेरों समेत सरकारी स्कूलों को भी अस्पताल में बदलने के निर्देश दिए हैं. इसका सीधा मतलब है कि लंबे समय तक बच्चों की स्कूल में वापसी संभव नहीं है. आंध्र प्रदेश में सरकार ने 13 जुलाई से हफ्ते में एक दिन सरकारी स्कूलों को खोले जाने और ब्रिज कोर्स बनाए जाने की बात कही है. सिक्किम में जहां कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के चलते सभी सरकारी और निजी स्कूलों को अनिश्चित समय के लिए बंद रखने का फैसला किया गया है, वहीं पहले से ही बाढ़ से जूझ रहे असम में शैक्षणिक कैलेंडर को आगे बढ़ा दिए जाने की बात कही जा रही है. इस बीच पंजाब सरकार निजी स्कूलों की फीस वसूली की चिंता ज्यादा करती दिखाई दे रही है तो राजस्थान में सिलेबस छोटा करने पर विचार किया जा रहा है. और महाराष्ट्र में केवल हाई स्कूल और हायर सेकेंडरी के बच्चों के लिए स्कूल खोले जाने पर चर्चा हो रही है.

इन खबरों के जिक्र पर कोई भी कह सकता है कि यह तो होना ही था, कोरोना वायरस ने पढ़ाई को भी डिजिटल बना दिया है. बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे तो क्या वे इंटरनेट के जरिए अपनी पढ़ाई कर रहे हैं. हो सकता है कि कुछ बच्चों, खासकर बड़े-महंगे, कॉन्वेंट-मिशनरी, अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए यह बात सही भी हो. लेकिन इसे लेकर भी काफी संशय की स्थिति है. इसके लिए कर्नाटक का उदाहरण दिया जा सकता है जहां ऑनलाइन पढ़ाई को लेकर सरकार की स्थिति अभी साफ नहीं है. इसके अलावा सवाल यह भी है कि ऑनलाइन पढ़ने वाले बच्चे क्या सीख पा रहे हैं क्योंकि ऑनलाइन शिक्षा और शिक्षण की अपनी चुनौतिया हैं. लेकिन यह बड़ा सवाल है, फिलहाल अगर सिर्फ इस पर बात करें कि कितने बच्चों तक लॉकडाउन के दौरान किसी भी तरह की शिक्षा और शिक्षण सामग्री पहुंच रही है तो कोई स्पष्ट या आधिकारिक आंकड़ा न होने के बावजूद यह पता लगाना बहुत मुश्किल नहीं है कि यह आंकड़ा बहुत छोटा ही है.

छोटे शहरों-कस्बों में बड़े कहे जाने वाले स्कूलों और बड़े शहरों के छोटे-मोटे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाई अब खाना-पूर्ति भर रह गई है. लेकिन अगर हर जगह के सरकारी स्कूलों की बात करें तो उनके पहले से ही खराब हालात और भी बदतर होते दिखाई दे रहे हैं. इसका अंदाज़ा आगरा की कल्पना दुबे (बदला हुआ नाम) की बातों से लगता है, वे बताती हैं कि ‘बच्चे तो स्कूल नहीं आ रहे हैं. कहने के लिए कह सकते हैं कि ऑनलाइन पढ़ाई चल रही है लेकिन 100 में से सिर्फ 5 बच्चों के पास मोबाइल की सुविधा है. बाकियों के पास अगर है भी तो उनके मां-बाप के पास इतना पैसा नहीं है कि वे उसे रिचार्ज करवा कर रखें क्योंकि लॉकडाउन में सबके रोजगार बंद हो गए हैं. ऐसे में ऑनलाइन अगर कुछ हो रहा है तो वह है, मानव संपदा पर हमारी सर्विस बुक अपडेट किया जाना.’

कल्पना आगे बताती हैं कि ‘इस पर से मार यह है कि हमें रोज स्कूल जाना पड़ रहा है. मेरा स्कूल तो आगरा सिटी में ही है लेकिन बहुत सारे टीचर तो रोज बीमारी का खतरा लेकर पब्लिक ट्रांसपोर्ट से कई-कई किलोमीटर दूर जाते हैं. इन दिनों सरकार ने कायाकल्प अभियान चला रखा है तो स्कूल बिल्डिंग में मेन्टेनेंस का काम भी चल रहा है. सिर्फ उसके लिए सभी शिक्षकों को रोज सुबह सात बजे से एक बजे तक जाकर स्कूल में बैठना है. बाकी बचे वक्त में राशन, किताबें या स्कॉलरशिप बांटना है. या फिर शारदा अभियान चलाना है जिसमें घर-घर जाकर स्कूल ना जाने वाले बच्चों की जानकारी जुटानी होती है.’

