उत्तर प्रदेश के कई जिलों के किसानों से बातचीत करने पर जो पता लगता है, वह मोदी सरकार पर विपक्ष के आरोपों और अखबारों की सुर्खियों से काफी अलग नजर आता है
अभय शर्मा | 12 जून 2020 | फोटो : हरदीप पूरी / ट्विटर
मशहूर उद्योगपति राजीव बजाज बीते हफ्ते अपने एक बयान के लिए खासे सुर्ख़ियों में रहे. कांग्रेस नेता राहुल गांधी के साथ एक विशेष बातचीत में उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन को भारत में बहुत बेरहमी के साथ लागू किया गया. उनका कहना था, ‘हमारे जैसे कुछ लोग, जो इसे झेल सकते हैं वे घर पर रहने से बहुत दुखी नहीं है. लेकिन जब आप अपने आस-पास के व्यवसायों और जनता की स्थिति देखते हैं तो यह निश्चित रूप से मीठे की तुलना में अधिक कड़वा अनुभव है.’
राजीव बजाज के अलावा भी कई लोगों ने लॉकडाउन को लेकर सरकार की आलोचना की है. केंद्र सरकार ने बीते एक जून से लॉकडाउन को पूरी तरह हटा दिया है. उसने लोगों से दिशानिर्देशों का पालन करते हुए काम पर जाने को कहा है. तमाम लोगों का कहना है कि अगर सरकार को इसी तरह सब कुछ खोलना था तो फिर उसने लॉकडाउन लगाया ही क्यों था. अगर उसने ऐसा न किया होता तो कम से कम अर्थव्यवस्था तो नुकसान से बच ही जाती.
भारत में लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों का मुद्दा काफी छाया रहा. मजदूर सैकड़ों किमी पैदल चलकर अपने घर पहुंचे. प्रवासियों के मामले में कहा जा रहा है कि अगर सरकार ने उन्हें मई के बजाय मार्च में ही – लॉकडाउन लगाने से पहले – उनके घर भेज दिया होता तो शायद महामारी से ग्रामीण क्षेत्रों को बचाया जा सकता था. कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों का कहना है कि सरकार की गलत नीतियों के चलते उद्योगपतियों के साथ-साथ देश के किसान और मजदूर सरकार से खासे नाराज हैं.
गांवों में लोगों के ऊपर मोदी सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन का क्या प्रभाव पड़ा? लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा दी गई राहत लोगों तक पहुंची या नहीं? और इसे लेकर लोग क्या सोचते हैं? यह जानने के लिए सत्याग्रह ने उत्तर प्रदेश के कई जिलों के आम लोगों और किसानों से बातचीत की. इस बातचीत में जो बातें सामने आई हैं, वे विपक्ष के आरोपों और अखबारों की सुर्खियों से बिलकुल अलग नजर आती हैं.
कोरोना वायरस और लॉकडाउन का गांवों पर असर
शाहजहांपुर जिले की सदर तहसील में एक गांव है डींगुरपुर. यहां के निवासी रमेश सिंह यादव सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘लॉकडाउन कब लगा और कब हटा यह हम अखबारों में पढ़ते रहे, लेकिन हमारे गांव में तो इसका कोई असर दिखा नहीं.’ खाने-पीने की चीजों की परेशानी के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘गांव का एक अलग मिजाज होता है, हमारे खेतों से ही सब्जी और गल्ला सब कुछ आता है.’ इस बातचीत के बीच में रमेश सिंह के चाचा पूरन सिंह कहते हैं, ‘गांव के आदमी को आप केवल आलू दे दो, वो उसमें भी ख़ुशी-ख़ुशी महीना गुजार लेगा, यहां लोगों को बीस तरह के व्यंजन नहीं चाहिए.’
शाहजहांपुर के एक मुस्लिम बहुल गांव भानपुर के सरताज अहमद और अन्य ग्रामीण भी कुछ-कुछ ऐसा ही बताते हैं. ‘अव्वल तो गांव में किसी को दिक्कत नहीं हुई, और अगर किसी को खाने-पीने की दिक्कत हुई भी तो पड़ोसियों ने मदद कर दी.’ जिस ग्रामीण मिजाज़ की बात ऊपर रमेश सिंह कर रहे थे, उसके एक और पहलू के बारे में हमें बताते हुए सरताज अहमद कहते हैं, ‘जब लॉकडाउन शुरु हुआ था तब मेरे घर में गेहूं नहीं थे, मेरे पड़ोसी ने 50 किलो गेहूं मुझे दे दिए. फसल कटने पर हमने उन्हें उनके गेहूं वापस कर दिए.’
