फ़ौज़िया भट्ट और बुशरा मुहम्मद

समाज | जम्मू कश्मीर

कैसे कश्मीर में कलाकारों की एक नयी पौध सारी मुश्किलों के बीच अपनी जड़ें जमाने का काम कर रही है?

एक ऐसे समय में जब तमाम तरह की उथल-पुथल से पहले से ही जूझ रहा कश्मीर कोरोना महामारी से भी दो-चार हुआ, यहां के कुछ युवा वह करते दिखे जो मानवता बनाये रखने के लिए सबसे जरूरी है

सुहैल ए शाह | 29 जून 2022 | फ़ोटो: सुहैल ए शाह

ताबिश इजाज़ खान दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग जिले में रहती हैं. वे 23 साल की हैं और अगले एक साल में अपना एमबीबीएस (बैचलर ऑफ मेडिसिन एंड बैचलर ऑफ सर्जरी) पूरा करने वाली हैं. डॉक्टर बनने के बाद वे कश्मीर में ही रहकर लोगों की सेवा करना चाहती हैं.

इसके साथ-साथ ताबिश की बचपन से ही कला में भी रुचि रही है. लेकिन उस पर वे पढ़ाई के चलते अभी तक ज़्यादा ध्यान नहीं दे पायी थीं. हालांकि उनके घर पर कभी उन पर डॉक्टर बनने का कोई दबाव नहीं था. “मेरा अपना सपना था कि मैं डॉक्टर बनूं” ताबिश ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.

2020 में जब कोरोना वायरस के चलते लगभग पूरी दुनिया में लॉकडाउन हुआ तो ताबिश भी बांग्लादेश से, जहां वे डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही थीं, वापिस अपने घर लौट आयीं. इतना खाली समय होने के चलते ताबिश ने आखिरकार कैनवस और रंग उठा ही लिए और अपने बचपन के जुनून को पेटिंग्स की शक्ल देने लग गयीं.

“मैं पिछले पांच महीनों में 100 से ज़्यादा पेंटिंग्स बना चुकी हूं और घर पर ही मैंने एक छोटी सी गैलरी भी तैयार कर ली है” ताबिश कहती हैं.

ताबिश इजाज़ खान इस मामले में अकेली नहीं हैं. कश्मीर घाटी में इस समय दर्जनों ऐसे नए कलाकार उभर कर सामने आए हैं जो अलग-अलग कारणों से अभी तक अपनी कला को ज़्यादा समय नहीं दे पाये थे. अब इनमें से कुछ लोग अपनी कला को अपना रोजगार बना रहे हैं, कुछ इसके जरिये लोगों तक अपनी बात पहुंचा रहे हैं, कुछ चैरिटी के लिए यह काम कर रहे हैं और कुछ अपना शौक पूरा करने के लिए.

सत्याग्रह ने कुछ समय पहले ऐसे ही कुछ कलाकारों के साथ समय बिताया. लेकिन इससे पहले कि आपको इनकी कहानियां बताएं कश्मीर में कला के परिदृश्य पर एक नज़र डाल लेते है.

कश्मीर में आज जो हालात हैं वे किसी से ढकेछुपे नहीं हैं. पिछले लगभग 30 वर्षों से कश्मीर में मिलिटेन्सी और इससे जुड़ी हिंसा, प्रदर्शन और राजनीतिक उथल-पुथल ने कभी कश्मीर में लोगों को कला की तरफ ध्यान देने का मौका नहीं दिया.

“या यूं कह लें कि जब किसी के घर में मातम होता है और वहां अगर कोई बच्चा खेल रहा हो तो उसको बड़े लोग चुप करा देते हैं” कश्मीर के एक वरिष्ठ पत्रकार ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा, “वैसे ही कला और उसकी सराहना खुशी के माहौल में होती है, दुख के माहौल में नहीं.”

