Society | कभी-कभार

हमें वैष्णव जन की प्रतीक्षा है, किसी मसीहा की नहीं

धार्मिक उन्माद और हिंसा में जो लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है उसका प्रतिरोध वैष्णव जन ही कर सकते हैं

अशोक वाजपेयी | 08 May 2022

वैष्णव जन कौन है

नये निज़ाम ने जिस तरह का क़ानूनी और सामाजिक बर्ताव किया है उसके चलते यह प्रश्न बार-बार उठ रहा है कि नागरिक कौन है और आज नागरिक होने का क्‍या अर्थ है. साथ ही चूंकि बहुत सारी बातें हिन्दू धर्म के हवाले और उसकी तथाकथित रक्षा करने के बहाने की जा रही हैं, इसलिए यह प्रश्न भी उठ रहा है कि वैष्णव जन कौन हैं. भारतीय नागरिकता को संविधान ने जाति-धर्म-सम्प्रदाय से अलग और उनसे परे परिभाषित किया था. इस परिभाषा को आज सामाजिक-सांस्कृतिक-नागरिक और धार्मिक व्यवहार में एक तरह से चुनौती दी जा रही है. यह जताने की लगातार कोशिश हो रही है कि बहुसंख्यक हिन्दू तो पहले और अधिक नागरिक हैं और बाक़ी अल्पसंख्यक धर्मों के अनुयायी दूसरे दर्जे के, कुछ कम नागरिक हैं.

एक समय था जब स्वतंत्रता-संग्राम चल रहा था तब महात्मा गांधी ने नरसी मेहता के एक भजन ‘वैष्णव जन तो तेणे रे कहिये जे पीर पराई जाणे रे’ से वैष्णव जन को परिभाषित करने की चेष्टा की थी. पर उनके इस प्रिय भजन को उनकी प्रार्थना-सभा, उनके प्रिय कीर्तन ‘रघुपति राघव राजा राम’ और रवीन्द्रनाथ की कविता ‘एकला चला रे’ से मिलाकर देखना होगा. दूसरे भजन में यह पंक्ति आती है ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान्’. यह गौरतलब है कि इस पंक्ति में ‘सन्मति’ चाही जा रही है, किसी तरह की ‘आत्म-मुक्ति’ नहीं, ‘सद्गति’ या ‘संगति’ नहीं. यह सन्मति ज़ाहिर है यह है कि हम पहचानें कि ईश्वर और अल्ला एक ही सत्ता के दो नाम हैं.

प्रार्थना-सभा के रूप में गांधी जी ने एक अद्भुत सांस्कृतिक आविष्कार किया था. यह सभा तब से लेकर आज तक भी सेवाग्राम आश्रम में सुबह और शाम दो बार सभा होती है जिसमें सनातन धर्म, इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध-जैन धर्मों, सिख धर्म, यहूदियों और पारसियों के धर्म-ग्रन्थों से, पाठ होता है. ऐसा सर्वधर्मपाठ संसार में तब भी कहीं नहीं होता था जब गांधी जी ने इसकी शुरूआत की थी और उसके लगभग 80 वर्ष बाद आज भी कहीं और नहीं होता. यह एक तरह की धर्मसंसद थी जिसमें सभी धर्मों के लिए बराबरी की जगह थी: एक तरह से यह ‘सन्मति सभा’ थी और है. ‘एकला चलो रे’ गीत को, कहते हैं, गांधी जी नोआखली की अपनी यात्रा और प्रवास में गुनगुनाते चलते थे जब वे दंगा-ग्रस्त क्षेत्र में पैदल अकेले चलते थे. यह गीत, एक तरह से, यह प्रतिपादित करता है कि सन्मति की पुकार पर हो सकता है कोई और न आये तो व्यक्ति को अकेले ही चलना होगा- उसके मुखड़े में ही उसकी मूल स्थापना मुखर है. वैष्णव जन उसे ही कहा जा सकता है जो ‘पीर पराई’ जानता है. वह ऐसा जन भी है जो परहित याने दूसरों के हित में अगर कुछ करता है तो अपने मन में कभी अभिमान नहीं लाता. स्पष्ट ही गांधी जी के निकट वैष्णव जन वही है जो पर पीड़ा जानता और परहित में सक्रिय होता है. भजन में ही अभिमान, निन्दा और जात-पांत के विचार को वैष्णव जन के लिए वर्जित किया गया है. ऐसे समय में जो भी दूसरों पर हिंसा, दूसरों के भेदभाव, अत्याचार, हत्या, अपमान, प्रतिशोध आदि में लिप्त हैं वे वैष्णव जन नहीं हैं, न हो सकते हैं.

इस स्थिति का एक और गहरा आशय और संकेत है. इस समय धर्म वैष्णव जन बनने, बने रहने में हमारी कोई मदद नहीं कर रहे हैं यह हमारा और अधिकांश धर्मों का भी दुर्भाग्य है. हमें पूजा-अर्चा-अनुष्ठान-पूजाघर केन्द्रित धर्म नहीं, समाज-केन्द्रित धर्म चाहिये. ऐसा सामाजिक धर्म हमारे संविधान में है- स्वतंत्रता-समता-न्याय की मूल्य-त्रयी के रूप में. हमारे धर्म लोकतंत्र और संविधान से पिछड़ गये, पिछड़ते धर्म हैं और उनसे वैष्णव जन नहीं आ सकते, नहीं आ रहे हैं. जिस धार्मिक उन्माद और हिंसा में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है उसका प्रतिरोध वैष्णव जन ही कर सकते हैं: हमें वैष्णव जन की प्रतीक्षा है, किसी मसीहा की नहीं. साधारण लोगों की, जिनके पास सन्मति होगी, पर पीड़ा का गहरा अहसास और परहित में सक्रिय होने की तैयारी. ऐसे वैष्णव जन होंगे पर वे इतने अदृश्य, इतने चुप क्यों हैं?

