मुस्लिम महिलाएं, तीन तलाक

Society | इस्लाम

क्या बाईसवीं सदी आने तक भारत में हिंदू समुदाय अल्पसंख्यक हो सकता है?

इस सदी के आखिर तक दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी भारत में रह रही होगी. लेकिन क्या वह हिंदू समुदाय को भी पीछे छोड़ देगी?

विकास बहुगुणा | 10 April 2021 | फोटो: यूट्यूब

2050 तक भारत दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश बन जाएगा. इसके अलावा इस सदी के अंत तक इस्लाम को मानने वालों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा होगी. आंकड़ों के विश्लेषण के लिए चर्चित एक अमेरिकी संस्था प्यू रिसर्च सेंटर (पीआरसी) की कुछ समय पहले आई एक रिपोर्ट में यह बात कही गई थी. सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देशों की सूची में भारत अभी इंडोनेशिया के बाद दूसरे नंबर पर है.

पीआरसी के मुताबिक 2010 में दुनिया की आबादी में 23 फीसदी हिस्सा मुस्लिम समुदाय का था. इस लिहाज से वे ईसाइयों के बाद दूसरे नंबर पर हैं. लेकिन समुदाय की तेजी से बढ़ रही आबादी के चलते 21वीं सदी के अंत तक उनकी आबादी सबसे ज्यादा हो जाएगी.

पीआरसी ने मुस्लिम समुदाय की आबादी बढ़ने के दो प्रमुख कारण गिनाए हैं – पहला यह है कि उसकी जनसंख्या वृद्धि दर बाकी धर्मों के लोगों से ज्यादा है. वैश्विक स्तर पर देखें तो इस समुदाय में प्रति महिला जनन दर 3.1 है जबकि बाकी धर्मों में यह आंकड़ा 2.3 है.

मुस्लिम समुदाय की आबादी बढ़ने का दूसरा कारण उसकी आबादी का अपेक्षाकृत युवा होना है. 2010 में मुसलमानों की औसत उम्र महज 23 साल थी जबकि गैर-मुसलमानों की 30 साल. संस्था का मानना है कि सबसे ज्यादा प्रजनन दर और सबसे ज्यादा युवा आबादी के कारण मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ सकती है.

इस रिपोर्ट के आकलनों का दायरा इस सदी के आखिर तक जाता है. रिपोर्ट के आंकड़ों पर जाएं तो तब तक भारत को दुनिया में सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाला देश बने 50 साल हो चुके होंगे. तो क्या ऐसा हो सकता है कि तब तक या उसके कुछ आगे-पीछे भारत में मुसलमान हिंदुओं से ज्यादा हो जाएं?

अगर हिंदू जागे नहीं तो अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाएंगे, यह और इससे मिलते-जुलते वाक्य हिंदूवादी संगठन अक्सर ही दोहराते रहते हैं. वे यहां तक दावा करते हैं कि आबादी के मामले में 2035 तक ही मुसलमान हिंदुओं को पीछे छोड़ सकते हैं. घर वापसी अभियान और धर्मांतरण जैसे कुछ मुद्दे जो अक्सर चर्चा में बने रहते हैं, उनके कुछ तार इस दावे से भी जुड़ते हैं. हिंदुओं को ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए भी यही कहकर प्रोत्साहित किया जाता है.

अलग-अलग स्रोतों से जुटाए गए आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो संकेत मिलता है कि 2035 तो क्या अगले 100 साल तक भी इसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है. यह विश्लेषण इशारा करता है कि कुल आबादी में मुसलमानों का अनुपात तो बढ़ेगा लेकिन ऐसा होने की संभावना न के बराबर है कि तब तक भारत में उनकी आबादी हिंदुओं से ज्यादा हो जाए.

हिंदूवादी संगठनों के प्रचार का एक आधार 2010 में आई इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन स्टडीज (आइआइपीएस) की एक रिपोर्ट भी है. इसमें कहा गया है कि 1961 में देश की कुल आबादी में हिंदुओं का हिस्सा 83.5 फीसदी होता था. 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि उस साल तक यह आंकड़ा 79.8 हो गया था. यह 3.7 फीसदी की गिरावट है. इसके उलट, 1961 में कुल आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 10.7 फीसदी था जो 2001 में 2.7 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ 13.4 फीसदी हो गया. 2011 के आंकड़े बताते हैं कि भारत की कुल आबादी में मुस्लिम समुदाय की हिस्सेदारी 14.2 फीसदी हो गई है.

प्यू की एक और रिपोर्ट बताती है कि 2030 तक भारत में मुसलमानों की आबादी 23.6 करोड़ हो जाएगी. 2010 में यह 17.7 करोड़ थी. अब खत्म हो चुके योजना आयोग ने जब वह था तब एक रिपोर्ट जारी की थी. इसके आंकड़ों के मुताबिक 2050 तक भारत की जनसंख्या एक अरब 63 करोड़ तक पहुंचने की बात कही गई थी. कई जानकार मानते हैं कि तब तक कुल आबादी में मुस्लिम जनसंख्या की भागीदारी बढ़कर करीब 16 फीसदी तक पहुंच सकती है. लेकिन तब भी मुस्लिम आबादी का आंकड़ा 26 करोड़ के आसपास ही होेगा.