ये पत्रकार कश्मीर की सबसे पुराने लोक कला, भांड पैथर, की मिसाल देते हुए समझाते हैं कि जब 1500 साल पुरानी कला कश्मीर घाटी में हो रही हिंसा के चलते दब गयी तो बाकी चीज़ें भी ज़ाहिर है कैसे आगे बढ़ सकती थीं.

“या कश्मीर के सबसे मशहूर कवि, मदहोश बालहामी, को ले लें. आपने देखा था न कैसे उनकी पूरी ज़िंदगी की मेहनत एक-दो घंटों में खाक हो गयी थी” ये पत्रकार बताते हैं. मार्च 2018 में सुरक्षा बलों से बचकर भागते हुए दो मिलिटेंट बालहामी के घर में घुस गए थे. बाद में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में दोनों मिलिटेंट्स तो मारे गए लेकिन इसमें बालहामी का घर भी जल गया.

साथ ही उनकी पूरी ज़िंदगी की लिखी हुई कविताएं भी जल कर खाक हो गयीं.

ऐसे माहौल में जहां किसी भी पल आप हिंसा का शिकार हो सकते हैं, कैसे आप कला की तरफ ध्यान दे पाएंगे. “सिनेमा घरों को ही ले लें, कितने साल से बंद पड़े हैं.”

और फिर कश्मीर में ऐसा कोई मंच भी नहीं था जहां कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर पाते. इस वजह से कश्मीर में कला को व्यवसाय बनाने की सोच पाना भी मुश्किल है. शायद यही वजह है कि वे सारे उभरते हुए कलाकार, जिनसे सत्याग्रह ने बात की, पेशे से कुछ और हैं.

ताबिश इजाज़ खान और ज़ोहेब वाहिद | सुहैल ए शाह

और इन उभरते हुए कलाकारों को अब  हालात की परवाह है और  ही मंचकी.

जब मार्च 2020 में पूरी दुनिया में महमारी फैली और कश्मीर में भी लॉकडाउन लगा दिया गया, इन लोगों ने यह मौका नहीं गंवाया और पूरे जी, जान और जुनून से अपनी कला को संवारने में लग गए.

जैसे श्रीनगर की बुशरा मुहम्मद. बुशरा गणित में पोस्ट ग्रैजुएशन कर चुकी हैं और अब पीएचडी करना चाहती हैं. लेकिन साथ ही साथ उन्हें कैलीग्राफी का भी बहुत शौक था.

“मुझे कभी वक़्त ही नहीं मिला था और कभी अगर हालात के चलते मिल भी जाता था तो यहां इंटरनेट नहीं चल रहा होता था, जो आजकल के कलाकार के लिए बहुत ज़रूरी होता है” बुशरा ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.

वे कहती हैं कि इस बार वक़्त भी था और 2जी ही सही इंटरनेट भी चल रहा था.

“तो मैंने सोचा क्यूं न अपना यह शौक ही पूरा किया जाये” बुशरा ने बताया, “शौक पूरा करते-करते मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैं लोगों को उनकी फरमाइश पर चीज़ें बना कर देने लगी. अब लोग मुझे कॉल या मैसेज करते हैं और ऑर्डर देते हैं.”

बुशरा मुहम्मद कहती हैं कि ज़्यादा तो नहीं लेकिन वे अपने इस शौक से थोड़े-बहुत पैसे कमाने और उनसे अपनी जरूरतें पूरी करने लग गयी हैं. वैसे बुशरा के पिता एक यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं, उनके एक भाई डॉक्टर हैं और दूसरे पीएचडी कर रहे हैं. इस लिहाज़ से उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है.

“लेकिन जब आप अपने हाथ से कमाने लग जाते हैं तो उसकी बात ही कुछ और होती है” जब बुशरा हमसे यह कहती हैं तो उनकी आंखें आत्मविश्वास और खुशी से चमक रही होती हैं.

दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग में रहने वाले ज़ोहेब वाहिद भी कश्मीर के उन कलाकारों में से एक हैं जो अपने हाथ से कमाते हुए काफी खुश भी हैं और संतुष्ट भी.

ज़ोहेब एक एमबीए ग्रेजुएट हैं और पढ़ाई करके उन्होंने अपने घरवालों से पैसे लेकर अपना एक छोटा सा काम शुरू किया था. लेकिन कश्मीर के खराब हालात के चलते उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ा और उन्होंने अपना वह काम बंद कर दिया.

“मुझे कैलीग्राफी का शौक बचपन से था लेकिन कभी मौका नहीं मिला. पहले पढ़ाई और फिर बिजनेस की दौड़” उन्होने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा, “जब लॉकडाउन हुआ तो मैंने सिर्फ समय बिताने के लिए कैलीग्राफी का समान खरीद लिया. मुझे नहीं पता थी इससे मैं कभी पैसे भी कमा सकता हूं.”

ज़ोहेब वाहिद अपनी इस कला से अब ठीक-ठाक पैसे कमाने लगे हैं. हाल ही में उनकी अरबी में लिखी हुई आयतें अमरीका के कैलिफोर्निया में रहने वाले एक व्यक्ति ने खरीदीं और उन्हें इसके बदले एक अच्छी-ख़ासी रकम दी.

“मेरे पास इतना काम है इस समय कि वक़्त कम पड़ जाता है. मुझे खुशी है कि अपनी इस कला से मैं कम से कम कुछ पैसे कमा लेता हूं और घर वालों पर निर्भर नहीं हूं” ज़ोहेब कहते हैं.

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने इस शौक से चैरिटी के लिए पैसे इकट्ठा कर रहे हैं. दक्षिण कश्मीर के ही अनंतनाग जिले में रहने वाली बीए सेकंड इयर की छात्रा फौज़िया भट्ट ऐसे ही लोगों में से एक हैं.

फौज़िया वक़्त-बेवक्त अपने पेंटिंग और कैलीग्राफी के काम को थोड़ा-थोड़ा समय देती रहती थीं. लेकिन जब लॉकडाउन हुआ और उन्होंने अपने आस-पास के ऐसे लोगों को देखा जिनके पास खाने को कुछ नहीं था, तो उन्होंने अपनी कला का प्रयोग ऐसे लोगों की मदद के लिए करने की ठान ली.

लॉकडाउन के दिनों में फौज़िया भट्ट ने काम शुरू किया और जो लोग उनसे कुछ बनवाना चाहते थे उनसे सिर्फ 100 रुपये लेने लगीं. “मुझे पता था कि लोगों के पास ज़्यादा पैसे नहीं है इस समय. इसलिए मैं सिर्फ 100 रुपये लेने लगी, जो मैं किसी गरीब की मदद में लगा देती थी.”

फौज़िया कहती हैं कि जो मुझ तक पैसे नहीं पहुंचा सकता था उसको वे 100 रुपये किसी गरीब को दान करने को कह देती थीं. “ऐसे ही सौ-सौ रुपये जमा करके मैंने करीब 20,000 रुपये बना लिए थे और अपने आस-पास के ऐसे लोगों में बांट दिये थे जिनके पास कुछ नहीं था” फौज़िया ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा कि उन्होने ईद पर लोगों के लिए ग्रीटिंग कार्ड बनाए और उससे जो पैसे आए वे भी उन्होंने लोगों की मदद करने में लगा दिये. “अब मैंने थोड़े ज़्यादा पैसे लेने शुरू कर दिये हैं जिनमें से कुछ चैरिटी को जाते हैं और कुछ मेरी अपनी जेब में.”

फौज़िया अभी सिर्फ 18 साल की हैं और ऐसी उम्र में कला और मानवता के लिए ऐसे भाव रखना न सिर्फ सराहनीय है बल्कि लोगों के लिए एक सबक भी.

