एक वक्त था जब भारतीय क्रिकेट टीम में चार पारसी खिलाड़ी एक साथ खेला करते थे
सत्याग्रह ब्यूरो | 23 जून 2020 | फोटो: zoroastrians.net
क्रिकेट का खेल समंदर में बहता हुआ अंग्रेजों संग भारत आया और बहुत दिनों तक उन्हीं का होकर रहा. दूर देश में पराये जनजीवन और भारत की उष्ण-कटिबंधीय मौसम की ऊब से तंग आकर अंग्रेज नाविक और उनके साथी क्रिकेट खेला करते थे. हिंदुस्तानी टुकुर-टुकुर इस अजनबी खेल को देखा करते.
फिर हिंदुस्तान के समुद्री तटों पर खेले जाने वाले इस अंग्रेजी खेल का कुछ नौजवानों ने अपने तरीके से भारतीयकरण करना शुरु किया. भारत में पहली बार अंग्रेजों के इस बेहद नफासत भरे खेल में हाथ आजमाने वाले ये नौजवान पारसी समुदाय के थे. तब के बंबई और आज की मुंबई में अपनी परंपरागत पोशाकों में क्रिकेट की बारहखड़ी सीखते इन पारसी लड़कों ने ही भारतीय क्रिकेट की वह नींव रखी जिस पर आज टीम इंडिया नाम की क्रिकेट महाशक्ति की इमारत खड़ी है.
बंबई के पारसियों ने भारत में क्रिकेट की ऐसी शुरुआत की कि एक लंबे समय तक यह शहर देश के क्रिकेट का गढ़ बना रहा. हिंदुस्तान की आबादी में अपनी बहुत छोटी संख्या होने के बाद भी पारसी समुदाय ने केवल क्रिकेट का ढांचा खड़ा किया, बल्कि एक समय तो ऐसा था कि भारतीय क्रिकेट टीम में चार पारसी खिलाड़ी एक साथ खेल रहे थे.
लेकिन अतीत के इन पन्नों को पलटकर जब आप आज के भारतीय क्रिकेट पर नजर दौड़ाते हैं तो उसमें पारसी क्रिकेट समुदाय का प्रतिनिधित्व नगण्य नजर आता है. फारुख इंजीनियर आखिरी पारसी खिलाड़ी थे जो 1975 में भारतीय राष्ट्रीय टीम के लिए खेले. तब के बाद कोई भी पारसी खिलाड़ी भारतीय राष्ट्रीय टीम में जगह नहीं बना पाया. घरेलू क्रिकेट में भी ढूंढने पर इक्का-दुक्का पारसी नाम ही नजर आते हैं.
तो ऐसा क्या हुआ कि देश को क्रिकेट का पाठ पढ़ाने वाला पारसी समुदाय पूरे क्रिकेट परिदृश्य से बाहर हो गया?
इस सवाल का जवाब इतना आसान नहीं. इस जवाब को जानने की कोशिश में एक और सवाल उठता है कि आखिर भारत में अंग्रेजों की देखादेखी सबसे पहले क्रिकेट खेलना इस छोटी सी आबादी वाले समुदाय ने ही क्यों शुरू किया था. इसकी गहरी सामाजिक वजहें और मनोविज्ञान है. इस्लाम के तेजी से फैलने के बाद पारसी समुदाय जब फारस (आज का ईरान) से विस्थापित होकर इधर-उधर हुआ तो हिंदुस्तान आने वाले पारसियों ने यहां के तटीय इलाकों में अपना आसरा तलाशा.
पारसी समुदाय ने पश्चिमी भारत में रहना शुरू किया. उसने गुजरात के सूरत, अंकलेश्वर, नवसारी और भरूच जैसे शहर-कस्बों में अपना रोजगार जमाया. पारसियों ने व्यापार और वाणिज्य को अपना व्यवसाय बनाया. इसकी बड़ी वजह यह थी कि तत्कालीन हिंदू समाज में व्यापार को धर्म के लिहाज से हीन कर्म समझा जाता था और इस क्षेत्र में पारसियोंं को किसी खाास प्रतियोगिता का सामना नहीं करना पड़ा.
एक प्रवासी जिंदगी और व्यापार इस समुदाय को सत्ता के करीब ले आया. फारस से उजड़े पारसियों ने हिंदुस्तान में धीरे-धीरे एक आर्थिक ताकत पा ली. पीढ़ियों तक चली इस सामाजिक प्रक्रिया में एक तेज मोड़ तब आया जब अंग्रेजों के भारत आने के बाद बंबई ने सत्ता के एक नए केंद्र के रूप में उभरना शुरु किया. ‘ए कार्नर ऑफ फॉरेन फील्ड’ में इतिहासकार रामचंद्र गुहा एक लेख का उद्धरण देते हैं जिसमें कहा गया है कि पारसी उसी रफ्तार से गुजरात से बंबई आए जिस रफ्तार से बंबई अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक केंद्र के तौर पर उभरा.
