इसके फिर मिलने पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि कश्मीर हिंदुस्तान से जाते-जाते रह गया
अनुराग भारद्वाज | 15 जून 2022
1960 के दशक में जम्मू-कश्मीर की राजनीति उबाल ले रही थी. ‘कश्मीर साजिश’ केस में शेख अब्दुल्ला को जेल हो गई थी. उनकी जगह बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद मुख्यमंत्री बने. उनकी सरकार की कारगुज़ारियों से प्रदेश में हाहाकार मच गया. तभी जवाहरलाल नेहरू ने ‘कामराज प्लान’ के तहत संगठन को मज़बूत करने के लिए छह मुख्यमंत्री और इतने ही केंद्रीय मंत्रियों से इस्तीफ़ा ले लिया. इसके तहत चार अक्टूबर, 1963 को बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद को हटाकर ख्वाजा शम्सुद्दीन को कश्मीर का मुख्यमंत्री बना दिया गया. बाद में वे ‘चम्चुद्दीन’ के नाम से जाने गए!
मुश्किल से दो महीने ही गुज़रे थे कि दिसंबर के आख़िरी दिनों में ऐसी घटना हो गयी जिससे कश्मीर ही नहीं, बल्कि समूचे हिंदुस्तान के साथ-साथ पश्चिम और पूर्व पाकिस्तान भी दहल उठे. हुआ यह था कि…
हज़रतबल दरगाह से पैगंबर साहब का अवशेष ग़ायब हो गया
इस अवशेष को 1635 में पैगंबर के वंशज कहे जाने वाले सईद अब्दुल्ला मदीना से हिंदुस्तान लाए थे. उन्होंने इसे बीजापुर (कर्नाटक) की एक मस्जिद में रखवा दिया. वहां से होता हुआ यह कश्मीरी व्यापारी नूरुद्दीन के हाथ लगा. जब औरंगज़ेब को इसकी ख़बर मिली तो उसने नूरुद्दीन को गिरफ़्तार करके अवशेष को अजमेर में दरगाह शरीफ़ में रखवा दिया. हालांकि 1700 में औरंगज़ेब ने इसे नुरुद्दीन के ही परिवार को सौंप दिया जिसने इस अवशेष को हज़रतबल दरगाह के खादिमों की निगहबानी में महफूज़ कर दिया.
26 और 27 दिसंबर, 1963 की दरमियानी रात को दरगाह से यह अवशेष रहस्यमय ढंग से ग़ायब हो गया. यह हज़रत मोहम्मद पैगंबर साहब की आख़िरी निशानी के तौर पर रखा उनकी दाढ़ी का मुकद्दस बाल था! इसे ‘मू-ए-मुक्कदस’ के नाम से जाना जाता है. चोरी होने से पहले इसके दर्शन के लिए निशान देज़ और अब्दुर रहमान बंदे ने इसे निकाला था और बाद में फिर वहीं रख दिया था.
हालांकि, चार जनवरी, 1964 को यह मिल गया था. पर तब से लेकर आज तक यह रहस्य बना हुआ है आख़िर इसकी चोरी किसने की थी. सरकार ने भी कभी चोरों के नाम ज़ाहिर नहीं किये. चोरी के बाद क्या हुआ?
अगले दिन की मनहूस सुबह, फिर ऐसी कई और सुबहें और खौफ़ज़दा शामें
घटना बहुत बड़ी थी, कश्मीर सुलग उठा. अगले दिन यही कोई 50 हज़ार लोग काले झंडे लेकर दरगाह के सामने इकट्ठे हो गए. बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद जवाहरलाल नेहरू से मिलने दिल्ली गए हुए थे. शम्सुद्दीन जम्मू में थे. वे सड़क के रास्ते रवाना हुए पर बटोट (जम्मू) में ही रोक दिए गए. पुलिस अधीक्षक मोहम्मद असलम ने पूरी ताक़त झोंक दी, पर हालात बेकाबू थे.
शम्सुद्दीन अगले दिन पहुंच गए और उन्होंने चोरों को पकड़वाने के लिए एक लाख रुपये का इनाम घोषित कर दिया. इसके अलावा पकड़वाने वाले को ताज़िंदगी सालाना 500 रूपये की पेंशन देने की पेशकश की गयी. तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री गुलज़ारीलाल नंदा ने शम्सुद्दीन की दरख्व़ास्त पर जांच के लिए सीबीआई के दो अफ़सर भेज दिए.