शाहजहांपुर के जरावन गांव के प्रधान पवन यादव लॉकडाउन में होने वाली दिक्कतों के बारे में पूछने पर कहते हैं, ‘गांवों में किसी चीज किल्लत नहीं हुई, सब्जी को लेकर तो गांवों में कहा जा रहा था जिसने इस समय सब्जी नहीं खा पाई वो फिर कभी नहीं खा पायेगा.’ पवन के मुताबिक ऐसा इसलिए था क्योंकि लॉकडाउन के दौरान शहरों में सब्जी जा नहीं पाई और किसानों को उसे गांवों में ही औने-पौने दामों पर बेचना पड़ा. वे कहते हैं कि अगर देखा जाए तो सब्जी उगाने वाले किसानों को ही लॉकडाउन के समय सबसे ज्यादा परेशानी हुई क्योंकि उनकी सब्जी बाहरी जिलों में नहीं पहुंच पाई.
लॉकडाउन के दौरान ही अप्रैल में गेहूं की फसल की कटाई का समय था. फसल की कटाई या मंडी तक फसल पहुंचने में होने वाली दिक्कत के बारे में पूछने पर बरेली की आंवला तहसील के गांव जैतपुर के किसान मायाराम मोर्य कहते हैं, ‘हमें कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई, अप्रैल में हमारी फसल कटी सरकार ने मंडी खोल दी थी, हमने बेच दी… कुछ लोग (प्रवासी) बाहर से गांव चले आये थे तो कटाई के लिए गांवों में काफी मजदूर भी मौजूद थे.’
केंद्र और राज्य सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं का हाल
केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के दौरान लोगों को सहूलियत देने के लिए कई फैसले लिए. इनमें किसानों को हर साल तीन किस्तों में ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि’ के तहत मिलने वाले कुल छह हजार रुपयों को तत्काल उनके अकाउंट में डालना, उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन पाए लोगों को तीन सिलेंडर मुफ्त देना और राशन में हर महीने दाल और अनाज मुफ्त देना शामिल है. उत्तर प्रदेश सरकार ने भी कोरोना संकट के इस समय में लोगों की मदद के लिए जन धन खाताधारक महिलाओं को 500 रुपए हर महीने देने का फैसला किया था.
बरेली जिले के एक किसान कमलेश मिश्रा खुद को इन सभी योजनाओं का लाभ मिलने की बात कहते हैं. कमलेश यहां की नबाबगंज तहसील के अंतर्गत आने वाले गांव उरिया महिपत के निवासी हैं. कमलेश के मुताबिक उनकी किसान सम्मान निधि वाली दो हजार रुपए की पहली क़िस्त जनवरी में आयी थी और बाकी दो किस्तें हाल के महीनों में आ गई हैं. हालांकि सत्याग्रह से बातचीत में वे यह भी बताते हैं उनके गांव में करीब 200 किसानों की किस्तें आयी हैं लेकिन तकरीबन 40 से 50 लोगों की क़िस्त अभी नहीं आयी है. लेकिन ऐसे लोगों में से कुछ लोगों को लगता है कि यह मोदी सरकार की गलती नहीं है.
एक और खास बात यह है कि जिन प्रवासी लोगों के बारे में यह माना जाता है कि वे इस वक्त मोदी सरकार से बहुत नाराज होंगे, उनके बारे में भी बिलकुल विश्वास के साथ ऐसा कह पाना मुश्किल है. बरेली के ही गांव जैतपुर के सूरज मौर्य 29 मार्च को दिल्ली से पैदल अपने घर वापस आये हैं. सूरज कहते हैं, ‘हमारे गांव में हमें कोई परेशानी नहीं है, मेरी मम्मी के खाते में 500 रुपए आये हैं. (गैस) सिलेंडर भी मुफ्त में मिला है. बीते महीने दो हजार रुपए की किस्त भी पिता जी के खाते में आई है. राशन भी मुफ्त में मिल रहा है.’
