समाज | पुण्यतिथि

नौशाद का काम मिसाल है कि संगीत में संख्या नहीं गुणवत्ता मायने रखती है

मशहूर संगीतकार नौशाद ने अपने समकालीनों के मुकाबले कम फिल्में कीं, फिर भी उनके नाम की धमक ज्यादा रही

अनुराग भारद्वाज | 05 मई 2020

उन्होंने किसी इंटरव्यू में कहा था, ‘वो गाने जिनको अवाम ने पसंद फ़रमाया उनमें मेरा कोई कमाल नहीं था. कमाल उस संगीत का था जिसको आप हिंदुस्तान का संगीत कहते हैं. मैंने तो पुरानी शराब को नयी बोतलों में भर के आपके सामने पेश कर दिया था.’

26 सिल्वर जुबली, 9 गोल्डन जुबली और 3 प्लेटिनम जुबली फिल्मों का संगीत रचने वाले नौशाद ने यह बात इतनी सरलता और विनम्रता से कही थी कि ताज्जुब होता है. बावजूद इसके उनमें प्रतिस्पर्धा की ज़बरदस्त भावना थी. लखनऊ में पैदा हुए नौशाद ने अपने देश के अलग-अलग इलाकों की धुनों और शास्त्रीय संगीत को अपनी सरगम का साथी बनाया और बतौर संगीतकार अपना अलग मुक़ाम बनाया.

1952 में एक फिल्म आई थी- बैजू बावरा’. इसके गाने ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले…’ ने पूरे हिंदुस्तान में धूम मचा दी थी. नौशाद साहब ने बाद में एक इंटरव्यू में कहा था कि इस गाने के बाद रफ़ी साहब ने कई दिनों तक नहीं गाया. उनके गले से ख़ून आ गया था. इंडस्ट्री में नौशाद साहब का नाम सफलता की गारंटी बन गया था. महज 40 रुपये से काम की शुरुआत करने वाले इस संगीतकार को एक फिल्म के लिए लाख रुपये तक मिलने लगे थे.

पर यह सफर आसान नहीं था. नौशाद के वालिद मुंशी थे. खानदान का संगीत से बस इतना ही लेना देना था कि उनके मामू अल्लन साहब की हारमोनियम, तबले आदि की दुकान थी. वे वहां हारमोनियम ठीक करते. घर के पास वाली गली में एक सिनेमा हॉल था. फ़िल्में देखने के शौकीन नौशाद स्कूल जाने के बजाय सीधे हॉल में घुस जाते. वालिद से तो कैसे पैसे मांगते पर हां, उनकी नानी के घर के पास एक दरगाह थी जहां से वे पैसे उठाकर सिनेमा देखते! उन दिनों बिना आवाज़ का सिनेमा था. हॉल के मालिक अपने-अपने संगीतकार रखते जो फिल्म के हिसाब से थिएटर में संगीत बजाया करते. ऐसे ही किसी थिएटर के मालिक के यहां उन्होंने हारमोनियम बजाने की नौकरी कर ली.

बात जब घर तक पहुंची तो कोहराम मच गया. वालिद ने हारमोनियम तोड़ दिया और घर से निकाल दिए जाने की धमकी दे डाली. बस, फिर क्या था? 1937 में सिनेमा और संगीत की दीवानगी उन्हें बंबई (मुंबई) ले आई. उस वक़्त उनकी उम्र थी महज़ 18 बरस. वहां जानने वाला कोई न था. बस एक पता था जेब में- कारदार स्टूडियो. सड़क पार करके स्टूडियो के सामने वे अपना बोरिया-बिस्तरा जमाकर रहने लगे. कुछ दिन धक्के खा लेने के बाद गीतकार डीएन मधोक साहब से जान-पहचान हो गयी. काम दिलाने के सिलसिले में वे उन्हें स्टूडियो दर स्टूडियो घुमाते. इत्तेफ़ाक देखिये एक दिन मधोक साहब उन्हें कारदार स्टूडियो ले गए और उनके लिए बात की. बात बन भी गई. ‘प्रेमनगर’, ‘स्टेशनमास्टर’, ‘माला’ ये कुछ फिल्मों के नाम हैं जो उनके खाते में आईं. अब उन्हें हर फिल्म के लिए 300 रुपए मेहनताना मिलने लगा था.

1944 पहली बड़ी कामयाबी और पूर्वांचल की धुनें

जैमिनी दीवान उन दिनों बड़े प्रोड्यूसर होते थे. वे एक फिल्म बना रहे थे ‘रतन’. नौशाद साहब को बतौर म्यूजिक डायरेक्टर लिया गया. उन्होंने इस फिल्म के लिए उत्तर-प्रदेश के लोक गीतों और लोक धुनों को शास्त्रीय रागों के साथ मिलाकर संगीत दिया. नतीजा- संगीत सुपर हिट! एक बार इंटरव्यू में जब किसी ने उनसे उनके फ़िल्मी सफ़र के बारे में पूछा तो उन्होंने इतना भर कहा: ‘बस यूं समझ लीजिये कि सात साल लग गए फुटपाथ से उठकर सामने वाले स्टूडियो में जाने में.’ पूर्वांचल की धुनें उनका सिग्नेचर स्टाइल बन गयी थीं.

1961 में आई गंगा-जमुना ने तो धमाल ही मचा दिया था. वह फिल्म पूर्वांचल पर ही आधारित थी. लिहाज़ा, उनकी चल निकली. उसमे एक गाना था ‘ नैन लड़ जईं हैं तो मनवा मा कसक होईबे करी…’नौशाद ने किसी कव्वाल को गाते हुए सुना था; ‘भाग में हुई हैं यसरब की सनक होईबे करी’. इस कव्वाली से मुत्तासिर होकर उन्होंने शकील बदायूंनी के साथ बैठकर पूरा गाना लिखा.

