समाज | कभी-कभार

शिखर से लेकर सबसे निचले स्तर तक अब हर राजनेता साहित्यकार और कलाकार है

सत्तारूढ़ और सत्ताकामी राजनीति ने अब साहित्य और कलाओं के कई तत्वों का अधिग्रहण कर लिया है

अशोक वाजपेयी | 19 जून 2022

सादगी की मार्मिकता

यह तो अच्छा हुआ कि सत्तारूढ़ और सत्ताकामी राजनीति ने लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में लगातार कटौती करने के साथ-साथ, साहित्य और कलाओं के कई तत्वों का भी अधिग्रहण कर लिया है. अब अलंकार, अतिशयोक्ति, नाटकीयता, नये-नये रंगों में बदलती दैनिक भंगिमाएं, वाग्विलास जिनका सर्जनात्मक प्रयोग साहित्य और कलाओं में होता था, उनका प्रभावशाली प्रयोग अब राजनीति में भी हो रहा है. हर राजनेता, शिखर से लेकर सबसे निचले स्तर पर, अब अभिनेता है. इन गुणों को आप कह सकते हैं जनाधार सा मिल रहा है. कभी रोलां बाख़्त ने यह कहा था यह वह समय है जिसमें साहित्य अपने अलंकार नहीं, अपनी चमड़ी की रक्षा कर रहा है. आज साहित्य निहत्था है और मानवीयता, संवेदनशीलता, मार्मिकता और सच बोलने की ज़िद पर अड़ी हुई विधा है. इस पर अलग से विचार करने की ज़रूरत है कि साहित्य के इस आत्मसुरक्षा अभियान में पाठक किस हद तक शामिल हैं. यह आत्मरक्षा सिर्फ़ साहित्य की आत्मरक्षा नहीं है, यह कुछ मूल्यों और संभावनाओं की भी समाज में रक्षा है.

अलंकारहीन, अतिशयोक्ति से दूर, बिना नाटकीय हुए और वाग्छल का सहारा लिये साहित्य इस समय सादगी पर ही एकाग्र हो सकता है. यह सादगी, सौभाग्य से, सचाई या अनुभव या आत्म की जटिलता का सरलीकरण या सामान्यीकरण कर नहीं विन्यस्त हो रही है. इस समय मानवीय व्यथा, कष्ट, वंचना, अन्याय और अतिचार का जो भूगोल राजनीति प्रायः हर दिन बना-बढ़ा रही है, उसे साहित्य दर्ज़ कर रहा है. यह दर्ज़ करना ठोस मानवीय प्रसंगों और घटनाओं को लेकर है. इस समय अभिधा साहित्य की ज़रूरत सी बन गयी है और कई बार इस अभिधा में ही व्यंजना समाहित करने का कौशल यहां-वहां दीख पड़ता है.

जो हमारे ध्यान से, हमारी नज़र से, हमारे अनुभव से छूट जाता है उसे साहित्य यों भी हमेशा दर्ज़ करता आया है. लेकिन इस समय झूठ का व्यापार और व्याप्ति इतने फैल गये हैं, कि सचाई को दर्ज़ करना साहित्य का नैतिक कर्तव्य ही बन गया है. हमारे समय में बहुत आक्रामक और प्रभावशाली, साधन-सम्पन्न हुए धर्म, राजनीति, मीडिया, बाज़ार आदि मानवीय जीवन का, मानवीय संघर्ष और उसके सुख-दुख का बड़ा हिस्सा नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. वह हिस्सा साहित्य के जिम्मे आन पड़ा है.

चकाचौंध, तमाशों और चीख-पुकार, जयकार और भक्ति के पीछे जो अंधेरा बढ़ रहा है, उसकी साहित्य शिनाख़्त कर रहा है. उसे यह दम्भ नहीं है कि सच उसकी मुट्ठी में है. पर यह युक्ति तो उसके पास है कि वह सादगी से मर्मप्रसंग दर्ज़ करे और उनकी मानवीयता को किसी हद तक बचा रखे. हर समय में साहित्य याद रखता है, याद दिलाता है और याद करता है.

दुहराव, ऊब, थकान

इस समय के भारत में हर दिन ऐसा कुछ न कुछ होता रहता है, घटनाएं या वक्तव्य सामने आते रहते हैं जो बार-बार बताते-जताते रहते हैं कि हमारा समाज लगातार हिंसक, बेवजह उत्तेजित, कई बार हत्यारा, झूठ में सच से ज़्यादा भरोसा करने वाला और घृणा के फैलाव में लिप्त समाज होता जा रहा है. एक लेखक, नागरिक और भारतीय के रूप में मुझे उनका विरोध करना, हर बार, ज़रूरी लगता है जो मैं इस स्तम्भ में और अन्यत्र यथासम्भव करता रहता हूं. किसी ने पूछा और उचित ही पूछा कि इस दुहराव से मुझे ऊब और थकान नहीं होती?

