Society | कभी-कभार

आज हिंसा लगभग एक वैध और लोकप्रिय विधा बन गयी है जिसका मुक़ाबला केवल साहित्य कर सकता है

कवि-आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी के साप्ताहिक स्तंभ ‘कभी-कभार’ की आख़िरी कड़ी

अशोक वाजपेयी | 26 June 2022

‘नींद का रंग’ और ‘आंखें’

पाकिस्तान की भारत में अपेक्षाकृत कम जानी-मानी कवयित्री सारा शगुफ़्ता के दो कविता-संग्रह अर्जुमन्द आरा के लिप्यन्तरण और संपादन में राजकमल प्रकाशन से आये हैं. उर्दू में उत्तर-आधुनिक और इक़बालिया कविता के लिए जानी जानेवाली इस कवयित्री के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ‘उर्दू फ़ार्मलिज़्म के बर्तन को खिड़की के बाहर फेंक दिया और आज़ाद नज़्म के स्वरूप को तोड़ा-फोड़ा, तहस-नहस कर डाला’. उनकी कविताओं के शीर्षक ही उनकी कविता के स्वभाव को बखूबी व्यक्त करते हैं: ‘ख़ाली आंखों का मकान’, ‘ज़िल्लत के गिरे दाम तले’, ‘पेड़ जो बन्द आंखों से बनाया गया’, ‘जूठा पानी-अधूरे बच्चे’, ‘शायद मिट्टी मुझे फिर ख़रीद न ले’, ‘मैं तुम्हारी चिता पे सोती हूं, ‘सूरज पंछी के साथ डूब जाता है’, ‘मेरा नफ़्स मर्द की इकाई चाहता है’, ‘चराग़ जब मेरा कमरा नापता है’, ‘मौत की तलाशी मत लो’, ‘बाहर आधी बारिश हो रही है’, ‘रात चुटकी बचाती है दिन की पोर से’, ‘मैं अपनी दीवार की आखि़री ईंट थी’, ‘बेवतन बदन को मौत नहीं आती’, ‘नींद जूठा पानी हुई’, ‘घड़ी जो दीवार हो चुकी थी’, ‘कांटे पर कोई मौसम नहीं आता’ आदि.

‘मिट्टी’ शीर्षक छोटी सी कविता है:
तुम्हारे तीर से बची हिरनी
तुम्हारे लिए जंगल लायी
सो मैं तुम्हारा इक़रार हूं.

एक और छोटी कविता है जिसका शीर्षक है ‘मैदान ख़त्म है’:
ज़मीन गर्द नहीं झाड़ सकती
पानियों पर ज़मीन का लाशा रखा है.

उनकी एक और कविता का समापन यों होता है:
परिंदे अपनी-अपनी परवाज़ से बिछड़ जाते हैं
और मैं हमेशा टूटे पर इकट्ठे करती रहती थी….
सो तुम्हें भी मेरे झूठ की प्यास लगेगी
लेकिन मेरी आंखें नफ़रत से हामिला हो चुकी हैं
मैं सूरज से ज़्यादा सच बोला करती थी
और गुनाहों की गवाही मेरी हैरत को डंसती थी

अपने बारे में सारा लगातार निर्मम हैं और उनकी कविता इसे बराबर दर्ज़ करती रहती है:
मैं वक़्त की जूतियों में अकसर तस्मे ग़लत डालती रही
मैं छोटी हूं कि मेरा दुख छोटा है
तुम मेरे झूठ बोलने लगे हो
तुम मेरा लिबास पहनने लगे हो
मैं तुम्हारी चिता पे सोती हूं

‘बेटे के लिए एक नज़्म’ अनूठी है और उसमें मां पर कुछ बहुत मार्मिक पंक्तियां हैं:
मेरी बूढ़ी दुआ मुझे तराशती
और मैं बचे संग-रेज़ों से खिलौने बनाती
खिलौने बाउम्र हुए और मुझसे बातें करते
मैंने नई ज़बान दरयाफ़्त कर ली
और मांओं से कहा
तुम दीवारों की मां हो
और मैं सदियों की मां हूं….

और यह अंश:
कि सर-ए-शाम सूरज इनकार करने लगता है
मेरे घर की सलाखों से
कितने कुत्तों की ज़ंजीरें बनती हैं
मैं अपनी तलाफ़ी में तुम्हें शरीक नहीं करूंगी
इंसान दूसरी ग़लती कभी नहीं करता
मैं फिर खुदा को तीसरी बार दुहराती हूं
खिलौने का मुकद्दर ज़्यादा से ज़्यादा टूटना है

सारा शगुफ़्ता की जिन्दगी छोटी थी, तीस बरस से भी कम: उन्होंने आत्महत्या की और चार बार तलाक हुआ. संग्रहों के नाम हैं : ‘नींद का रंग’ और ‘आंखें’.