फौज़िया भट्ट लोगों को इस तरीके से कुछ सिखा रही हैं तो ताबिश किसी और तरीके से. ताबिश ने इस महमारी के समय में लोगों तक अपनी पैंटिंग्स के जरिये अलग-अलग संदेश पहुंचाने की कोशिश की है.

“जैसे इस महमारी के समय में लोगों को स्वास्थकर्मियों की सेवाओं के बारे में बताना हो, या उन्हें यह समझाना हो कि यह कितनी खतरनाक बीमारी है, मैं यह सब अपनी कला के जरिये कर रही हूं. मुझे पैसे नहीं चाहिए और न मैं पैसों के लिए पेटिंग्स बनती हूं. मैं सिर्फ अपना शौक पूरा करने के लिए यह करती हूं और साथ ही साथ लोगों तक अलग-अलग संदेश भी पहुंचाती हूं” ताबिश ने सत्याग्रह को बताया.

साथ ही ताबिश कश्मीर की खूबसूरती से भी प्रभावित हैं और चाहती हैं कि कश्मीर का उनका चित्रण दुनिया के हर कोने में लोगों को इस जगह की तरफ आकर्षित करे. “अगर मेरी कला की वजह से एक भी इंसान कहीं और से प्रभावित होकर कश्मीर आता है तो मैं समझूंगी कि मेरा काम सफल हो गया है” ताबिश कहती हैं.

मजे की बात यह है कि इनमें से किसी ने पेंटिंग और कैलीग्राफी किसी से भी नहीं सीखी है. न ही इनके परिवारों में किसी और को इन कलाओं में कोई रुचि है. 

चाहे ज़ोहेब को ले लें, जिनके पिता एक सरकारी मुलाजिम हैं और मां एक हाउसवाइफ़, या फिर ताबिश को जिनके पिता एक बैंक में काम करते हैं और मां एक टीचर हैं.

इन सभी ने सत्याग्रह को बताया कि इन्होंने यह सब अपने आप सीखा है, अपनी मेहनत और लगन से.

“मुझे तो कुछ समय पहले तक यह भी नहीं पता थी कि कैलीग्राफी में क्या-क्या समान लगता है. अब जब में पूरी तरह से यही करने बैठा हूं तो धीरे-धीरे में सब चीजों के बारे में सीख रहा हूं” ज़ोहेब कहते हैं.

सत्याग्रह को अपनी-अपनी रुचि की कलाएं अपने आप सीखने वाले ये सभी लोग बताते हैं कि वे अलग-अलग तरीकों से अपने आप को बेहतर बनाने की कोशिशों में जुटे हुए हैं.

“कहीं कोई कमी लगती है तो किसी से पूछ लेते हैं या फिर इंटरनेट पर देख लेते हैं” फौज़िया बताती हैं.

अब सवाल यह है कि इन लोगों को ऐसा कौन सा मंच मिला है जो इनसे पहले के कलाकारों के पास नहीं था.

इंटरनेटया फिर यूं कहें कि इन्स्टाग्राम.

इन सब लोगों का मंच इन्स्टाग्राम है. ये लोग जो भी बनाते हैं वह सब इन्स्टाग्राम पर जाता है और वहीं से इन्हें ऑर्डर भी मिलते हैं और प्रशंसा भी.

यह ऐसा पहला मौका है जब कश्मीर में लोग घरों में बंद हैं और इंटरनेट फिर भी चल रहा है. वरना हमेशा ऐसा होता था कि अगर यहां कर्फ्यू, लॉकडाउन, या हड़ताल जैसी स्थिति होती थी तो इंटरनेट भी बंद रहता था. चाहे 2016 के प्रदर्शन हों, आए दिन होने वाली मुठभेड़ें, या फिर पिछले साल के बाद का लॉकडाउन जब कश्मीर में कई महीनों तक सारी संचार सेवाएं बंद रही थीं.