उत्तर प्रदेश सरकार ने साल 2018 में ऑपरेशन कायाकल्प शुरू किया था जिसके तहत स्कूल सहित आंगनबाड़ी केंद्र, एएनएम सेंटर, पंचायत भवनों की मरम्मत और सौंदर्यीकरण किया जाना था. लॉकडाउन के समय बच्चों के स्कूल ना आने के चलते सरकारी तबका इसे मौके की तरह देख रहा है और इस तरह के कामों को जल्द खत्म किए जाने पर जोर दिया जा रहा है. इसके साथ ही, शिक्षकों की भर्ती से जुड़े फर्जीवाड़े को रोकने के लिए शिक्षकों समेत अन्य सरकारी कर्मचारियों की ऑनलाइन जानकारी रखने के लिए हाल ही में मानव संपदा पोर्टल भी बनाया गया है. इन्हीं का जिक्र कल्पना अपनी बातचीत में करती हैं. वैसे तो, ये सभी काम जरूरी और सराहनीय हैं लेकिन सरकारी तबके के रवैये, पोर्टल के ठीक से काम न करने और कोरोना संकट के चलते ये शिक्षकों के लिए मुसीबत जैसे बन गये हैं. यानी, कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में इन दिनों शिक्षक कर बहुत कुछ रहे हैं लेकिन उनमें पढ़ाने शामिल नहीं हैं.

लेकिन यह सिर्फ एक राज्य की कहानी नहीं है. कल्पना जिसे शारदा अभियान बताती हैं, मध्य प्रदेश के रीवा में रहने वाली प्राइमरी शिक्षिका सुषमा शुक्ला (बदला हुआ नाम) इसे प्रवेशोत्सव के नाम से संबोधित करती हैं. वे बताती हैं कि ‘हर साल जून-जुलाई के महीने में हमें प्रवेशोत्सव की कवायद करनी होती है जिसमें स्कूल छोड़ चुके या ना जाने वाले बच्चों को पहचान कर उनका स्कूलों में दाखिल करवाना होता है. कोरोना के टाइम ये काम नहीं भी किया जाता तो भी चलता, पर चलो ठीक है. लेकिन हाल ही में हमें आदेश दिया गया है कि हम घर-घर जाएं और वहां पर छह से दस बच्चों को इकट्ठा कर मोहल्ला क्लास लगाएं. जिन बस्तियों-मोहल्लों से बच्चे हमारे यहां पढ़ने आते हैं, वहां जब हम मोहल्ला क्लास लगाने पहुंचते हैं तो कई बार बच्चे कम उनके मां-बाप या मोहल्ले वाले ज्यादा इकट्ठे हो जाते हैं. ऐसे में तो हो चुकी पढ़ाई और कोरोना वायरस से बचाव. इससे अच्छा तो यह है कि स्कूल खोल दिए जाएं और सैनिटाइजेशन की व्यवस्था कर दी जाएं. वहां बच्चे कही ज्यादा सुरक्षित रहेंगे. हमें भी महामारी के इस समय में गली-गली घूमकर उनकी और अपने परिवार की जान खतरे में नहीं डालनी पड़ेगी.’

लॉकडाउन के दौरान छात्रों को कैसे पढ़ाया जाएगा, इसकी विस्तृत योजना बनाने के लिए मध्य प्रदेश के शिक्षा महकमे को पूरे नंबर दिए जाने चाहिए. ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ नाम से बनाए गए इस कार्यक्रम में व्हाट्सएप के जरिए स्टडी मटेरियल भेजने, रेडियो पर रेडियो स्कूल कार्यक्रम शुरू करने, डीडी एमपी चैनल पर शिक्षण सामग्री का प्रसारण किए जाने के साथ-साथ शिक्षकों को फोन पर बच्चों से संपर्क रखने की ताकीद की गई है. सैद्धांतिक तौर पर तो यह कार्यक्रम ठीक लगता है लेकिन व्यावहारिकता में उतना खरा नहीं उतरता है. मसलन, इसके लिए छात्रों का जो टाइम-टेबल तैयार किया गया है, वह सुबह दस बजे से रात आठ बजे तक की उनकी दिनचर्या बनाता है जो वास्तविकता में होना संभव नहीं है. साथ ही, इसमें अभिभावकों की भी भागीदारी है लेकिन ज्यादातर अभिभावक इसमें अड़चन महसूस करते हैं क्योंकि एक तो वे खुद इतने पढ़े-लिखे नहीं है कि रेडियो-टीवी पर आने वाली बातों को समझकर, अपने बच्चों का समझा सकें. दूसरे इस समय उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे लगातार फोन-इंटरनेट का खर्चा उठाते रह सकें. और फिर पूरे दिन वे अपना बचा-खुचा काम-धंधा देखें कि अपने बच्चों के आगे-पीछे घूमें.