रामचंद्र गुहा इसी किताब में लिखते हैं, ‘पारसी एक मध्यस्थ समुदाय था. उसने अपने ब़ड़े व्यापारिक फायदों के लिए अंग्रेजों से मित्रवत संबंध बना लिए. पारसियों ने बंबई में व्यापारी और कमीशन एजेंट के रूप में अपनी शुरुआत की. फिर उन्होंने कानून और औपनेविशक प्रशासन में भी अपनी जगह बना ली.’
अंग्रेजों से मित्रवत संबंध बनाने की यह प्रक्रिया कई आयाम लिए हुए थी. क्रिकेट से पहले ही बंबई का पारसी समुदाय अंग्रेजों के पहनावे, उनकी भाषा और संगीत को काफी हद तक अपना चुका था. अंग्रेजों से एकसार होने में क्रिकेट इस बदलाव की आखिरी लेकिन बेहद मजबूत कड़ी बना. हिंदुओं और मुसलमानों का अभिजात्य और सत्ता के सानिध्य की चाह रखने वाला वर्ग इन सारी चीजों में पारसियों से काफी पीछे था. वास्तव में हिंदुओं और मुसलमानों ने इन मामलों में पारसियों की नकल ही की. अंग्रेज शासकों से मैत्री की इस प्रक्रिया में पारसी समुदाय ने क्रिकेट खेलना शुरू किया, जिसका बाद में भारत के तमाम राजे-रजवाड़ों ने भी अनुसरण किया.
धीरे-धीरे बंबई में क्रिकेट पारसियों में इस कदर लोकप्रिय हो गया कि 1850 से 1860 के बीच शहर में कम से कम 30 पारसी क्रिकेट क्लब स्थापित हो गए. उस समय के प्रतिष्ठित पारसी सोराबजी शापूरजी ने घोषणा की कि इन पारसी क्लबों के बीच होने वाले मैचों में सर्वश्रेष्ठ पारसी टीम को नकद इनाम मिलेगा. धीरे-धीरे क्रिकेट का बुखार सामुदायिक भावना से आगे निकल गया. रामचंद्र गुहा लिखते हैं, ‘बेहद प्रतिष्ठित पारसी सर कोवासाजी जहांगीर बार्ट ने उस समय के अखबार ‘रस्त-गुफ्तार’ में विज्ञापन दिया कि वे हर उस आदमी को क्रिकेट किट देंगे जो इसके लिए आवेदन करेगा.’
पारसी समुदाय के क्रिकेट में इस कदर रुचि लेने का एक असर यह भी हुआ कि अब हिंदू और मुस्लिम समुदाय के प्रभावशाली लोग भी अपने समुदाय में इस खेल के विस्तार में मदद करने लगे. क्रिकेट सामुदायिक प्रतिस्पर्धा का जरिया बन गया. इसके अलावा धीरे-धीरे राजनीतिक लोग भी इस खेल के संपर्क में आने लगे. पारसियों ने भले ही अंग्रेजों के करीब रहने के लिए क्रिकेट खेलना शुरू किया था,लेकिन बाद में उन्होंने बंबई में अपने मैदान को लेकर अंग्रेज पोलो खिलाड़ियों से एक कानूनी लड़ाई भी लड़ी जिसमें उन्हें भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं का समर्थन भी मिला.
ब्रिटिश राज में मशहूर बंबई चतुष्कोणीय क्रिकेट मुकाबलों की शुरुआत ही पारसियों और यूरोपीय लोगों के बीच मैच से हुई. बाद में 1906 में हिंदूओं की टीम और फिर मुस्लिम टीम की एंट्री के बाद यह मुकाबला चतुष्कोणीय हो गया. खेलों में यूरोपीय खिलाड़ियों को पहली बार हराने की चर्चा होती है तो आमतौर पर फुटबॉल में मोहन बागान की ईस्ट यार्कशायर पर जीत को याद किया जाता है. लेकिन इससे काफी पहले ही पारसी खिलाड़ी क्रिकेट में यूरोप की टीम को हरा चुके थे. इस जीत की कम चर्चा की वजह जाने क्या है, लेकिन यह जीत बताती है कि पारसी केवल अंग्रेजों से मित्रता के लिए क्रिकेट नहीं खेल रहे थे और वे इसमें काफी दक्ष हो चुके थे.
