1940 के दशक में सभी बड़े देश मानते थे कि भारत जब भी स्वतंत्र होगा उसे विश्व समुदाय में समुचित स्थान देना होगा और उसके साथ उसी की भाषा में बात करनी होगी
राम यादव | 14 सितंबर 2021
सच तो यह है कि बाक़ी दुनिया भारत के साथ संपर्क-संवाद के लिए एक समय सचमुच हिंदी सीखना चाहती थी. हिंदी ही भारत के स्वतंत्रता संग्राम की भाषा थी. उस समय सभी एकमत थे कि हिंदी ही स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी. गांधी, नेहरू, पटेल जैसे नेता भारत में रह कर और सुभाषचंद्र बोस विदेश में रहते हुए हिंदी (या तब की हिंदुस्तानी) के माध्यम से ही देश की जनता को संबोधित, संगठित और आंदोलित किया करते थे.
यदि हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अंतिम वर्षों को देखें तो पाते हैं कि भारत उस समय भी, जनसंख्या की दृष्टि से, चीन के बाद संसार का दूसरा सबसे बड़ा देश था. विश्व के सभी प्रमुख देश मान कर चल रहे थे कि भारत जब भी स्वतंत्र होगा, उसे विश्व समुदाय में समुचित स्थान देना होगा और उसके साथ उसी की भाषा में बात करनी होगी. इसीलिए 24 अक्टूबर 1945 को स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्माण की प्रक्रिया में, भारतीय नेताओं की सहमति से, भारत की ब्रिटिश सरकार शुरू से ही शामिल थी.
जनवरी 1942 में बने पहले संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र (चार्टर) पर हस्ताक्षर करने वाले 26 देशों में भारत का भी नाम था. 25 अप्रैल 1945 को सेन फ्रांसिस्को में शुरू हुए और दो महीनों तक चले 50 देशों के संयुक्त राष्ट्र स्थापना सम्मेलन में भी भारत के प्रतिनिधि थे. 30 अक्टूबर 1945 को भारत की ब्रिटिश सरकार ने इस सम्मेलन में पारित अंतिम घोषणापत्र की विधिवत औपचारिक पुष्टि की थी.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और भारत
इस सारी प्रक्रिया के दौरान, स्वतंत्रता के बाद, भारत को भी सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिये जाने पर कुछेक बार विचार हुआ था. 1950 में अमेरिका ने, और 1955 में तत्कालीन सोवियत संघ ने, भारत का मन टटोलना चाहा था कि क्या वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता चाहेगा. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने यह कहते हुए इस पर अनिच्छा जतायी थी कि यह अधिकार सबसे पहले कम्युनिस्ट चीन का बनता है, भारत का नहीं.
नेहरूजी ने अपने निजी आदर्शवाद को साझे राष्ट्रहित से ऊपर रखा. यदि वे हृदयहीन चीन के प्रति 1950 या 1955 में अपरिमित सहृदयता न दिखाते, तो भारत आज कम से कम छह दशकों से सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होता. हिंदी तब अपने आप संयुक्त राष्ट्र की एक आधिकारिक भाषा बन गयी होती. भारत की ही नहीं, हिंदी की भी तब दुनिया भर में वैसी ही पूछताछ हो रही होती, जैसी आज चीन की और चीनी भाषा की है. कहने की आवश्यकता नहीं कि 1950 वाले दशक जैसा सुनहरा मौका न तो भारत के लिए और न हिंदी के लिए दुबारा आयेगा. सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट हिंदी को अपने आप एक विश्वभाषा बना देती.
हिंदी भाषियों की संख्या
आज स्थित यह है कि हम मुग्ध तो अंगेज़ी पर हैं, जबकि हिंदी भाषियों की भारी-भरकम संख्या बता कर देश-दुनिया में झंडा हिंदी का गाड़ना चाहते हैं. स्वयं देश के भीतर भी हिंदी भाषियों की सही संख्या बता सकना कोई सरल काम नहीं कहा जा सकता. 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि उस समय भारत की एक अरब 21 करोड़ की जनसंख्या में से 52 करोड़ लोग हिंदी भाषी थे. केवल दो लाख साठ हजार की मातृभाषा अंग्रेज़ी थी! 2001 की जनगणना के बाद के 10 वर्षों में हिंदी भाषियों की संख्या 25.19 प्रतिशत और अंग्रेज़ी भाषियों की 14.67 प्रतिशत बढ़ गयी थी. अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा मानने वाले लोग सबसे ज्यादा महाराष्ट्र में, और उसे अपनी पहली भाषा बताने वाले लोग सबसे ज्यादा तमिलनाडु और कर्नाटक में थे.