घटनाक्रम तेज़ी से बदल रहा था. बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद और बाकी कश्मीरी नेताओं ने लाल चौक पर उस दिन सभाएं कीं जिनमें एक लाख तक लोग जुटे. बात बनने के बजाय और बिगड़ गयी. लोगों ने कश्मीर रेडियो स्टेशन जलाने की कोशिश की. बताते हैं कि पुलिस अधीक्षक पर भी हमले की साजिश की गयी. गोलीबारी में कुछ लोग घायल हुए. चुनांचे शहर में कर्फ्यू लगाना पड़ गया और कई पार्टियों के नेता पुलिस ने धर लिए.
हिंदुस्तान और पाकिस्तान में दंगे
30 दिसंबर को अकाली पार्टी और अन्य हिंदू नेता भी इस अफ़रातफ़री के माहौल में शामिल हो गए. कश्मीर के सदर-ए-रियासत डॉक्टर कर्ण सिंह, पंडित नेहरू और गुलजारी लाल नंदा से मिलने दिल्ली पहुंचे. पाकिस्तानी मीडिया ने इस हादसे को यूं कवर किया कि पाकिस्तान (पश्चिम और पूर्व) में भी हालात ख़राब हो गए.
पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में दंगे भड़क गए जिनमें तक़रीबन 400 लोग मारे गए. जान-माल का काफ़ी नुकसान हुआ. हज़ारों हिंदुओं ने भारत की ओर पलायन कर दिया. कराची, पाकिस्तान में जिन्ना की मज़ार तक जुलस निकाला गया और वहां के हुक्मरानों ने इसे कश्मीरी मुसलमानों के ख़िलाफ़ साज़िश बताया. इधर, इसका असर यह हुआ कि हिंदुस्तानी मुसलमानों में दहशत फैल गयी.
अगले दिन प्रधानमंत्री नेहरू ने दो काम किए – पहला, सीबीआई चीफ़ बीएन मलिक को श्रीनगर रवाना किया गया. दूसरा, रेडियो के ज़रिये कश्मीरी अवाम से अमन कायम करने की गुज़ारिश की गई. किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर हो क्या रहा है. तभी नेहरू को जाने क्या सूझा. उन्होंने बिना पोर्टफ़ोलियो के एक मंत्री को कश्मीर भेज दिया. एक जनवरी, 1964 को ये मंत्री कश्मीर पहुंचे और तुरंत वहां की पार्टियों के नेताओं के मिलने के दौर शुरू हो गए.
‘बिना पोर्टफ़ोलियो’ के मंत्री की जुगत
ये मंत्री कोई और नहीं बल्कि लालबहादुर शास्त्री थे. जिस ‘कामराज प्लान’ की बात ऊपर की गयी थी, उसके तहत इस्तीफ़ा देने वालों में एक केंद्रीय मंत्री शास्त्री भी थे. बिना पोर्टफ़ोलियो के भी वे नेहरू मंत्रिमंडल में दूसरे सबसे अहम मंत्री माने जाते थे. उन्होंने दरगाह में ज़ियारत की और अवशेष के मिलने की दुआ मांगी.
हिंदुओं और सिखों के भी प्रदर्शन
पैगंबर की इस निशानी का महत्व सिर्फ एक मज़हब तक सीमित नहीं था. यह कश्मीरियत की बात थी. लिहाज़ा, हिंदू और सिख भी इन प्रदर्शनों में शामिल हो गए. दरगाह तक जाने वाले रास्ते पर जगह- जगह लंगर लग गए. सब मू-ए-मुकद्दस के मिलने की दुआ कर रहे थे.
शेख अब्दुल्ला की रिहाई की मांग भी उठ गयी
‘कश्मीर साज़िश’ केस में शेख अब्दुल्ला 1953 से ही जेल में थे. एक बार 1958 में वे रिहा हुए पर ज़ल्द ही दोबारा उन्हें जेल हो गयी. उन पर सरकार के तख़्तापलट और कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल करने की कोशिश का इलज़ाम लगा. वे नेहरू के क़रीबी थे, इसलिए नेहरू आहत थे.