धीरे-धीरे हालात बदलने शुरू हुए. भारतीय क्रिकेट के प्रतिनिधि के तौर पर पारसियों का एकाधिकार हिंदू और मुस्लिम टीमों के खेलने के साथ टूटने लगा क्योंकि ये बड़े और सामाजिक-राजनीतिक रूप से ताकतवर समुदाय थे. 1906 में हिंदू टीम की यूरोपीय टीम पर जीत के चर्चे क्रिकेट के शौकीनों के बीच आज भी होते हैं, लेकिन पारसियों की क्रिकेट में उपलब्धियों के बारे में उतना नहीं लिखा गया. 1886 और 1888 में पारसी क्रिकेट टीम ने ब्रिटेन का दौरा किया था. इस टीम ने वहां कई मैच खेले. भारतीय क्रिकेट के इतिहास में इसे पारसी टूर के नाम से जाना जाता है.
अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के जोर पकड़ने के बाद हिंदू-मुस्लिम समुदाय अपेक्षाकृत मुखर रहे. लेकिन कांग्रेस नेताओं से सहानुभूति होने के बाद भी आम पारसी अंग्रेजों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में असहज रहा. ऐसे में उस समय के अखबारों और लेखों में हिंदू और मुस्लिम टीम के प्रदर्शन के चर्चे खूब मिलते हैं, लेकिन पारसियों के उतने नहीं जितने चर्चों के वे अपने खेल के लिहाज से हकदार थे.
हालांकि इस सबके बाद भी पेशेवर पारसी क्रिकेट, हिंदू और मुस्लिम टीमों के साथ यूरोपीय खिलाड़ियों को टक्कर दे रहा था. 1932 में जब भारत ने अपना पहला आधिकारिक टेस्ट मैच खेला तो उस टीम में दो पारसी खिलाड़ी थे – फिरोज और सोराबजी. राजे-रजवाड़ों से सजी टीम में इन दोनों खिलाड़ियों के चयन को ज्यादा पेशेवर कहा जा सकता है. इसके अलावा जनसंख्या में एक बहुत सा छोटा हिस्सा होने के बाद भी भारत की पहली टेस्ट टीम में दो पारसी खिलाड़ियों की हिस्सेदारी बड़ी बात थी. इसके बाद लगातार पारसी क्रिकेटर टीम में अपनी जगह बनाते रहे.
1946 में रूसी मोदी ने लार्ड्स में इंग्लैंड के खिलाफ अपना टेस्ट डेब्यू किया था. हालांकि उन्हें पहला मशहूर पारसी क्रिकेटर बनाया रणजी ट्राफी में उनके धुआंधार प्रदर्शन ने. रूसी ने रणजी ट्राफी में बंबई के लिए खेलते हुए लगातार पांच शतक जड़े थे. इसके अलावा एक सत्र में एक हजार रन बनाने वाले वे पहले खिलाड़ी थे.
इसके बाद 1948 में भारतीय टीम में पॉली उमरीगर का आगमन होता है जो अपने दौर के महान क्रिकेटर थे. वे 1962 तक भारतीय टीम का हिस्सा रहे. उमरीगर ने 59 टेस्ट में 12 शतक लगाकर 3631 रन बनाए. वे इस बात के प्रतीक थे कि पारसी क्रिकेट भले ही किसी भी मकसद से शुरू हुआ हो, लेकिन समुदाय के खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर की दक्षता हासिल कर ली है. उमरीगर ने आठ मैचों में भारत की कप्तानी भी की. रूसी सुर्ती भी उन खिलाड़ियों में थे जो पारसी क्रिकेटरों का पेशेवर स्तर दर्शाते थे. हरफनमौला रूसी की तुलना महान क्रिकेटर गैरी सोबर्स से की जाती थी. उन्हें मजाक में ‘गरीबों का गैरी सोबर्स’ कहा जाता था.
60 के दशक की शुरुआत में पारसी खिलाड़ियों का प्रदर्शन इतना जबर्दस्त था कि एक समय टीम में चार पारसी खिलाड़ी हो गए थे. 1960-61 में पाकिस्तान के खिलाफ टेस्ट में पॉली उमरीगर और नरी कांट्रेक्टर पहले से ही थे. तभी रूसी सुर्ती ने भी इसमें जगह बना ली. ये तीन खिलाड़ी आगे भी कई मैचों में भारत के लिए एक साथ खेले. फिर फारुख इंजीनियर का चयन भी हो गया और भारतीय टीम में चार पारसी खिलाड़ी हो गए. हालांकि बाद में सुर्ती को इस टीम से ड्रॉप कर दिया गया. लेकिन फारूख इंजीनियर तब तक अपनी जगह पक्की कर चुके थे.
फारुख इंजीनियर भारतीय पारसी क्रिकेटरों में सबसे ज्यादा जाना-पहचाना नाम है. शानदार बल्लेबाज होने के साथ-साथ वे दक्ष विकेटकीपर भी थे. उन्हें देश का पहला विकेटकीपर बल्लेबाज माना जाता है. फारुख के बल्लेबाजी के मिजाज को इस बात से समझा जा सकता है कि एक मैच में उन्होंने 54 रन बनाए थे और नौ छक्के लगाए थे. यानी सारे रन छक्के मारकर ही बने थे.