जनगणना के विश्लेषकों का कहना है कि हिंदी बोलने और समझने वाले धीरे-धीरे पूरे भारत में फैल रहे हैं. ग़ैर हिंदी भाषियों में भी हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ रही है. ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या अंग्रेजी वाकई भारत के राज्यों की आपसी संपर्क भाषा है या होनी चाहिये? यदि सरकारी कामकाज और फाइलों को देखें तो यही कहना पड़ेगा कि सरकारें अब भी अंग्रेज़़ी को ही छाती से लगाए हुए हैं. किंतु सामान्य जनजीवन को देखें, तो हम पाते हैं कि भारतीय भाषाओं का महत्व और हिंदी की संपर्क-सेतु वाली भूमिका बढ़ रही है.
हिंदी का वैश्विक विस्तार
हिंदी के वैश्विक विस्तार के बारे में भरोसेमंद आंकड़े बताना और भी टेढ़ी खीर है. मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी का विश्व संदर्भ’ में लिखा है कि 2005 में, भारत सहित दुनिया के 160 देशों में हिंदी बोलने वालों की कुल अनुमानित संख्या एक अरब 10 करोड़ 30 लाख के क़रीब थी. यहां यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि इन देशों के सभी या मूल निवासी हिंदी नहीं बोलते; हिंदी वास्तव में वही लोग बोलते हैं, जो हिंदी-भाषी भारतवंशी हैं और लंबे समय से अन्य देशों में रह रहे या बस गये हैं.
डॉ. उपाध्याय की मानें तो 2005 में चीन की मुख्य भाषा मंदारिन बोलने वालों की संख्या उस समय विश्व भर में हिंदी बोलने वालों से कुछ अधिक थी. लेकिन, दस साल बाद 2015 में, विश्व में हिंदी भाषियों की संख्या बढ़ कर एक अरब 30 करोड़ हो गयी थी और उनके रहने के देशों की संख्या 206. ऊपर लिखे स्पष्टीकरण के प्रकाश में काफ़ी अतिरंजित लगते इन आंकड़ों पर यदि विश्वास किया जा सके, तो कहा जा सकता है कि 2015 में हिंदी दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गयी थी. मातृभाषा की दृष्टि से तो चीन की मंदारिन के बाद हिंदी को ही संसार की दूसरी सबसे बड़ी भाषा कहा जा सकता है.
वैश्विक विस्तार भारतवंशियों तक ही
हिंदी का विस्तार ज़रूर हुआ है, लेकिन उन्हीं लोगों के बीच, जो भारत में रहते हैं, भारतीय नागरिक हैं या फिर विदेशों में रह रहे या वहां बस गए भारतवंशी हैं. उदाहरण के लिए, भारत से बाहर नेपाल में 80 लाख, अमेरिका में साढ़े छह लाख, मॉरीशस में चार लाख 85 हज़ार, फ़िजी में तीन लाख 80 हज़ार, दक्षिण अफ्रीका में दो लाख 50 हज़ार, सूरीनाम में डेढ़ लाख, हॉलैंड में लगभग एक लाख, युगांडा में एक लाख 47 हज़ार, ब्रिटेन में क़रीब 46 हज़ार (ब्रिटेन के क़रीब नौ लाख भारतवंशी पंजाबी, उर्दू, बंगाली, गुजराती या तमिल भाषी हैं), न्यूज़ीलैंड में 20 हज़ार, जर्मनी में 20 हज़ार, ट्रिनिडाड और टोबैगो में 16 हज़ार और सिंगापुर में क़रीब तीन हज़ार हिंदी भाषी भारतवंशी रहते हैं. ख़ाड़ी क्षेत्र के अरब देशों तथा ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में भी काफ़ी संख्या में ऐसे प्रवासी भारतीय रहते हैं, जो हिंदी भाषी हैं या हिंदी जानते हैं.
‘डॉ. उपाध्याय का अपनी पुस्तक में कहना है कि तेज़ी से हिंदी सीखने वाले देशों में चीन सबसे आगे है. वहां के 20 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है. 2020 तक वहां हिंदी पढ़ाने वाले विश्वविद्यालयों की संख्या 50 तक पहुंच जाने की उम्मीद है. यहां तक कि ‘चीन ने अपने 10 लाख सैनिकों को भी हिंदी सिखा रखी है!’