अभी भी कश्मीर घाटी में सिर्फ 2जी चल रहा है जिसकी वजह से नये-नवेले ये कलाकार जो कर रहे हैं वह करना आसान नहीं है.

“लेकिन न होने से जो है वह बेहतर है. हां काफी वक़्त जाता है स्लो इंटरनेट पर अपने काम की फोटो अपलोड करने में, लेकिन पिछले साल से बेहतर है. पिछले साल तो फोन भी नहीं चल रहे थे” बुशरा ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.

इन सब लोगों को सही स्पीड वाले इंटरनेट से दूसरों का काम देखने और उससे प्रेरणा लेने में काफी आसानी होती लेकिन, अब जो है सो है.

“जैसे मैं कुछ सीखने बैठती हूं, यूट्यूब पर वीडियो चला कर तो स्लो स्पीड के चलते दिल अजीब सा हो जाता है. जो वीडियो देखने में बाहर लोगों को 10 मिनट लगते हैं हमें वो रुक-रुक के 40 मिनट में देखना पड़ता है. ये जो तस्वीर बाहर लोग इन्स्टाग्राम पर पलक झपकाते अपलोड कर देते हैं उसमें हमें आधा घंटा लग जाता है” फौज़िया बताती हैं.

अब दिक्कतें जो भी हैं, हालात, इंटरनेट, पढ़ाई, मंच न होना-यह सब परे रख के कलाकारों की यह नयी पीढ़ी एक नया रास्ता बना और दिखा रही है. यह लोगों को बता रही है कि इंसान अगर लगन से करे तो सब मुमकिन है. और व्यवसाय के और भी रास्ते हो सकते हैं.

जैसे अनंतनाग के एक बुकसेलर, शफ़ात मीर, से बात करके पता चला कि उनकी दुकान 2019 में कर्फ्यू के चलते महीनों के लिए बंद रही और फिर थोड़े समय खुलने के बाद कोरोना महामारी आ गई और फिर लंबे समय के लिए काम-धंधा बंद हो गया.

उन्हीं दिनों शफ़ात बैठे-बैठे इन्स्टाग्राम टटोल रहे थे कि उनकी नज़र कैलीग्राफी के एक पेज पर पड़ी. “मुझे आइडिया आया कि क्यूं न इन लोगों को इनका सामान घर पर पहुचाया जाये.”

फिर क्या था, शफ़ात ने भी अपना एक इन्स्टाग्राम पेज बनाया और इन कलाकारों से ऑर्डर लेकर उनके घर समान पहुंचाने लगे. “कैनवस, रंग, कैलीग्राफी के कलम और बाक़ी सब चीज़ें मैंने पहले कभी नहीं बेची थीं अपनी दुकान में. अब मैं इन लोगों के घर पर देकर आता हूं. मेरा भी काम चल रहा है और इन लोगों का भी” शफ़ात कहते हैं.

तो ये सब कलाकार न सिर्फ अपने लिए नए रास्ता खोल रहे हैं बल्कि शफ़ात जैसे लोगों के लिए भी और दूसरे कलाकारों के लिए भी जो इन सब लोगों को देख कर प्रेरित होंगे या हो रहे हैं.

>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें

>> अपनी राय mailus@en.satyagrah.com पर भेजें

  • आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    समाज | धर्म

    आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    सत्याग्रह ब्यूरो | 19 अगस्त 2022

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    समाज | उस साल की बात है

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    अनुराग भारद्वाज | 14 अगस्त 2022

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    समाज | विशेष रिपोर्ट

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    पुलकित भारद्वाज | 17 जुलाई 2022

    संसद भवन

    कानून | भाषा

    हमारे सबसे नये और जरूरी कानूनों को भी हिंदी में समझ पाना इतना मुश्किल क्यों है?

    विकास बहुगुणा | 16 जुलाई 2022