शाहजहांपुर के हसनपुर गांव के किसान भी इस मामले में प्रदेश के बाकी जिलों और गांवों के किसानों से अलग नहीं हैं. यहां के तीन किसानों – मुरारी लाल, रणधीर सिंह यादव और सोमेश वर्मा – से सत्याग्रह ने विस्तार से बात की और ये तीनों ही केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं से खासे खुश नजर आते हैं. यहां खास बात यह है कि ये तीनों उत्तर प्रदेश में बेहद मजबूत मानी जाने वाली जाति व्यवस्था के अलग-अलग हिस्सों का प्रतिनिधित्व करते हैं. ये तीनों ही हमें बताते हैं कि उनकी पत्नियों के जनधन खातों में 500-500 रुपए आये हैं. किसानों को दी जाने वाली दो हजार रुपए की किस्त भी उन्हें बीते अप्रैल महीने में मिल गई है. कई अन्य ग्रामीण भी ऐसा ही बताते हैं हालांकि, कुछ एक लोग ऐसे भी थे जिन्होंने किस्त न आने की बात भी कही और इस बात से खासे नाराज़ भी दिखे लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है.
लॉकडाउन के दौरान मिलने वाली सरकारी मदद पर प्रतिक्रिया देते हुए यहां के यादव बहुल गांव डींगुरपुर के पूरन सिंह यादव (70 वर्षीय) कहते हैं, ‘देखो बाबू जी, लॉकडाउन के दौरान घर के हर सदस्य को पांच किलो गल्ला (चावल) मुफ्त दे रहे हैं. मतलब हर घर में औसतन 30 से 40 किलो चावल मुफ्त में मिला, इतना ही गेहूं भी दो रुपए प्रति किलो के हिसाब से मिला, मुफ्त में चना मिला. किसान के लिए ये बहुत बड़ी मदद है, महिलाओं को चूल्हा नहीं फूंकना पड़ रहा है. ऊपर से उन्हें 500 रुपए और दे दिए… (इतनी मदद के बाद) गांव के लिए 500 रुपए बहुत होते हैं.’
पूरन सिंह की बात से सहमति जताने वाले लोगों की कमी नहीं है. डींगुरपुर के ही एक और किसान रमेश सिंह यादव हमें बताते हैं, ‘इस सबके अलावा हमारे बच्चे जो बीते तीन महीनों से स्कूल नहीं गए, अब सरकार उन्हें भी हर महीने रुपए और गल्ला (अनाज) देगी क्योंकि स्कूलों में मिड-डे मील लॉकडाउन के दौरान नहीं बना. हमारे बच्चों के भी आधार कार्ड और अभिभावकों की बैंक खाता संख्या इसी हफ्ते स्कूल वालों ने ली है.’ रमेश आगे कहते हैं, ‘सरकार ने सब कुछ तो कर दिया. अब आप ही बताइए इससे ज्यादा कोई और सरकार भला क्या करेगी. पहले तो ऐसा कभी हुआ नहीं… अब मोदी और योगी जी हमारे खेत थोड़े न जोतने आयेंगे.’ रमेश एक और बात भी बताते हैं. वे कहते हैं, ‘हम यादव हैं, शुरुआत से सपाई रहे हैं, लेकिन मोदी और योगी जी के काम से हम बेहद खुश हैं… उन्होंने बिना भेदभाव के योजनायें चलाई हैं.’
न केवल डींगुरपुर में बल्कि शाहजहांपुर के दूसरे गांवों और पड़ोस के जिले पीलीभीत में भी इसी तरह की बातें सुनने को मिलती हैं. शाहजहांपुर के मुस्लिम बहुल गांव भानपुर और कोठे सहित यहां कई गांवों के लोग हमें बिना भेदभाव योजनाओं का लाभ मिलने की बात बताते हैं. कोठे के ग्राम प्रधान श्रीकांत अवस्थी से जब कोरोना संकट से जुड़ी मोदी सरकार की योजनाओं के बारे में बातचीत होती है तो वे एक और महत्वपूर्ण बात हमें बताते हैं. ‘इस मामले में गांव में लोगों को कोई परेशानी नहीं हुई. हर किसी को योजना का लाभ मिला है और वह भी बहुत तेजी से मिला है… शायद पहली बार ऐसा हुआ होगा कि लोगों की जेब में बिना दौड़-भाग के सीधे पैसा आया है… शायद लोग इसीलिए खुश हैं’ अवस्थी कहते हैं.