अब भैया, इस गाने को सुन लीजिये. का रफी साहब की आवाज का जादू, का युसूफ साहब के ठुमके, का सकील साहब की कलम और का नौसाद अली साहब का संगीत-सब कुछ ठेठ, देसज और खालिस पुरबिया! कसम से फांस लग जई हैं करिजबा मा

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जब मुग़ले-आज़म के गीत ‘प्यार किया तो डरना क्या’ को 105 बार लिखवाया

मुग़ल-ए-आज़म का संगीत उस फिल्म जितना ही भव्य है. नौशाद ने लता मंगेशकर की आवाज़ के साथ उस कारीगरी को अंजाम दिया कि दुनिया देखती रह गयी. वे उफ़ुक (क्षितिज) पर चमकने वाला सितारा थे. अपनी मुख्य गायिका शमशाद आपा के ऊपर उन्होंने लता जी को तरजीह दी. ‘प्यार किया तो डरना क्या’ गाने को शकील साहब से 105 बार दुरुस्त करवाया, खुद भी बैठे. गाने में गूंज (इको) का असर लाने के लिए लता जी से बाथरूम में गवाया.

ठीक इसी तरह कुछ और शानदार और यादगार फिल्मों जैसे, ‘दुलारी’, ‘गंगा जमुना’, ‘शबाब’, ‘मेरे महबूब’ में भी नौशाद-शकील की जोड़ी चमकी. 1957 में महबूब खान साहब ने ‘मदर इंडिया’ बनायी थी जो कि उनकी ही 1940 में प्रदर्शित फिल्म ‘औरत’ का रीमेक थी. स्टार कास्ट के अलावा ‘मदर इंडिया’ की टीम लगभग वही थी जो ‘औरत’ की थी. बस गीत संगीत वाली जोड़ी- अनिल बिस्वास और सफ़दर आह की जगह नौशाद और शकील की थी.

शुरुआत में इसके गानों को ज़्यादा पसंद नहीं किया गया था. समालोचकों को फिल्म का गीत-संगीत कहानी के दर्ज़े का नहीं लगा. बाद में इसके गीत लोगों की जुबां पर चढ़कर बोलने लगे. शमशाद बेगम की आवाज़ में होली के गीत ‘होली आई रे कन्हाई रंग बरसे बजा दे ज़रा बांसुरी’ में अब तक होली पर बने हुए अन्य गीतों की तुलना में सबसे ज़्यादा देशज मौलिकता दिखती है. इसके बाकी के गाने आज भी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर हैं. पिक्चर तो खैर हिन्दुस्तान की सबसे महान फिल्मों में से एक है.

दुल्हे मियां नौशाद जब दर्ज़ी बने

शर्म के मारे घरवालों ने दुनिया से उनके संगीतकार होने की बात छिपाई. जिस लड़की से शादी तय हुई उसे और घरवालों को कहा गया कि लड़का बॉम्बे में दर्ज़ी है. शबे-बारात के रोज़ बैंड-बाजे वाले ‘रतन’ फिल्म में उनके बनाये गीतों को बजा रहे थे. लड़की के घरवाले इस तरह के संगीत पर गालियां दे रहे थे और नौशाद साहब घोड़ी पर बैठे मुस्कुरा रहे थे!

100 पीस ऑर्केस्ट्रा के साथ संगीत देने वाले संगीतकार

नौशाद अब प्रयोगधर्मी संगीतकार बनने की राह पर चल पड़े थे. ‘आन’ फिल्म में उन्होंने 100 पीस ऑर्केस्ट्रा के साथ संगीत दिया. इसके उलट ‘मेरे महबूब’ फिल्म का टाइटल गीत सिर्फ छह साजों के साथ बनाया. वे पहले मौसिकीकार थे जिन्होंने हिन्दुस्तानी सिनेमा में शास्त्रीय और पश्चिमी संगीत का फ्यूज़न किया था. ‘साउंड मिक्सिंग’ शुरू करने वाले भी वे पहले संगीतकार थे. इस तकनीक में गायक की आवाज़ और संगीत को अलग-अलग ट्रैक पर रिकॉर्ड किया जाता है. बाद में दोनों को मिलाया जाता है.

नौशाद साहब ने कुल जमा 65 फिल्मों को अपनी मौसिकी से नवाज़ा पर जो काम किया वह महान था. उन्हें 1981 में दादा साहब फाल्के सम्मान से नवाज़ा गया. बाद में उन्हें पद्मभूषण भी दिया गया.

चलते-चलते

महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ हिन्दुस्तान की तरफ से ऑस्कर के लिए नामांकित की गयी थी. उस साल विदेशी फिल्मों की श्रेणी में ‘मदर इंडिया’ हॉलीवुड में सबसे धांसू फिल्म थी. पर सबकी उम्मीद से इतर इसको ऑस्कर से नहीं नवाज़ा गया. जानते हैं क्यूं? इसलिए कि नर्गिस बनी विधवा ‘राधा’ लम्पट लाला के शादी के प्रस्ताव को ठुकरा देती है. यह बात पश्चिमी ख्यालों वाली ऑस्कर की जूरी के गले नहीं उतरी. उसके मुताबिक बच्चों की परवरिश की ख़ातिर ‘राधा’ को ‘लाला’ से ब्याह कर लेना चाहिए था. काश! जूरी भारतीय समाज की इस अवधारणा को समझकर निर्णय लेती कि स्त्री के लिए पति परमेश्वर होता है! काश! महबूब खान को यह अवसर मिलता कि वे यह बात जूरी को समझा पाते.

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