क्या भारतीय नागरिक इस क़दर कायर, भयभीत, आलसी, पक्षधर हो गये हैं कि राजनीति की इन कोशिशों का कोई कारगर प्रतिरोध तक नहीं करेंगे?
अशोक वाजपेयी | 19 सितंबर 2021
आवृत्ति का दुश्चक्र
एक मुसलमान चूड़ीवाले को अपनी पहचान छुपाने के लिए पकड़ा जाता है और उस पर जिन्होंने हमला किया, उनकी बजाय शिकार व्यक्ति ही दोषी ठहराया जा रहा है. एक अफ़सर जो आईएएस में है, सिर फोड़ने का खुल्लमखुल्ला आदेश देता है और अभी तक निलंबित नहीं किया गया है. दूसरा तरफ जिसका सिर फोड़ा गया, वह मर चुका है. दिल्ली दंगों की जांच की कार्रवाई सुस्त ढंग से चल रही है, इस पर अदालत ने खेद जताया है. कुछ कस्बों के अरबी नाम बदलकर हिन्दू देवताओं पर रखे जा रहे हैं. लव जेहाद को लेकर क़ानून की कुछ धाराओं पर रोक लगाने के विरुद्ध गुजरात सरकार सर्वोच्च न्यायालय जा रही है. यह सब बार-बार हो रहा है: लगातार वही-वही घटनाएं होती हैं और रोज़ ही दलित-अल्पसंख्यक-स्त्रियां हिंसा, अन्याय की शिकार हो रही हैं. एक आदिवासी युवक को टेम्पो के पीछे बांधकर खींचा जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है. इस तरह खुल्लम खुल्ला, सारे क़ानून ताक पर रखकर, साधारण नागरिकों द्वारा ये कार्रवाइयां करने का क्रम बढ़ता जा रहा है: उन्हें भरोसा है कि आज का निज़ाम इस सबके पक्ष में है और अन्ततः उन पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं होगी. उन्हें जमानत भी मिल जायेगी और बाद में पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में अदालत से छुटकारा भी.
कई बार नागरिक जीवन में ऐसी अतर्कित हिंसा की आवृत्ति देखकर ऊब होती है और बहुत लाचारी का अहसास भी, तीख़ा पर अपनी निरुपायता को ज़ाहिर करता हुआ. इस सबके विरूद्ध लगातार विवेक और न्यायसंगत आवाज़ें उठ रही हैं. पर उनका न तो निज़ाम पर कोई असर है, न उन शक्तियों पर जो पूरी दबंगई के साथ ऐसी हिंसा करा रही हैं. उत्तर प्रदेश का चुनाव जैसे-जैसे पास आता जा रहा है हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को तेज़ करने की बेशर्म कार्रवाई और योजना चल रही है. जाति-विद्वोष और साम्प्रदायिकता में फंसकर उत्तर प्रदेश के नागरिक बेहद पक्षपाती प्रशासन, अराजक पुलिस-व्यवस्था, कोरोना महामारी से निपटने के भयावश कुप्रबन्ध, गंगा में बहती लाशें आदि भूल जायेंगे ऐसी उम्मीद की जा रही है. इस उम्मीद को जगाने और लोग हाल में जो उन्होंने-देखा सहा है वह भूल जायें इसकी पूरी तैयारी की जा रही है. इस सबमें अलग कुछ जानें चली जायें, कुछ खून-ख़राबा हो जाये तो कोई ख़ास हर्ज़ की बात नहीं. राजनीति इतनी खूंख़ार, इतनी क्रूर, इतनी जनविरोधी पहले शायद ही कभी हुई है.
विचित्र यह है कि जो संभावित लगता है वह लगभग हमेशा इन दिनों सम्भव हो जाता है. लोगों की जान, इज्जत और आबरू जाती है तो जाये. अफ़गानिस्तान में तालिबानी कब्ज़े का कुटिल लाभ भी लेने की तैयारी हो रही होगी. किसी भी मुसलमान नागरिक को तालिबान कह कर या क़रार देकर उस पर घातक हमला किया जा सकता है.
यह सवाल उठता है कि क्या भारतीय नागरिक इस क़दर कायर, भयभीत, आलसी, पक्षधर हो गये हैं कि इस सबका कोई कारगर प्रतिरोध नहीं करेंगे? क्या वे चुप और निष्क्रिय रहे आयेंगे?
साहित्य का आपद्धर्म
बंदनयन अंध भक्तों के अलावा शायद ही कोई इससे इनकार करे कि हम एक बहुत असाधारण परिस्थिति में पहुंच गये हैं. सामाजिक सौमनस्य, धर्म, लोकतंत्र, आर्थिकी आदि सभी क्षेत्रों में हिंसा-अत्याचार-हत्या-बलात्कार-घृणा-भेदभाव-अन्याय का बोलबाला है. ऐसे में साहित्य क्या करे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है. उसका धर्म होता है स्मृति, सचाई, व्यक्ति, आत्म, समय, समाज, प्रकृति, कल्पना, मानवीय संबंधों को भाषा में चरितार्थ करना. उसका स्वधर्म होता है आत्म चेतना, आत्मसंघर्ष, आत्मप्रश्नांकन और आत्मालोचन. इन दोनों ही धर्मों से किसी भी समय साहित्य विरत नहीं हो सकता. फिर हमारे जैसे भयावह समय में क्या इतना काफ़ी है या कि साहित्य का कोई आपद्धर्म भी होता है, होना चाहिये?