शाहजहांपुर के कई बैंक शाखाओं के प्रबंधकों ने भी सत्याग्रह से बातचीत में सरकार की तरफ से बेहद तेजी से पैसा भेजे जाने की बात कही. यहां पर स्थित एक राष्ट्रीयकृत बैंक के शाखा प्रबंधक हमें बताते हैं, ‘24 मार्च को प्रधानमंत्री जी ने लॉकडाउन की घोषणा की थी और मेरी शाखा में सात से नौ अप्रैल के बीच फंड आ गया था… सात मई को मई महीने का फंड भी शाखा को भेज दिया गया.’ हालांकि, एक अन्य शाखा के प्रबंधक बैंकों के आगे आने वाली एक परेशानी के बारे में भी बताते हैं. नाम न छापने की शर्त पर वे कहते हैं, ‘गेहूं की फसल की कटाई के बाद का समय कर्ज की वसूली का होता है, हम लोग लॉकडाउन की योजनाओं में पैसा बांटने के चलते उस ओर देख ही नहीं पा रहे हैं. ऊपर से प्रवासियों को नए कर्ज बांटने का आदेश भी आ गया है. अगर और कुछ महीने यही हाल रहा तो इस साल कर्ज की वसूली लगभग न के बराबर ही रहेगी और इसका नुकसान बैंकों को उठाना पड़ेगा.’
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) का हाल
बीते मई माह में केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की थी. इसे लेकर कई सवाल उठाये जाते रहे हैं. चर्चित अंतरराष्ट्रीय एजेंसी का कहना है कि इससे अर्थव्यवस्था पर तुरंत कोई प्रभाव पड़ने की उम्मीद नहीं है क्योंकि आर्थिक पैकेज में मौजूद घोषणाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा राहत से ज्यादा सुधारों पर केंद्रित है जिनका असर लंबी अवधि में दिखता है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी के मुताबिक ‘यह राहत का नहीं बल्कि कर्ज का पैकेज है.’ उनका कहना था, ‘सड़कों पर चल रहे प्रवासी मजदूरों को पैसे की जरूरत है, कर्ज की नहीं. जो किसान मुश्किल में है, उसे भी पैसा चाहिए, कर्ज नहीं.’
लेकिन इस पैकेज में कम से कम दो ऐलान ऐसे थे जिन पर किसी को शायद ही संशय हो. इनमें से पहला था जन-धन खातों में 31 हजार करोड़ रु देने का ऐलान और दूसरा था मनरेगा के फंड में 40 हजार करोड़ रुपये बढ़ाये जाने का प्रावधान. हालांकि जानकारों का मानना है कि ये जमीनी जरूरत से काफी कम हैं. आईआईएम अहमदाबाद की एसोसिएट प्रोफेसर रीतिका खेड़ा का भी मानना है कि सरकार ने आर्थिक पैकेज में तत्काल राहत देने वाले कदम न के बराबर उठाए हैं और जो उठाए हैं उनके लिए रखी गई कुल रकम जीडीपी की एक फीसदी भी नहीं है.
उधर मोदी सरकार का कहना है कि गांव-गांव लौटे प्रवासी मजदूरों को तुरंत रोजगार दिया जा सके इसलिए उसने मनरेगा के फंड में इजाफा किया है जो फिलहाल जरूरत के मुताबिक ही है. मनरेगा की स्थिति के बारे में जानने के लिए सत्याग्रह ने कई ग्रामीणों, ग्राम प्रधानों और इससे जुड़े अधिकारियों से बात की. सत्याग्रह से बातचीत में अधिकांश गांव के लोगों ने कहा कि इस साल अप्रैल से उनके यहां मनरेगा के काम में तेजी आयी है और बाहर से आये लोगों को भी इसमें शामिल करने का काम किया जा रहा है. ग्राम कोठे में भी हाल ही में बाहर से कुछ प्रवासी मजदूर लौटे हैं. ‘जो लोग बाहर से आये हैं, उन्हें मनरेगा के माध्यम से तुरंत रोजगार देने की व्यवस्था की जा रही है. राशन मुफ्त दिया जा रहा है, खाद्य सामग्री की किट भी दी गई है’ कोठे के प्रधान श्रीकांत अवस्थी इन मजदूरों को रोजगार देने के बारे में पूछने पर कहते हैं.