जैसा कि पहले भी जिक्र हुआ, फारुख इंजीनियर जब टीम में थे तो एक वक्त टीम इंडिया में चार पारसी क्रिकेटर हो गए थे. लेकिन वह उत्थान शायद पारसी क्रिकेटरों के पराभव की भी शुरुआत थी. फारुख 1975 तक टीम का हिस्सा रहे और उसके बाद कोई भी पारसी भारतीय टीम का हिस्सा नहीं बन सका.
अब सवाल उठता है कि इतने गौरवशाली अतीत और एक समय तक भारतीय क्रिकेट टीम में दबदबा रखने वाले पारसी समुदाय का प्रतिनिधित्व शून्य कैसे हो गया? और वह भी ऐसे दौर में जब भारत में क्रिकेट लोकप्रियता की बुलंदियों को छू रहा था? क्रिकेट के जानकार मानते हैं कि इसकी पहली वजह तो पारसियों की बेहद कम जनसंख्या है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में पारसियों की मौजूदा जनसंख्या 80 हजार से एक लाख है. जाहिर है कि 126 करोड़ के देश में इतने छोटे समुदाय से अंतरराष्ट्रीय स्तर के क्रिकेटर निकलना आसान नहीं है.
लेकिन ऐसा तो पहले भी था जब पारसी समुदाय देश के क्रिकेट पर छाया हुआ था. तो फिर?
कइयों के मुताबिक इसकी वजह क्रिकेट के बदलते मिजाज में खोजी जा सकती है. भारत के पारसियों की बड़ी आबादी मुंबई में रहती है. भारतीय क्रिकेट में पारसियों और मुंबई का दबदबा एक दूसरे के सामांतर था. लेकिन 83 के विश्व कप की जीत के बाद क्रिकेट की लोकप्रियता जैसे-जैसे छोटे शहरों की ओर गई तो बंबइया क्रिकेट का दबदबा भी घटने लगा. टीम में बंबई की जगह उत्तर प्रदेश और हरियाणा के खिलाड़ी जगह बनाने लगे. क्रिकेट की अभिजात्य और शास्त्रीय पहचान कमजोर होती गई और इसमें संघर्ष और मौलिकता का रंग घुलता गा. बंंबई के टूटते दबदबे ने पारसी क्रिकेट पर भी असर डाला क्योंकि भारत में इस समुदाय की शक्तिपीठ तो यही शहर था.
कई साल पहले बॉम्बे पारसी पंचायट के तत्कालीन अध्यक्ष दिनशॉ मेहता ने समुदाय के युवाओं में खेलों के प्रति घटते रुझान पर चिंता जताई थी. निराशा का आलम यह था कि उन्होंने कहा था कि पारसी युवा मैदान पर आने के बजाय फेसबुक पर वक्त बिताना ज्यादा पसंद करते हैं. यह एक सामान्य और सरलीकृत वजह मानी जा सकती है. लेकिन इसका सामाजिक पहलू यह है कि अपने में संकेंद्रित व्यापार और नौकरीपेशा रुझान वाला मध्यमवर्गीय पारसी समुदाय क्रिकेट जैसे अनिश्चित भविष्य़ वाले पेशे में आने से बचने लगा है. क्रिकेट आज आपको सत्ता के करीब नहींं ले जाता बल्कि उसकी खुद की सत्ता है. लेकिन वह इसके लिए पूरा समर्पण मांगता हैै. गलाकाट प्रतिस्पर्धा में बीच का कोई रास्ता नहीं है. एक वर्ग के मुताबिक शायद इसलिए परंपरागत संरक्षणवादी मूल्यों में यकीन करने वाले पारसी समुदाय ने इस खेल में अपनी रुचि कम कर ली हैै.
नरी कांट्रेक्टर जैसे दिग्गज पूर्व क्रिकेटर इस बात को काफी पहले ही भांप गए थे. वे अक्सर अपने बयानों में कहते रहते थे कि पारसी संस्थाओं और क्लबों को पारसी क्रिकेट को बचाने के लिए आगे आना होगा. लेकिन शायद अब पारसी समुदाय भी क्रिकेट में वह प्रेरणा नहीं तलाश पा रहा है जो उसने पहले खोज ली थी. क्रिकेट को लेकर सामुदायिक रुचि इतनी घटी है कि कुछ साल पहले सिर्फ पारसी क्लबों के लिए होने वाले एक टूर्नामेंट में दूसरी टीमों को इसलिए प्रवेश देना पड़ा क्योंकि खेलने के लिए पर्याप्त पारसी क्लबों ने आवेदन ही नहीं किया था.
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