रीवा शहर में ही आयरन वेल्डिंग का काम करने वाले रहीसुद्दीन कहते हैं कि ‘हमारे तीन बच्चे पढ़ते हैं. मास्टरजी समझा के गए थे. हर हफ्ते आते हैं. कहते हैं ये काहे नहीं करवाए, वो काहे नहीं करवाए. फोन काहे नही देते हो बच्चों को. रिचार्ज ही नहीं है तो वीडियो चलता ही नहीं है. इस समय सब दुकान-डलिया बंद है. कहां से रिचार्ज करवाएं. टीवी-रेडियो वाला दिखवा देते हैं और जो सरजी कागज देकर जाते हैं, उसको बच्चे अपने से ही कर लेते हैं.’

ऐसा ही एक अन्य उदाहरण नोएडा की शांति का है जो घरों में बतौर हाउस-हेल्प काम करती हैं. वे कहती हैं कि ‘हफ्ते-दस दिन में स्कूल वाले फोन करके कुछ-कुछ बता देते हैं. फिर मेरे दोनों बच्चों में लड़ाई छिड़ जाती है कि कौन मोबाइल लेगा. मेरे पास जिओ का फोन था. अब इनकी पढ़ाई के लिए मुझे छह-सात हजार का मोबाइल खरीदना पड़ेगा. मेरे पास पैसा नहीं है पर फिर भी सोच रही हूं. मोबाइल नहीं लूंगी तो दो महीने का खर्चा अभी आराम से चल जाएगा. दो-तीन महीने बाद काम अब शुरू भी हुआ है तो बस एक घर में ही जा सकती हूं. बस पांच हजार रुपये मिलते हैं. उतने में इतना ही हो पाएगा कि घर के किराये और बिजली के बिल भर सकूं.’ रहीसुद्दीन और शांति का उदाहरण बताता है कि कोरोना संकट से बिगड़े आर्थिक हालात में ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई कहीं न कहीं निचले तबके पर जबरन के आर्थिक दबाव की वजह भी बन रही है.

राजस्थान के सवाई माधोपुर में मिडिल स्कूल में पढ़ाने वाले रजत अग्रवाल (बदला हुआ नाम) इसके सामाजिक असर की बात करते हुए अपना एक अलग अनुभव बांटते हैं. वे कहते हैं कि ‘वैसे तो ऑनलाइन पढ़ाई का कार्यक्रम पूरी तरह ढोंग है. शहरी इलाकों में तो फिर भी आधे-तिहाई बच्चों तक स्टडी मटेरियल पहुंच रहा है लेकिन गांव में तो कोई नहीं पढ़ पा रहा है. अभिभावक हमसे लगातार एक ही सवाल पूछते हैं कि स्कूल कब खुलेगा? एक बात जिसने पिछले दिनों मुझे बहुत दुखी किया वो ये है कि अगर घर में एक मोबाइल है और दो बच्चे हैं. तो लड़के को मिल जाएगा लेकिन लड़की को नहीं. मैंने ऐसे कई उदाहरण देखे हैं. लड़कियां नहीं पढ़ पा रही हैं, यह बात सरकार नहीं समझ रही है. कोई और रास्ता निकाले जाने की ज़रूरत है.’

ऑनलाइन शिक्षा के लिए राजस्थान सरकार द्वारा शुरू किए गए स्माइल (सोशल मीडिया इंटरफेस फॉर लर्निंग एंगेजमेंट) प्रोग्राम पर टिप्पणी करते हुए रजत अग्रवाल (बदला हुआ नाम) कहते हैं कि ‘छात्रों को रोज यूट्यूब वीडियोज भेजे जाते हैं. ये वीडियोज शिक्षक ही बनाते हैं और शाला दर्पण (शिक्षा विभाग का वेबपोर्टल) पर भेजते हैं. जिन्हें स्टेट लेवल पर बैठा पैनल सलेक्ट करके राज्य भर में भेजता है. स्कूलों में हर शिक्षक के पास एक क्लास का ग्रुप होता है. ऊपर से आने वाले कॉन्टेंट को हम बच्चों को फॉरवर्ड कर देते हैं. ये सारा उपक्रम बिल्कुल किसी आम व्हाट्सएप मैसेज फॉरवर्ड की तरह होता है, बतौर शिक्षक हमारी भूमिका ही खत्म हो गई है. मैसेज भेजने के बाद हमारी जिम्मेदारी ये होती है कि हम रोजाना पांच बच्चों को फोन करके पूछें कि उन्हें जो कॉन्टेंट भेजा गया था, उसे उन्होंने देखा या नहीं. इस जानकारी को हम ऑनलाइन अपडेट भी करते हैं. इसके अलावा रेडियो और टीवी प्रोग्राम भी सरकार चला रही है. बस बुरा ये है कि इतनी सब कवायद के बाद भी ये सब बहुत कम बच्चों तक ही पहुंच पा रहा है.’