70 प्रतिशत चीनी मंदारिन बोलते हैं
डॉ. उपाध्याय ने अपनी पुस्तक में दिये आंकड़ों के लिए 2012 में किये गए एक शोध आधारित अध्ययन, ‘द वर्ल्ड आल्मेनक एंड बुक ऑफ फैक्ट्स’, न्यूयार्क की ‘न्यूज पेपर एंटरप्राइज़ेज़ एसोसिएशन’ और ‘मनोरमा इयर बुक’ इत्यादि को आधार बनाया है. वे कहते हैं कि चीनी समाचार एजेंसी ‘शिन्हुआ’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, केवल 70 प्रतिशत चीनी ही मंदारिन बोलते हैं, जबकि भारत में हिंदी बोलने वालों की संख्या करीब 78 प्रतिशत है. डॉ. उपाध्याय का कहना है कि दुनिया में 64 करोड़ लोगों की मातृभाषा हिंदी है, जबकि हिंदी 20 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा, और 44 करोड़ लोगों की तीसरी, चौथी या पांचवीं भाषा है.
सबसे बड़ी भाषाओं के विवाद में यदि हम इंटरनेट विश्वकोश ‘विकीपीडिया’ की विश्व की 28 सबसे बड़ी भाषाओं की सूची देखें, तो पाते हैं कि उसमें अंग्रेज़ी को विश्व की सबसे बड़ी भाषा बताया गया है. इस सूची के अनुसार, 2017 में विश्व भर में अंग्रेज़ी बोलने वालों की कुल संख्या एक अरब 12 करोड़ 10 लाख थी. एक अरब 10 करोड़ 70 लाख लोगों के साथ मंदारिन दूसरे नंबर पर और 69 करोड़ 74 लाख लोगों के साथ हिंदी-उर्दू मिश्रित हिंदुस्तानी तीसरे नंबर पर थी. इस सूची में बंगाली नौंवें, पंजाबी 11वें, तेलगू 18वें, मराठी 21वें और तमिल 22वें नंबर पर है.
भारत के लिए विदेशी रेडियो प्रसारण
यह मान कर कि अपनी भौगोलिक विशालता और बड़ी जनसंख्या के बल पर स्वतंत्र भारत शीघ्र ही दुनिया में एक बड़ी शक्ति बनेगा, ब्रिटेन के बीबीसी के अलावा भूतपूर्व सोवियत संघ, अमेरिका, चीन, जापान, पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी, मिस्र आदि कई देशों ने 1950 और 60 वाले दशक में भारत के लिए हिंदी में रोडियो कार्यक्रम प्रसारित करना शुरू किया. कई देशों के भारत स्थित दूतावास भी हिंदी में अपनी पत्रिकाएं आदि प्रकाशित करने लगे.
दिल्ली का सोवियत दूतावास अपनी पत्रिका ‘सोवियत भूमि’ के नाम पर भारतीय लेखकों-पत्रकारों को हर वर्ष ‘सोवियत भूमि’ पुरस्कार देने और उन्हें सोवियत संघ की यात्रा करने के लिए आमत्रित करने लगा. तत्कालीन सेवियत संघ में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के ऐसे-ऐसे सुंदर शब्दकोश प्रकाशित हुए, जैसे भारत में संभवतः आज तक नहीं हैं. भारत और सोवियत संघ के बीच प्रमुख समझौतों को हिंदी में भी लिखा जाने लगा. पूर्वी यूरोप के कई देश ऩयी दिल्ली स्थित अपने दूतावासों में ऐसे अधिकारी भेजने लगे, जिन्हें हिंदी भी आती थी.
लेकिन भारत में अंग्रेज़ी के वर्चस्व से पस्त हो कर हिंदी के प्रति विदेशियों का यह उत्साह ठंडा पड़ता गया. विशेषकर 1990 वाले दशक से भारत में हिंदी की बढ़ती हुई उपेक्षा और टेलीविज़न चैनलों की भरमार को देखते हुए अमेरिका और जर्मनी सहित कई देशों ने हिंदी में अपने रेडियो प्रसारण इस बीच बंद कर दिये हैं. 1955 के बाद से 53 वर्षों तक हिंदी में रेडियो कार्यक्रम प्रसारित करने के बाद ‘वॉइस ऑफ़ अमेरिका’ ने, 30 सितंबर 2008 के दिन, हिंदी कार्यक्रम बंद कर दिया, जबकि उर्दू का समय काफ़ी बढ़ा दिया. कुछ ही समय बाद जर्मनी के ‘डॉएचे वेले’ ने भी 1964 से चल रहा हिंदी प्रसारण बंद कर दिया. बीबीसी का हिंदी कार्यक्रम भी बंद होने वाला था. अब वह लंदन के बदले नयी दिल्ली में तैयार होता है और शॉर्टवेव पर ताशकंद में उज़बेकिस्तान के एक रिले स्टेशन से भारत की दिशा में रिले किया जाता है.