जनसंख्या का बढ़ना इस पर निर्भर करता है कि एक महिला अपने जीवनकाल में कितने बच्चों को जन्म देती है. इस संदर्भ में एक समाज के औसत आंकड़े को विशेषज्ञ कुल प्रजनन दर या टोटल फर्टिलिटी रेट (टीएफआर) से परिभाषित करते हैं. अगर एक महिला अपने जीवनकाल में दो संतानों को जन्म देती है तो इसका मतलब यह है कि माता-पिता की मौत के बाद ये संतानें उनकी जगह लेंगी. यानी प्रजनन दर अगर दो है तो यह आबादी के स्थिर होने का संकेत है. हालांकि थोड़ी सी छूट लेते हुए आबादी की स्थिरता के लिए यह आंकड़ा 2.1 माना जाता है. 2011 में भारत के मुस्लिम समुदाय के लिए प्रजनन दर का आंकड़ा 2.7 था जबकि 2005-06 में यह 3.4 था. यानी हिंदुओं के साथ मुस्लिम समुदाय की आबादी में बढ़ोतरी की रफ्तार भी कमी हो रही है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के आंकड़े भी इस बात को वजन देते हैं. पहला एनएफएचएस 1991-92 में हुआ था, दूसरा 1998-99 में, तीसरा 2005-06 में और चौथा 2015-16 में. 1991-92 में हिंदू महिलाओं के लिए प्रजनन दर 3.3 दर्ज की गई थी जबकि मुस्लिम महिलाओं के लिए यह आंकड़ा था 4.41. इसके बाद 1998-99 में हिंदुओं के लिए यह दर 2.78 और मुसलमानों के लिए 3.59 दर्ज हुई. 2005-06 में यह आंकड़ा क्रमश: 2.59 और 3.4 पर जबकि 2015-16 में क्रमश: 2.1 और 2.6 हो गया. यानी हिंदू महिलाओं के साथ मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर में भी लगातार कमी आई है और अक्सर उनमें यह कमी हिंदू महिलाओं से ज्यादा रही है.

इस आंकड़े को दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है. 1998-99 में जहां एक हजार हिंदू महिलाओं ने 278 बच्चों को जन्म दिया था वहीं 2005-06 में यह आंकड़ा 19 कम यानी 259 हो गया. इसी अवधि में 1000 मुस्लिम महिलाओं के लिए भी यह गिरावट 19 की ही रही. 1998-99 में जहां 1000 मुस्लिम महिलाओं ने औसतन 359 बच्चों को जन्म दिया था वहीं 2005-06 में यह आंकड़ा 340 हो गया. यानी इस दौरान 1000 मुस्लिम महिलाएं हिंदू महिलाओं की अपेक्षा 81 संतानें ज्यादा पैदा कर रही थीं. 2015-16 के आंकड़ों में यह अंतर घटकर 50 रह गया.

आइआइपीएस ने भी अपनी रिपोर्ट में 1991 से 2001 के दौरान कई राज्यों में मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर गिरने की बात कही है. गोवा, केरल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में वास्तव में ऐसा हो भी रहा है. जानकारों के मुताबिक बीते कुछ दशकों के दौरान बेहतर हुई स्वास्थ्य और शैक्षिक सुविधाओं के चलते औसत उम्र बढ़ी है और छोटे परिवार के फायदों के बारे में जागरूकता भी. इसका एक नतीजा यह हुआ है कि दूसरे समुदायों की तरह मुस्लिम समुदाय की भी प्रजनन दर घटी है. इस वजह से उसकी आबादी में बढ़ोतरी की रफ्तार कम हुई है. भारत सरकार के आंकड़े ही बताते हैं कि 1991 से 2001 के बीच जहां मुसलमानों की आबादी 29 फीसदी बढ़ी वहीं 2001 से 2011 के दौरान यह आंकड़ा गिरकर 24 फीसदी पर आ गया.

यानी यह सिर्फ मिथ्या प्रचार ही है कि भारत में जल्द ही हिंदू अल्पसंख्यक हो सकते हैं. प्यू की रिपोर्ट के मुताबिक 2050 तक भी हिंदू न सिर्फ भारत में बहुसंख्यक होंगे बल्कि दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा समुदाय भी होंगे. आज उनकी संख्या करीब एक अरब है जिसमें तब तक 34 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी होगी. आइआइपीएस की रिपोर्ट इससे एक कदम आगे जाती है. इसके शब्दों में, ‘यह कहा जा सकता है कि मुस्लिम आबादी की हिस्सेदारी आज की तुलना में बढ़ जाएगी. लेकिन इस बात की संभावना नहीं है कि यह इस सदी के आखिर तक भी 20 फीसदी से बहुत ऊपर जाएगी.’

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