इस मामले में दिल्ली की स्थिति बाकी राज्यों से थोड़ा बेहतर है. दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की सातवीं कक्षा को पढ़ाने वाली श्वेता शर्मा (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि ‘यहां पर चॉकलिट (ChalkLit) प्रोग्राम चल रहा है. इसमें एप के जरिए रोजाना, कक्षा के हिसाब से अलग-अलग विषय का कॉन्टेंट भेजा जाता है जो हम बच्चों को भेज देते हैं. जिन्हें वो पूरा कर हमें भेजते हैं. उन्हें कोई परेशानी होती है तो हमसे पूछ लेते हैं. हालांकि ये अलग बात है कि उसके बाद भी उनकी कितनी समझ में आ पाता है. क्योंकि कई बच्चों को क्लास में आमने-सामने समझाने में भी काफी वक्त लगता है.’

श्वेता आगे कहती हैं कि ‘ज्यादातर बच्चों के घर में व्हाट्सएप और इंटरनेट की सुविधा है लेकिन कुछ बच्चे छूट जाते हैं. उनके लिए टीचर्स हफ्ते में एक दिन स्कूल जाते हैं तो पैरेंट्स आकर बच्चों की वर्कशीट ले जाते हैं. अगले हफ्ते वो वर्कशीट जमा हो जाती हैं और दूसरी दे दी जाती है.’ दिल्ली के स्कूलों में हैप्पीनेस और मिशन बुनियाद के तहत अलग-अलग विषयों से जुड़ी एक्टिविटीज भी करवाई जाती थीं, इस साल ये गतिविधियां ऑनलाइन करवाई गईं. दिल्ली के मदनपुर खादर में बतौर अतिथि शिक्षक पढ़ा रही एक शिक्षिका बताती हैं कि ‘जिन बच्चों के पास व्हाट्सएप था, उन्हें तो छुट्टियों में कोई दिक्कत नहीं थी. लेकिन जिनके पास यह एप नहीं था उनके लिए एक नंबर जारी किया गया था जिस पर मिसकॉल किया जा सकता था. इसके बाद बच्चों को कॉलबैक आती थी और वे उस पर वह कॉन्टेंट सुन सकते थे.’

लॉकडाउन के दौरान, सरकारी स्कूलों में ऑनलाइन पढ़ाई-लिखाई से जुड़े शिक्षकों और अभिभावकों के ये अनुभव बताते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में संसाधनों और दूरदर्शिता की कमी तो पहले से ही थी, लेकिन कोरोना वायरस की वजह से स्थित और भी खराब हो गईं हैं. ज्यादा दुखद यह है कि इसको हल कर पाना फिलहाल न तो सुघड़ से सुघड़ शिक्षक के हाथ में है और न ही सक्षम से सक्षम सरकारों के हाथ में.

उदाहरण के लिए ऑनलाइन पढ़ाई करवाने के लिए सबसे न्यूनतम जरूरत एक इंटरनेट वाला फोन और इंटरनेट हैं. लेकिन पहले तो लोगों के पास यही नहीं है. अगर फोन है भी तो उनकी आर्थिक स्थिति या तो पहले से ऐसी नहीं है कि वे इंटरनेट इस्तेमाल करने के लिए उसे हमेशा सही मात्रा में रिचार्ज रख सकें. कोरोना संकट के दौरान उनका रोजगार खत्म हो जाने के कारण वे और भी मुश्किल में पड़ गए हैं. फिर हर जगह मोबाइल इंटरनेट काम नहीं करता है. लेकिन ब्रॉडबैंड कनेक्शन लेना निचले तबके के लोगों के लिए कोई विकल्प है ही नहीं. और अगर किसी परिवार के पास मोबाइल और इंटरनेट हैं भी तो एकमात्र स्मार्टफोन वाला परिवार उससे अपने बाकी सारे काम करेगा या बच्चों को पढ़ाने को वरीयता देगा? और मोबाइल से पढ़ाई एक स्तर तक ही की जा सकती है उससे आगे जाने के लिए लैपटॉप लेना सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के परिवारों के बस की बात नहीं है.

इन सबका असर यह हुआ है कि वे बच्चे भी पढ़ाई से दूर हो गए हैं जिन तक पहले यह किसी तरह से पहुंच पा रही थी. ऐसे में अगर कोरोना वायरस का संकट जल्द ही हल नहीं हुआ तो इस क्षेत्र में बहुत बड़े सुधारों और निवेश की जरूरत होगी. और ऐसा करने की जरूरत भी तुरंत ही है, बिना यह सोचे कि आने वाले समय में कोरोना महामारी किस तरह का रूप लेने वाली है. नहीं तो शिक्षा के क्षेत्र का यह संकट देश के भविष्य के लिए बहुत बड़ी या शायद सबसे बड़ी त्रासदी साबित हो सकता है.

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