कश्मीरी अवाम शेख़ अब्दुल्ला को ‘शेर-ए-कश्मीर’ कहती थी. आम कश्मीरी उस अवशेष के लिए आंदोलन कर रहा था, उधर, नेशनल कांफ्रेंस ने शेख़ की रिहाई की मांग छेड़ दी. काले झंडों के साथ-साथ बड़ी तादाद में नेशनल कांफ्रेंस के झंडे प्रदर्शनों में नज़र आने लगे. नेहरू दोनों तरफ़ से घिर गए. अप्रैल, 1964 में शेख अब्दुल्ला रिहा हो गए.
दिल्ली से बड़े अधिकारी भी कश्मीर पहुंचने लगे
लाल बहादुर शास्त्री और सीबीआई प्रमुख के अलावा अब बारी थी केंद्रीय गृह सचिव वी विश्वनाथन की. तीन जनवरी, 1964 को वे भी कश्मीर जा पहुंचे. उन्हें दिल्ली सरकार की ‘आंख और कान’ कहा जाता था. उन्होंने पूरी जांच का जायज़ा लिया. माहौल में बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी कि अचानक…
चार जनवरी की दोपहर ख़ुशनुमा हो गयी
चार जनवरी की सुबह को सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह दरगाह गए और ज़ियारत की. उन्होंने दरगाह कमेटी को 6000 रूपये देने के ऐलान के साथ-साथ उन लोगों को भी इमदाद दी जो अवशेष के मिलने की मन्नत मांग रहे थे. उनमें कुछ हिंदू और सिख भी थे.
मन्नते रंग लाईं या सीबीआई की जांच या कुछ और, दोपहर को रेडियो कश्मीर ने घोषणा कर दी कि हज़रत पैगंबर मोहम्मद साहब की निशानी मिल गयी है! कश्मीर की फ़िज़ां यकायक बदल गयी. सीबीआई प्रमुख, बीएन मलिक ने जब अपने बॉस, यानी प्रधानमंत्री नेहरू को फ़ोन करके यह ख़बर सुनायी तो बताते हैं कि उन्होंने कहा, ‘तुमने कश्मीर को हिंदुस्तान के लिए बचा लिया!’
पर जब लोगों का जूनून ठंडा पड़ा, तो बात उठने लगी कि क्या ये ‘मू-ए-मुक्कद्दस’ असली है? अब यह बहुत बड़ा प्रश्न था. डीएनए टेस्टिंग तो तब संभव नहीं थी और होती भी तो कैसे?
असली या नकली की पहचान कैसे हो अब यह मुद्दा बन गया था. हालात फिर ख़राब हो गए. नेहरू ने दोबारा शास्त्री को कश्मीर भेजा. कमेटी के सामने ‘मू-ए-मुकद्दस’ लाया गया, शास्त्री भी वहीं मौजूद थे. उनकी मौजूदगी में उसे कश्मीर के संत मीराक़ शाह कशानी को बुलाया गया. कहते हैं लोग कि मानते थे कि अगर कोई इसकी तस्दीक कर सकता है तो सिर्फ मीराक शाह ही. उन्हें ‘मू-ए-मुकद्दस’ का दीदार कराया गया .
पूरे 60 सेकंड तक कशानी ने उसकी पड़ताल की. तब तक यकीनन सबकी सांसें अटकी रही होंगी. मुल्कों में दंगे, नेहरू की बिगड़ती तबियत और ख़ुद शास्त्री के लिए भी यह एक इम्तेहान था. ऐसे माहौल में वे 60 सेकंड्स किसी मर्डर मिस्ट्री के सुलझने के अंतिम पल जैसे रहे होंगे. मीराक़ शाह कशानी ने तसल्ली से उसकी तस्दीक की और उसके सही होने पर अपनी मोहर लगा दी. बस फिर क्या था. कश्मीर में जश्न का माहौल बन गया. अगर उस ज़माने में स्मार्टफ़ोन होते तो कमेटी के मेंबरान और शास्त्री की एक सेल्फी तो बनती थी. शायद वह सदी की सबसे बड़ी सेल्फियों में से एक होती.
चलते-चलते
कश्मीर में आज भी यह बात कभी कभार हो जाती है कि बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद के घर के एक बीमार बुजुर्ग ने अपने इंतेकाल से पहले ‘मू-ए-मुकद्दस’ के दर्शन की इच्छा जाहिर की थी. बताते हैं कि उसके बाद ही वह ग़ायब हो गया था. और फिर, जिस तरह ग़ायब हुआ, उसी तरह मिल भी गया.
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