मराठी का साहित्य-जगत

मराठी की साहित्यिक दुनिया का हिन्दी में पता चलता रहा है. कई हिन्दी लेखकों को मराठी के साहित्यिक आयोजनों में भाग लेने का सुयोग मिला है. मैं भी बरसों पहले मराठी साहित्य सम्मेलन का उद्घाटन करने परभणी गया था. इस बार पुणे जाना हुआ. वहां स्थित महाराष्ट्र साहित्य परिषद के वार्षिक पुरस्कार समारोह में, मुख्य अतिथि के रूप में. यह परिषद् अपनी स्थापना के सौ वर्ष से अधिक पूरा कर चुकी है और उसकी स्थापना से लोकमान्य तिलक का गहरा और सक्रिय संबंध था. एसएस जोशी सभागृह में आयोजन हुआ जो ठसाठस भरा था और ढाई घण्टे चला. वयोवृद्धों के अलावा श्रोताओं में अनेक युवा और अधेड़ थे. मराठी की एक विशेषता यह है कि उसके आयोजनों और सम्मेलनों में, संस्थागत ढांचों में साहित्यकारों के अलावा कई अन्य विधाओं और व्यवसनों के लोग शामिल होते हैं. इस बार भी दृश्य वैसा ही था. परिषद के प्रमुख मिलिन्द जोशी सिविल इंजीनियर हैं और कई सदस्य या पदाधिकारी वकील आदि. जो पुरस्कार दिये गये उनकी राशि किसी न किसी परोपकारी व्यक्ति या परिवार ने दी है. उनमें संगीत पर लेखन के लिए भी दो पुरस्कार शामिल थे.

मैंने इस भयावह समय में लेखकों का ‘हारी होड़’ में शामिल होने का आह्वान किया. मुझे लगता है कि इस समय झूठ इतना तेज़ और व्यापक हो चुका है कि साहित्य को सच बोलना, दर्ज़ करना और बचाना चाहिये. ‘कोई विकल्प नहीं है’ की राजनीति के बरक़्स आज साहित्य को कल्पना पर ज़ोर देकर विकल्प की खोज और सम्भावना पर आग्रह करना चाहिये. विस्मृति फैलाने के समय साहित्य को स्मृति की रक्षा और पुनर्वास करना चाहिये: वह याद रखे, याद करे और याद दिलाये. जब राजनीति-धर्म-मीडिया-बाज़ार आदि मिलकर बहुलता को दबाने में लगे हैं, तो वे साहित्य में बहुलता का अहसास और उत्सव होना चाहिये. साहित्य को हमारे समय में हर दिन फैलायी जा रही हत्या-हिंसा-घृणा-बलात्कार-अत्याचार-अन्याय की मानसिकता का लगातार प्रतिरोध करना चाहिये. भारतीय मध्य वर्ग मातृभाषाओं की लगातार अवज्ञा कर रहा है, मीडिया-राजनीति-धर्म-बाज़ार मिलकर उन्हें प्रदूषित और विकृत कर रहे हैं: साहित्य में भाषा की मानवीयता, गरमाहट, सूक्ष्मताएं और जटिलताएं प्रगट होना चाहिये. रचना से ही भाषा बच सकती है. साहित्य सिर्फ़ अभिव्यक्ति मात्र नहीं है: वह वैचारिक कर्म भी है और वह सार्वजनिक जीवन में वैचारिक हस्तक्षेप करता है. उसे अपनी इस भूमिका को प्रखर करना चाहिये. साहित्य का एक ज़रूरी अनिवार्य काम इस वक़्त जब सबको डराया जा रहा है, अपने को और अपने पाठकों को निर्भय बनाना चाहिये. उसे हिंसा और घृणा की शक्तियों से पूरी तरह से अहसयोग करना चाहिये. इस समय जब हिंसा जब लगभग एक वैध और लोकप्रिय विधा बन गयी है, साहित्य को अहिंसा के रूप में और उनकी सामाजिक ज़रूरत पर काम करना चाहिये. सबसे ऊपर साहित्य को इस समय मानवता के सहचर के रूप में पूरी शक्ति और उत्साह के साथ उभरना चाहिये. हम जीतेंगे नहीं, पर संघर्ष से न तो विरत होंगे, न थकेंगे: हमारी ‘हारी होड़’ है और रहेगी.

>> Receive Satyagrah via email or WhatsApp
>> Send feedback to english@satyagrah.com

  • After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Society | Religion

    After all, how did a tribal hero Shri Krishna become our Supreme Father God?

    Satyagrah Bureau | 19 August 2022

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Politics | Satire

    Some pages from the diary of a common man who is living in Bihar

    Anurag Shukla | 15 August 2022

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    World | Pakistan

    Why does Pakistan celebrate its Independence Day on 14 August?

    Satyagrah Bureau | 14 August 2022

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Society | It was that year

    Could a Few More Days of Nehru’s Life Have Resolved Kashmir in 1964?

    Anurag Bhardwaj | 14 August 2022