यह जोड़ना ज़रूरी है कि गांधी जी ने अपने समय में वैष्णवता के अलावा निपट साधारण लोगों को आततायी औपनिवेशिक सत्ता के बरक़्स निर्भय होने का पाठ सिखाया था. आज वैष्णवजन वह होगा जो स्वयं निर्भय हो और दूसरों को भी निर्भय होने में मदद करे.

विरासत : ख़तरे और सम्भावना

इंटेक के दिल्ली चैप्टर के वार्षिक पुरस्कार समारोह में विरासत पर कुछ कहने का अवसर मिला. विरासत, इन दिनों, उग्र और आक्रामक विवाद का विषय हो गयी है. साझी विरासत की बात इन दिनों कम की जा रही है- अलग-अलग विरासतें गढ़ी जा रही हैं- हिन्दू विरासत, मुस्लिम विरासत. विरासत को लेकर अधिकतर राज्य-आयोजित, बड़े-बड़े तमाशे किये जा रहे हैं. बहुत सारी भौतिक विरासत पर बहुलडोज़र चल रहे हैं. इस समय नष्ट करने का उत्साह, कुछ बनाने-रचने की इच्छा से कई गुना अधिक सक्रिय और गतिशील है. सामाजिक स्मृति को काल्पनिक हिंसा और अतिक्रमण की तरफ़ ढकेला जा रहा है.

विरासत के हमारे यहां कई रूप हैं: भौतिक विरासत, कलाओं-साहित्य-भाषाओं के अनेक लगभग असंख्य रूप, लोक-संपदा, सामाजिक सद्भाव और समरसता, बौद्धिक और ज्ञान के अनुशासन, पारंपरिक चिकित्सा और योग, संविधान और स्वतंत्रता-संग्राम, असंख्य मौखिक परंपराएं, पाण्डुलिपियां आदि. लेकिन आज विरासत को कई ख़तरे हैं: हिंसा-घृणा-भेदभाव पर आधारित राजनीति, शहरीकरण के लिए असाध्य भूख और याराना पूंजीवाद, कट्टरता-अन्याय-घृणा की ओर तेज़ी से मुड़ती धार्मिकता और धर्म, व्यापक विस्मृति फैलाने में लगा गोदी मीडिया, ज्ञान और तर्क की, तथ्यों की अवहेलना करती तर्कविरोधी उदारता से विमुख मानसिकता. ऐसी स्थिति में इण्टेक जैसी संस्थाएं हमारी विरासत को यथासम्भव बचाने, उसका अहसास व्यापक करने का ज़रूरी काम कर रही हैं.

ध्रुवीकरण

उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में चुनावी सफलता के बाद यह स्पष्ट है कि भाजपा और उसकी समर्थक संस्थाएं हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को अगले लोकसभा चुनाव तक और व्यापक और तेज़ करेंगी. इधर जो छुटपुट घटनाएं हो रही हैं वे न तो आकस्मिक हैं और न ही किसी क्षणिक उत्तेजना में हो रही हैं. वे एक सुविचारित रणनीति का हिस्सा हैं कि भयानक आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, भुखमरी आदि के बावजूद चुनाव में सफलता का रास्ता इन मुद्दों को हाशिये पर डालकर हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण से जायेगा.

अभी आंकड़े आये हैं कि 45 करोड़ लोगों ने रोज़गार तलाश करने की कोशिश तक करना बंद कर दिया है. दो करोड़ से अधिक लोगों का रोज़गार पिछले तीनेक साल में ख़त्म हो गया. यह ख़बर भी आयी है कि अमरीका की एक स्वतंत्र एजेंसी ने धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में भारत को चिन्ताजनक कोटि में रखा है. इस सबका कोई ख़ास प्रभाव सत्तारूढ़ राजनीति और आर्थिकी पर पड़ेगा इसका अभी अनुमान तक लगाना कठिन है. जो युवा बेरोज़गार हैं वे अल्पसंख्यकों पर हिंसा कर वीर कहला सकते हैं जो कुछ के लिए तो एक धन्धा ही बनता जा रहा है. जो ध्रुवीकरण तेज़ी से, अनेक स्तरों पर, किया जा रहा है उसके राजनीति और आर्थिकी के अलावा शिक्षा, संस्कृति, सामाजिक जीवन आदि में भी गंभीर परिणाम होंगे. जिन क्षेत्रों में अभी तक बाहुबल की कोई मान्यता नहीं थी वहां भी उसका प्रभाव और दबाव बढ़ेगा. सच तो यह है कि हम गहरे सांस्कृतिक संकट में हैं: प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित और सशक्त होना चाहिये और समय बहुत अधिक नहीं है क्योंकि अमृत महोत्सव में विष तेज़ी से फैल रहा है.

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