यह भी स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा का उपयोग पूरी बेशरमी और नीचता के साथ झूठ बोलने, जातीय भेदभाव और धार्मिक घृणा फैलाने, उसे अपने उजले उत्तराधिकार को भूलने-भुलाने, हिंसा-हत्या-बलात्कार की मानसिकता पोसने-फैलाने, झगड़ने-झगड़ाने और गाली-गलौज करने, सामाजिक संवाद लगभग असम्भव बनाने या उसे अभद्रता की हद तक गिराने, ज्ञान और तर्क की विरोधी बनाने के लिए हो रहा है. हिन्दी पर झूठ-घृणा-हिंसा का इतना बोझ उसके इतिहास में कभी नहीं पड़ा था. हिंसा इस समय भाषा बन गयी है.
हिंदी की अपनी सजल-विपुल मानवीयता, गरमाहट और संवादधर्मिता, सहकार और संवाद की वाहिका, अपने उदात्त उत्तराधिकार को पुनर्जीवित करने और उसमें सच बोलने का साहस फिर से पैदा करने का काम साहित्य ही कर सकता है और यह उसका आपद्धर्म है. हिन्दी अंचल में जो भय फैला हुआ है उसका प्रतिरोध निर्भय होकर और बनाकर साहित्य ही कर सकता है. साहित्य को एक साथ, गांधीजी के कुछ विचार उधार लेकर कहें, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा और स्वराज हो सकना चाहिये और भाषा में इनका पुनर्वास कर सकना चाहिये.
क्या यह सम्भव है? क्या जो हालत बन गयी है उसमें यह कर पाना असम्भव नहीं लगता? लगता है पर यह भी याद रखना चाहिये कि साहित्य हमेशा ही असम्भव को सम्भव बनाता है. कम से कम इस समय उसका आपद्-साध्य असम्भव की सम्भावना की खोज और कोशिश करना हो सकता है. सामाजिक मीडिया में अभिधा, अभिमत और इकहरेपन का आतंक सा है. सच बोलने या सच को उसकी पूरी जटिलता में दर्ज़ करने की हिम्मत और क्षमता रखनेवाला लोकप्रिय नहीं होगा क्योंकि आजकल लोकप्रियता झूठ बोलने से मिलती है. ऐसी लोकप्रियता के जंजाल से लेखक को बचना होगा. साहित्य के अपनी नैतिकता की मांग है कि लेखक इस कुसमय में सत्याग्रही हो बजाय लोकप्रिय असत्यधर्मी होने के.
इस समय साहित्य को अपनी भाषा की अनेक शक्तियों का इस्तेमाल करना होगा. चूंकि प्रश्नवाचकता, असहमति आदि का अपराधीकरण किया जा चुका है, उसे ऐसी बोली स्वायत्त करनी होगी जिसके कम से कम दो अर्थ हों: एक जो सच जानने की इच्छा रखनेवाले को अर्थ सम्प्रेषित करे दूसरा वह जो निज़ाम को सामान्य लगे. झूठ के विशाल झांसों के पड़ोस में सच को चुपके से आकर बिठाना आपद्धर्म है. नाउम्मीद अंधेरे में बहुत महीन पर अदम्य रोशनी की दरार खोजते रहना भी.
‘अजब वक़्त’ और ‘ज़हराब’
इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं कि हमारे ऊपर अजब वक़्त पड़ा है और हमारे चारों ओर ज़हाराब फैल रहा है. सब कुछ इन दिनों इतना दृश्य, इतना सार्वजनिक है कि निजता और आंतरिकता की मानों कोई जगह ही नहीं बची है. नयी तकनालजी ने सामग्री, समय, संबोधन, सरोकारों में अधीर तात्कालिकता ला दी है और तत्काल प्रभाव पड़े यह एक सर्वग्रासी लक्ष्य सा बन गया है. क्या यह तात्कालिकता, दृश्यता और ध्जन्यात्मकता 21वीं सदी के 21वें वर्ष में साहित्य और कलाओं में नवाचार का मुख्य प्रेरक, उसका आधार बनने जा रही हैं?
झूठ बहुत तेज़ी से और बहुत व्यापक ढंग से फैलता रहता है: शायद झूठ की यह अदम्य विकरालता सच को लगातार हाशिये पर ढकेल रही है. हमारे समय में सच अल्पसंख्यक है. क्या वह साहित्य और कलाओं के परिसर में शरण पा रहा है? क्या वहां सच के लिए जगह बन रही है और बढ़ रही है?
क्या जल्दबाज़ी का जो आधा-अधूरा, अधीर काव्यशास्त्र आकार लेता दीख पड़ता है, वह साहित्य से धीरज और जतन, विचार और चिन्तन अपदस्थ करने के कगार पर है? चूंकि झूठ अधिक लोकप्रिय है, झूठ का सहारा लेकर लोकप्रिय बनने का प्रलोभन बहुत है. क्या ऐसे लालच-दबाव में साहित्य और कलाएं सच का साथ देकर अलोकप्रिय होने का जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं?
अपने को किसी तरह भी बचाये रखने की जुगत में बहुत से लोग एक तरह की कायर चतुराई बरतते हुए चुप्पी का सहारा ले रहे हैं. क्या लेखक-कलाकारों में से कुछ लोग साहसिक चतुराई बरतते हुए सच को परोक्षतः कहने का नया कौशल विकसित करने का जोखिम उठा रहे हैं?
ये सवाल उठते हैं अगर हम दृश्य पर मुखरताओं और चुप्पियों पर नज़र डालें. यह चिन्ता भी होनी चाहिये कि झूठों-भेदभाव-नफ़रत से पटे जाते भारतीय समाज में अधिकांश को क्या सच को जानने की जिज्ञासा या ताब है या कि यह भी एक अल्पसंख्यक मामला ही है? क्या आज का ‘ज़हराब’ कोई ‘सब्ज़ा’ उगा रहा है?
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