यह सही है कि जब केन्द्र में और कुछ राज्यों में नया निज़ाम लोकप्रिय बहुमत से सत्ता में आया तो, जैसा कि अपेक्षित था, घृणा-भेदभाव-झूठ-हिंसा-हत्या की दबी-छुपी प्रवृत्तियों और शक्तियों को खुलकर सामने आने और अपना बाहुबल दिखाने का सुनहरा अवसर मिल गया. हिन्दुत्व कितना हिन्दुओं को एकजुट कर रहा है यह पता नहीं. पर उसने भारतीय समाज को बेहद अशान्त ज़रूर कर दिया है जिसमें बहुसंख्यक हिन्दुओं का भी बड़ा हिस्सा है. उनमें से एक बड़े हिस्से को यह पाठ भी सफलता के साथ पढ़ा-सिखा दिया गया है कि हिन्दुओं के साथ बड़ा अन्याय हुआ है और उनका धर्म ख़तरे में है. यह सब जो हो रहा है पहले से ही होना एक तरह से तय था. कई विश्लेषकों की यह भविष्यवाणी भी चरितार्थ हो रही हे कि अगले दो वर्ष याने अगले लोकसभा चुनावों तक हिन्दू-मुसलमानों के बीच आक्रामक तनाव बढ़ाया जायेगा ताकि जनता ग़रीबी, मुफलिसी, बेरोज़गारी, मंहगाई आदि मुद्दे भूलकर इस साम्प्रदायिक गृहयुद्ध में अपने को झोंक दे और एक बलशाली नेता को चुनकर इस संकट से निकालने का जनप्रिय आधार बन जाये. सरकार में लगता है कि एक स्वतंत्र इकाई स्थापित की गयी है जिसका दैनिक काम विपक्ष के नेताओं को येन केन प्रकारेण जेल में डालने, उन पर या उनके रिश्तेदारों पर छापा मारने की योजना बनाना और उनके अमल पर नज़र रखना है. यह सबकुछ नियमित रूप से हो रहा है और सत्ता किसी तरह की मर्यादा या संयम बरतने से लगातार दूर जा रही है, बिना ठिठके या थके. बहुंसख्यात्मकवाद की अपनी हेकड़ी है सो अलग.

इस दैनिक दुहराव से ऊब होती है. हर दिन वही प्रवृत्ति, वही अनैतिक मीडिया प्रसार, किसी न किसी निर्दोष का हिंसा का शिकार होना चल रहा है. अदालतें जब-तब पुलिस को लताड़ लगाती रहती हैं पर पुलिस अविचलित स्वामिभक्ति से काम करती रहती है. इस सबका विरोध करते, उसके विरूद्ध दिखते-बोलते इतने बरस हो गये हैं. ऊब होती है, बहुत निराशा जागती है पर थकान नहीं लगती. थकने का अर्थ एक ज़रूरी संघर्ष से अपने को अलग करना होगा, उनका साथ छोड़ने जैसा होगा जो क्रूर हृदयहीन अमानवीय वृत्तियों के विरूद्ध संघर्ष कर रहे हैं. ऐसा करना अन्तःकरण के साथ विश्वासघात करना भी होगा. तो कहता हूं अपने से, भले ऊबो पर थको नहीं.

कविता की सादगी

हिन्दी कविता में सादगी की बात करें तो तीन तुरन्त ध्यान में आते हैं: भवानी प्रसाद मिश्र, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल. केदार जी की प्रतिनिधि कविताओं की पुस्तक पलट रहा था तो ये कविताएं अपनी सादगी में मार्मिक दीख पड़ीं:

लिपट गयी जो धूल पांव से

लिपट गयी जो धूल पांव से
वह गोरी है इसी गांव की
जिसे उठाया नहीं है किसी ने
इस कुठांव से.

इस कविता को 1958 में अपनी पत्रिका ‘समवेत’ में पहली बार प्रकाशित करने का सौभाग्य मिला था. दूसरी कविता का शीर्षक है ‘हम और लोग’:

हम-

बड़े नहीं-
फिर भी बड़े हैं
इसलिए कि
लोग जहां गिर पड़े हैं
हम वहां तने खड़े हैं,
द्वंद्व की लड़ाई
साहस से लड़े हैं,
न दुख से डरे,
न सुख से मरे हैं,
काल की मार से
जहां दूसरे झरे हैं
हम वहां अब भी
हरे-के-हरे हैं.

तीसरी कविता का शीर्षक है ‘सबसे आगे’:

सबसे आगे
हम हैं
पांव दुखाने में
सबसे पीछे
हम हैं
पांव पुजाने में.
सबसे ऊपर
हम हैं
व्योम झुकाने में,
सबसे नीचे
हम हैं
नींव उठाने में.

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