अमेरिका और जर्मनी के उलट रूस, चीन, जापान,ईरान, उज़बेकिस्तान, मिस्र और वैटिकन से भारतीय श्रोताओं के लिए हिंदी कार्यक्रम आज भी प्रसारित हो रहे हैं. उज़बेकिस्तान के रेडियो ताशकंद ने 2012 में अपने हिंदी कार्यक्रम की 50वीं जयंती मनायी. हिंदी रेडियो स्टेशनों की सूची में तीन नए देशों के नाम भी जुड़ गये हैं— ऑस्ट्रेलिया, ईरान और ताजिकिस्तान. तीन नए ईसाई धर्मप्रचारक रेडियो स्टेशन भी भारतीयों के लिए हिंदी में प्रसारण कर रहे हैं– मोल्दाविया से ‘ट्रांसवर्ल्ड रेडियो’ और जर्मनी से ‘गॉस्पल फॉर एशिया’ तथा ‘क्रिश्चन विज़न.’
विदेशों में हिंदी का पठन-पाठन
जहां तक विदेशों में हिंदी के पठन-पाठन का प्रश्न है, तो कहना पड़ेगा कि इस मामले में हिंदी चीनी भाषा से बुरी तरह पिछड़ गयी है. इसके पीछे चीन की सरपट आर्थिक प्रगति और उसका बढ़ता हुआ राजनैतिक रोब-दाब तो है ही, भारत का अपना अनिश्चय भी है. भारत में अभी तक यही तय नहीं हो पाया है कि हिंदी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा है, मात्र बाज़ार की भाषा है, बॉलीवुड फ़िल्मों की ‘हिंग्लिश’ है या क्या है? उत्तरी भारत के हिंदी भाषी राज्यों के नामी-गरामी नेता भी आज धाराप्रवाह साफ-सुथरी हिंदी नहीं बोल पाते. उनसे कहीं बेहतर हिंदी तो गुजरात और महाराष्ट्र के नेता बोलते हैं.
यूरोपीय विश्वविद्यालय
विदेशों में सभी लोग यही मानते हैं – उन्हें यही आभास भी दिया जाता है – कि अंग्रेज़ी ही भारत की राष्ट्रभाषा है. सभी भारतीय अंग्रेज़ी बोलते हैं. भारत के बाहर ऐसे लोग चिराग़ लेकर ढूंढने पर भी शायद ही मिलेंगे, जिन्होंने ‘हिंदू’ के अलावा ‘हिंदी’ शब्द भी कभी सुना है. वे यही कहेंगे कि आपके कहने का मतलब शायद ‘हिंदू’ है. ‘’हिंदी’’ नाम की कोई भाषा भी हो सकती है, और वह विश्व की दूसरी या तीसरी सबसे बड़ी भाषा है, इसे तो कोई मानेगा ही नहीं!
यही कारण है कि पश्चिमी और पूर्वी यूरोप में कुल मिला कर केवल क़रीब एक दर्जन देशों के तीन दर्जन विश्वविद्यालयों और संस्थानों में ही हिंदी सीखने की थोड़ी-बहुत सुविधा है. बल्कि, सच तो यह है कि तीन दशक पूर्व बर्लिन दीवार के गिरने और यूरोप में शीतयुद्ध का अंत होने के बाद से यूरोपीय देशों में हिंदी के प्रति रुचि और उसे सीखने-पढ़ने की सुविधाएं कम होती गयी हैं. कई विश्वविद्यालयों के हिंदी पढ़ाने वाले भारतविद्या संस्थान अब बंद हो गये हैं.