जरावन गांव के प्रधान पवन यादव मनरेगा का जिक्र करने पर एक और बात बताते हैं. उनके मुताबिक मनरेगा में पैसों का वितरण करने के मामले में भी अप्रैल के महीने से काफी तेजी आई है. ‘पहले मनरेगा में पैसा मिलने में तीन से चार महीने की देरी तक हो जाया करती थी जिसकी वजह से लोग मनरेगा में काम नहीं करना चाहते थे, लेकिन अब अप्रैल से पैसा देने में तेजी देखने को मिल रही है. अब हम लोग मजदूरों से जुड़ी कागजी कार्रवाई जैसे ही पूरी करके खण्ड विकास अधिकारी (बीडीओ) के ऑफिस में भेजते हैं, उसके चार से छह दिनों में पैसा आ जाता है.’ पवन यादव यह भी कहते हैं कि लॉकडाउन के दौरान सरकार की मंशा लोगों तक योजना का लाभ जल्द पहुंचाने की लगती है इसीलिए उसने रोजगार सेवकों की तीन-तीन सालों से रुकी हुई सैलरी भी लॉकडाउन के दौरान एक साथ भेज दी है जिससे वे उत्साह से काम कर सकें. गांवों में रोजगार सेवक ही मनरेगा से जुड़े सभी दस्तावेजों को तैयार करते हैं और इन्हें बीडीओ के कार्यालय तक पहुंचाते हैं.
शाहजहांपुर, बरेली और पीलीभीत के कई पंचायत अधिकारियों ने भी इस बात की तस्दीक की कि मनरेगा में अब शासन से पैसा आने में देर नहीं हो रही है. पीलीभीत जिले में सहायक विकास अधिकारी पंचायत (एडीओ) पुरूषोतम पांडे सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘इस समय पेमेंट मिलने में बिलकुल देरी नहीं हो रही है, खण्ड विकास अधिकारी कार्यालयों को फटाफट लखनऊ से पेमेंट रिलीज किया रहा है और इसलिए मजदूरों के खातों में भी तुरंत पैसा आ रहा है.’
उत्तर प्रदेश के एटा जिले में मनरेगा योजना के तहत काम करने वाले एक तकनीकी सहायक के मुताबिक मनरेगा के तहत होने वाले पेमेंट्स में अभी भी देरी तो हो रही है लेकिन यह पहले के मुकाबले काफी कम है. ‘पहले मेरी तनख्वाह आने में आठ-नौ महीने तक लग जाते थे लेकिन अप्रैल में यह दो ही महीने बाद आ गई. अभी दो महीने फिर से हो गए हैं और मुझे उम्मीद है कि इस बार भी शायद यह जल्दी ही आ जाएगी’ वे तकनीकी सहायक कहते हैं.
बीते महीने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मीडिया से बातचीत में कहा था कि अब प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के तहत काम देने के लिए बड़ा अभियान चलाया जाएगा. इस बारे में पूछने पर पुरूषोतम पांडे कहते हैं, ‘बाहर से आये लोगों को विशेष तौर पर मनरेगा के तहत रोजगार दिया जा रहा है, हर दिन उनकी गणना की जा रही है… जो इच्छुक हैं उन्हें तुरंत काम मिल रहा है.’ शाहजहांपुर में कार्यरत एडीओ राजेश शर्मा और ग्राम पंचायत अधिकारी संजय श्रीवास्तव भी सत्याग्रह से बातचीत में कुछ इसी तरह की बातें बताते हैं.
ग्रामीण इलाकों में सबकुछ सामान्य बल्कि पहले से अच्छा ही होने की बात को उद्योग जगत का एक हिस्सा भी स्वीकार कर रहा है. उसे उम्मीद है कि आने वाले समय में उनकी आर्थिक स्थिति और देश की अर्थव्यवस्था को ठीक करने में ग्रामीण इलाकों का काफी योगदान हो सकता है. कंपोजिट निर्माण मटीरियल्स प्राइवेट लिमिटेड के मैनेजिंग डाइरेक्टर अनुज सक्सेना बताते हैं, ‘अब हमारे बीच चर्चा ये चल रही है कि शहरी इलाकों को तो कोरोना वायरस के प्रकोप से संभलने में कुछ समय लगेगा, लेकिन गांव अभी तक इससे प्रभावित नहीं हुए हैं. ऐसे में हमें उम्मीद है कि आने वाले समय में गांवों से आने वाली मांग उद्योग जगत को काफी राहत दे सकती है.’
इटावा जिले के एक किसान राजेंद्र तिवारी, अनुज सक्सेना की इस राय से इत्तेफाक जताते हुए कहते हैं कि ‘यह समय वैसे भी कटाई का था जब कई लोग अपने गांव वापस लौट आते हैं. अगर सरकार ने लोगों के आसानी से समय पर लौटने की व्यवस्था कर दी होती तो उसे अब तक गांवों के बारे में शायद उतना ही सोचना पड़ता जितना वह सामान्य समय में सोचती है.’
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