हिंदी पढ़ने की घटती रुचि
यूरोप के सबसे बड़े देश जर्मनी में यह बात सबसे अधिक देखने में आती है. जर्मनी के एकीकरण के ठीक बाद लगभग दो दर्जन विश्वविद्यालयों में ‘भारतविद्या’ के अंतर्गत हिंदी सीखी जा सकती थी. आज उनकी संख्या घट कर केवल एक दर्जन रह गयी है. कील विश्वविद्यालय में 1875 से भारतविद्या पढ़ाई जाती थी. 2013 में इस सुविधा का अंत हो गया. उसी साल बर्लिन की ‘फ्री यूनिवसिर्टी’ और ‘हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय’ में भी भारतीय भाषाशास्त्र और कला-इतिहास की पढ़ाई बंद कर दी गई, जबकि बर्लिन के संग्रहालयों में 25 हज़ार से अधिक भारतीय कलावस्तुएं संचित हैं.
ठीक इस समय राइन नदी पर बसे कोलोन और बॉन विश्वविद्यालयों के भारतविद्या संस्थानों पर भी किसी भी समय बंद हो जाने की तलवार लटक रही है. 1997 में पूरे जर्मनी में भारतविद्या के 23 प्रोफ़ेसर हुआ करते थे. 2013 में उनकी संख्या 18 रह गई. ठीक इस समय के कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. जब कोई प्रोफ़ेसर सेवानिवृत्त होता है, तो उसकी जगह प्रायः भरी नहीं जाती. इससे छात्रों की संख्या, जो वैसे भी प्रायः दर्जन-दो दर्जन से अधिक नहीं होती, घटने लगती है और तब संस्थान को बंद कर देना सरल हो जाता है.
चीनी भाषा की पढ़ाई ज़ोरों पर
दूसरी ओर, पिछले केवल 30 वर्षों में, जर्मनी के उन विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ कर 28 हो गयी है, जहां चीनी भाषा की पढ़ाई होती है. यहां तक कि जर्मनी के बहुत से स्कूलों में भी चीनी भाषा पढ़ाई जाने लगी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जून 2017 में जब जर्मनी आये थे, तब दोनों देशों की संयुक्त घोषणा में पहली बार यह भी कहा गया था कि जर्मन स्कूलों में हिंदी पढ़ाने की शुरूआत की जायेगी. भारत इस काम में जर्मनी की सहायता करेगा. 2017 में ही हिंदी शिक्षा के पहले पाठ्यक्रम शुरू कर दिये जाने की संभावना व्यक्त की गई थी. पर अभी तक ऐसा कुछ भी जानने-सुनने में नहीं आया है.
जर्मनी सहित यूरोप के अधिकतर देशों में अब अक्सर वे युवतियां ही हिंदी सीखने में रुचि लेती हैं, जो बॉलीवुड फ़िल्मों और संगीत की रसिया हैं और हिंदी गानों के अर्थ समझना चाहती हैं. यूरोप के जर्मन भाषी देशों – जर्मनी, ऑस्ट्रिया और स्विटज़रलैंड – के अतिरिक्त यूरोप के अन्य देशों के लोग भी, 28 जुलाई 2016 से, भाारत के ‘ज़ी टीवी’ की जर्मन चैनल ‘ज़ी वन’ पर चौबीसों घंटे बॉलीवुड की हिंदी फ़िल्में जर्मन भाषा में देख सकते हैं. उल्लेखनीय है कि अंग्रेज़ी नहीं, जर्मन भाषा यूरोप में सबसे अधिक लोगों की मातृभाषा है. जर्मन लोग विदेशी फ़िल्में अपनी ही भाषा में देखना पसंद करते हैं. इसीलिए जर्मनी के सभी सार्वजनिक और निजी टेलीविज़न चैनलों पर विदेशी फ़िल्में जर्मन भाषा में डब करके ही दिखाई जाती हैं, अंग्रेज़ी या किसी दूसरी भाषा में नहीं.
यूरोपीय संचार उपग्रह ‘ऐस्ट्रा’ के माध्यम से घर-घर पहुंच रहा ‘ज़ी वन’ विज्ञापन की आय पर जीने वाला मुफ्त टेलीविज़न चैनल है. सुनने में आया है कि ‘ज़ी वन’ के नमूने पर ही जर्मनी के पड़ोसी पोलैंड में, तथा कुछ अन्य यूरोपीय देशों में भी, वहां की स्थानीय भाषाओं में बॉलीवुड फ़िल्मों के ऐसे ही टेलीविज़न चैनल शुरू किए जाएंगे. इससे और कुछ नहीं तो यूरोप के युवाओं के बीच भारत के बारे में जिज्ञासा पैदा होगी और हो सकता है कि इक्के-दुक्के कभी-कभार हिंदी सीखने का मन भी बना लें.
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